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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


त्रिभुवन बाबू का खाना लगभग समाप्त होने को है और कमला को थोड़ा इतमीनान भी हो चला है....। उसे मालूम है कि जब तक यह आदमी खाना न खा ले, इस बात का हमेशा खटका लगा रहता है कि पता नहीं कब बोल दे, ''धत् तेरे की....नहीं खाना।''

जय को लेकर भी कमला कुछ कम परेशान नहीं रहती थी।

''वैसे जब रात हो जाएगी तो खा लूँगी,'' कहकर कमला त्रिभुवन बाबू के खाने के अन्त में नियमानुसार दो रोटियाँ और थोड़ा-सा गुड़ लाकर रख देती है।

लेकिन त्रिभुवन इस नियम का पालन करने की बात अचानक भूल जाते हैं।

''तुम्हें किसने कहा देने को...'' कहते हुए वह यकायक चीख पड़ते हैं।

विशु को, जो पढ़ने के लिए जा रहा था, पिताजी की बेतुकी चीख पर खड़ा हो

जाना पड़ा। उसने अबकी बार ऊँचे स्वर में कहा, ''जय तो कभी-कभी इससे भी देर करके आता है....आधी रात के बाद। आज ही इतनी जोर से चीखने-चिल्लाने वाली ऐसी क्या बात है!''

''मैं चिल्ला रहा हूँ!'' ऐसा जान पडा कि बेटे की डाँट खाकर त्रिभुवन बाबू एकबारगी बुझ गये। उन्होंने दबी जुबान में कहा, ''मैं चिल्ला कब रहा था? ठीक है...खा रहा हूँ।'' और डसके साथ ही थाल को अपनी तरफ खींच लिया और बड़े ही बेतरतीब ढंग से रोटी के वड़े-बड़े टुकड़े मुँह में डालने लगे।

यह आदमी तो बस नाम का ही त्रिभुवन था। यह आदमी जो कभी बड़ी शौकीन तबीयत का था, अपने नाम के साथ मेल बनाये रखने के लिए ही उसने अपने बेटे का नाम रखा था-विश्वभुवन और जयभुवन।

* * *

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