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गजलें और शायरी >> खोया हुआ सा कुछ

खोया हुआ सा कुछ

निदा फाजली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2117
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है निदा फाजली की सर्वश्रेष्ठ शायरी...

Khoya Huaa Sa Kuchh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निदा फाज़ली-उर्दू नयी शायरी का एक प्रतिष्ठित और लोकप्रिय नाम-जिनकी चर्चा के बगैर उर्दू की जदीद शायरी की कोई चर्चा मुकम्मल नहीं होती।
गजल हो या नज्म, गीत हो या दोहे हर विधा में रचनाकार निदा फाज़ली अपनी सोच, शिल्प और अन्दाज़े-बयाँ में दूसरों से अलग ही दिखाई नहीं देते, पूरी उर्दू शायरी में अकेले नज़र आते हैं।
निदा फाज़ली की एक पहचान उनकी वह सरल सहज जमीनी भाषा है, जिसमें खुसरो और कुलीकुतुबशाह की तरह उर्दू-हिन्दी का फ़र्क़ समाप्त हो जाता है। यही कारण है इनकी रचनाएँ, दोनों लिपियों में बिना किसी रद्दो-बदल के प्रकाशित होती हैं, और प्रेम-सम्मान के साथ पढ़ी जाती हैं !

‘खोया हुआ सा कुछ’ देवनागरी में उनका दूसरा संकलन है। पहला संकलन ‘मोर नाच’ के नाम से प्रकाशित होकर काफी लोकप्रिय हो चुका है।

निदा फाज़ली आधुनिक शायर हैं। लेकिन उनकी आधुनिकता पाठकों और श्रोताओं से कभी दूर नहीं होती। ये शायरी, ‘मीर’ के शब्दों में ‘अवाम’ और ‘खवाम’ दोनों पसन्द की जाती !
निदा फाज़ली की शायरी एक कोलाज़ के समान है। इसके कई रंग और कई रूप हैं। किसी एक रुख से इसकी शिनाख्त मुमकिन नहीं। उन्होंने ज़िन्दगी के साथ कई दिशाओं में सफर किया। उनकी कविता इसी सफ़र की दास्तान है। जिसमें कहीं धूप है कही छाँव है-कहीं शहर है कहीं गाँव है। इसमें घर, रिश्ते, प्रकृति, और समय अलग-अलग किरदारों के रूप में एक ही कहानी सुनाते हैं...एक ऐसे बंजारा मिज़ाज शख़्स की कहानी –जो देश के विभाजन से अब तक अपनी ही तलाश में भटक रहा है। बँटी हुई सरहदों में जुड़ें हुए आदमी की यह तलाश रचनाकार निदा फाज़ली का निजी दर्द भी है और यही उनकी शायरी की ताकत भी है। उन्होंने ‘करनी’ और ‘कथनी’ की दूरी को अपने शब्दों से कम किया है और वही लिखा है जो जिया है। इसकी तासीर का राज भी यही है।

वो सूफी का कौल हो या पण्डित का ज्ञान
जितनी बीते आप पर, उतना ही सच मान

निदा फाज़ली के कई शेर और दोहे हमारी बोलचाल के मुहावरे बन चुके हैं। ये एक ऐसी विशेषता है जो उन्हीं का हिस्सा है।


देर से


कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से

हुआ न कोई काम मामूल से
गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से

कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब
हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से

ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई, यही मेल है
मैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़मोशी, सदा देर से

सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लगराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से

भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से


हम्द1


नील गगन पर बैठ
कब तक
चाँद सितारों से झाँकोगे

पर्वत की ऊँची चोटी से
कब तक
दुनिया को देखोगे

आदर्शों के बन्द ग्रन्थों में
कब तक
आराम करोगे

मेरा छप्पर
टरक रहा है
बनकर सूरज
इसे सुखाओ

खाली है
प्रार्थना
आटे का कनस्तर
बनकर गेहूँ
इसमें आओ

माँ का चश्मा
टूट गया है
बनकर शीशा
इसे बनाओ

चुप-चुप हैं आँगन में बच्चे
बनकर गेंद
इन्हें बहलाओ

शाम हुई है चाँद उगाओ
पेड़ हिलाओ
हवा चलाओ

काम बहुत हैं
हाथ बटाओ अल्ला मियाँ
मेरे घर भी आ ही जाओ
अल्ला मियाँ...!


कहीं-कहीं से



कहीं-कहीं से हर चेहरा
तुम जैसा लगता है
तुमको भूल न पायेंगे हम
ऐसा लगता है

ऐसा भी इक रंग है जो
करता है बातें भी
जो भी इसको पहन ले वो
अपना-सा लगता है

तुम क्या बिछड़े भूल गये
रिश्तों की शराफ़त हम
जो भी मिलता है कुछ दिन ही
अच्छा लगता है

अब भी यूँ मिलते हैं हमसे
फूल चमेली के
जैसे इनसे अपना कोई
रिश्ता लगता है

और तो सब कुछ ठीक है लेकिन
कभी-कभी यूँ ही
चलता-फिरता शहर अचानक
तन्हा लगता है


गरज-बरस



गरज-बरस प्यासी धरती पर
फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाने, बच्चो को
गुड़धानी दे मौला

दो और दो का जोड़ हमेशा
चार कहाँ होता है
सोच-समझवालों को थोड़ी
नादानी दे मौला

फिर रौशन कर ज़हर का प्याला
चमका नयी सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को
ताबानी1 दे मौला

फिर मूरत से बाहर आकर
चारों ओर बिखर जा
फिर मन्दिर को कोई ‘मीरा’
दीवानी दे मौला

तेरे होते कोई किसी की
जान का दुश्मन क्यों हो
जीनेवालों को मरने की
आसानी दे मौला


रौशनी के फ़रिश्ते



हुआ सवेरा
ज़मीन पर फिर अदब से आकाश
अपने सर को झुका रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं...

नदी में अस्नान करके सूरज
सुनहरी मलमल की पगड़ी बाँधे
सड़क किनारे
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं...

हवाएँ सर-सब्ज़ डालियों में
दुआओ के गीत गा रही हैं
महकते फूलों की लोरियाँ
सोते रास्तें को जगा रही हैं
घनेरा पीपल,
गली के कोने से हाथ अपने हिला रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं...!
फ़रिश्ते निकले हैं रौशनी के
हरेक रस्ता चमक रहा है
ये वक़्त वो है
ज़मीं का हर ज़र्रा
माँ के दिल-सा धड़क रहा है

पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं
बच्चे स्कूल जा रहा हैं...!


उठके कपड़े बदल



उठके कपड़े बदल, घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ
रात के बाद दिन, आज के बाद कल
जो हुआ सो हुआ

जब तलक साँस है, भूख है प्यास है
ये ही इतिहास है
रख के काँधे पे हल, खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ

खून से तर-ब-तर, करके हर रहगुज़र
थक चुके जानवर
लकड़ियों की तरह, फिर से चूल्हे में जल
जो हुआ सो हुआ

जो मरा क्यों मरा, जो जला क्यों जला
जो लुटा क्यों लुटा
मुद्दतों से हैं गुम, इन सवालों के हल
जो हुआ सो हुआ

मन्दिरों में भजन मस्जिदों में अज़ाँ
आदमी है कहाँ ?
आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल
जो हुआ सो हुआ



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