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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह



शोक

दफ्तर जाने के लिए बाहर निकलकर फुटपाथ पर कदम रखते ही सामने डाकिया दीख गया। हाथ में चिट्ठी और पत्रिका। अपनी व्यस्तता के बावजूद उन्हें लेकर शक्तिपद को वापस लौटना पड़ा अन्दर की तरफ। इन्हें प्रतिमा के सामने पटक आना पड़ेगा। पघिका खोलकर देखने की जरूरत नहीं। जाहिर है कोई फिल्मी पत्रिका है.... 'छाया-कवि' -प्रतिमा के लिए उसके जी-जान से बढ़कर पत्रिका। हर बुधवार प्रकाशित होती है, बिला नागा।

चिट्ठी भी प्रतिमा के नाम है पोस्टकार्ड। चार-पाँच लाइनों में कुछ लिखा है......... चिट्ठी उसके मैके से आयी है......... वर्धमान से।

ऐसी उाफरा-तफरी में चिट्ठी तक पढ़ने की फुरसत नहीं। लेकिन चलते-चलते ही आँखें उन काली सतरों पर चली ही गयीं......... और इसके साथ ही शक्तिपद की दोनों आँखें जैसे पथरा गयीं। अपनी ठहरी और ठिठकी आंखों से ही उसने उन पंक्तियों को दोबारा पढ़ा.........इसके बाद फिर एक बार पढ़ा।

नहीं......इस खबर में सन्देह करने जैसा कुछ नहीं है। बात सच है और थोड़े से शब्दों मैं ही लिखा है.........। प्रतिमा के चाचा ने चिट्ठी लिखी है।

प्रतिमा की माँ नहीं रही।

चाचा ने तार भेजने की बात सपने में भी नहीं सोची थी। चिट्ठी में लिखा था :

''पिछली रात तुम्हारी माँ स्वर्ग सिधार गयीं। दो-चार दिन के बुखार में ही वे हम सबको इस तरह छोड़कर चली जाएँगी, हमने कभी यह सोचा तक नहीं था। हम सभी तो अनाथ हो गये हैं। भैया नहीं थे, अब भाभी भी नहीं रहीं। अब ले-देकर तुम्हीं हमारे लिए सब कुछ हौ। इसलिए पत्र पढ़ते ही चले आना और हमें धीरज बँधा जाना।

शक्तिपद में बाद की दो-तीन आशीर्वादात्मक पंक्तियाँ पढ़ने का हौसला रह नहीं गया.........। वह थोड़ी देर तक खड़ा रहा चुपचाप......क्या करे.........क्या न करे.........और ऐसी स्थिति में सिनेमा के पर्दे पर दौड़ने वाली तसवीरों की तरह ढेर सारी तसवीरें उसकी मन की आँखों के सामने तैर गयीं। ये तसवीरें सामने देखी हुई नहीं थीं...कल्पना में घूमने वाली तसवीरें थीं....। कलेजे को बींध जाने वाली इस खबर से प्रतिमा पर क्या बीतेगी और फिर शक्तिपद को किन-किन परेशानियों में से गुजरना पड़ेगा-उसकी एक धारावाहिक लेकिन बेतरतीब चित्र-शृंखला।

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