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उपन्यास >> क्याप

क्याप

मनोहर श्याम जोशी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2047
आईएसबीएन :81-7055-799-2

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास..

Kyap

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

क्याप मायने कुछ अजीब अनगढ़ अनदेखा सा और अप्रत्याशित। जोशी-जी के विलक्षण गद्य में कही गई ‘फसक’ (गप) उस अनदेखे को अप्रत्याशित ढंग से दिखाती है, जिसे देखते रहने के आदी बन गए हम जिसका मतलब पूछना और बूझना भूल चले हैं...

अपने समाज की आधी अधूरी आधुनिकता और बौद्धिकों की अधकचरी उत्तर-आधुनिकता से जानलेवा ढंग से टकराती प्रेम कथा की यह क्याप बदलाव में सपनों की दारुण परिणति को कुछ ऐसे ढंग से पाठक तक पहुँचाती है कि पढ़ते-पढ़ते मुस्कराते रहने वाला पाठक एकाएक खुद से पूछ बैठे कि अरे ये पलकें क्यों भीग गईं।

यथार्थ चित्रण के नाम पर सपाटे से सपाटबयानी और फार्मूलेबाजी करने वाले उपन्यासों-कहानियों से भरे इस वक्त में कुछ लोगों को शायद लगे कि मैं और उत्तरा के प्रेम की यह कहानी और कुछ नहीं बस ‘ख़लल है दिमाग़ का’, लेकिन प्रवचन या रिपोर्ट की बजाय सर्जनात्मक स्वर सुनने को उत्सुक पाठक इस अद्भुत ‘फसक’ में अपने समय की डरावनी सचाइयों को ऐन अपने प्रेमानुभाव में एकतान होते सुन सकता है। बेहद आत्मीय और प्रमाणिक ढंग से। गहरे आत्ममंथन, सघन समग्रता बोध और अपूर्व बतरस से भरपूर क्याप पर हिन्दी समाज निश्चय ही गर्व कर सकता है।


क्याप

 

अफ़सोस कि यह कहानी पहले लिखी जा चुकी है। यह अफ़सोस उस सैद्धान्तिक स्तर पर ज़ाहिर किया गया न समझा जाय कि हर कहानी ही एक तरह से पहले लिखी जा चुकी होती है क्योंकि कहानी में जो तीन तत्व होते हैं-घटनाएँ, पात्रों के चरित्र एवं उनकी भूमिकाएँ और देशकाल-उनमें से पहले दो के अन्तर्गत कुछ मौलिक कर दिखाने की सम्भावना शायद गुणाढ्य के बृहत्कथा लिख डालने के साथ ही चुक गयी थी। और देश-काल का भी ऐसा है कि लेखक की कल्पना उसकी तमाम सीमाओं को लाँघने में सक्षम है।

 प्रस्तुत कथा के एक पात्र वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक मेधातिथि जोशी के पिता और हमारे गाँव के विद्वान केदारदत्तज्यू अक्सर कहा करते थे-‘बताओ तो तुम्हारी मॉर्डन साइंस में ऐसा क्या है जो महाभारत युग में हमारे यहाँ नहीं था ?’ मेरा मॉर्डन साइंटिफ़िक माइण्ड भले ही यह मानने को तैयार न हुआ हो कि महाभारत युग में तो हम सब कुछ जानते थे पर बाद में भूल गये, लेकिन महर्षि व्यास की देशकालजित कल्पना की दाद देने को अवश्य मजबूर हुआ था। ख़ैर ! तो मैं कह रहा था कि मेरा अफ़सोस उस सौद्धांतिक स्तर पर नहीं, सर्वथा स्थूल पर है। यह कहानी सचमुच लिखी जा चुकी है। छह माह पूर्व यह हमारे मीडिया की सुर्ख़ियों में छाई रही और अब कूर्मांचली ने, जो एक ज़माने में मेरा शिष्य रह चुका है, ‘हंस’ के ताजा अंक में उसे रचनात्मक साहित्य का अंग बनाते हुए छपवा डाला है।

समाचारों का वाचन या श्रवण किये बग़ैर अपने को प्रातः कालीन निवृत्ति में असमर्थ पाने वाले समस्त महानुभाव समझ ही गये होंगे कि मेरा इशारा तथाकथित ‘रहस्यमय ढिणमिणाण भैरव काण्ड’ की स्टोरी की ओर है। अगर आप उन चन्द लोगों में से हैं, जिन्होंने मास-मीडिया की ओर से सिद्धान्ततः मुँह मोड़ लिया है। या अगर आप उन अनेक लोगों में से हैं, जिनके लिए मास-मीडिया की परोसी हुई हर महत्त्वपूर्ण ‘स्टोरी’ इस अर्थ में बेवफ़ा साबित होती है कि दिमाग़ से सफ़ा हो जाती है, तो शायद आपके हित में इस काण्ड का तथाकथित रहस्य संक्षेप में दोहरा देना अनुचित न होगा।

ज़िले बना कर बोट जीतने की राजनीति के अन्तर्गत बनाये गये नये मध्य हिमालयवर्ती ज़िले वाल्मीकि नगर में, जो कभी कस्तूरीकोट कहलाता था और अगर राजनेताओं ने चाहा तो आगे चलकर उत्तरा कहलाने लगेगा, फस्कियाधार नामक चोटी के रास्ते में स्थित ढिणमिणाण यानी लुढ़कते भैरव के मन्दिर के पास एक-दूसरे की जान के प्यासे पुलिस डी.आई.जी. के मेधातिथि जोशी और माफ़िया सरगना हरध्यानु बाटलागी की लाशे पड़ी मिलीं। दोनों के ही सीने में उल्टियों के अवशेष थे। पहला रहस्य यह कि वे दोनों वहाँ क्या कर रहे थे ?

यह सही है कि मन्दिर से कुछ ही ऊपर उन दोनों का पुश्तैनी गाँव फस्कियाधार है लेकिन यह घटना 1999 के नवम्बर में घटी और इस इलाक़े के ज़्यादातर भेड़-बकरीपालक अक्टूबर में ही नीचे वादियों की ओर निकल जाते हैं। दूसरा रहस्य यह है कि वे मरे कैसे ? जब उनकी लाशें काफ़ी बिगड़ी हालत में ज़िला मुख्यालय के सरकारी अस्पताल में पहुँचीं, वहाँ का नौसिखिया डॉक्टर चीर-फाड़ के बावजूद ऐसा कुछ भी पता नहीं कर सका जिससे अस्वाभाविक मृत्यु के संकेत मिलते हों। उल्टियों के अवशेष और आँतों में पड़े भोजन के विश्लेषण से भी किसी विष की उपस्थिति के संकेत नहीं मिले। कोई शराब को ही विष कहता हो तो अलग बात है।

और सबसे बड़ा रहस्य यह कि ये दो जानी दुश्मन, जो एक अरसे से एक-दूसरे को मारने की कोशिश में लगे हुए थे, इकट्ठा कैसे मर गये ? अगर सिर्फ़ पुलिसिये की लाश मिली होती तो समझ लिया जाता कि माफ़िया सरगना की करतूत है। अगर सिर्फ़ सरगना की लाश मिलती तो कहा जाता कि पुलिसिये की करतूत है। वे दोनों निर्मम हत्यारे थे इसलिए यह भी कल्पनातीत है कि उनमें से एक ने पहले दूसरे की हत्या की और फिर पश्चाताप में आत्महत्या कर डाली। या यह कि दोनों ने ही सैकड़ों बेकसूरों की जानें अपने आपसी झगड़े में ले डालने के पाप का प्रायश्चित करने के लिए आत्महत्या कर ली।

या यह कि दोनों ही एक-दूसरे को मारने की तैयारी करके गये और उन्होंने एक-दूसरे की शराब में ज़हर मिला दिया यानी एक-दूसरे को मारने की कोशिश में दोनों ही मारे गये ! और अगर यह दोहरी हत्या का मामला था तो मारने वाला वह तीसरा था कौन ? और उसने चोर और सिपाही दोनों को ही क्यों मारा और कैसे मारा ? और सवा लाख टके का एक सवाल किया अगर उन्हें किसी ने नहीं मारा तो वे दोनों कुदरती तौर पर एक साथ और एक जगह कैसे मर गये ? यह सही है कि तथाकथित रचियता परमपिता परमेश्वर की कलम से निकलीं कहानियाँ अक्सर संयोग-प्रधान होती हैं तथापि इतने ज्यादा संयोग से तो वह घटिया लेखक भी परहेज करता ही होगा।

इसी के चलते मास-मीडिया में ‘रहस्यमय तीसरे’ की चर्चा होती रही जिसने किसी रहस्यमय विधि से यह दोहरा हत्याकाण्ड किया। दो एक समझदार और वैज्ञानिक दृष्टिवाले लोग कहते रहे कि कुछ ऐसे भी विष होते हैं। जिनके प्रभाव से हुई मृत्यु स्वाभाविक लगती है और जिनकी उपस्थिति का पता लगाना बहुत कठिन होता है, इसलिए रहस्यमय विधि या विधाता की बातें न की जायें लेकिन मीडिया, में कहीं घुमा-फिराकर और कहीं साफ़-साफ़ यह कहा गया कि वह ‘रहस्यमय तीसरा’ स्वयं विधाता था।

‘परवरदिगार के आलम में तमाम ऐसी चीज़ें है, जो इन्सान की समझ से परे हैं’-नुमा ये बातें जब तक ‘मासेज़’ को सैक्स-सनसनी-रहस्य रोमांस का नशेड़ी बनाने वाला पूँजीवादी मास-मीडिया परोस रहा था तब तक मैं चुप रहा लेकिन अब अपने को ‘मासवादी’ नहीं, मार्क्सवादी’ कहने वाला कूर्मांचली अपनी उत्तरआधुनिकता के अन्तर्गत वही राग अलाप रहा है, तब मुझे भी कुछ कहने को बाध्य होना पड़ रहा है। ख़ासकर इसलिए कि कूर्मांचली की यह कहानी उन दोनों मृतकों का ही नहीं, मुझ जीवित का भी अपमान करती है। सो ऐसे कि यह कहानी उसने एक तरह से मुझसे सुनी हुई बातों के आधार पर लिखी है।

कोई दो-ढाई महीने पहले वह मेरे प्रिय पेय ‘घोड़ी’ यानी सस्ती फ़ौजी रम की बोतल को लेकर मेरी सेवा में हाज़िर हुआ था और यद्यपि मैं सिद्धान्ततः उन लोगों की सोहबत नहीं करना चाहता जो आधुनिक से उत्तरआधुनिक हो गये हैं, तथापि मैंने उसे इस एहसान को याद करते हुए पास बैठा लिया कि मुझे पागलख़ाने से मुक्ति दिलाने के अभियान में वही सबसे आगे रहा था। अपने हर पैग पर मुझे दो पिलाते हुए कूर्मांचली ने ढिणमिणाण भैरवकाण्ड और उससे जुड़े हुए दोनों पात्रों के बारे में मुझसे बातचीत की। कुछ इस अन्दाज़ से मानो उसने बातचीत का यह विषय महज़ वक्त काटने के इरादे से चुना हो और सो भी इसलिए कि यह घटना मेरे पुश्तैनी गाँव के पास घटी थी और उससे जुड़े हुए दोनों पात्र मेरी ही शागिर्दी में जीवन में आगे बढ़े थे। उसने साफ़-साफ़ यह नहीं कहा कि इस काण्ड पर मैं कहानी लिखना चाहता हूँ, कृपया लिखवा दीजिए। कहता तो मैं लिखवा देता। इस ख़तरे को मोल लेते हुए लिखा देता कि वह मुझे सचमुच पागल समझ बैठेगा।

मैं ठोस यथार्थवादी हूँ लिहाज़ा हर क़िस्म के रहस्यवाद से मुझे सख़्त कोफ़्त होती रही है। इसलिए मेरी लिखवाई हुई कहानी में कोई ‘रहस्यमय तीसरा’ न होता। ‘जादुई यथार्थवाद’ की पैरवी करने वाले कूर्मांचली को मैं याद दिला देता कि यथार्थ घिनौना है, इसीलिए तो कभी मेरी तरह उसने भी यथार्थ को जादुई बनाने के लिए क्रान्ति कराने की क़सम खायी थी।

शीर्षक से लेकर अन्तिम वाक्य तक कूर्मांचली की इस कहानी की हर बात मेरा क्रोध उत्तरोत्तर बढ़ाती रही। तबीअत हुई कि एक और ‘रहस्यमय काण्ड’ कर डालूँ जिसके बादे दो लाशें मिलें-एक उसकी, एक मेरी। कहानी के शीर्षक को ही लें-‘मौत की जुगलबन्दी’। इससे दो बातें प्रमाणित होती हैं-पहली यह कि भले ही कूर्मांचली हिन्दी का लब्धप्रतिष्ठ लेखक हो उसे हिन्दी नहीं आती, इसीलिए ‘घातक जुगलबन्दी’ को ‘मौत की जुगलबन्दी’ बना डाला है उसने। दूसरी यह कि अपनी कॉन्वेंटिया बिरादरी के अन्य लेखकों की तरह वह भी लिखता भले ही हिन्दी में हो, पर सोचता अंग्रेज़ी  में है। निश्चय ही उसके मन में कहानी के लिए शीर्षक उभरा होगा-‘अ डैलली डुएट’। अगर कविमना कूर्मांचली को वह अंग्रेज़ी शीर्षक लुभा रहा था तो मुझसे सलाह करता, मैं उसी टक्कर का यह हिन्दी शीर्षक सुझा देता-‘सम पर यम’।

अगर कहानी के शीर्षक से मुझे खीज हुई तो उसकी शैली से मैं तिलमिला उठा। अरे आप मुझे दारू पिलाकर जो कुछ सुन ले गये हैं उसे सीधे-सीधे ढंग से और साफ़-साफ़ शब्दों में लिखिए न। मगर नहीं। कूर्मांचली तो उत्तराधुनिक है ! तो उसके यहाँ होता क्या है कि कथा के दो मुख्य पात्र वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक मेधातिथि जोशी और क्षेत्रीय वन, खनन तखा भू माफ़िया के सरगना हरध्यानु बाटलागी ढिणमिणाण भैरव मंदिर के प्रांगण में आमने-सामने चुपचाप बैठे दारू की घूँट भरते रहते हैं और मन ही मन एक-दूसरे से बातें करते रहते हैं।

रोब में आइए कि यहाँ सारा संवाद आन्तरिक एकालाप के माध्यम से कराया गया है। रोब में आइए कि किस कुशलता से इन आन्तरिक एकालापों को परस्पर गूँथ कर संगीत में होने वाली जुगलबन्दी का आभास दिया गया है-एकालापों की अवधि कभी बहुत छोटी, कभी बहुत बड़ी, और कभी बीच-की-सी करते रहकर। रोब में आइए कि इसमें इस जुगलबन्दी के चलते दोनों मुख्य पात्रों की दोस्ती-दुश्मनी की कहानी उनके अपने-अपने नज़रिये से पेश कर दी गयी है। सिनेमाई भाषा में यह कि उन दोनों के सत्यों को ‘परस्पर इन्टरकट’ कर दिया गया है कि साहब सच सच से टकरा रहा है और सच यह है कि टक्कर में सच कहीं नज़र नहीं आ रहा है ! जबकि सच यह है कि लेखक ख़ुद सच का सामना करने से कतरा रहा है और पाठक को भी कायरता की यह सुविधाजनक राह अपनाने के लिए उकसा रहा है।

लुत्फ़ की बात यह है कि कूर्मांचली कहीं भी यह बताने की कोशिश नहीं करता कि उसके कथापात्र दारू की घूँट भरते-भरते मर कैसे गये ? अपने-अपने एकालाप में एक-दूसरे की मृत्यु अपने-अपने कारणों से चाहते हैं और कूर्मांचली ऐसा जताता है मानो उनके ऐसा चाहने-भर से दोहरी मौत की यह घटना घटी।

उत्तरआधुनिक कूर्मांचली यह कहते हुए तो नहीं शरमाता कि सच राम जाने क्या था लेकिन यह कहने में वह संकोच कर जाता है कि यह घटना राम जी की रहस्यमय लीला का ही एक नमूना थी, बावजूद इसके कि वह इधर राम का नाम जपने वाली पार्टी का भी कृपांकाक्षी बन चला है। अभी पिछले ही महीने उसने राम का नाम जपने वाले एक मन्त्री की पत्नी के काव्य-संग्रह का प्रधानमन्त्री द्वारा विमोचन किये जाने के समारोह की अध्यक्षता की थी। बहरहाल इस दोहरी मौत का कोई युक्तियुक्त कारण न बताकर वह अपने पाठक को यही मानने के लिए मजबूर करता है कि इन दो गुनाहगारों को परमपिता परमेश्वर ही आकर मौत के घाट उतार गये।

कूर्मांचली की कहानी की अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-‘दारू ख़त्म हो चुकी थी। उनकी अपनी-अपनी कहानियाँ भी विलीन हो चुकी थीं उस अथाह और स्याह सागर में, जिसमें पहुँचकर हर किसी की कथा समाप्त हो जाती है और जिज्ञासु की जिज्ञासा ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। अपराधी जीवन की उपल्बधियाँ और निशानी के रूप में केवल उनके वमन के अवशेष ही रह गये थे जिनमें उनका अपराधबोध ढूँढे नहीं मिल सका।’ इस तरह के शब्दजाल पर ख़ुद ही निहाल होते लेखकों को मैं लानत भेजता हूँ। क्या कूर्मांचली को इतना भी नहीं पता है कि जब तक दुनिया में हम इन्सान मौजूद हैं, अच्छी या बुरी कैसी भी लीला के लिए किसी काल्पनिक भगवान को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर बैईमानी है ? मैं ‘हंस’ के प्रगतिशील समपादक पर भी हैरान हूँ। जिस दौर में साहित्यिक मोर्चा मेरे हाथ में था, कोई प्रगतिशील साहित्यकार इस तरह की कहानी न लिख सकता था, न छाप सकता था।

कूर्मांचली की लिखी कथा भ्रामक है और उसमें सुधार अपेक्षित है। वैसे सुधार किसमें अपेक्षित नहीं है आज ? हमारे उपवन में यहाँ से वहाँ तक भूल के ही फूल खिले हैं। अफ़सोस कि भले ही एक ज़माने में मैंने कूर्मांचली-जैसे अनेक लेखकों का मार्गदर्शन किया था, मैं स्वयं लेखक नहीं हूँ। मैं तो बस इस काण्ड की भौगोलिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि स्पष्ट करके कूर्मांचली के लिए भूल-सुधार का मार्ग प्रशस्त कर सकता हूँ और करूँगा भी, क्योंकि वह मेरी नैतिक ज़िम्मेदारी हो जाती है। बात भूगोल से शुरू करूँगा। हमारे प्रान्त की उत्तरी सीमा से थोड़ा इधर को एक अत्यन्त दुर्गम क्षेत्र स्थित है, जो कभी रियासत कस्तूरीकोट के नाम से जाना जाता था और आज ज़िला वाल्मीकि नगर के नाम से पुकारा जाता है। कस्तूरीकोट इसलिए पुकारा जाता था कि यहाँ कभी कस्तूरी मृगों की भरमार थी। वाल्मीकि नगर इसलिए कहलाता है कि यहाँ ऐसे लोगों की भी भरमार है जिन्हें बाहर से आये विजेताओं ने डूम यानी अछूत माना। उनसे थोड़े बेहतर दर्जे के लोगों को उन्होंने खसिया का दर्ज़ा दिया।

डूम, जिनकी संख्या बहुत ज़्यादा थी, भोजन-पानी तो दूर सवर्ण की छाया भी नहीं छू सकते थे। अगर किसी काम से डूम को बुलाया जाता था तो घर के बाहर जिस भी जगह वह बैठता था उस जगह को सोने का स्पर्श पाये पानी से धोना और फिर गोबर से लीपना ज़रूरी होता था। फिर उस जगह पर और घर वालों पर गोमूत्र छिड़कना आवश्यक समझा जाता था। अगर कोई कमज़ोर नजर वाला सवर्ण दूर से आते डूम को अपना कोई बिरादर समझ कर नमस्कार कर देता था तो यह डूम के लिए भयंकर अपशकुन वाली बात मानी जाती थी और भयभीत डूम फ़ौरन अपने फटेहाल कपड़ों का एक हिस्सा फाड़कर आग में जला कर श्राप-मुक्ति पाता था। खसिया, जो कभी इस इलाक़ें के स्वामी रहे होंगे, सवर्णों का पानी छू सकते थे, खाना नहीं। खसियाओं के लिए हम डूम अछूत थे। जहाँ तक बाहर से आये विजेताओं का सवाल है, उनके लिए यहाँ के ब्राह्मण भी एक तरह से अछूत ही हैं और वे उनसे सम्बन्ध नहीं करते।

 सच तो यह है कि वे हमें अन्य इलाकों में प्रचलित संज्ञाओं-बामण, खसिया और डूम-से सम्बोधित न करके हामण, हसिया और डूम-हूम कहना पसन्द करते।
सच तो यह है कि वे हमें अन्य इलाकों में प्रचलित संज्ञाओं-बामण, खसिया और डूम-से सम्बोधित न करके हामण, हसिया और हूम कहना पसन्द करते थे। इसका औचित्त यह था कि उनकी बोली में ‘बामण-वामण’ या डूम-वूम’ न कहकर ‘बामण-हामण’ और डूम-हूम’ कहने का रिवाज था। विचित्र किन्तु सत्य कि विजेताओं के दिये हुए इस हिकारत-भरे ‘हकार’ से मुक्ति पाने के लिए हम लोगों को बाक़ायदा राजदरबार में गुहार लगानी पड़ी थी। तब जाकर हम बामण, खसिया और डूम समझे जा सके सरकारी तौर पर। व्यवहार में बाहर वाले हमें हामण, हसिया और हूम ही पुकारते रहे।

तो कस्तूरीकोट का नाम वाल्मीकि नगर कर देने का औचित्य यह है कि यह अनुसूचितों का इलाक़ा है। किसी ज़िले को नगर कहने का क्या औचित्य है, यह बताने में असमर्थ हूँ, कभी रियासत की राजधानी और अब नये ज़िले के मुख्यालय कस्तूरीकोट के, जिसे अब वाल्मीकि नगर पुकारा जाता है, एक उजड़े उद्यान में लगी महर्षि वाल्मीकि की मूर्ति से आप आकर कभी इस रहस्य का उद्धाटन करवा लें। चेतावनी देना आवश्यक समझता हूँ कि कस्तूरीकोट दुर्गम था और वाल्मीकि नगर भी दुर्गम है। चीनी आक्रमण के बाद इस इलाक़े में कुछ मोटर-मार्ग बना ज़रूर दिये गये हैं मगर वे कुल मिलाकर मुसाफ़िरों से ज़्यादा ठेकेदारों पर मेहरबान हैं। चट्टानें खिसकाने से टूटती ही रहती हैं सदा। स्थानिक कन्याओं की परम्परागत पोशाक झगुली के, जिसे आप देहाती नाइटी कह सकते हैं, तंग फेरों-जैसे लपेटे खाती यह सड़क भयानक खड्डु का दर्शन कराती इतनी तेज़ी से चढ़ती है मानो आपको स्वर्ग पहुँचाने की जल्दी में हो।

इस दुर्गम ज़िले का दुर्गमतम क्षेत्र है फस्किया़धार, जहाँ यह काण्ड हुआ। इस काण्ड को ढिणमिणाण रहस्य काण्ड पुकारने वाले मीडिया को पता ही नहीं है कि ढिणमिणाण भैरव मेरे जन्म स्थान फस्कियाधार की देवी का द्वारपाल है। दोनों मृत व्यक्ति फस्कियाधार ही के थे। यह मान सकना मुश्किल है कि वह तथाकथित रहस्यमय तीसरा भी कहीं और का रहा हो। जिन्हें उस तीसरे को भगवान मानने की ही ज़िद हो वे भी इस इलाके को देखने के बाद यही कहेंगे कि लुढ़कते भैरव के मन्दिर में चोर और सिपाही दोनों को मारने वाला या तो भैरव ही रहा होगा यह फिर उसकी मालकिन देवी रही होगी या फिर दोनों ने मिलकर यह दोहरा हत्याकाण्ड किया होगा।

फस्कियाधार तो इतना दुर्गम है और नवम्बर में वहाँ इतनी ठण्ठ पड़ती है कि कोई बाहर का भगवान भी वहाँ नहीं आना चाहता। ज़िला मुख्यालय से फस्कियाधार की ओर एक और भी ज़्यादा ख़तरनाक मोटर मार्ग ह्यपानी-यानी बर्फीले घाट तक ज़रुर बना दिया गया है लेकिन इस मोटर मार्ग से आते हुए आप डर के मारे पसीना-पसीना हो जायेंगे और अगर उसके बाद ह्यूपानी घाट के पानी से अपने अंग भी पोंछेंगे तो मारे ठण्ड के वहीं परचेत पड़ जायेंगे यानी बेहोश हो जायेंगे।
होने को ह्यूपानी घाट से फस्कियाधार की लगभग 11 हज़ार की ऊँची चोटी के नाक के नीचे बहती ढुंग्याली गाड़ तक भी जंगलात वालों ने एक कामचलाऊ मार्ग बना दिया है लेकिन उनमें कोई सवारी गाड़ी नहीं चलती। और अगर चलती भी होती तो मैं आपको यही सलाह देता कि उसमें चढ़ने की बजाय आप आत्महत्या का कोई बेहतर तरीक़ा खोज लीजिए।

मारे डर के मरना भी क्या मरना ! ढुंग्याली गाड़ से फस्कियाधार तक एक तीख़ी चढ़ाई और इस चढ़ाई के लगभग बीचों-बीच स्थित है ढिणमिणाण भैरव का छोटा-सा मन्दिर, जिसके चारों ओर थके यात्रियों के विश्राम करने के लिए काफ़ी जगह समतल बना दी गयी है। फस्कियाधार और उसके आस-पास का इलाक़ा पथरीला और बर्फ़ीला है। यहाँ की छोटी-सी वेगवती नदी ढुंग्याली गाड़ में पानी से ज़्यादा बड़े-बड़े पत्थर हैं, इसीलिए उसे ढुंग्याली गाड़ यानी पथरीली नदी कहा गया है। नवम्बर ख़त्म होते-होते यह सारा इलाक़ा बर्फ़ से ढक जाता है और यहाँ के पानी के तमाम स्रोत भी जम जाते हैं।

चोटी के ऊपर पत्थरों से बना हुआ एक मन्दिर है, जिसमें, ज़मीन से बाहर की ओर थोड़ी-सी उभरी एक चट्टान ही देवी के रूप में प्रतिष्ठित है। इस छोटे-से मन्दिर के पास ही एक बड़ा-सा गाँव है। गाँव के लोगों को मुख्य पेशा भेड़-बकरी पालना और ऊन कातना है। इलाक़ा खेती के योग्य नहीं है लेकिन गर्मियों में बर्फ़ पिघल जाने के बाद यहाँ मवेशियों के लिए अच्छी घास उग आती है। जाड़ा शुरू होते ही घास और आजीविका की तलाश में यहाँ के लोग  निचले इलाकों की ओर निकल जाते हैं। ढुंग्याली गाड़ की तरफ़ पड़ने वाला पर्वत का हिस्सा निचले इलाक़ों की ओर निकल जाते हैं। ढुंग्याली गाड़ की तरफ पड़ने वाला पर्वत का हिस्सा लगभग वृक्षहीन है। उसमें झाड़ियाँ और जड़ी-बूटियाँ ही उगती हैं। लेकिन अगर दूसरी तरफ़ हिमबंग्गा उर्फ़ हिमगंगा नदी की ओर उतरने लगें काफ़ी हरियाली नज़र आती है। सामने वादी में देवदार के पुराने पेड़ों के ठूँठ और नये पेड़ों का एक पूरा वन नज़र आता है।

आमतौर से सारे कस्तूरीकोट के और ख़ासतौर से फस्कियाधार के लोग अपने सौन्दर्य के लिए विख्यात हैं-ख़ासकर स्त्रियाँ। उनमें भी ख़ासकर बाटलगी यानी राहलगी कहलाने वाली जाति की स्त्रियाँ। जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, इस जाति के लोग राह से ही लगे रहते थे और यहाँ-वहाँ घूम-घाम कर लोगों का अपने नाच-गाने से और अपने क़िस्से-कहानियों से मनोरंजन किया करते थे। देवी के मन्दिर में मेले-ठेले पर उन्हें ही श्रद्धालुओं का मनोरंजन करने का काम मिलता था और शादी-ब्याह में उन्हें बारात के आगे-आगे चलाया जाता था। वे और तमाम मामलों में अछूत समझे जाते थे, लेकिन मन और तन का रंजन करने के मामले में नहीं। संकेत दे चुका हूँ कि 14 वीं शताब्दी में बाहर से आये विजेताओं का दावा है कि इस क्षेत्र के सभी लोग अछूत हैं। उनका अहंकार से भरा निर्मम दावा है कि हमारे आने से पहले यहाँ एक ही जाति थी, जिसे किसी बदतर शब्द के अभाव में भड़ुवा-पतुरिया जाति कहा जा सकता था। यहाँ के कुछ लोग अपने को सवर्ण मान सके हैं तो इसीलिए कि हमारे बुजुर्गों में से कुछ ने भयंकर वितृष्णा पर उत्कट कामेच्छा से विजय पाते हुए उनकी आद्या जननी से सम्भोग कर लिया था।

भयंकर वितृष्णा का सन्दर्भ यह है कि यहाँ की अन्यतम रूप से कामोत्तेजक स्त्रियों के आकर्षणरूपी चन्द्र पर अनेकानेक कलंक उनकी ग़रीबी लगाये रहती है। जैसे एक कलंक उनके फटे हुए चीकट वस्त्रों का, जिन्हें एक-एक बार पहन लेने के बाद वे तभी उतार पाती हैं जब कहीं से नये वस्त्र का जुगाड़ हो या पुराना वस्त्र उन्हें ढक सकने में सर्वथा असमर्थ हो चला हो। जल के अभाव और शीत के प्रभाव में स्नान से अनजान रह गयी उनकी देह पर पड़ी मैल की मोटी-मोटी रेखाएँ और उनकी शरीर से उठती दुर्गन्ध भी उनकी कामोत्तेजक रूपराशि पर दूसरे कलंक के समान हैं। कहना न होगा कि स्थानिक सवर्णों को इस तरह की बातों पर घोर आपत्ति होती आयी है। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं यह मानने को तैयार हूँ कि बाहर वालों के अपवित्र चरण पड़ने से पहले इस इलाक़े में एक ही जाति थी, जिसे किसी बेहतर शब्द के अभाव में निर्धन-नादान पुकारा जा सकता था। बहरहाल मेरे अछूत बुजुर्ग भी बाहर वालों के इस दावे को निरी फसक यानी गप्प ठहराते थे कि हमारे सवर्ण भी अछूत है। लुत्फ़ यह है कि बाहर वाले हमें फस्किया यानी गप्पी मानते आये, इसीलिए उन्होंने हमारे क्षेत्र का नाम फस्कियाधार रखा।

मेरे बुजुर्ग बताते थे कि उन्होंने अपने बुज़ुर्गों से सुना था कि इस जगह का नाम पहले कुछ और था-शायद जीबीजौल। जीबीजौल का कुछ अच्छा-सा मतलब था-शायद जाँबाज़ों का जमघट। यह ‘शायद’ वाली स्थिति इसलिए कि सदियों से चला आ रहा बाहरी विजेताओं का वर्चस्व मेरे बुज़ुर्गों के बुज़ुर्गों के मस्तिष्क तक से अपने इतिहास और भाषा की स्मृतियाँ मिटा चुका था। वे विजेताओं की मानसिक औलादें तो निश्चय ही बन चुके थे। देख रहा हूँ कि भूगोल सुनाते-सुनाते मैं इतिहास में फिसल आया हूँ।

जिन महानुभावों के धैर्य को किसी ताज़ातरीन रहस्यमय काण्ड से जुड़े हुए भूगोल पर प्रकाश डाला जाना स्वीकार्य हो भी गया हो वे भी शायद उससे जुड़े पिछले इतिहास, का ज़िक्र किये जाने पर आपत्ति कर उठें। उनसे मेरा नम्र निवेदन है कि हर कहानी के पीछे कई-कई और कहानियाँ रहती हैं और उनका सन्दर्भ सामने न होने पर पाठक के लिए हर कहानी एक पहले बनायी जा सकती है। इसी के चलते कूर्मांचली जैसे लेखक अपना जादुई यथार्थवाद बड़े मजे से चला ले जाते हैं। यथार्थ में विस्मयकारी के अर्थ में जादुई-वादुई कुछ होता है तो यही कि वह आगे-पीछे की तमाम अन्य कहानियों से जुड़ा हुआ होता है और उन सबकी एक साथ जानकारी किसी को भी नहीं हो पाती।


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