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गजलें और शायरी >> आस

आस

बशीर बद्र

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :114
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2043
आईएसबीएन :9789350003862

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साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित यह संग्रह उनकी कुछ नई गजलों के साथ पहली बार देवनागरी में प्रकाशित हो रहा है।

Aas

बशीर बद्र की गजलों ने लोकप्रियता के जो मेयार कायम किए हैं उन पर किसी भी कलमकार को रश्क हो सकता है। उनकी गजलों ने शेर-ओ-दब के गम्भीर पाठक श्रोताओं से लेकर उस अवाम तक अपनी पहुँच बनाई है जो शेर की बारीकियों को जाने बगैर भी शाइरी से आनन्दित होते हैं। शाइरी की इतनी व्यापक रैंज कम शाइरों के यहाँ मिलेगी।

अपनी तासीर में बशीर बद्र की गजलें नन्हीं दूब पर अटकी हुई ओस की बूँद और सर्दी में पेड़ की फुनगी पर उतरती हुई मुलायम धूप की तरह हैं। यहाँ प्रकृति आदमी के एहसास का हिस्सा है। उन्होंने शाइरी को सर्वथा नए प्रकृति-बिम्बों से समृद्ध किया है। लेकिन उनकी गजलों में जो छाया-प्रकाश के रूप-रंगों की सहरकारी है उसकी तह में हमारे दौर के क्रूर सवाल भी मौजूद हैं।

आस में बशीर बद्र की रचनात्मकता का उत्कृष्ट रूप मौजूद है। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित यह संग्रह उनकी कुछ नई गजलों के साथ पहली बार देवनागरी में प्रकाशित हो रहा है।

बशीर बद्र की दृष्टि समकालीन जीवन के उन कोनों-अंतरों तक जाती है, जहाँ आमतौर पर सबका गुजर नहीं होता है। उनके अनुभव-संसार के बड़े हिस्से में मानवीय व्यवहार के बदलते हुए रूपों को जगह मिली है। अपसंस्कृति पूँजी के दबाव और उपभोक्तावाद की जद में आकर मनुष्य की सहज सामाजिक वृत्तियाँ धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं। वह निश्छलता और पारदर्शी आत्मीयता हमारे व्यवहार से गायब होती जा रही है जो मनुष्य की अन्तःशक्ति है। एक नए मिजाज का समाज बन रहा है जिसमें नैतिक छद्म एक मूल्य की तरह प्रतिष्ठित है। बशीर बद्र के शेर इस छद्म से बारहा आगाह करते हैं,ये नए मिजाज का शहर है,जरा फासले से मिला करो।

एक कोने से यह आवाज उठती रही है कि गजल के फार्म में मौजूदा यथार्थ की पेचीदियों को व्यक्त करने की गुंजाइश नहीं है। गजल का फार्म नाकाफी है। इसके बावजूद गजल आज भी कही जा रही है और बडी तमकनत के साथ। गजल के फार्म की सार्थकता में यकीन रखनेवाले शाइरों में बशीर बद्र पहली पंक्ति में आते हैं।

बशीर बद्र की गजलों के साथ शाइरी की एक नई भाषा आकार ले रही है जिसमें फारसी की आमेजिश कम है और अलाव व चौपाल से लेकर महानगरीय जीवन-व्यवहार के शब्द और मुहावरों की उपस्थिति ज्यादा है। कहीं-कहीं उन्होंने अंग्रेजी के शब्दों को बोलचाल की भाषा में खूब फेंटा है। आगे यह तजुबा शायद एक रविश बन जाए।

बशीर बद्र ने गजल के माध्यम को एक नई सामर्थ्य दी,उसकी रिवायत को नए आयाम दिए। उनके लहजे से उनकी पहचान होती है-वो गजल का लहजा नया-नया,न कहा हुआ न सुना हुआ।

भूमिका


1985 से बहुत पहले रिसाला ‘शाइर’ के एक शुमारे के लिए हुसैन माजिद को इंटरव्यू देते हुए मैंने कहा था-

मेरा दर्द न जाने कोय से लेकर
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो।


तक जो दिलों पर नक़्श है उसे अल्लाह ने लिखाया है। सच्ची शाइरी पढ़ते हुए कुछ याद आने लगता है और झूठी शाइरी पढ़कर कुछ याद नहीं आता। और बहुत याद आया तो कोई दूसरा शाइर या दूसरी शे’र।
मुशायरे पानी की क़ब्रें हैं। एक मख़लूक़ मुशायरे में पैदा होती है और मुशायरे ही में मर जाती है। रिसाले मिट्टी की क़ब्रें हैं। एक मख़लूक़ रिसाले ही में पैदा होती है और रिसाले ही में दफ़न हो जाती है।
22 फ़रवरी 2000 को साहित्य अकादमी दिल्ली के एवार्ड फ़ंक्शन में मैंने कहा था कि ग़ज़ल में ख़ुद को तलाश करना एक साधना है जिसे ‘एक्सरसाइज़’ और (प्रिपेरेशन) कहना चाहिए। हमारे इस अमल में ग़ज़ल को कई करोड़ सुनने और पढ़ने वाले अमली तौर पर शरीक होते हैं। ग़ज़ल का सच्चा शे’र लम्हा-लम्हा ग्रो (grow) होता रहता है। और तीस-चालीस साल में वो ग़ज़ल की दुनिया में एक शख़सियत की तरह धीरे-धीरे नुमायाँ होता रहता है और फिर जाविदानी सरहदों में दाख़िल हो जाता है। मीर की 1818 ग़ज़लें हैं जिनमें 17878 शे’र मैंने गिने भी हैं। मीर का कलाम एक ग़ज़ल के शाइर की साधना का अच्छा नमूना है। इस साधना या इबादत को भी हम एक्सरसाइज़ (exercise) और प्रिपेरेशन (Preparation) ही कहेंगे। क्रिएशन (creation) या तख़लीक़ का मोजिज़ा सिर्फ़ वही अशआर हैं जो ज़्यादा मीर के यहाँ बहत्तर हो जाते हैं। ग़ालिब ने उर्दू ग़ज़ल में शे’र कम कहे और फिर काट भी दिए हैं, एक आम सा नुसख़ा जो मेरे सामने है उसमें तो 1415 ही शे’र हैं, सौ पचास इधर-उधर और मिल जाएँगे। ग़ालिब बहुत बड़े ग़ज़ल के शाइर सही लेकिन उनके यहाँ भी बहत्तर की हद नहीं टूट सकेगी। ग़ज़ल एक जादू है, हिंदोस्तान और पाकिस्तान में हज़ारों ग़ज़ल के शाइर हैं, लेकिन दोनों मुलकों में कुल 4 या 5 ऐसे शाइर हैं जिनके 4 से 5 शे’र सारी दुनिया में जाने-पहचाने जाते हैं।
उर्दू ग़ज़ल के तीन सौ साला सफ़र का बार-बार मुताला करने के बाद मुझे ये अहसास होता है कि जब किसी शाइर के यहाँ ग़ज़ल का सच्चा शे’र वजूद में आता है तो वे शाइर की गोद में और वक़्त के पालने में सासँ-साँस ग्रो (grow) करता है और दुनिया के करोड़ों इन्सान उसे वहाँ तक ले जाते हैं जहाँ अमरता की सरहदें उसे अपनी हिफ़ाज़त में ले लेती हैं। उर्दू और हिंदी ज़बान बोलने वाले इसे ज़िंदगी की वादियों में ले आते हैं वरना हमारी ग़ज़ल की तनक़ीज (criticism) तो ग़ज़ल के सच्चे शे’रों की तलाश के अलावा बाक़ी सब काम करती रही है। अगर हम हालिया सौसाला ग़ज़ल का मुताला करें तो ये महसूस होता है कि

(1) ग़ज़ल की तनक़ीद फ़िराक़ ने लिखी-
(2) तनक़ीद ने फ़िराक़ पर लिखा-
(3) शेर जिगर साहब ने कहे।
हाँ जिगर साहब के शे’रों पर क़सबाती महफ़िलों की जो चादर पड़ी हुई है उसने उन्हें आज कल के आम लोगों को उनके अच्छे शे’रों से बहुत क़रीब नहीं होने दिया है। ग़ज़ल जैसी बड़ी और हमागीर सिनफ़े सुख़न के लिए कुछ अच्छे और सच्चे नक़्क़ादों की कमी बुरी तरह खटकती है। हमारी दर्सगाहों में भी तख़लीक़ी काम का जायज़ा और दरसो-तदरीस का फ़रीज़ा ग़ैर तख़लीक़ी हो गया है। मीर की ग़ज़ल का सरमाया 18000 छोटे-बड़े दरख़्तों का जंगल है जिसके पात-पात डाल-डाल को परखना एक इन्सान की दस्तरस में आसानी से नहीं आ सकता इसीलिए अब कम पढ़े-लिखे लोगों का सबसे आसान शाइर ग़ालिब है। ग़ालिब अपने 1500 शे’रों से हम पर हुकूमत कर रहे हैं।
आज 20 फ़रवरी 2000 साल में कैमरे की आँख से जाहिर और बातिन देखने की कोशिश हो रही है। साइंस का पोएटिक एक्सप्रेशन (Poetic expression) [शाइराना इज़हार] सिर्फ़ ग़ज़ल है। ग़ज़ल के अलावा अकसर शे’री इज़हार चाहे वो दो शे’रों में हो या दो हज़ार सफ़हों में, उनका मरकज़ी ख़्याल बुनियादी तौर पर एक तज्रुबा होता है। जबकि ग़ज़ल के सात शे’र कम से कम सात मुख़तलिफ़ किरदारों के दाख़िली कैफ़ियत और अहसासात के अलग-अलग लमहों की अलग-अलग दास्तान हैं। और किसी भी लांग (long) पोइम या नॉविल का नुक़तए ऊरूज (climax) ग़ज़ल का एक शे’र हो सकता है इसीलिए हर क़दम पर हमें ग़ज़ल के ऐसे शे’र मिल जाते है जो हमें ग़ज़ल के तरीक़ाए कार के बारे में इशारा करते हैं।

मैं हर लम्हे में सदियाँ देखता हूँ।
तुम्हारे साथ इक लम्हा बहुत है।


आज मुख़तलिफ़ ज़बानों की शाइरी और नग़मों के जो मशहूर वीडियो कैसेट्स हैं उनसे मिसरों या शे’रों की जो ‘Picturisation’ कैमरा क्रिएटिव-स्टाइल (creative style) से करता है वो ग़ज़ल के तरीक़ए कार से इसलिए मिलता-जुलता है कि हमारे ज़हन से बढ़कर माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल ज़मीन-आसमान हयात और काएनात सबको एक लम्हे में जिस तरह हमारा ज़हन बगैर सोचे हुए महसूस करता है बशीर बद्र की गजलों ने लोकप्रियता के जो मेयार कायम किए हैं उन पर किसी भी कलमकार को रश्क हो सकता है। उनकी गजलों ने शेर-ओ-दब के गम्भीर पाठक श्रोताओं से लेकर उस अवाम तक अपनी पहुँच बनाई है जो शेर की बारीकियों को जाने बगैर भी शाइरी से आनन्दित होते हैं। शाइरी की इतनी व्यापक रैंज कम शाइरों के यहाँ मिलेगी। जदीद क्रिएटिव आर्ट भी ग़ज़ल के क़दीम आर्ट से अब भी बहुत पीछे है लेकिन उस तरफ़ लपक रहा है और यह बता रहा है कि साइंस भी एक दिन इन्सानी जमालियात हो सकती है। ग़ज़ल के एक-एक मिसरे में बहुत से बिखरे हुए इमेजेस एक तख़लीक़ी इमेज (science may be aesthetic expression or poetic expression) बन जाते हैं और ये अपने सुने और पढ़ने वालों के ज़हन के वसीलों से लम्हा-लम्बा नमू पाते रहते हैं और फिर एक इनफिरादी शख़सियत बन जाते हैं।
ग़ज़ल के सच्चे शे’र बच्चों की वो मासूमियत है जिनमें हजारों साल की बुजुर्गी मुस्कराती है और फिर साठ साला तजरुबाकार ज़हन व दिल में फूल जैसे बच्चे कुछ पाने की ज़िद में मचलने लगते हैं। शायद ही कोई लम्हा होगा जब सियासी ज़िम्मेदारियों और अजमतों की शख़सियत इंदिरा गांधी ने अपनी एक राज़दार सहेली ऋता शुक्ला टैगोर शिखर पथ, रांची-4 को अपने दिल का कोई अहसास इस शे’र के वसीले से वाबस्ता किया था।

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए


यही वो शे’र है जो मशहूर फिल्म एक्ट्रेस मीना कुमारी ने (अंग्रेजी रिसाला) स्टार एण्ड स्टाइल (English magazine star & style) में अपने हाथ से उर्दू में लिखकर छपवाया था और हिंदुस्तान के सद्र ज्ञानी ज़ैल सिंह ने अपनी आख़री तकरीर को इसी पर समाप्त किया था। शाइरी यहाँ ये सवाल पूछती है कि ग़ज़ल में ये बूढ़े लोग बारह तेरह साल के क्यों हो जाते हैं जबकि आज की ग़ज़ल अपने बच्चों का तआरूफ़ इस तरह कराती है-
‘‘मुख़्तसर बातें करो बेजा वज़ाहत मत करो
ये नई दुनिया है बच्चों में ज़िहानत है बहुत’’
ग़ज़ल की रेज़ा ख़्याली मिल्टन और फ़िरदौसी की मुसलसल बयानी और कैमरे की बेजान आँख कैसे हज़ारों साल की धड़कनों में बदल जाती है।
ग़ज़ल का एक मिसरा साठ-सत्तर साल में कैसे बदलता है अयोध्या की ख़ाक से उठकर इस्लाम की शरीयत में पल कर (mysticism) तसव्वुफ की चादर ओढ़कर किस तरह ग्रो (grow) करता है। आने वाले बीस-पच्चीस साल को ज़हन में रखकर एक चैनल के ज़रिए किस तरह पैरहन बदलता है।
उसकी मिसाल ग़ज़ल के एक कमज़ोर शे’र की ये तबदीलियाँ हैं। मेरी माँ अलीया बेगम जो अपनी आवाज़ से परदा करती थीं-यह परदा उनका इसलाम था लेकिन 15 हज़ार साल का Ajodhia भी उनके ख़ून की आहट बना रहा था-और 300 साल का इसलामी sufiism भी उनके दिल में सोता जागता रहा इसीलिए वह 40-50 साल में हिंदोस्तानी धोती (साड़ी) पहनने वाली ऐसी बेपरदा सूफी हुई जो क़व्वाली और मुशायरों में जाकर Participants की हिम्मत अफ़्ज़ाई करती थीं और बड़े-बड़े सूफी उनके आगे हाथ बाँधकर सर-झुकाकर बैठते थे।
मेरा यह शे’र उनकी तबदीलियों की याद कर रहा है-

जब भी कसने लगा उतार दिया।
इस बदन पर कई लिबास रहे।


लेकिन अब इस शे’र ने सफ़र शुरू किया और वो सूफी खातून के बजाय उस लड़की से miss city miss province miss country और miss world का बदन बनती जरदों, उसकी ये इबादत पुराने कपड़े उतारती जा रही है। कैमरे की ग़ज़ल के पुराने मिसरे ghazal of camera का पैरहन लेकर एक नई इकाई यू बनती है।
जब भी ढीला हुवा उतार दिया।
इस बदन पर कई लिबास रहे।
इसलिए ‘आस’ के नाम से कभी बशीर बद्र की इकाई बनती है, कभी ‘इमेज’ (create) तखलीक़ होती है और कभी उनकी आमद आसमान को छूने लगती है तो क्या इससे हम ये सोचें कि ग़ज़ल में बताया है कि पुराना शे’र नया और नया शे’र पुराना दोनों एक ही है और एक दिन sahitya academy के बेजान मुजावरों को भी ये ख़बर हो गई है कि ग़ज़ल का शे’र कम से कम पचास साल में जवान होता है। आख़िर में मैं ये ज़रूर इशारा करूँगा कि एक ज़बान दो तीन शाइर पैदा कर सकती है और उस वक्त तक कोई दूसरा काबिले जिक्र शाइर पैदा नहीं हो सकता जब तक वो ज़बान अपनी दूसरी शख़सियत (personality) में न जाहिर हो। हम देखते हैं कि अंग्रेज़ी जैसी ज़बान में रोमेंटिक पीरियड के बाद आलमगीर सतह की दस लाइनें भी नहीं लिखी जा सकीं और दो-तीन सदियों से इंग्लिश पोएट्री ऑपरेशन टेबल पर पड़ी हुई है। यही हाल फ़ारसी ज़बान का भी था कि वो हाफ़िज़, सादी, बेदिल, उर्फ़ी और नज़ीरी के बाद आज तक नींद से नहीं जागी और मीर और ग़ालिब जो इन फ़ारसी के शाइरों की हमसरी के आरज़ूमंद रहे वह बाज़ारी उर्दू ज़बान के तकदुस, तहारत और मोहब्बत के वसीले से उनसे भी बड़े शाइर हो गए। उसी फ़ारसी तहजीबयाफता उर्दू का सिलसिला फ़ैज़ और मजरूह तक सर बलंद होकर अपनी विरासत उस नई आलसी उर्दू के हवाले करके खुश है कि इसकी तमाजत में सैकड़ों अंग्रेजी और दूसरी मग़रिबी ज़बानों के लफ़्ज़ (words) हिंदुस्तानी आत्मा और तमाज़त में कुछ-कुछ तहलील होकर हमारी ग़ज़ल में नई बशारतों के दरवाजे़ खोल रही है।
शायद मैं यही कहना चाहता हूँ कि ग़ज़ल का शे’र और उसके पढ़ने वाले एक इकाई हैं जिन्हें किसी आउट साइडर की क़तई ज़रूरत नहीं।
मैं अपने बच्चों को समझाने के लिए ये कहना चाहता हूँ कि शाइरी मैं ऐसा नहीं होता कि बाप की विरासत बाप के मरने के बाद बेटे की हो जाय। ये विरासत सिर्फ़ उसको ट्रेनिंग (Training) देती है। यानी मीर के इंतिक़ाल के बाद मीर का बेटा उनके घर का वाक़ई मालिक है लेकिन ग़ज़ल में तो उसे अपना घर ख़ुद ही बनाना पड़ेगा।
बशीर बद्र
यूँ ही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

कोई हाथ भी न मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो

अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो

मुझे इश्तहार-सी लगती हैं ये मुहब्बतों की कहानियाँ
जो कहा नहीं वो सुना करो जो सुना नहीं वो कहा करो

कभी हुस्ने परदा नशीं1 भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन सँवर के कहीं चलूँ मिरे साथ तुम भी चला करो



नहीं बे हिजाब2 वो चाँद सा कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गरमि-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो



ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाल में जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है इसे आँसुओं से हरा करो

2


कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबिन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया न कहा हुआ न सुना हुआ

जिसे ले गई है अभी हवा को वरक़ था दिल की किताब का
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ कहीं आँसुओं से लिखा हुआ

कई मील रेत को काट कर कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ

वही ख़त के जिस पे जगह जगह दो महकते होंटों के चाँद थे
किसी भूले बिसरे से ताक़ पर तहे गर्द होगा दबा हुआ

मुझे हादसों ने सजा सजा के बहुत हसीन बना दिया
मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेहंदियों से रचा हुआ

वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लान भी
मगर उस दरीचे3 से पूछना वो दरख़्त अनार का क्या हुआ


मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर4 की बिसात क्या
ये चिराग़ कोई चिराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ
1975


आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
किश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा

बेवक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा

जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा

ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुमने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा

पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
1978



4


हँसी मासूम सी बच्चों की कापी में इबारत5 सी
हिरन की पीठ पर बैठे परिन्दे की शरारत सी




वो जैसे सर्दियों में गर्म कपड़े दे फ़क़ीरों को
लबों पे मुस्कुराहट थी मगर कैसी हिक़ारत सी

उदासी पतझड़ों की शाम ओढ़े रास्ता तकती
पहाड़ी पर हज़ारों साल की कोई इमारत सी

सजाये बाज़ुओं पर बाज़ वो मैदाँ में तन्हा था
चमकती थी ये बस्ती धूप में ताराज ओ ग़ारत6 सी


मेरी आँखों, मेरे होंटों से कैसी तमाज़त7 है
कबूतर के परों की रेशमी उजली हरारत सी




खिला दे फूल मेरे बाग़ में पैग़म्बरों जैसा
रक़म8 हो जिस की पेशानी पे इक आयत बशारत9 सी

1980



5


नारियल के दरख़्तों की पागल हवा खुल गये बादबाँ लौट जा लौट जा
साँवली सरज़मीं पर मैं अगले बरस फूल खिलने से पहले ही आ जाऊँगा
गर्म कपड़ों का सन्दूक़ मत खोलना वरना यादों की काफ़ूर जैसी महक
ख़ून में आग बन कर उतर जायेगी सुबह तक ये मकाँ ख़ाक हो जायेगा

लान में एक भी बेल ऐसी नहीं जो देहाती परिन्दे के पर बाँध ले
जंगली आम की जान लेवा महक जब बुलायेगी वापस चला जायेगा

मेरे बचपन के मन्दिर की वह मूर्ति धूप के आसमाँ पे खड़ी थी मगर
एक दिन जब मिरा क़द मुकम्मिल हुआ उसका सारा बदन बर्फ में धँस गया

अनगिनत काले काले परिन्दों के पर टूट कर ज़र्दबानी को ढकने लगे
फाख़ता धूप के पुल पे बैठी रही रात का हाथ चुपचाप बढ़ता गया

6


सँवार नोक पलक अबरूओं10 में ख़म कर दे
गिरे पड़े हुए लफ़ज़ों को मोहतरम11 कर दे


ग़ुरूर उस पे बहुत सजता है मगर कह दो
इसी में उसका भला है ग़ुरूर कम कर दे

यहाँ लिबास, की क़मीत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे

चमकने वाली है तहरीर मेरी क़िस्मत की
कोई चिराग़ की लौ को ज़रा सा कम कर दे

किसी ने चूम के आँखों को ये दुआ दी थी
ज़मीन तेरी ख़ुदा मोतियों से नम कर दे
1978



7


कोई लश्कर है के बढ़ते हुए ग़म आते हैं
शाम के साये बहुत तेज़ क़दम आते हैं

दिल वो दरवेश12 है जो आँख उठाता ही नहीं
इस के दरवाज़े पे सौ अहले करम13 आते हैं


मुझ से क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिये
कभी सोने कभी चाँदी के क़लम आते हैं

मैं ने दो चार किताबें तो पढ़ी हैं लेकिन
शहर के तौर तरीक़े मुझे कम आते हैं

ख़ूबसूरत सा कोई हादसा आँखों में लिये
घर की दहलीज़ पे डरते हुए हम आते हैं
1978



1.पर्दादार प्रेमिका

2.बेशर्म

3.खिड़की

4.चिंगारी

5. लेखन

6. रोंदी हुई, वीरान

7. गर्मी

8. लिखित 9. ख़ुश ख़बरी, शुभ सूचना

10.भवें 11.सम्माननीय

12. साधु 13. करम करने वाले

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