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हास्य-व्यंग्य >> जो घर फूँके

जो घर फूँके

ज्ञान चतुर्वेदी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :282
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1999
आईएसबीएन :81-263-1224-6

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प्रस्तुत है उत्कृष्ट हास्य व्यंग्य संग्रह....

Jo Ghar Phooke

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जो घर फूँके

‘‘आप इस बात को भले न जानें और अच्छा है कि इससे एक हद तक बिरत रहें कि आज व्यंग्य रचना के अद्वितीय पूर्वजों के बाद आपके ऊपर हिन्दी के विवेकी पाठकों का ध्यान सबसे ज्यादा है।..मेरी कामना है कि हिन्दी की परम्परा में आप एक ध्रुवतारा की तरह चमकें।’’
ज्ञान रंजन
‘‘वर्षों से मेरी यह दृढ़ धारणा रही है कि हिन्दी व्यंग्य के इलाके में शरद जोशी के बाद शैली की श्रेष्ठतम ऊँचाई का नाम ज्ञान चतुर्वेदी ही है। अपनी डी.लिट्. के लिए सम्पन्न शोधकार्य में मैंने जो कुछ लिखा है, उसका यही सारांश है।’’
बालेन्दु शेखर तिवारी
व्यंग्य को हल्के-फुल्के विनोद से अलगाकर एक गम्भीर रचनाकर्म के रूप में स्वीकार करने वाले नये व्यंग्यकारों में ज्ञान चतुर्वेदी का उल्लेखनीय स्थान है।.....उन्होंने चालू नुस्खों की बजाय भारतीय कथा की समृद्ध परम्परा से अपने व्यंग्य की रचनाविधि को संयुक्त किया है।...बेतालकथा की तरह रूपक, दृष्टान्त और फैण्टेसी के माध्यम से उन्होंने समकालीन विसंगतियों के यथार्थ को अपेक्षाकृत अधिक व्यापक और प्रभावशील ढंग से प्रतिबिम्बित किया है।
डॉ.धनंजय वर्मा
‘‘आपकी स्फुट रचनाओं में बड़ी ताजगी है और दर्जनों तथाकथित व्यंग्यकारों की कृतियों के विपरीत उनकी अपनी विशिष्टता भी।’’
श्रीलाल शुक्ल
‘‘काश, हिन्दी में कुछ और ‘ज्ञान’ होते। एक अकेला चना...। लेकिन मैं उसे चना भी नहीं कहूँगी। यह तो नश्तर-सा चुभता है, बारूद-सा फटता है। कलम इतनी पैनी, इतनी धारदार, सटीक, ‘गलत’ को एकदम लथेड़ देती हुई। तल्खी कहाँ तक जा सकती है ! उतनी ही मारक और बेधक भी।.....’’
सूर्यबाला

कैफियत

पिछले दिनों मैंने खूब लिखा।
और बढ़िया ही लिखा (मुझे तो कह लेने दें।)
बीच के वर्षों में उपन्यास लिखते हुए तथा व्यंग्य कालमों के लिए निरन्तर सिकुड़ती जा रही जगह-और उस सँकरी-सी जगह में भी निरन्तर ट्रेश लिखा जाता देखने के कारण, व्यंग्य कथाएँ या लेख लिखने की तरफ से मन उचट-सा गया था। ऐसे में, प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने ‘ज्ञानोदय’ में नियमित कालम लिखने को दिया। मैं यह मानकर चला था कि मेरे आलस्य तथा अनियमित लेखन की आदत के कारण पांच-छः माह में ही यह बन्द करना पड़ेगा। परन्तु स्वयं मेरे लिए आश्चर्य की बात यह रही कि अचानक मैं बेहद नियमित होकर लिखने लग गया और वो सब बातें करने लग गया जो मेरे चरित्र तथा जन्मपत्री के खिलाफ जाती थीं। जैसे कि मैं खूब लिखने लग गया। इसी बीच ‘इण्डिया टुडे’ में भी नियमित लिखने का प्रस्ताव मिला। यहां दिक्कत निश्चित लम्बाई की रचना लिखने की थी-जबकि यहाँ आदत वर्षों से लम्बी रचनाएँ लिखने की थी और यह पता ही नहीं था कि छोटी रचना में कोई ढंग की बात कर भी पाऊँगा अथवा नहीं। मैंने यह भी करके देखा। ठीक ही रहा। कर गया। इस तरह खुद के बारे में बहुत सी बातें पता चलीं जो मैं जानता ही नहीं था।
सो इस तरह पिछले दिनों में जो लिखा, उसमें से कुछ रचनाएँ यहाँ जा रही हैं। इन रचनाओं में मैंने विषयगत तथा शैलीगत निर्वाह के स्तर पर बहुत नया करने की कोशिश की है। पाठकों को यह कोशिश पसन्द आ जाये तो प्रयास सफल कहाएगा। वैसे, स्वयं मुझे लगता है कि इन रचनाओं में मैं अपने पुराने रचना समय से काफी अलग हूँ। पता नहीं कि आप क्या कहते हैं !

इन नयी रचनाओं के साथ, सात-आठ पुरानी रचनाएँ भी देने का लोभ संवरण नहीं कर सका हूँ। जिन्होंने इन्हें पहले अन्यत्र पढ़ा हो, वे गाली देने को स्वतन्त्र हैं।
-ज्ञान चतुर्वेदी

भूगोल को समझना

भूगोल मुझे कभी समझ में नहीं आया। स्कूल में भूगोल को लेकर मेरा स्पष्ट दृष्टिकोण था कि भाड़ में जाने दो स्साले को। गाँव के हमारे स्कूल में नकल की उचित तथा लगभग विधि-सम्मत सुविधा थी तथा भूगोल वाले मास्साब दूर के रिश्ते में हमारे मामा लगते थे, सो भी भूगोल कोई विशेष समस्या रही नहीं कभी। परीक्षा में पास होने लायक भूगोल की चिटें हमने तैयार कर ही ली थीं और वस्त्रों में जिस जगह छिपाकर हम उन्हें रखकर परीक्षा में नकल के महती उद्देश्य के साथ बैठते थे, उस जगह का उल्लेख किसी भूगोल की किताब में नहीं था। सो, जब मास्साब अक्षांश-देशांश रेखाएँ, लाल सागर, भूमध्य रेखा, कर्क रेखा, दक्षिणी गोलार्द्ध, उत्तरी गोलार्द्ध, अमेजन का कछार, सुन्दरवन का डेल्टा, पठार, घाटियाँ, वन आदि के अकादमिक तिलिस्म में भटकते फिरते थे, तब हम होनहार छात्रगण पीछे की टाटपट्टी पर बैठे इस सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करते रहते थे कि प्रार्थना के समय बटोरे गये अधजली बीड़ी के टुकड़ों में से बड़ा टुकड़ा किसको मिलेगा ? स्कूल के इण्टरवल में हम वहाँ छुपकर सामूहिक धूम्रपान करते थे, जहाँ का भूगोल हमारे भूगोल के मास्साब को भी ज्ञात नहीं था। मुझे पता नहीं कि भूमध्य रेखा से वह जगह कितनी दूर थी कि जहाँ हमारा सरकारी मिडिल स्कूल स्थित था और मुझे यह नहीं पता था कि हम अपने हेडमास्टर साहब के हाथों पृथ्वी के गोलार्ध में पिट रहे थे अथवा दक्षिणी गोलार्द्ध में-परन्तु यह बात स्पष्ट है कि जब मुझे भूगोल पढ़ना तथा समझना चाहिए था, तब मैं नितान्त अभौगोलिक किस्म की हरकतों में मुब्तिला था।

मैं ही क्यों, मेरे समस्त मित्रों की यही स्थिति थी। दरअसल हमलोगों की दिलचस्पी गाँव के भूगोल में ही इस कदर थी कि शेष पृथ्वी का भूगोल हमें उसी प्रकार अप्रासंगिक प्रतीत होता था कि जिस प्रकार हमारे आलोचक प्रवरों को अपनों की रचनाओं के अलावा अन्य लेखकों की रचनाएँ लगती हैं। किसी को सन्नाकर पत्थर मारने के उत्तरदायित्व से निबटने के तुरन्त बाद गाँव की इस गली से भागकर किस गली में पहुँचकर अदृश्य हुआ जा सकता है या गाँव के किस बगीचे में इस समय जुआ चल रहा होगा, या कि हेडमास्साब का छाता या जूता स्कूल के पिछवाड़े किस गढ्ढे में फेंकना निरापद रहेगा-ये तथा इसी प्रकार की अन्य भूगोल विषयक मेरी जानकारियाँ जबरदस्त थीं, परन्तु आस्ट्रेलिया में कौन-सी पैदावार सर्वाधिक होती है, या कि मानचित्र में नर्मदा को कहाँ से कहाँ तक खींचा जाए, ये तथा ऐसी बातें मेरी समझ के नितान्त परे थीं। विश्वबन्धुत्व की जो भावना आप मुझमें कूट-कूटकर भरी पातें हैं, उसका एक कारण वास्तव में भूगोल की यह दुष्कर पढ़ाई भी है; मुझे विश्व का मानचित्र एक-सा दीखता था। मुझे तब भी यही लगता था कि यह सारा संसार एक क्यों नहीं हो जाता ताकि विश्व के मानचित्र पर विभिन्न देशों को पहिचानने की इस अर्वाचीन समस्या से छुटकारा प्राप्त हो सके !

मैं आज भी प्रायः विचार करता हूँ कि आखिर क्योंकर मुझे भूगोल कभी समझ ही नहीं आया ? कारण क्या थे ? वे कौन-सी परिस्थितियाँ थीं जिन्होंने मुझे भूगोल से विमुख किया ? भूगोल की किताब देखकर ही उसे फाड़ने-छिपाने या जलाने की तीव्र आकांक्षा मुझे आज भी क्यों उठती हैं ? क्यों भूगोल का मास्टर देखकर मैं आज भी घबरा जाता हूँ और क्यों ऐसा होता है कि किसी भी नक्शे को समझकर चलना शुरू करूँ तो कहीं भी नहीं पहुँच पाता ? ये तथा इसी भाँति के भाँति-भाँति प्रश्न उठा करते हैं आजकल मेरे मन में। इन दिनों जब मैं अखबार में पढ़ता हूँ कि फलाने लातिन अमरीकी देश में पुनः किसी ने किसी का तख्ता पलट दिया, या स्केण्डीनेविया (या ऐसी ही किसी-नेविया) का कोई राज्याध्यक्ष आकर राजघाट पर पुष्प चढ़ाकर और हमारे देश को शान्ति का पुजारी बताकर सीधे पाकिस्तान गया (जहाँ वह यही बताएगा) अथवा कहीं तूफान या भूकम्प आया, या कहीं कोई सम्मेलन हुआ जहाँ जैसा कि होता आया है, हमारा कोई प्रतिनिधिमण्डल पहुँचा, जिसका, जैसा कि होता आया है, बड़ी गर्मजोशी से स्वागत हुआ-ये, तथा ऐसे समाचार पढ़कर दो प्रश्न मेरे पापी मन के भूगोल में भटकने लगते हैं। एक तो यह कि यह स्साला स्केण्डीनेविया है कहाँ, भारत से कितने किलोमीटर पड़ेगा, यहाँ से किस दिशा में कैसे लाना होगा, किराया कित्ता लगेगा, टीए डीए क्या मिलेगा ? और वहाँ ऐसा है क्या कि कोई शरीफ मनुष्य अथवा प्रतिनिधिमण्डल वहाँ जाए ? स्पष्ट है कि मैं ऐसे अवसरों पर समझ ही नहीं पाता कि किस जगह की चर्चा चल रही है तथा हाट पिपल्या या भाण्डेर या खिलचीपुर से तुर्की अथवा कुवैत किस भाँति भिन्न हैं ? और इसी पहले प्रश्न से तब दूसरा प्रश्न जन्म लेता है कि मैं आज तक भूगोल को क्यों नहीं समझ पाया ?

सत्य तो यह है कि प्यारे अपुन को यह भूगोल कभी जमा ही नहीं। सही मायनों में कहें तो अपनी रुचि तो कभी पढ़ाई के किसी भी विषय में रही ही नहीं। गणित तो खैर किसी को भी समझ नहीं आता तथा नागरिकशास्त्र में जो पढ़ाया जाता है, वह नागरिक को अच्छा नागरिक बनने में मदद करता हो, ऐसा देखा नहीं गया है-परन्तु फिर भी इन समस्त विषयों में भूगोल का स्थान सर्वोपरि रहा। मेरी रुचि तो सदैव ही यार की गली के भूगोल में रही। कहाँ से मुड़ना है यार के बाप को देखते ही किस कचरापेटी के पीछे सुरक्षित छिप सकते हैं कितने अक्षांश पर उसका छज्जा है और मौके पर कैसे उस गली के किस रास्ते को पकड़कर किस दिशा में छू होना, यह मुझे सदैव ही कठण्स्थ रहा। मैं नेत्र मूँदकर भी वहाँ जा सकता था।...और जहाँ तक नदियों का प्रश्न है तो नदियों में हमारी रुचि उसी हद तक रही कि चाँदनी रात में नौका विहार पर सुन्दर-सा निबन्ध, या ओ माँझी रे, हैया रे हैया, अथवा कैसे जाऊँ जमुना के तीर आदि। नदी कहाँ से निकलती है, उसका ‘कोर्स’ क्या है तथा कैसे वह समुद्र में मिलने से पूर्व डेल्टा बनाती है-ये नीरस तथा शुष्क बातें मेरे रसिक मन को ऐसी पीड़ा देती रही हैं कि मानो कोई ज्ञानीजन प्रेमिका का पोस्टमार्टम करके उसका दिल, जिगर और गुर्दा हाथ में लेकर श्रृंगार रसकी चर्चा करने का प्रयत्न कर रहा हो ! हमें ऐसी नदी में कभी दिलचस्पी नहीं हुई कि जो मात्र मानचित्र पर उकेरी गयी एक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा भर हो ! इसी कारण भूगोल मुझे कभी समझ ही नहीं आया। फसलों, किसानों और मौसम-चक्र आदि का जिक्र आते ही मुझे सदैव ही ‘दो बीघा जमीन’ और प्रेमचन्द याद आते थे, तथा अक्षांश-देशांश रेखाओं के सन्दर्भ में मुझे हमेशा आज भी दूसरी रेखाएँ याद आती हैं जो मोहल्ले में रहती हैं, या रही हैं या फिल्मों में काम करती हैं..मैंने बहुत पहले यह जान लिया था कि मैंने भूगोल समझने के लिए जन्म नहीं लिया है। बल्कि मुझे तो यहाँ तक लगने लगा था कि मैंने भूगोल को न समझने हेतु ही जन्म लिया है।

परन्तु इन दिनों दुनिया और देश की स्थिति देखकर मुझे लगने लगा है कि भूगोल का समुचित ज्ञान लेना अत्यन्त आवश्यक था।
मुझे ज्ञात होना चाहिए था कि हमारा देश जिस देश से कर्ज ले रहा है, है किधर है ? भीख किस दिशा में बँट रही है ? बम किस दिशा से गिरेंगे और भूगोल के किस खण्ड को इतिहास बनाने की साजिशें चल रही हैं ? वे जो दिव्य मध्यस्थ हैं, वे जो दुनिया के भूगोल को अपनी मुट्ठी की साइज का करना चाहते हैं और वे जो भूगोल बदलने के साथ इतिहास भी बदलना चाहते हैं-वे वस्तुतः किस मिट्टी की पैदाइश हैं और उस मिट्टी में इनके सिवाय भी कोई फसल होती है या नहीं-मुझे यह भी जानना चाहिए था। पता होना था कि कहाँ क्या है ? टी.वी.पर नाम सुनते हैं ,परन्तु पता ही नहीं चलता। वे शर्माते क्यों नहीं ? वे बम गिराकर बच्चे मार देते हैं और उनके देश को शर्म नहीं आती। या आती हो और हमें खबर न हो ? पता होना चाहिए था कि वे हमसे कितनी दूर हैं और उनकी शर्म यदि चलना शुरू करे, तो हम तक कितने हजार किलोमीटर चलकर पहुँच पाएगी ?.....भूगोल का पता होता तो हम भी जान पाते कि इस बड़े देश का क्षेत्रफल इतना सँकरा तथा छोटा क्यों है कि हम सब बिना लड़े-झगड़े रह नहीं पाते ? फिर हम इतने दूर भी किस भूगोल के कारण हैं कि बिहार, उत्तर प्रदेश या आन्ध्र प्रदेश में यदि कुछ गड़बड़ होता है तो हमें आन्दोलित नहीं करता हमारे छोटे-से भूगोल में यह देश क्यों नहीं आ पाता ?....मुझे लगता है कि मैंने गलती की। भूगोल पढ़ना बहुत आवश्यक था।

मैं और बकरी

बकरी को लेकर मेरे कुछ अनुभव हैं। ‘आपके कैसे हो सकते हैं ?’ मेरे एक काँग्रेसी मित्र ने मेरे उपरोक्त कथन पर आपत्ति ली है। उनका कहना है कि गाँधीवादियों को ही हक है कि वे ऐसी बातें करें। मैं गाँधीवादी नहीं हूँ। इस लिहाज से उन्हें यह ठीक नहीं लगा कि मैं दावा करूँ कि बकरी को लेकर मेरे भी कुछ अनुभव हो सकते हैं। पर क्या करूँ कि मेरे हैं। पहले क्यों नहीं बताया ? हाँ, आपका यह प्रश्न अपनी जगह जायज मान सकता हूँ। दरअसल, पहले मैं शरमाता था। आप गाँधीवादी हैं, सो नहीं शरमाते। गाँधीवादी आसानी से शरमाता नहीं। मेरे एक मित्र गाँधीवादी थे, जिन्होंने एक दलित की ठुकाई करके उसे जमीन से बेदखल कर दिया था। मैंने कहा कि आपको शर्म आनी चाहिए। वे बोले कि हमें नहीं, आपको शर्म आनी चाहिए कि आप मुझ जैसे गाँधीवादी को गलत बता रहे हैं, जबकि इस देश में आज़ादी के बाद से गाँधीवादी हरदम सही सिद्ध हुआ है। सो मैं तो शरमाता था कि क्या तो बकरी तथा मेरे बीच की अपनी घरेलू-सी बातें जगजाहिर करूँ। परन्तु इधर मैंने एक पत्रिका में बकरी पर एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की रिपोर्ट पढ़ी, तो चकित रह गया। चार दिनों तक चले इस सेमीनार में अनेक विद्वानों ने बकरी को लेकर अपने विचार प्रकट किये, तब मुझे ज्ञात हुआ कि बकरी विषयक जिन अनुभवों को मैं शर्म से छुपाये घूमता था तथा बताने पर होनेवाली बदनामी से डरता था, वे वास्तव में खासे गौरवपूर्ण अनुभव थे। और वे बकरी के कारण गौरवपूर्ण थे, मेरी वजह से नहीं। सम्मेलन में बकरी के विषय में जब ऐसी बड़ी-बड़ी बातें कही गयीं, तब मैंने जाना कि यहाँ-वहाँ मिमियाती जो अदनी-सी शख्सियत कभी मेरे जीवन में आती-जाती-घूमती फिर रही थी, वह वास्तव में कितनी बुलन्द हस्ती थी (है।) सो, देर आएद, दुरुस्त आयद। कृपया बकरी को लेकर मेरे अनुभवों पर गौर करें।

बकरी से मेरा पहला साक्षात्कार हमारी पहली कक्षा के गुरुजी ने कराया था और कान मरोड़ते हुए हमें बताया था कि ‘ब’ बकरी का होता है। उनका सिखाया हुआ मैं, बाद के बहुत वर्षों तक ‘ब’ को बकरी की ही बपौती मानता रहा। यह तो बाद में जीवन ने मुझे ‘ब’ बदमाशी का, ‘ब’ बदहाली का, ‘ब’ बटमारी का, ‘ब’ बटवारे का, तथा ‘ब’ से बम आदि सही शब्द सिखाये। गुरुजी ने वैसे स्वयं भी एक बकरी पाल रखी थी, जिसको खिलाने-पिलाने-टहलाने से लगाकर उसका दूध निकालने तक की जिम्मेदारी हम छात्रों की हुआ करती थी। गुरुजी की जिम्मेदारी उसका दूध पीकर हमें ठोकने की थी। इस सेवाटहल के दौरान मैं बकरी के बेहद करीब आया। फिर भी, मैं उस बकरी के इतना करीब कभी नहीं आया जितना करीब एक दिन मैंने गुरुजी को पाया। गुरुजी ने मेरी बढ़िया पिटाई की तथा सख्त चेतावनी दी कि खबरदार जो कभी, किसी को भी इस बावत कुछ भी बताया। आज जब बकरी पर बोलते हुए किसी विद्वान ने उस सम्मेलन में यह बताते हुए बकरी की तारीफ की कि बकरी एक बेहद उपयोगी जानवर है, तब मुझे अपने गुरुजी बेहद याद आये। उनकी सख्त हिदायत के बावजूद मैं कहना चाहूँगा कि मैंने उन्हें देखकर ही जाना कि बकरी वास्तव में बेहद उपयोगी जानवर है !
बाद के वर्षों में बकरी मेरे जीवन में चोरी-छिपे आयी।

या यूँ कहें कि मैं बकरी के जीवन में चोरी-छिपे घुसा। बकरी वस्तुत: पड़ोसी की थी, परन्तु उसका दूध पीने की इच्छा हमारे परिवार की थी। हमारी इच्छा के अलावा हमारी इच्छाशक्ति भी बड़ी दृढ़ थी तथा हम कुछ मामलों में समाजवादियों या कहिए कम्युनिस्टों के इस विचार के हिमायती थे कि वस्तुओं पर किसी का एकाधिकार उचित नहीं। बराबर बाँट लें। बकरी आपकी, दूध हमारा। बकरी, जैसी कि उसकी आदत हुआ करती है, दोपहर के समय यत्र-तत्र टहलती थी तथा जहाँ भी सींग समायें, वहाँ घुस जाती थी। हम बकरी की इसी आदत के कायल थे और ताक में रहते थे कि कब वो हमारी तरफ निकले। मैं उन दिनों दोपहर में सोता तक नहीं था। उसकी प्रतीक्षा करता। बाद में, प्रेम में पड़ जाने के दिनों को छोड़कर मैंने ऐसी प्रतीक्षा किसी की भी नहीं की। वह आती। उसे आना ही था। वह आती और गुरुजी द्वारा बचपन में ही ट्रेण्ड कर दिया गया मैं, फटाफट उसका दूध निकाल लेता था। वास्तव में मैं इतनी तेजी से दूध निकालता था कि एक रिकार्ड-सा बन सकता था। परन्तु एक तो तब गिनीज बुक के विषय में ज्ञात ही नहीं था, और दूसरा यह कि यदि ज्ञात होता भी, तो भी इस चोरी का सार्वजनिक प्रदर्शन सम्भव नहीं था। परन्तु तथ्य यही था कि बकरी जब तक मेरे दो छोटे भाईयों के अप्रत्याशित आक्रमण से सँभल पाती थी, जो उसे दबोचकर पकड़ लेते थे, तब तक मैं देखते-देखते, कहिए कि पलक झपकते, लोटा भरकर दूध दोह लेता था। मेरी तेजी इस सन्दर्भ में ऐसी थी, जैसी कभी चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान की तलवार की तेजी की चर्चा की थी। बाद के दिनों में तो मैंने पाया था कि बकरी तक मुझे इसी कारण आश्चर्य तथा सम्मान की मिली-जुली भावना के साथ देखने लगी थी। स्वयं बकरी के लिए भी यह नितान्त चमत्कारी-सा अनुभव था। उन दिनों हम भाइयों का स्वास्थ्य अचानक ही काफी अच्छा होने लगा था तथा हमें गाँधीजी की इस बात पर भरोसा होने लगा था कि बकरी का दूध सेहत के लिए सर्वोत्तम होता है। उन दिनों मुझे बकरी का एक और गुण बेहद भाने लगा था कि वह साइज में छोटी-सी होती है। छोटा-सा शरीर होने के कारण आप बकरी को चोरी-छिपे उठाकर किसी भी कोने में ले जा सकते हैं तथा पोशीदा तौर पर उसका दूध निकाल सकते हैं। यह सुविधा गाय-भैंस के साथ उपलब्ध नहीं है। इस दयानतदार बकरी के साथ हमारे सम्बन्ध, या कहिए कि अवैध-सम्बन्ध, लगभग दो वर्षों तक कायम रहे। परन्तु जैसा कि अवैध सम्बन्धों के साथ प्राय: हुआ करता है, एक दिन भेद खुल ही गया। नादान पड़ोसी ने इस बात पर सख्त ऐतराज प्रकट किया कि उसकी बकरी का यूँ हमारे घर चोरी-छिपे आना-जाना चलता रहा है। हमारे पिताजी ने उन्हें समझाने की कोशिश भी की कि इस उम्र में प्राय: बकरियों के कदम बहक जाने का खतरा तो ख़ैर रहता ही है, परन्तु उनको सही मार्ग पर रखना तथा सम्भालना स्वयं पड़ोसी की जिम्मेदारी बनती है क्योंकि बकरी भी अन्तत: संस्कार तो अपने घर से ही सीखती है। ख़ैर, इस प्रकार ये सम्बन्ध समाप्त हो गये। यों, बकरी यदा-कदा मौका पाकर बीच-बीच में हमारे घर चोरी छिपे आती-जाती रही, परन्तु सम्बन्धों में वह पुरानी गर्माहट नहीं रही।

बड़ी उम्र में बकरी एक राजनीतिक शक्ति के तौर पर मेरे जीवन में प्रविष्ट हुई। आजादी के तुरन्त बाद के समय में अचानक ही छोटे-छोटे कस्बों तथा गाँवों के स्तर पर बकरी की पूछ-परख बढ़ गयी। शहर के गाँधीवादी जहाँ गाँधीजी के सही इस्तेमाल की दिशा में कूच कर गये थे, कस्बों के स्तर पर गाँधीजी के प्रति एक किस्म की रोमानी भावुकता का माहौल बना रह गया था। बकरी का गाँधीवाद के प्रतीक के रूप में उपलब्ध होना लोगों को सरल लगा, क्योंकि यह चलता-फिरता गाँधीवाद सहज ही गली में मौज़ूद रहता था। सो बकरी को गाँधीवाद से जोड़ने के प्रयास खूब चले। कम-से-कम हमारे कस्बे में तो हुए। और कस्बे का न भी मानें, तो हमारे घर में तो खूब चले। कस्बे ने बाद में गाँधीवाद को ज्यादा सहज तथा रेडीमेड उपलब्ध चीजों से, यथा गाँधीटोपी, खादी की बण्डी तथा चरखे आदि से जोड़ लिया, जो बकरी से कहीं अधिक सुविधाजनक सिद्ध हुआ। परन्तु हमारा परिवार पुराना काँग्रेसी था, जैसा कि उस ज़माने में प्राय: परिवार हुआ करते थे। क्योंकि वैसा कहने में किसी के बाप का कुछ जाता भी नहीं था। और शासन भी काँग्रेस का होने के कारण यह फायदे का सौदा ही था। तब हमारे पिताजी खादी पहिनते थे, गाँधी टोपी बापरते थे। इसी झटके में, स्वयं को दूसरों से ज्यादा खाँटी गाँधीवादी सिद्ध करने के लिए उन्होंने अचानक यह निर्णय ले डाला कि घर में एक अदद बकरी भी पाली जाएगी। मेरी माँ गाँधीवाद के इस चौपाये-पक्ष के सख्त खिलाफ थीं क्योंकि बकरी दिनभर ही घर में गन्दगी मचाती फिरती थी। बड़ी लड़ाइयाँ हुईं। घर में रोज चिकचिक होती। बकरी के चक्कर में घर में गाँधीवाद तक पर हमले होने लगे। माँ ने तो एक दिन यहाँ तक डाला कि इससे अच्छा तो यही होता कि तुम कम्युनिस्ट हो जाते-एक लाल झण्डे के अलावा और कोई झंझट तो न होती ! ज़मीनी राजनीति तब भी ऐसे ही प्रतीकों पर चलती थी। बकरी के खिलाफ एक हवा बन रही थी। घर में बेवजह तनाव-सा रहता। पिताजी भी बकरी पालकर पछताने से लगे थे और बकरी की चिकचिक के चलते उनका मन गाँधीवाद तक से उचटने लगा था।
फिर वह बकरी भी अपने किस्म की एक ही थी।

वह नाम की ही बकरी थी। दूध उसने कभी दिया नहीं। उधर उसकी हरकतें दिनोंदिन बड़ी कमीनी तथा ओछी होती जा रही थीं। वह मानो जुलाब लेकर ही इस धरा पर उतरी थी और दिन भर की उसकी प्रमुख गतिविधियों में यही बात काम करती थी। इधर माँ साफ करती कि उधर वह फिर कर देती। वह माँ पर नजर-सी रखती। बाद के दिनों में वह घर के कपड़े चबाने के शौक में पड़ गयी। उसने एक कपड़ा फाड़ो आन्दोलन-सा चला दिया और अपना जीवन मानो इसी महान उद्देश्य हेतु समर्पित कर दिया कि हमारे घर के सदस्य चिथड़े पहिनकर घूमें। उन दिनों हमारे फुलपेण्ट उस तरह के हो गये थे, जैसे कि आजकल फैशने के मारे मॉडल वगैरह पहनते हैं और अधोवस्त्र तो इस प्रकार तार-तार हुए थे कि उनका पहिनना एक औपचारिकता का निर्वाह मात्र कहा जा सकता था-उनसे किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती थी। स्कूल की ड्रेस को मैं स्कूल से लौटते ही लोहे के ट्रंक में छुपा देता। परन्तु न जाने किस पॉलिसीवश अथवा चालाकी के तहत वह पिताजी के कपड़ों पर मुँह नहीं मारती थी। या शायद पिताजी के कपड़े खादी के होते थे और बकरी को या तो खादी के प्रति वितृष्णा थी, या फिर कदाचित् आदर का भाव- वह उनके कपड़ों को सूँघती भी नहीं थी। परन्तु एक दिन उसने गाँधीवाद को किनारे करते हुए पिताजी का नया कुरता चबा डाला। तब पिताजी ने अहिंसा के सिद्धान्त को किनारे करते हुए, वहीं किनारे पर पड़े डण्डे को उठाकर बकरी को खूब डण्डे लगाये, उसे नितान्त मौलिक तथा चमत्कारी गालियाँ सुनाईं और गली में दूर तक खदेड़कर ही लौटे।

पिताजी कुछ दिनों तक उदास रहे। वे अब क्या कहते ? वे तब तक हर एक से कहा करते थे कि भई, हम तो गाँधीजी के जीवन दर्शन पर चलते हैं-खादी पहिनते हैं, चरखा चलाते हैं और बकरी का दूध पीते हैं। ऐसा कहकर वे गर्दन इस हद तक अकड़ा लेते थे कि उससे कड़कड़ की आवाज-सी आती थी। बकरी मानो उनके व्यक्तित्व का महत्त्वपूर्ण हिस्सा थी। जब उन्हें जीवन में गाँधीवाद चहुँओर छीजता दिख रहा था, तब वे निराश में बकरी की पूँछ पकड़कर ही गाँधी से जुड़ा महसूस करते थे। उन दिनों कस्बाई राजनीति में एक स्तर था और लोग बुजुर्गों का लिहाज करते थे। यही कारण था कि लोग उनकी ये सब फालतू बातें तथा हरकतें न केवल बरदाश्त कर लेते थे, बल्कि इनके लिए पिताजी की इज्जत भी करते थे। अलबत्ता, बकरी के साथ पिता जी ने जो किया, उससे उनकी इज्जत में जो इजाफ़ा हुआ, वह अतुलनीय था।
समय गुजर गया।

न पिताजी रहे, न खादी। कस्बे में अब न बकरी को कोई पूछता है, न गाँधीजी को। धीरे-धीरे बकरी क्या, गाँधी तक इस देश की राजनीति में अप्रासांगिक हो गये। लोग बकरी तथा गाँधी, दोनों को भूल गये। दूध न बकरी का रहा, न गाय का-वह प्लास्टिक के पैकेट का हो गया। गाँधी न काँग्रेस के रहे, न देश के- वे इतिहास की जिल्द के हो गये। बकरी के नाम से लोगों को बकरा याद आने लगा कि जिसका मांस बड़े चाव से उत्सवपूर्वक खाया जाता है और गाँधी से लोगों को उनके नाम खड़ी की गयी वे हज़ारों संस्थाएँ तथा योजनाएँ याद आने लगीं कि जहाँ गाँधी के आदर्शों का हाल भी बकरे के मांस जैसा हो रहा है। अभी जब मैंने बकरी को लेकर हुए सम्मेलन की खबरें पढ़ीं, तब मेरे कान खड़े हुए, अन्यथा तो मैं बकरी को भूल ही चुका था। मैं चिन्तित हूँ कि लोगों को बकरी की याद क्योंकर आ रही है ? चक्कर क्या हैं ? कहीं बकरी के जरिये ग्रामीण मतदाताओं को मूर्ख बनाने का पुराना खेल फिर से तो नहीं चलाएँगे ? मैं पुन: बकरी की चिन्ता से चिन्तित हूँ। मैं बकरी के लिए चिन्तित हूँ। बकरी से अपने पुराने आत्मीय सम्बन्धों की चर्चा मैंने की ही। इन्हीं के कारण मैं बकरी के लिए चिन्ता कर रहा हूँ। परन्तु किसी ने कहा ही है कि बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी ? किसने कहा यह ? गाँधीजी ने तो नहीं ही कहा था, यह तय है। गाँधीवादियों ने कहा होगा, ऐसा सन्देह है मेरा।

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