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तथापि

प्रमोद त्रिवेदी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1997
आईएसबीएन :81-263-1221-1

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास...

Tathapi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘तथापि’ उपन्यास हिन्दी के कवि हृदय कथाकार की एक ऐसी रचना है जिसने अपने समय, समयगत द्वन्द्व, संवेदना, स्वप्न, संकल्पों और चुनौतियों को अधिक प्रखर बनाया है। यही एक ऐसा लैंस है जिसके माध्यम से तथापि का यह आख्यान अपने समय को एक भिन्न लीला-समय में देखने की चमत्कारी और तृप्तिदायक अनुभूति कराता है।
कालिदास के मेघदूत का मार्ग वक्र होते हुए भी सरल है,पर ‘तथापि’ के यक्ष का मार्ग वक्र ही नहीं,खतरनाक भी है। इसी पर चलते हुए वह मुक्त होता है, अपनी दासता से। वह अपनी ग्रन्थियों से भी मुक्त होता है और स्वतन्त्रता का जिस तरह वरण करता है वह हमारी समकालीनता में आज के हिन्दी उपन्यास से ‘तथापि’ को अलग करता है। एक क्लासिक्स की छाया में लिखी गयी यह कृति अपनी मर्यादा में अपनी जमीन का विस्तार कुछ इस तरह करती है कि ‘मेघदूत’ की पिछवई भी धूमिल होती चली जाती है।
‘तथापि’ एक कवि के गद्य की उपज है। यह कवि-दृष्टि ही है जो इस उपन्यास के साथ न्याय कर सकी है। यह कवि-दृष्टि ही एक अनुकूल कथाभूमि आविष्कृत कर सकी और ऐसे कथापात्रों को भी,जो अपने में साधारण होते हुए भी असाधारण हैं। दूसरे शब्दों में,कल्पित होकर भी वे हमारे बीच के ही नहीं,हम जैसे ही लगते हैं।
‘तथापि’ में दो समय रचे गये हैं, जो हमें एक तीसरे समय में ले जाते हैं और वह तीसरा समय जितना रम्य है उतना तप्त भी है।

भूमिका
मार्ग

एक उम्र होती है, जब हर एक में बड़ी चुनौतियों को स्वीकार करने और सब कुछ कर गुजरने की धुन रहती है। एक समय था, जब नाट्य-लेखन और रंगकर्म ने मुझे अपनी ओर पूरी तरह से खींच लिया था। तब लगता था, नाटक और रंगविधान ही सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का एक मात्र माध्यम है। उज्जैन के हवा-पानी और डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य की संगति ने इस सोच को और गहरा किया। यों चस्का तो बचपन में ही लग गया था। वह ‘लरिकाई’ का प्रेम था।
धीरे-धीरे यह भी समझ में आने लगा कि रंगकर्म एक पूर्णकालिक कर्म है। व्यक्ति की सर्जनात्मकता के साथ असीम धैर्य, सहनशीलता और व्यावसायिकता का समन्वय ही रंगकर्मी का चरित्र है। नाटक—(अपना लिखा नाटक) मंचित करने-करवाने के लिए स्मारिका प्रकाशित करना, विज्ञापन जुटाना, अन्य साधन एकत्रित करना, टिकिट बेचना-बिकवाना, भीड़ जुटाना, अभिनेता-अभिनेत्रियों के नख़रे उठाना। प्रचार और अनुकूल सीमाएँ लिखवाना-छपवाना यह सब भी रंगकर्म का ही हिस्सा है। इतना सब मेरे बूते का नहीं है, इस अपूर्व ज्ञान के बाद मैंने रंगकर्म से ‘नमस्कार’ कर लिया। आत्मबोध हुआ कि वही काम करना चाहिए जो मैं स्वाधीन होकर कर सकता हूँ और जिसमें किसी का भी हस्तक्षेप न हो। कविता में थोड़ी गति थी, इसकी थोड़ी समझ भी तो यही इलाका मुझे अपना लगा और अनुकूल भी। गद्य लेखन में तो मैं काफी बाद में आया। हाँ, अच्छे नाटक देखने की ललक आज भी कम नहीं हुई।
कुछ पारिवारिक संस्कार, कुछ सोहबतें, बचपन में पढा गया अच्छा और रोमांचकारी गद्य और इन सबसे ऊपर स्व. श्री नरेश मेहता का सान्निध्य और उनकी ‘सदिच्छा’ ने गद्य की ओर इस तरह धकेल दिया कि लगने लगा- अब तक की सारी तैयारी गद्य लेखन के लिए ही चल रही थी ! स्व. नरेश जी ने ही एक बार मुझसे कहा था—‘‘अच्छा कवि ही अच्छा गद्य लिख सकता है।’’ या अच्छा गद्य लेखक, अच्छा कवि भी होता है।’’ इसके साथ ही वह अपने इस कथन में यह जोड़ना भी नहीं भूले कि—‘‘अच्छा गद्य लिखना आसान काम नहीं है।’’ पता नहीं अब तक मैं ‘अच्छा गद्य लेखक और अच्छा कवि हो भी पाया या नहीं...। ‘‘अच्छा गद्य ही ‘प्रतिष्ठित’ करता है।’’ उनका यह कथन भी ‘आकर्षक’ और ‘प्रेरक’ रहा। रही बात प्रतिष्ठा की, तो अपने बारे में ‘प्रतिष्ठा’ को लेकर कभी कोई भ्रम नहीं रहा।

उज्जैन ने मुझे सब कुछ दिया। कहने को लोग कुछ भी कहें पर मुझे तो इससे बेहतर कोई स्थान नहीं लगता। यहाँ रहकर आप चुप चाप अपना काम करते रहिए, कोई दखल नहीं देता। आप कुछ भी न करें तो आप को कोई कोंचता भी नहीं। यह ऐसी जगह है जहाँ रहते हुए समय की कमी की शिकायत नहीं की जा सकती। यहीं रहकर मैं महत्त्वपूर्ण लेखकों, विचारकों और रंगकर्मियों के सम्पर्क में आया। यहीं रहकर मुझें सर्जनात्मक दृष्टि मिली। बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला। यदि मैं उज्जैन में न बसकर कहीं और बसा होता तो और जो कुछ भी होता, आज जो और जैसा हूँ, वैसा तो नहीं ही होता। अच्छा या बुरा इसी उज्जैन ने बनाया।
डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य के आत्मीय नैकट्य में ही लगभग तीस वर्ष पहले एक काव्य नाटक लिखने का जोश जगा था। खूब बातें होती थीं प्रभात जी से और दूसरे रंगकर्मियों से। पात्रों के चारित्रिक विकास पर, इनके अन्तस्सम्बन्धों पर, द्वन्द्व पर, भाषिक संरचना पर खूब लम्बी-लम्बी बहस होतीं। नये-नये नक्शे तैयार होते। नाटक लिखा जाता और लिख गया खारिज हो जाता। सच तो यह है कि क्लासिक्स से मैं जितना दूर भागता, उतना ही मैं इनका दबाव महसूस करता था। प्रभात जी तब तक ‘अभिशप्त यक्ष’ लिख चुके थे। बाद में यही नाटक ‘काठ महल’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। ‘प्रेत शताब्दी’ और ‘आगामी आदमी’ उसी काठ महल के ही अगले सोपान हैं। मेरे काव्य नाटक का नायक भी कालिदास के ‘मेघदूत’ का यक्ष ही था और मेरा यक्ष, प्रभात जी के नाट्य-त्रयी के यक्ष का मुकाबला कर ही नहीं सकता था। फिर बहुत से दबावों में, जिनमें रचनात्मक दबाव भी कम नहीं थे, एक काव्य नाटक ‘कापुरुष’ लिखना ही पड़ा। इससे रचनात्मक तृप्ति मिली। सोचता हूँ, जो हुआ ठीक ही हुआ।

कुछ संकल्प तत्काल पूरे न हों तब भी मन की गहराइयों में बने ही रहते हैं। अब इतने वर्षों बाद उस अनलिखे काव्य नाटक का एक उपन्यास के रूप में सामने आने का कुछ तो अर्थ है ही। शायद नाटक के शिल्प में पूरी तरह से भी न्याय नहीं हो पाता। पर तब तो उपन्यास, लिखने की कल्पना करना भी असम्भव था। अतः यह मान लेना चाहिए कि कोई रचनात्मक संकल्प मूर्त होने के लिए इतनी लम्बी प्रतीक्षा भी कर सकता है। हाँ, तब के नाट्यानुभव और नाट्य युक्तियों ने इस उपन्यास लेखन में बहुत मदत की है। शायद दूसरे और तमाम लेखन के बीच यह उपन्यास भी भीतर-ही-भीतर पकता रहा।
उज्जैन में रह कर कालिदास के ‘मेघदूत’ से ‘खिलवाड़’ करने का दुष्परिणाम क्या हो सकता है, यह भय ही मन में कम नहीं था। कालिदास ने यक्ष को अपने उपन्यास ‘तथापि’ का यक्ष बनाना चुनौतीपूर्ण था। ‘मेघदूत’ के यक्ष का चरित्र और उसकी कथा भिन्न है और ‘तथापि’ के यक्ष की माँग कुछ अलग थी। बल्कि कुछ ज्यादा ही। ‘मेघदूत’ का लक्ष्य और उसका मार्ग वक्र पथ होते हुए भी सरल और स्पष्ट है पर उसी पर चलकर मुक्ति मिलना आसान नहीं है। मेरे यक्ष को कालिदास का यक्ष होकर भी अपनी एक अलग कथा रचनी थी, अपनी मर्यादा में रहते हुए। यह कालिदास का यक्ष होते हुए भी मेरा यक्ष था, बल्कि मेरा ही। यह मेरे अपने समय का यक्ष था। दो समय का अद्भुत सर्जनात्मक द्वन्द्व ! कालिदास कहीं अवरोध थे तो सहायक भी। इस तरह वो प्रसन्न ही थे। पूरी रचनावधि में लगातार तनाव बना रहा। मुझ पर भी और इस लेखन पर भी ।
आरम्भ यही सोचकर किया कि देखते हैं, क्या होता है। न कुछ में से ही एक कथानक या कथा-स्थितियाँ निकलती गयीं चमत्कार की तरह ! शिल्प भी तय हुआ। अनुशासन में ही स्वतन्त्रता खोजी गयी और मिली भी। फैण्टेसी का सहारा लिया। यथार्थ और फैण्टेसी के यौगिक का परिणाम है—‘तथापि’ आरम्भ यही सोचकर किया था कि देखें क्या होता है। कुछ होता भी है या नहीं ! बात नहीं बनी तो बेहिचक मान लूँगा कि न सही कोई रचना, रचना का यह अभ्यास भी बुरा नहीं है।
काव्य में सामान्यतः कवि कभी एकदम सीधे तो कभी किसी आड़ में स्वयं को प्रस्तुत करता है। कविता उसके लिए निमित्त हो जाती है। ‘मेघदूत’ में महाकवि कालिदास ने यक्ष के माध्यम से अपनी ही विरह-वेदना व्यक्त की हो तो यह स्वाभाविक ही है। अब यह कवि की क्षमता पर निर्भर करता है कि अपनी वेदना को कितनी व्याप्ति दे पाता है। पर कोई भी लेखक कथा की सृष्टि करते हुए अनिवार्यतः नेपत्थ में जाता है। उसके लेखन में उसका जितना कम हस्तक्षेप होगा और कथा पात्रों, स्थितियों से जितना ज्यादा जुड़ाव होगा, वह कथा-कृति उतनी ही अधिक व्यापक और ग्राह्य होगी।

कविता के लिए तो इतनाभर काफी है कि एक दशा और परिस्थिति में पूरी ऊर्जा के साथ संवेदना अभिव्यक्त हो जाए। संवेदना की माँग के अनुरूप भाषा में पूरी ऊर्जा के साथ। पर कोई कथा रचते हुए इतने भर से कथाकार का काम नहीं चलता। उसे तो पूरी एक सृष्टि ही सृष्ट करनी होती है। ‘मेघदूत’ में कालिदास विभाजित हुए भी तो यक्ष के विरह की मनोभूमि और मेघ के यात्रा-पड़ावों के मार्मिक विवरणों में। यही बात यह सोचने को भी बाध्य करती कि विरह में डूबे यक्ष का अपने विरह से यह विचलन क्यों कर हुआ ? मेघ के यात्रा-पथ के निर्देश और आग्रह क्या यक्ष-संवेदना की सान्द्रता को कम नहीं करते ? क्या ऐसा तो नहीं कि कवि का रचना कौशल, विरह के मानक को साधते हुए अपनी रचना क्षमता के नये आयाम उद्घाटित कर रहा है ? यदि ऐसा ही है तो ‘मेघदूत’ रचना से अधिक कवि-कौशल है और ऐसा नहीं है तो यह फाँक कवि-कर्म को थोड़ा तो कमजोर बनाती ही है। फिर भी इस कृति को यदि इस तरह डूबकर पढ़ने और सराहनेवाले आज भी हैं तो मानना ही चाहिए कि इसमें कुछ बात तो है और वह कालिदास की कृति है।
‘तथापि’ के लेखन का विचार आया तो एक कथा-विन्यास की पड़ताल शुरू हुई। एक ऐसे कथा-विन्यास की जो दो भिन्न समयों और भिन्न परिवेश को इस तरह जोड़े कि कोई संघ दिखाई न दे। इसी कोशिश में रामगिरि की भूमि पर एक कथा की उपज हुई और दूसरी अलकापुरी की भूमि पर। यक्ष इस उपन्यास में अपनी मेघदूतीय काव्यात्मक विरह वेदना से बाहर निकला। रामगिरि में होकर वह रामगिरि के समाज का जितना हो सकता था, हिस्सा हुआ तो औपन्यासिक चुनौतियाँ आसान होती चली गयीं। अलकापुरी को कथानक में प्रस्तुत करने में उतनी कठिनाई नहीं थी। मेघ दोनों भूमियों के बीच एक मजबूत कड़ी बना। ‘मेघदूत’ में मेघ जहाँ काव्याभिव्यक्ति के लिए निमित्तभर है ‘तथापि’ में इसकी भूमिका भिन्न है। इसलिए यह इस उपन्यास का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। वही यक्ष को यथार्थवादी और व्यावहारिक बनाता है। मेघ की कुछ गुत्थियों को सुलझाया तो उलझाया भी। यदि ‘तथापि’ की ही केन्द्रीय भूमि है तो केवल मेघ की ही है। कालिदास ने तो मदद की ही। हर बड़ा कवि अपने लिखे में ही आने वाले समय के कवियों के लिए भी कुछ जगह छोड़ देता है। मुझे भी थोड़ी कोशिश में ‘मेघदूत’ में जगह मिल गयी। इस भराव के बाद भी कोई दृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति अपने लेखन के लिए इसी में नयी जगह फिर खोज ही लेगा। यही एक बड़ी रचना का लक्षण है।

हर लेखन अपने समय का साक्ष्य होता है। जब भी कोई मिथक रचना में प्रवेश पाता है या रचा जाता है तो लेखक के समय और संवेदना को अधिक प्रखर और ग्राह्य बनाता है। ‘तथापि’ भी यक्ष की उपस्थिति में हमारे समय का एक आख्यान है। और यदि यह आख्यान हमारे समय का नहीं हो सका है तो इस मिथक के रचे जाने का कोई अर्थ नहीं है और न ही लेखन का कोई मूल्य। देखना अपने समय को ही है, पर एक लेंस बीच में है और इसके जरिए वह सब देखने की एक कोशिश है जो रेंज के बाहर होकर भी स्पष्ट दिख नहीं रहा है। कोशिश अन्ततः यही कि जो दिख है सर्जक को, वह ठीक वैसा ही पाठक को भी नजर आए। हर लेखक चाहता है यही है कि पाठक रचना को वैसा ग्रहण करे जैसे लेखक ने सिरजा। वह कितना सफल-असफल हुआ, यह निर्णय पाठक का है और वही सर्वोपरि भी। कई बार ऐसे प्रयत्न (मिथकीय सृजन ) बाधक भी हो जाते हैं। लेखक भी मोहग्रस्त हो जाता है। लेखक के अपने काम कर चुकने पर उसकी भूमिका समाप्त हो जाती है। इसके बाद रचना है और पाठक।
जैसे ही इस उपन्यास का पहला प्रारूप तैयार हुआ है, मैं इससे सन्तुष्ट कम और आतंकित ज्यादा हुआ । अपना ही लिखा पढ़ जाने की हिम्मत तक जुटा नहीं पा रहा था, यह होड़ किससे और कैसी ? क्या यह लेखन किसी उन्माद में किये गये काम का प्रतिफल भर तो नहीं है ? फिर लगता, जो कुछ होता है, आवेश में ही होता है। कभी लगा, यह तो सारे लेखकीय अनुभव का निचोड़ है पर ऐसे भ्रम मुझमें ज्यादा टिकते नहीं हैं। इसी बेचैनी में मैंने अपने इस बेहरतीव से उपन्यास को डॉ. प्रभातकुमार भट्टाचार्य को एक दिन सौंप दिया।
मैं जानता हूँ, प्रभात जी से कुछ भी पढ़वा लेना आसान नहीं है। किसी का यदि कुछ पढ़ेंगे तो अपना समय लेकर। पढ़ भी लिया तो जरूरी नहीं कि अपनी राय दें ही। उन्हें कोई बाध्य नहीं कर सकता। राय दी भी तो जरूरी नहीं कि यह क्रिटिकल ही हो। मैंने उनसे इतना भर कहा कि—‘‘बस एक नजर भर डाल लें इस पर और यदि जहाँ भी अपठनीय लगने लगे, वहीं छोड़ दें।
खैर उन्होंने इसे पूरा पढ़ लिया और आश्चर्यजनक रूप से जल्दी ही पढ़ लिया। तब भी वे इस पर बात करने को तैयार नहीं हुए। बस—‘आजकल-आजकल’ होती रही। मैं मन ही मन समझ गया कि जो बात पैदा होनी थी लेखन में, पैदा नहीं हो सकी। ‘‘न हो सकी तो न सही, छोड़ो। कुछ किया तो यही सन्तोष’’, चाहे वह किया धरा सन्तोषजनक न हो।
...और एक दिन अचानक प्रभात जी घर आए। इधर-उधर की तमाम बातें कीं। हँसी-मजाक हुआ। न हुई तो मेरे लिखे पर कोई बात। अपनी मनपसन्द चाय पी और जाते-जाते एक लिफाफा थमा दिया। बाद में उनका लिखा जब पढ़ा जो केवल पत्र नहीं था। विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा पत्र उन्होंने मुझे लिखा है। जीवन में ऐसी खुशी कम ही मिलती है जो उस खत को पढ़ कर मिली मैंने प्रभात जी से वादा किया है कि उस पत्र का एक भी शब्द अपनी तरफ से सार्वजनिक नहीं करूँगा। करेंगे तो वे ही करेंगे। मैं आज भी उस बचन से बँधा हूँ। अस्तु-

मैं एक और व्यक्ति का उल्लेख करना जरूरी समझता हूँ और वह हैं देवास के मेरे अग्रजवत् नवगीतकार-नईम। नईम भाई—को ख़तो-किताब में जो महारत हासिल है, वैसी मेरी जानकारी में औरों में बहुत कम है। पत्रों के अलावा नव गीत पर दो-चार आलेख लिखने के अलावा नईम ने कुछ गद्य लिखा, इसकी जानकारी कम से कम मुझे तो नहीं है। मगर हाँ मार-मारकर दूसरों से गद्य लिखवा लेने की जो महारत उन्हें है, वैसी दूसरों को नहीं है। ‘तथापि’ के ‘मोक्ष’ के लिए भी वे पीछे ही पड़ गये और लिखवाकर ही दम लिया।
मेरा अब तक का लिखा गद्य किसी गहरे अवसाद की उपज है। ‘आह से उपजा होगा गान’ की तरह ही। कह सकते हैं, ऐसा लम्बा लेखन ही मेरे अपने गहरे अवसादों से उबरने का साधन है। इस उपन्यास के लेखन की अवधि में मैं कैसे-कैसे तनावों से घिरा था, उसकी तफसील में जाने की जरूरत नहीं। पर मेरा ‘मोक्ष’ भी इसी लेखन से सम्भव हो सका। कामना यही करता हूँ कि अब तो कम से कम ऐसा न ही हो।
मेरी पत्नी वसुमती अब पूरी तरह मान चुकी है कि—यह व्यक्ति सिवा लिखने के कुछ और कर ही नहीं सकता, जबकि कई बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ सिर पर हैं। मैं पूरी तरह नाकरा सिद्ध हो गया हूँ तो क्या करूँ ? वह जितनी मुझसे परेशान है, उससे भी कहीं ज्यादा मेरे-‘कबाड़’ को लेकर। वह इसे सहेजे भी तो कितना और कब तक ? मैं तो जैसे घर को कबाड़खाना बनाने को ही आमादा हूँ। उसके—‘कान्तासम्मित उपदेश’ भी कारगर नहीं हुए। उसने भी शायद अब हार मान ही ली है। मैं भी हूँ और मन ही मन क्षमा-प्रार्थी भी....
बचपन में पिताजी के मुख से ‘श्रीमद्भागवत’ सुनना अनिवार्यता थी। अवज्ञा का अर्थ था उनका कोपभाजन। खेलने के उन दिनों में भागवत्-कथा सुनना दण्ड की तरह ही था, पर उसी दण्ड ने मुझे कथा रस में डुबाया भी। कई बार इसी तरह जो ग्रहण करते हैं, वही हमारे संस्कार का अंस बन जाता है, कथा रचने का गुण शायद अपने पिता जी से ही प्राप्त हुआ। यही नहीं, विपरीत ध्रुव पर जाकर नकारने की ज़िद भी विकसित हुई।
मेरे अब तक जितने भी गुरू रहे-अक्षर ज्ञान करवाने वाले स्व. असगरअली से लेकर छोटे बड़े सभी, जिनसे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कुछ न कुछ सीखा, उम्र के इस पड़ाव पर अब मुझे उन सभी के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करनी है। मित्रों का आभार मानना है, जो मेरे तुनकमिजाजीपन के बावजूद प्रेम करते रहे, मिताई निबाहते रहे हैं।
हर लेखक की कामना होती है कि उसका लेखन (जो लेखक की अपनी निगाह में श्रेष्ठ ही होता है) किसी अच्छे प्रकाशक के माध्यम से अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचे। अच्छा प्रकाशक मिलने से लेखन और लेखक को प्रतिष्ठा तो मिलती ही है। मेरा भी एक स्वप्न रहा है कि कभी मेरी कोई कृति ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से भी प्रकाशित हो। ऐसा होना मेरे लिए उसी सूची में सम्मिलित होने का अवसर है, जिसमें हिन्दी और तमाम भारतीय भाषाओं के महत्त्वपूर्ण लेखक सम्मिलित हैं। मैं भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय के प्रति कृतज्ञ हूँ कि इस उपन्यास के प्रकाशन से मेरा वह स्वप्न अब पूरा हो रहा है।

एक

‘‘एक अनजान सी जगह में रहना, रहना नहीं होता, बस दिन काटना होता है। इतना समय हो गया, यहाँ रहते हुए पर इस भूमि से, यहाँ के लोगों से रिश्ता नहीं जुड़ सका। देह यहाँ है और मन वहाँ अलकापुरी में। जो छूट गया या जिसे छोड़ना पड़ा, मन उसी में रमा है और जो पास है, उसका मेरे लिए कोई अर्थ नहीं। अपनी अलकापुरी से मैं अपेक्षित हूँ और यहाँ कि मैं उपेक्षा कर रहा हूँ। इसलिए मैं न तो यहाँ का हूँ और न वहाँ का। यही मेरी त्रासदी है। यदि मुझे सदा-सदा के लिए निर्वासन मिल गया होता तो धीरे-धीरे मैं इस भूमि से, यहाँ के लोगों से, उनके रंग-ढंग से जुड़ जाता। पर मुझे तो फिर अपनी भूमि पर अपने लोगों के बीच ही लौटना है, इसलिए यहाँ से जुड़ने की मानसिकता ही नहीं बन पाती। यहाँ के प्रति लगाव ही पैदा नहीं हो पा रहा। एक गहरी फाँक पैदा हो गयी है मुझमें। और यह चैन से नहीं रहने देती है। मैं आधा यहाँ और आधा वहाँ। याने मैं न यहाँ और न वहाँ।
यहाँ मैं अब उन हर छोटी से छोटी चीजों को याद करता रहता हूँ, जो वहाँ रहकर कभी याद ही नहीं आयी। याद करता रहता हूँ रह-रहकर उन बातों को जिनका तब कोई महत्त्व ही नहीं रहा। नगण्य-सा, सब कुछ परिस्थितिवश भी किस कदर महत्त्व प्राप्त कर लेता है और अब तो मैं ऐसी घटनाओं-सन्दर्भों में सिमट कर रह गया हूँ। मेरा तो अब अपना अस्तित्व ही नहीं रहा। जो कुछ घेरता है, मुझे निरन्तर तोड़ता है। इस टूटन और बिखराव में समय गुज़र रहा है और मैं किसी और ही समय से गुज़र रहा हूँ। तमाम छाप हैं, मुझपर समय की। बस, अपने इस वर्तमान की ही कोई छाप नहीं है। ’’
‘‘मुझे यहाँ से जाना है। एक-एक क्षण गुजरता है तो लगता है, इस अभिशप्त अवधि का एक-एक क्षण कम हो रहा है। ये लोग मेरे अपने नहीं हैं—यह परायापन मुझे यहाँ का होने ही नहीं दे रहा। वहाँ कम बन्धन थे ? यहाँ मैं पूरी तरह स्वाधीन हूँ, पर मैं स्वाधीनता का अनुभव क्यों नहीं कर पा रहा ? कैसी है यह स्वाधीनता ? क्या यही दण्ड है, जो यक्षपति ने मुझे दिया ? कितना यातनामय !
भले लोग हैं यहाँ के। अलकापुरी से भिन्न है यहाँ की संस्कृति। जब इन्हें मालूम हुआ कि मैं यहाँ इस एकान्त में टिका हूँ, कुछ दिनों से कुछ ग्रामवासी आये। मुझ अनजान व्यक्ति ने अपनापन जताया। आग्रह किया कि मैं यहाँ अकेले नहीं, उन सबके बीच और सबके साथ रहूँ। मैं अतिथि था, इसलिए देवतुल्य था उनके लिए। मैं-देवतुल्य !!! कितने भोले हैं ये लोग। मैंने उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया था। मुझे कोई मतलब ही नहीं था। तब भी उन्होंने बुरा नहीं माना। मनुष्यता के बारें में सुना अवश्य था। यहाँ अनुभव किया। हम मनुष्य तो हैं नहीं। हम तो कुछ अलग ही हैं इनसे।
अब भी अकसर कोई न कोई आ ही जाता है, मेरा हाल लेने के लिए। अपने सामर्थ के अनुसार कुछ न कुछ लेकर ही आता है, जब भी कोई आता है यहाँ। ये मुझें कोई सिद्ध पुरूष मानते हैं। मैं और सिद्ध पुरूष, इससे बढ़कर हास्यास्पद बात भला और कुछ हो सकती है ? मैं इन्हें क्या बताऊँ ? क्या समझाऊँ इन्हें ? वास्तविकता यदि जान भी लें, तब भी इन्हें फर्क नहीं पड़ेगा !’’

‘‘....मैं एक विरही प्राणी। मैं कुछ हूँ, यह अनुभव भी मुझे अलकापुरी से निर्वासित होने के बाद यहाँ आकर ही हुआ। वरना मैं तो अपने स्वामी का सेवक भर था। सेवक भी नहीं, उसका क्रीत दास। कुबेर की व्यवस्था का नगण्य-सा अंश। जैसे किसी यन्त्र में अनेक कलपुर्ज़े होते हैं, मैं भी ऐसा ही एक पुर्ज़ा। मुझे सक्रिय तो सतत रहना था, पर श्रेय तो यन्त्र को ही मिलता है। पुर्ज़े पर किसका ध्यान जाता है ? मुझे अलग किया और मेरे जैसे किसी और को लगा दिया गया। कल उसे निकाल दिया जाएगा। और ...यन्त्र गति शील रहे, तन्त्र केवल इतना चाहता है। यही है हमारी नियति। मैं नहीं तो कोई और वह नहीं तो...
मैं यहाँ आकर वैसा पुर्ज़ा नहीं हूँ, यह कितना बड़ा फर्क है कि मैं अपनी धड़कनों को अनुभव कर रहा हूँ...
‘धनपति’ यहा कोई संज्ञा नहीं, बस एक विशेषण बोधक शब्द है। जो भी इस शब्द का वरण कर लेता है, उसका स्वभाव और व्यवहार बदल जाते हैं। दृष्टिकोण बदल जाते हैं। वह व्यक्ति मनुष्य को मनुष्य नहीं समझता। उसके अलावा शेष सभी कृमि कीट! जो कुछ है वही है। जितना कुछ है, सब उसके लिए है। उसके आश्रित। उसके अनुग्रह पर निर्भर।
इस शब्द-‘धनपति’ के मुल में तो ‘धन’ ही है। यही व्यक्ति को औरों से अलग करता है। उसे वर्चश्वी बनाता है। धन से एक व्यवस्था विकसित होती है, धन जितना प्रतिष्ठित होता जाता है। व्यवस्था उतनी ही सुदृढ़ होती जाती है। मनुष्य को यही व्यवस्था दो वर्गों में विभाजित कर देती है। जो शोषित हैं, उनका सत्त्व हरण होता है। इस व्यवस्था में और वे व्यक्तित्वहीन होते चले जाते हैं। मुझे ही लें, मेरा भी कोई नाम न था भला-सा। पर अब मेरी पहचान इतनी भर ही रह गयी कि मैं केवल धनपति का अनुचर। नहीं, एक दण्डित-अभिशप्त अनुचर !
कितने-कितने मिथक निर्मित हो जाते हैं। होते चले जाते हैं। नहीं, तन्त्र ऐसे मिथक को जो धनपति को गौरवान्वित करते हैं, उन्हें बहुत ही सुनियोजित ढंग से प्रचारित करता है। तन्त्र उसके प्रभा-मण्डल के विस्तार में जुट जाता है, पूरी तत्परता के साथ अपने शीर्ष पुरूष की छवि बनाने में। इस चकाचौंध में वह सब नहीं दिखाई देता, जो सच है, कठोर और कारूणिक!
धनपति होकर व्यक्ति सारे नियमों से परे हो जाता है। समर्थ व्यक्ति का दोष, भी दोष नहीं माना जाता। उसके मुँह से जो कुछ निकला, वही विधान है। जो दण्ड-विधान, वही उस तन्त्र की व्यवस्था। यह व्यवस्था सबसे पहले व्यक्ति की वाणी का हरण करती है। उस बेआवाज़ व्यवस्था को सुव्यवस्था कहा जाता है। और ऐसे ही शासन को सुशासन। इस तन्त्र की प्रशस्तियाँ चारण-बन्दीजन उपमा, रूपक और अतिशयोक्ति से सजी भाषा में करते हैं। समाज में यही गुणगान इतिहास कहलाता है। भीत लोग या तो इस जय-घोष में सम्मिलित हो जाते हैं या भागकर कन्दराओं में छुप जाते हैं। व्यवस्थाएँ कुल मिलाकर ऐसे ही चलती हैं।’’
‘‘मैं कुबेर का उद्यानपाल था। उसके उद्यान को देख-रेख का दायित्व मुझ पर था। मैंने परिश्रमपूर्वक पूरी निष्ठा से यह कार्य किया। सब कुछ ठीक ही चल रहा था।

एक दिन कहा गया, मेरी असावधानी की वजह से राजोद्यान में इन्द्र का ऐरावत घुस आया और उसने पूरा उद्यान उजाड़ दिया। मुझे तो ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आया। मैं सेवक ही तो था, और सेवक की जबान नहीं होती। मुझ पर अभियोग लगा मुझे अभियोग स्वीकार करना ही था, मैंने किया।
अच्छा, मान लेता हूँ ऐसा ही हुआ, तब भी क्या मेरी बिसात थी कि मैं देवराज इन्द्र के ऐरावत को रोक लेता ? मेरी छोड़िए, यदि मेरे अधिपति स्वयं उद्यान में होते तो क्या वे उसे रोक पाते ? हर व्यवस्था सोपान की तरह होती है। मैं अपने स्वामी के अधीन था तो मेरे स्वामी इन्द्र के अधीन। दोष अधीनस्थ में ही देखा जाता है। व्यवस्था के अनुरूप मुझे तो उद्यान की रक्षा करते हुए प्राण-उत्सर्ग कर देना था। मेरा यह उत्सर्ग तब स्वामी-भक्ति और कर्तव्य-निष्ठा का एक दृष्टान्त बन जाता। एक व्यवस्था के लिए उनके अनुचर के प्राण का क्या मूल्य ? मैंने ऐसा नहीं किया, इसी का दण्ड है यह। अगर मैं किसी तरह उस गजराज को रोक लेता तो क्या मुझे दण्ड नहीं मिलता ? तब अभियोग कुछ अलग होता, पर होता अवश्य।
कहा यह भी गया कि उद्यान में ऐरावत के प्रवेश की बात मिथ्या थी। मेरा दोष यह था कि मैंने अपने दायित्व का निर्वाह ठीक से नहीं किया। मेरी नियुक्ति इसलिए हुई थी कि अपने स्वामी के पूजन के लिए मुझे प्रतिदिन मानसरोवर में कमल पुष्प लाने होते थे। उस दिन स्वामी अपने आराध्य को कमल-पुष्प अर्पित कर रहे थे, तभी एक पुष्प में बन्दी भँवरे ने अपना डंक गड़ा दिया। मुझ पर अभियोग लगा कि अपनी प्रिया की आसक्ति में मैंने कर्तव्य पालन की अवहेलना की और ताजे खिले कमल-पुष्प न लाकर रात के बासी कमल ले गया।
ये दो अलग-अलग अभियोग हैं, कौन-सा सही, कौन-सा गलत, पता नहीं। क्या दोनों ही गलत तो नहीं ? ऐसा तो नहीं कि बात कोई तीसरी ही हो ? अब यह बात मेरे मन में बार-बार उठने लगी है कि हो सकता है, स्वामी को हमारा प्रेम, प्रेम में इतनी तल्लीनता न सुहाई हो ? लगा हो, एक क्रीत-दास को प्रेम करने का भला क्या अधिकार ? सेवक के तो केवल कर्तव्य होते हैं। उसे तो सोते-जागते, सपने में भी अपने दासत्व का बोध होना चाहिए-इतना लगाव है पत्नी से, इतना अनुरक्त है तो भुगत, अपने किये की सज़ा । भुगत अब यह वियोग...। तू ही क्यों, तेरी पत्नी भी तो उतनी ही सहभागी है, इस अपराध में। इसलिए दण्ड भी दोनों को मिलना चाहिए। बल्कि उत्तरदायी तो उसका रूप है, जिसने तुझे कर्तव्य से विमुख कर दिया। इतना दुःसाहस !
बिना प्रतिभाव के वाद सिद्ध हो गये। दोनों अपराधी, दोनों का समान दण्ड। एक को निर्वासन, दूसरे को पहले से अलग-थलग करके घोर एकाकीपन झेलने की यातना। इसे कहते हैं, एक पत्थर से दो शिकार।
यह है अधिपति का न्याय।’’
‘‘इसे अभिशाप कह लें यह दण्ड, इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। बस, मैं सर्वहारा जरूर हो गया।
माना, मैं कुबेर का अनुचर था, पर ऐसा गया-गुजरा भी नहीं था।

कुबेर के भव्य राजप्रासाद के उत्तर में मेरा निवास स्थान था। इन्द्रधनुष के समान सतरंगा तोरण लोगों का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लेता था। इसके एक ओर मेरी पत्नी के स्नेह-जल से सिंचित बढ़ता-पनपता मन्दार वृक्ष था—नन्हा-सा। एक बावड़ी थी। उसकी सीढ़ियाँ मरकत-खचित थीं। उसमें स्वर्ण कमल खिलते थे। राजहंस इस बावड़ी में क्रीड़ा करते इतने मगन रहते थे कि उन्हें मानसरोवर जाने की इच्छा ही नहीं होती थी। इसी बावड़ी के किनारे एक क्रीड़ा-पर्वत भी था। जिसका शिखर इन्द्रनील मणियों से निर्मित था। इसके चारों ओर कदली वृक्ष। इसी क्रीड़ा-शैल में कुरबक की बाड़ से घिरा, मोतियों से सजा एक मण्डप, पास में रक्त अशोक। दूसरी ओर मौलश्री-बकुल। इस रम्यता के बीच सोने से बनी छतरी। उस पर आकर बैठता नीलकण्ठी मयूर !
यह था मेरा वैभव। एक दास, कुबेर के अनुचर का वैभव। यह थी, मेरी सौन्दर्य-दृष्टि। भला मेरे स्वामी को यह क्योंकर सहन होता कि एक ना कुछ-सा अनुचर उससे होड़ ले। एक सेवक को हमेशा एक सेवक की तरह ही रहना चाहिए, अपनी मर्यादा में। किसी भी स्वामी को यही सुहाता है। यही उसकी मानसिकता होती है। कुबेर को भी मेरा वैभव खटका हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। फिर भी धनपति मेरे स्वामी थे और मैं उनके सामने, उनके वैभव के सामने टिक ही नहीं सकता था।...मेरे पंख कतर दिए गये। जो भी था, उस सबसे मुझे वंचित कर दिया गया। और अब मैं यहाँ अपनी भूमि उपनी प्रिया, अपने समाज से इतनी दूर, सबसे वंचित इस वीराने में अपना सब कुछ खोकर एक नितान्त सर्वहारा।’’
‘‘अब मैं सोचने लगा हूँ—जो कुछ हुआ, एक तरह से अच्छा ही हुआ। यहाँ रहकर अब तक के सोचे से मैं कुछ अलग तो सोचने लगा। मैंने पहले तो कभी इस तरह सोचा ही नहीं—न अपने बारे में, न ही किसी और के बारे में। अपने स्वामी की चाकरी करते, उनकी आज्ञा का पालन करते हुए मेरी सोच की परिधि अपने दायित्व-निर्वाह की थी या अपनी प्रिय पत्नी के साथ सुख-भोग तक सीमित। एक बिन्दु पर भय था तो दूसरे बिन्दु पर आसक्ति। इन्हीं दो छोरों के बीच जीवन गतिमान था।...यह सच ही है, हम जिसका अन्न खाते हैं, हमारी मति भी वैसी ही हो जाती है। परिवेश की हमारी जीवन दृष्टि और सोच की दिशा तय करता है। एक सिमटा हुआ दायरा, नगण्य-सी सुविधाएँ, एक धुँधलापन, उसमें टिमटिमाते दो-चार तारे, साँस लेने भर को हवा। इतने भर में सबकुछ सिमट गया था। सबसे बड़ी और अहम बात यह है कि अपनी स्वतन्त्रता को खो चुकने का बाद क्या बच रह जाता है ? कुछ भी तो नहीं। पर जब कभी, किसी वजह से हम अपने उस सीमित, बँधे-बँधाये संसार या कि अपनी कारा से बाहर आते हैं या कर दिए जाते हैं तो खुलेपन में हकबका जाते हैं। बाहर के उजास में आँखें चुँधिया जाती हैं। बन्धन का अलग तरह का भय, तो खुलेपन का भय भी अपनी तरह का वह भी कम नहीं।
मैं चाहकर तो इस रामगिरि पर नहीं आया। अपने जाने पहचाने समाज से दूर यहाँ फेंक दिया गया। एक भयभरी संवादहीनता में...।’’

‘‘यह भी मनुष्य का स्वभाव ही है—वह नितान्त भिन्न परिवेश में धीरे-धीरे कुछ तालमेल बिठा ही लेता है। इतने दिनों यहाँ रहते हुए मैं यहाँ का अभ्यस्त होता जा रहा हूँ। कभी-कभी अलकापुरी की यादें बहुत बेचैन कर देती हैं। तब भी मुझे रहना यहीं है। यहाँ कि जलवायु वहाँ से भिन्न, मिट्टी भिन्न, वनस्पतियाँ भिन्न, इसलिए यहाँ के वातावरण की सुगन्ध भी भिन्न। वहाँ देह से उठती सुगन्ध की सघनता थी। यहाँ वातावरण की सुगन्ध है। इसका प्रभाव भी भिन्न। वहाँ के स्फुरण से यहाँ का स्फुरण भी भिन्न है। सब कुछ नया-नया है, जो रोमांचित करता है।...अब यहाँ आकर लगने लगा है कि हर प्रसंग कुछ छीनता है तो नया कुछ देता भी है। उस एकरसपन से अलग यह अनुभव मुझे एक तुलनात्मक नहीं, आलोचनात्मक दृष्टि दे रहा है। सच कहूँ तो यहाँ जो कुछ नयापन है, उसमें बहुत कुछ अच्छा भी है। कभी-कभी मैं इसी तरह सोचता हूँ।’’
‘‘अपनी प्रिया से बिछुड़कर अब मैं उसकी सुन्दरता का आकलन करने लगा हूँ। मेरा अखेट करते उसके वे नयन-बाण, उसकी वो घनेरी केशराशि जो सारी उपमाओं को सार्थक बनाती थी। कभी मैं उसके मुख को कमल कहता था और स्वयं कमल-सा खिल जाता था। तो क्या उसका मुख-सूर्य था ? मैंने तो उसे चन्द्रमुखी कहा ! तो...? उसके मुख-मण्डल पर मँडराती अलकावली कभी मेघ लगती थी तो कभी भ्रमर। वह हँसती थी तो लगता, मालती पुष्प झर रहे हैं। उसकी वाणी संगीत थी। उसके...। अरे ! मैं तो कविता करने लगा ! सच ही कहा है, वियोग व्यक्ति को कवि बना देता है। अपनी प्रिया की सामीप्य में कभी उसे, उसके नयनों को, उसकी केशराशि को, उसके मुख को, मुख को घेरती-घिरती अलकावली को, उसकी हँसी के पुष्प-प्रपात को देखने, नहीं, इस तरह अनुभव करने और कल्पना की उड़ान भरने का मुझे कभी अवसर ही नहीं मिला ! ‘प्रेम अन्धा होता है।’ नहीं, वह प्रेमी क

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