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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह



ढाचा

केशव राय को सबसे पहले यह खबर नीलकण्ठ से मिली। इसे सुनकर वे हैरान रह गये।

हां, यह सही है कि इसे सुनकर वे पहली बार कोई नाराज नहीं हुए थे। अचरज में अवश्य ही पड़ गये थे। अपनी नयी घरवाली की हेठी देखकर उन्हें जैसी हैरानी हुई थी-उसे वह झेल नहीं पा रहे थे और उन्होंने चुप्पी साध ली थी। लेकिन बाद में, गुस्से में आपे से बाहर हो गये थे। उन्होंने चीखते हुए कहा था, ''अच्छा...! तो वो हरामजादी अपने काले और कुबड़े भाई के भरोसे कोर्ट-कचहरी के खन्दक में कूद रही है। ठीक है... मैं भी उसे बता दूँगा कि मैं भी कोई ऐरा-गेरा नहीं, राघव राय का जना केशव राय हूँ?''

केशव राय ने जिसे हरामजादी की मर्यादित उपाधि दी थी, वह उनकी नयी पत्नी भले में ही दर्ज हों कानूनी तौर पर वह केशव राय के लिए एक आदरणीय महिला थीं। वह केशव राय के पिता राघव राय की दूसरी पत्नी थीं। नाम था कदम। बात यह थी कि अपनी वृद्धावस्था में राघव राय अपनी किसी पौत्री के विवाह में अपने एक मित्र के यहीं आमन्त्रित थे। माँ-बाप के मर जाने के कारण औरं कन्धे पर अपत एक अनाथ भतीजी के बोझ को सँभाल न पाने के कारण राघव राय ने उस लड़की से शादी कर ली थी। इस तरह घर वालों को कुछ बताये बिना उसे घर लिवा लाये। अपनी पत्नी के मर जाने के लगभग अठारह साल बाद उनके विधुर जीवन के अधःपतन की यह शुरुआत भर थी।

उनके बेटे केशव राय के भी तब चार-पाँच बच्चे हो चुके थे। केशव के मुकाबले कदम कोई पन्द्रह-साल छोटी थी।

यह विवाह, सचमुच बड़ा ही अटपटा और विचित्र-सा था। बाद में यह भी सुना गया कि कदम का बाप राघव राय के घराने से कुल-गोत्र में निचले स्तर का था। और यही वजह थी कि केशव राय अपने बाप की बुड़भस को कभी भी ऊँची निगाह से नहीं देख पाते थे। उनके पिता माधव राय गाँव-कस्बे के एक छोर पर रहनेवाली और गाने-बजानेवाली स्त्रियों को जिस तरह तफरीह की नजर से देखा करते थे, केशव राय के दिल में कदम की औकात लगभग वैसी ही थी।

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