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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह



नागन की पूँछ

किसी जूते की दूकान के रैक पर जिस तरह जूते के डिब्बे रखे रहते हैं, उसी तरह से एक-दूसरे से गुँथे हुए, एक ही आकार के रेलवे क्वार्टर्स के ये मकान देखने में ऐसे कुछ खास नहीं थे, पर जब एक कतार में खड़े उन मकानों में से एक खास नम्बर वाले मकान के सामने यह रिक्शा रुका तो कानन को लगा, ऐसा खूबसूरत मकान उसने जीवन में पहले कभी देखा ही नहीं था।

मकान इस समय पूरे तौर पर खुला था, खाली था। जाड़े की आखिरी साँस भरती ठण्डी हवा बरामदे और आँगन के बीच आख-मिचौली खेल रही थी।

इसी खाली मकान को एक तरफ कानन, अपने साज-सामानों से भर देगी, बर्तन-बिस्तर कपड़े और असवाबों से...और दूसरी तरफ कानन को भरपूर कर डाला खुद मकान ने।

यह मकान कानन का...उसके अकेले का है।

बिलकुल अपना।

कानन और अनिमेष का।

यह मनोभाव कितना सुखदायी है। यह बरामदा, यह आँगन, रसोईघर...और...ये दो-दो सोने के लिए कमरे, सब...सब कुछ कानन का? पूरा एक साम्राज्य...इसके अलावा और क्या?

रिक्शा सै उतरते ही कानन ने मकान का कोना-कोना देख डाला। एक बार, दो बार, तीन बार। उसके चेहरे पर शिशु-सुलभ उत्सुकता थी...शिशुओं-सा आनन्द। रिक्शावाले की मद से सारा सामान अन्दर रखवाकर अनिमेष उसे किराया चुका रहा था, जव बौखलायी-सी कानन दौड़ी-दौड़ी आयी-''सुनते हो!...जल्दी से यहां आओ, देखो एक चीज देख जाओ!''

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