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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह



बेकसूर

''पांचू.........अरे तूने बुलाया क्या?''

''पींचू...बुला रहे हो.........तुम?''

बलराम साहा ने पीछे मुड़कर देखा। वैसे कोई किसी को नहीं देख रहा। तो भी उसने साफ-साफ सुना, 'साहा बाबू! साहा बाबू!'

काफी देर हो गयी थी इसलिए बलराम, जो केड्स जूते का तसमा कसकर बाँधे तेजी से पाँव पटकता हुआ वहार निकल रहा था.........अचानक रुक गया। खागड़ा बाजार में उसकी बर्तन की दूकान है......तीन पीढ़ियों से काँसा-पीतल के इसी कारोबार में है। घर से करीब तीन किलोमीटर पर है। पैदल ही जाता-आता है बलराम। दूकान से आते समय अगर कभी आकाश में बादल-विजली हो और कोई टोक दे कि रिक्शा पर चले जाइए साहा बाबू......... काफी लम्बा रास्ता है...... तो बलराम बाबू बगल में दबायी छतरी को निकालकर सर पर डाल लेते और कहते, ''भैया, जब रिक्शा-विक्शा नहीं था तब भी हमारे पुरखों-अभिराम साहा और हरिराम साहा-को मकान से दूकान तक का लम्बा रास्ता पैदल ही आना-जाना पड़ता था। और अब तो यह रास्ता पक्का बन गया है......पहले तो कच्चा ही था।''

बलराम के तेजी-से पैदल चले जाने के बाद लोग यही कहा करते थे कि खामख्वाह अपना-सा मुँह रह गया। पता था......वह किसी की नहीं सुनने वाला। अपने बाप की तरह ही एक बगहा है।

हालाँकि स्टील के बर्तनों के बाजार में आ जाने से दूकानदारी पर थोड़ा असर पड़ा है लेकिन कारोबार का कोई नुकसान नहीं हुआ है। पुराने ढंग के लोग-बाग अब भी बड़ी तादाद में हैं। इसके अलावा इन दिनों एक और नये ढंग का फैशन चल पड़ा है। शहर के 'अप-टु-डेट' कहे जानेवाले घरों में कमरे सजाने के लिए कई तरह की गढ़न के पीतल और कींसे के बर्तन, गिलास, कटोरी, तश्तरी, प्यालियाँ, फूलदान यहाँ तक कि लोटे भी खरीदकर ले जाते हैं। इसके अलावा बाहर के देशों से आनेवाले सैलानी भी ऐसे बर्तनों की छटा दैखकर ठगे-से रह जाते हैं और 'गेसबाटि', कमलाकार, लहरिया तश्तरी, नक्काशीवाले गिलास और झबरे डिब्बे खरीदकर ले जाते हैं। ये सारे नाम एक जमाने से चले आते रहे हैं तरह-तरह के आकार और पहचान के मार्फत।

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