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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह



जादुई कलम

कृड़्.... ड़्.... कृड़्.... कृड़.... ड़्.... घण्टी... घनघना रही है।

इसने सबर करना नहीं सीखा....किसी का इन्तजार करना यह नहीं जानती। जल्दी दौड़े चले आओ....जल्दी से पकड़ो....उठाओ इसे, वर्ना चैन नहीं है....कान में सूराख कर देती है। एक पाँव में चप्पल....दूसरा पाँव नंगा, धोती का अगला सिर जमीन में लोट रहा है....तो भी सरोजाक्ष दौड़े चले आये और उन्होंने चलो उठा लिया। सरोजाक्ष घोषाल....बड़े ही रसिक वृत्ति के साहित्यकार।

जी हां....साहित्य-रसिक नहीं....रसिक साहित्यकार। यह कहना गलत होगा कि वे साहित्य रसिक नहीं हैं लेकिन उनकी प्रसिद्धि उनके रसिक साहित्यिक रूप को लेकर ही है। हास्य व्यंग्य के सम्राट् हैं। पत्र-पत्रिकाओं में लेखकों के बीच उनके नाम को देखकर सहज ही समझा जा सकता है कि ऐसी रचनाएँ निःसन्देह हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण होंगी। बड़ी मजेदार और कौतुकपूर्ण।

सरोजाक्ष घोषाल की बात चली नहीं कि छोटे-बड़े सभी लहालोट....। दूसरी तरफ सम्पादक भी उन्हें परेशान और व्यस्त क्यों न बनाये रखें भला? और सरोजाक्ष बाबू की कमजोरी यह है कि वह सम्पादकों का अनुरोध कभी नहीं टालते। उनके मित्रगण उनसे बराबर कहा करते थे कि ये सारी कहानियाँ अब अपने पास ही रखो भाई....वह कोई हास्य कहानी थी....इसे कौन पढ़कर दुखी हो? अरे भाई तुम्हारी तो पौ बारह है, गुड बॉय....खिल-खिल हँसे....मोती झरे। एक बूँद हँसी और मुट्ठी भर रुपया....वाह....भई....वाह....।

बाप रे....।

सरोजाक्ष बाबू के लिए, यह सब सुनने के बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता। और अब तो हँसने-हँसाने की इच्छा नहीं होती। इस जीवन में कोई गम्भीर रचना दे न पाया।

यह बात उन्होंने किसी सम्पादक को कही थी शायद। उन्होंने उनसे एक गम्भीर कहानी छाप देने की इच्छा व्यक्त की थी।

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