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गोसाई बागान का भूत

शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :86
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2133
आईएसबीएन :9788126002269

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मजेदार और रोमांचक कारनामों से भरपूर उपन्यास, गोसाईं बागान का भूत...

Gosai Bagan Ka Bhut

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

किशोर पाठकों मे बेहद लोकप्रिय शीर्षेन्दु मुखोपाध्याय ने कई रोचक पुस्तकें लिखी हैं। उनकी नई पुस्तकों के इन्तजार में भी बड़ा मजा आता है। ऐसे ही मजेदार और रोमांचक कारनामों से भरपूर गोसाईं बागान का भूत उपन्यास एक ऐसी रोचक कृति है जो एक बार हाथ आयी नहीं कि पाठक इसे पढ़े बिना मानेंगे ही नहीं। इसमें लेखक से कई सवाल पूछे गये हैं जिनमें पहला यह था कि क्या भूत सचमुच इतने परोपकारी होते हैं ? दूसरे, भूत अगर राम नाम से इतना डरते हैं तो इस उपन्यास के एक भूत का नाम निधिराम क्यों रखा गया ? लेखक का मानना है कि नाम में राम लगाना और राम का नाम लेना दोनों अलग-अलग बातें हैं। तीसरा सवाल यह कि साँप का जहर क्या खुद साँप पर असर करता है ? अगर करता है तो राम वैद्य जी का नाम सुनकर भूत क्यों भाग जाते हैं ? वह भी तो एक नाम ही है। दरअसल वैद्य जी के नाम में विशुद्ध राम हैं। इसके आगे-पीछे कुछ भी नहीं लगा। भूतों के मन को समझना बहुत कठिन हैः कभी वे राम नाम सुनकर काँप उठते हैं तो कभी किसी राम की परवाह नहीं करते । अब अगर कोई भूत अनजाने में राम वैद्यजी का नाम ले ही ले तो हम क्या कर सकते हैं ? भूतों से भी गलती हो सकती है।

मामला बड़ा पेचीदा था-इसलिए कोई फेरबदल किये बिना अपनी तमाम गड़बड़ियों के साथ यह उपन्यास सबके सामने है। अगर किसी पाठक को कहीं कोई ऐसा परोपकारी भूत मिल जाए तो सच्चाई का पता और सवालों का जवाब मिल सकता है।

1


वार्षिक परीक्षा में गणित के पर्चे में सिर्फ़ तेरह नम्बर पाकर बुरुन बिल्कुल बेवकूफ समझ लिया गया। जहाँ उसे इतिहास में अस्सी, बाङ्ला भाषा पर पैंसठ और अंग्रेज़ी में साठ नम्बर मिले थे, वहाँ गणित में सिर्फ़ तेरह।

हेडमास्टर सचिन सरकार बरीसाल के रहनेवाले थे। वे जितने रोब-दाब वाले थे उतने ही क्रोधी थे। मगर वे अपने विद्यार्थियों को बिल्कुल नहीं पीटते थे। लेकिन अपने कमरे से निकलकर उनके बरामदे में खड़े होते ही स्कूल में सुई गिरने की आवाज़ सुनाई देने वाला सन्नाटा छा जाता था। अपने स्कूल के हर विद्यार्थी को वे अच्छी तरह जानते थे, उन सबके नाम-धाम अचार-व्यवहार, स्वास्थ वगैरह की सारी बातें उन्हें मुँहजबानी याद रहती थीं।

परीक्षाफल निकल जाने के बाद उन्होंने बुरुन को बुलाकर कहा, ‘‘जिस लड़के को गणित नहीं आती, वह बड़ा होकर क्या बनता है, जानते हो ? बेहिसाबी, ख़र्चीला और अव्यावहारिक। गणित की शिक्षा आदमी की नींव को मजबूत करती है। मन को निर्मल बनाती है और विचार-शक्ति को स्पष्ट। बेकार की भावुकता में कमी आती है। इसलिए जो लड़का गणित की पढ़ाई में मेहनत नहीं करता, उसे मैं अच्छा लड़का नहीं समझता।’’

घर लौटने के बाद पिताजी ने बुरुन को अपने कमरे में बुलाया। वे बहुत गम्भीर व्यक्ति थे। अच्छे डॉक्टर होने के कारण वे बड़े लोकप्रिय थे, इसलिए व्यस्तता भी काफ़ी थी। अपने बच्चों की खोज-ख़बर लेने का भी उन्हें समय नहीं मिलता था। कहा जाए तो अपने बच्चों से वे बहुत कम बातचीत करते थे। ज़रूरत न पड़े तो लगातार सात-आठ दिन तक वे किसी से बात ही नहीं करते थे। इसलिए बुरुन और उसके भाई-बहन अपने पिता को एक रहस्यमय व्यक्ति समझते थे। उनके सामने पड़ने से वे कतराते थे।

बुरुन जब अपने पिताजी के कमरे में गया तब वे खिड़की के पास रखी आरामकुर्सी पर बैठे थे। वे अपने कपड़े वगैरह पहनकर गले में स्टेथेस्कोप लटकाकर तैयार थे। यानी अब वे रोगियों को देखने के लिए निकलने ही वाले थे। बुरुन के कमरे में घुसते ही पिताजी ने हाथ बढ़ाकर कहा, ‘‘अपनी प्रोग्रेस रिपोर्ट दिखाओ।’’

बुरुन ने डरते-डरते एक तहाया हुआ काग़ज़ हाथ में देते ही उसके पिताजी अपने माथे पर बल डालकर खीझते हुए उसके नम्बरों को देखने लगे। इसके बाद उस काग़ज़ को लौटाते हुए बोले, ‘‘मैं भी अपनी पढ़ाई के समय गणित में बहुत अच्छा नहीं था। लेकिन अस्सी नम्बर भले ही न मिलते, चालीस-पचास मिलने में कोई दिक्कत नहीं होती थी।’’
बुरुन की निगाहें नीची हो गयीं।

पिताजी ने उठते-उठते कहा, ‘‘कल से कराली मास्टर साहब के यहाँ गणित की पढ़ाई के लिए जाना शुरू कर दो। वहाँ तक रोज़ पैदल जाओगे और पैदल ही वापस लौटोगे।’’

कराली मास्टर साहब वहाँ से ढाई मील दूर कामराडाँगा में रहते थे। वे रोज़ वहाँ से साइकिल पर स्कूल आते थे। गणित के अध्यापक के रूप में उनका खूब नाम था। कहा जाता है कि वे खाना खाने के बाद बैठे-बैठे जूठी थाली में अपनी उँगली से गणित लगाया करते थे। गणित के बड़े-बड़े सवालों का सपना देखते थे। लोग जिस तरह-कहानी उपन्यास की किताबें पढ़ते हैं, कराली सर ठीक उसी तरह गणित की किताबें पढ़ते थे। लोग जिस तरह दुःख की कहानियाँ पढ़कर रोते हैं, हँसी की कहानी पढ़कर हँसते हैं, भूत की कहानी पढ़कर रोमांचित होते हैं, कराली सर भी उसी तरह गणित की मोटी-मोटी किताबें पढ़ते-पढ़ते कभी ठठाकर हँस पड़ते थे, कभी रोते-रोते अपने आँसू पोंछने लगते थे और कभी गणित का गलत सवाल देखकर डर से सिहरकर ‘राम-राम-राम’ करने लगते थे। मगर वे स्वभाव के बड़े भुलक्कड़ थे। अपने विद्यार्थियों में से किसी का भी नाम उन्हें याद नहीं रहता था। किसी के घर में दावत खाने के बाद अगर कोई उनसे पूछता, ‘‘कराली बाबू, रोहू मछली कैसी बनी थी ?’’

जवाब में कराली सर चकित होकर पूछते, ‘रोहू मछली ! खाने में रोहू मछली भी थी क्या ?’’
एक बार खीर खाने के बाद डकार लेकर कहा था, ‘‘वाह, बहुत बढ़िया दही था। इतना मीठा दही मैंने कभी नहीं खाया।’’ गणित के इतने प्रसिद्ध अध्यापक होते हुए भी कराली बाबू हिसाब-किताब के मामले में बड़े कच्चे थे। सवा रुपये किलो करेले की ढाई सौ ग्राम की कीमत का हिसाब वे बाज़ार में सब्जी ख़रीदते समय किसी तरह भी लगा नहीं पाते थे। आख़िर में परेशान होकर वे उस दुकानदार से ही कहते, ‘‘भैया, तुम्हीं हिसाब लगाकर पैसे बता दो। मैं इसमें थोड़ा कमज़ोर हूँ।’’
रोज़ ढाई-मील पैदल चलकर कराली सर से गणित सीखने की बात पर बुरुन को बहुत गुस्सा आ रहा था।

इस बात को शायद समझकर ही पिताजी ने कहा था, ‘‘बिना तकलीफ़ उठाये आदमी आगे नहीं बढ़ पाता। तुम लोग सुख-सुविधा से पल रहे हो, इसलिए सब कुछ बड़ा आसान लगता है। खुद रवीन्द्रनाथ इतने धनी आदमी की संतान होते हुए भी नौकरों के बीच पले-बढ़े थे। अपनी सुख-सुविधाएँ, मनोरंजन वगैरह भी आज से ख़त्म समझो। अब से तुम्हारी तकलीफ़ों के दिन शुरू होंगे। गणित की पढ़ाई के लिए तुम्हें रोज़ पाँच मील पैदल जाना और आना पड़ेगा। यह हुई पहली तकलीफ़। इसके बाद दूसरी, तीसरी, ऐसी ही और भी तकलीफ़ें आयेंगी। तैयार रहना।’’
इतना कहकर पिता जी चले गये।

बुरुन को गणित में तेरह नम्बर मिलने के बाद से घर में सभी मुँह फुलाये रहते थे। कोई भी उससे ज्यादा बातें नहीं करता था। माँ तो करती ही नहीं थी, छोटा भाई और बहन-गुरुन और बेली भी उससे कटे-कटे रहते। बुरुन ने एक बार बेली को अपनी पीठ खुजा देने के लिए कहा था। बेली ने जवाब दिया था, ‘‘तुमसे ज़्यादा बातें करने के लिए पिताजी ने मना किया है। तुम दीवार से अपनी पीठ रगड़ लो। खुजली ठीक हो जायेगी।’’
बुरुन समझ गया कि घर वाले उसकी उपेक्षा करने लगे हैं।

परीक्षाओं के बाद अभी स्कूल बंद ही चल रहा था। बुरुन को दिन भर बड़ा अकेलापन सताता। अपने साथियों के साथ ज़्यादा मिलने-जुलने से उसे रोक दिया गया था। सिर्फ़ शाम को उसे खेलने के लिए डेढ़ घंटे तक की छूट मिली थी। इसलिए बुरुन का मिज़ाज़ बेहद उखड़ा हुआ रहता था। घर में दादाजी ही उससे पहले जैसा व्यवहार करते। प्यार भी करते। लेकिन उनके साथ ज्यादा वक़्त बिताने का कोई उपाय नहीं था। वे दिन रात वैद्यक की दवाइयाँ बनाने में वयस्त रहते थे। वे वैद्यक में धातव और भेषज दोनों तरह का इलाज करते थे। वे दिन रात हीराभस्म, मुक्ता भस्म, स्वर्ण सिन्दूर बनाते। मैदानों-जंगलों से बेल की जड़, कंटकाकरी, खानकुनी और भी न जाने कितनी तरह के पत्ते इकट्ठा करते। इसके बाद उन सबसे दवाई तैयार करते। एलोपैथी चिकित्सा से वे बड़े चिढ़ते थे और इस मामले में वे अपने डॉक्टर बेटे को भी तुच्छ समझते थे। शाम के वक़्त जब उनकी बाज़ार वाली दुकान में बूढ़ों की महफ़िल बैठती, तब वे मौक़ा पाते ही उनसे यह बात कहना नहीं भूलते थे, ‘‘भला भेलू भी कोई डॉक्टर है। अभी तक उसे नाड़ी देखना नहीं आया।’’
घर में बुरुन आजकल बड़ा अकेलापन महसूस करता। गणित में तेरह नम्बर पाना क्या होता है, इसे वह रग-रग में समझ रहा था।

दोपहर को घर में ख़ामोशी छायी हुई थी। पिताजी किसी रोगी को देखने कसबे से बाहर गये हुए थे। माँ, बेली और बुरुन सो रहे थे। दादाजी और घर का नौकर शिबू आँगन में बैठकर खरल में भांग की सूखी पत्तियाँ कूट रहे थे। घर का परचा हुआ नेवला इधर-उधर घूम रहा था। अपनी पालतू मैना के पिंजड़े के सामने जाकर बुरुन जैसे ही खड़ा हुआ, मैना गणित में तेरह !....बुरुन को मिला है गणित में....तेरह !’’....बुरून को मिला है गणित में ....’’

बुरुन चौंक गया। मैना को यह बात किसने सिखायी ? मैना सचमुच बड़ी चतुर थी। कोई भी बात दो-चार बार सुनते ही वह उसे याद कर लेती थी। ज़रूर बुरुन को चिढ़ाने के लिए ही इस बीच किसी ने मैना को यह बात रटा दी होगी।
पूरी तरह अपमानित होने में अब रह ही क्या गया था ? आजकल बुरुन को अपने कपड़े भी खुद ही साफ़ करने पड़ते थे। अपने जूठे बर्तन तक खुद धोने पड़ते थे। इसके अलावा अपने जूते पॉलिश करने, अपना बिस्तर बिछाने और मसहरी लगाने, अपने पढ़नेवाले कमरे में सुबह-शाम झाड़ू लगाने जैसा काम भी उसे खुद ही करने पड़ते थे। घर में अपने भाई-बहनों या नौकरों पर वह किसी भी काम के लिए हुक्म नहीं चला सकता था। यह सब अपमान किसी तरह सहा जा सकता था लेकिन घर की पालतू चिड़िया के मुँह से अपने तेरह नम्बर पाने की बात सुनकर वह ग़ुस्से से बौखला गया। वह काफ़ी देर तक उस मैना को घूरता रहा। इसके बाद किसी को कुछ बताये बिना ही वह चुपचाप घर से बाहर निकल गया।

जाड़े की दोपहर थी। गुनगनी धूप फैली हुई थी। मुहल्ले के मैदान में बरुन अपने में खोया हुआ पैदल चलता-चलता उस छोटे से कस्बेनुमा शहर से बाहर निकलकर एकदम गौसाईं डकैत के बागान में पहुँच गया।

2


गोसाईं डकैत की बगिया या गोसाईं बागान एक विशाल जंगली इलाका था।
उस जंगल में एक खंडहर था। एक बहुत बड़ा ताल था। जंगली बेर तथा करौंदे के असंख्य पेड़ थे। ऐसे बढ़िया बेर और कहीं नहीं होते थे। देखने में वे मटर के दानों की तरह लगते पर वे स्वाद में बड़े मीठे थे। मगर उस जंगल में इतने साँप-बिच्छू, खुजली वाले बिच्छू पौधे और कँटीले झाड़-झंखाड़ थे कि उन जंगली बेरों को खाने वहाँ कोई नहीं आता था। वे सारे बेर चिड़ियों के पेट में ही चले जाते। जो पेड़ जंगल के बाहरी हिस्से में थे, उनमें फल लगते-न-लगते झुंड-के-झुंड लड़के आकर उन्हें साफ़ कर जाते। चूँकि झाड़ियों के उस घने जंगल में ज़्यादा लोग जा नहीं पाते थे इसलिए पोखर की दक्षिण दिशा के पेड़ों में लगने वाले बेर वैसे ही पड़े रहते थे। बेरों का मौसम बीत जाने के बाद ज़मीन में गिरे बेरों से नये-नये पेड़ पैदा हो जाते थे। इस तरह जंगल बढ़ता जा रहा था।
 
बुरुन का मन उस दिन बहुत उखड़ा हुआ था। और मन उखड़ा होने पर कुछ उल्टा-पुल्टा करने की इच्छा होती है। जैसे इस वक़्त बुरुन की इच्छा कर रही थी कि किसी तरह से उस दुर्गम जगह में पहुँचकर वहाँ के वीराने में कुछ देर गुमसुम बैठा रहे और जंगली बेर खाये। अगर साँप बिच्छू काट भी ले तो ज़्यादा से ज़्यादा यही होगा कि वह मर जायेगा। इस वक़्त इसका मरना ही अच्छा। अगर बिच्छू (खुजली) का पत्ता लगता हो तो लगे। जिस अपमान की आग में वह जल रहा था, उस जलन से भला बिच्छू पत्ते की जलन कितनी ज़्यादा होती।

उसी उदासी में बुरुन जंगल में घुस गया। वहाँ घुस जाने के बाद उसकी समझ में आया कि इस दुर्भेद्य जंगल को पार करके जंगली बेर की झाड़ियों तक पहुँच पाना असम्भव काम है। काँटों और खुजली वाले बिच्छू पत्ते की वह भले ही परवाह न करे लेकिन आगे बढ़ने के लिए रास्ता तो चाहिए। वह जिधर से भी जाने की कोशिश करता, उधर ही झाड़ियों और पेड़ों की पतली-पतली डालियाँ हाथ बढ़ाकर उसका आगे बढ़ना रोक देतीं।

आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका टार्जन की तरह एक बड़े पेड़ पर चढ़कर उसकी एक शाख को पकड़कर पेंग लगाकर दूसरे पेड़ पर, फिर वहाँ से तीसरे पेड़ पर होते हुए इसी तरह आगे बढ़ना था। ऐसा करते हुए वह अगर गिर भी पड़े तो कोई परवाह नहीं। वह चोट उसे ज़्यादा तकलीफ़ नहीं देगी। बल्कि तभी शायद उसके घर वाले यह महसूस करें कि उन्होंने बुरुन का कितना दिल दुखाया है।

पेड़ पर चढ़ने में बुरुन उस्ताद था। एक शिरीष के पेड़ पर वह बंदर की तरह चढ़ गया। ज़मीन के समानांतर एक मोटी डाल पर थोड़ा पैदल, थोड़ा, घुटनों के बल चलते हुए उसने एक कदम्ब की डाल पकड़ ली। बुरुन ज़मीन से तीस हाथ की ऊँचाई पर था। इस तरह आगे बढ़ने में बुरुन को ख़ास कठिनाई नहीं हो रही थी। आसपास कहीं कोई नहीं था। सिर्फ़ जाड़े की ठंडी हवा बह रही थी। चारों तरफ़ सिंदूरी धूप छायी हुई थी। पेड़ों के झुरमुटों में असंख्य चिड़ियाँ और पतंगों के उड़ने का शोर था।

पेड़ की डालों से हाथ-पैरों की चमड़ी छिल जाने के कारण जलन हो रही थी। एक नीम के पेड़ पर बैठकर बुरुन ने थोड़ा आराम किया। इसके बाद फिर सँभल-सँभल कर आगे बढ़ने लगा। कड़ी मेहमत के कारण इस जाड़े में भी वह पसीने-पसीने हो गया था। वह जितना आगे बढ़ रहा था, पेड़-पौधे उतने ही घने होते जा रहे थे। सारे पेड़ एक दूसरे से सटे हुए थे। उन सभी पेड़ों की डालियाँ एक दूसरे से उलझी हुई थीं। इसलिए उसे एक पेड़ से दूसरे पर पहुँचने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। किसी-किसी पेड़ पर बुरुन को चमगादड़ लटके हुए मिले। एक पेड़ पर गिलहरी बैठी हुई गूलर खा रही थी। नीचे जंगल की झाड़ियों से कोई साही खड़खड़ आवाज़ करते हुए गुज़र गयी। बुरुन पेड़ पर लगे चिड़ियों के घोंसलों को लाँघता हुआ आगे बढ़ने लगा। किसी-किसी घोसलें में चिड़ियों के अंडे भी पड़े थे। एक घोंसले में बैठे चिड़ियों के बच्चे उसे देखकर घबड़ाकर शोर मचाने लगे।

बेर वन में पहुँचने में बुरुन को तकलीफ़ ज़रूर हुई मगर यह काम उसके अलावा अभी तक और कोई नहीं कर पाया था, यह सोचकर वह खुद को बड़ा बहादुर समझने लगा। एक शीशम के पेड़ के तने से होता हुआ वह धीरे-धीरे नीचे के निर्जन सन्नाटे और अँधेरी जगह में उतरने लगा। उतरते समय पकड़ने लायक कोई नीची डाल न होने के कारण उसे लगभग दस हाथ की ऊँचाई से कूदना पड़ा। सड़े हुए पत्तों का ढेर ज़मीन पर गद्दे की तरह बिछा होने के कारण बरुन को चोट नहीं आयी। बस उसके दोनों पैर पत्तों में कुछ दूर तक धँस गये। नीचे शायद कोई काँटा या काँच रहा होगा जो उसके पैर में चुभ गया।

एक खुली हुई जगह में पहुँचकर बुरुन ने जमीन पर बैठकर अपने तलुवे को देखा। चिंता की कोई बात नहीं थी। घोघें के खोल का टूटा हुआ टुकड़ा बिंध गया था। मगर इस सबकी उसे आदत थी। इस टुकड़े को बाहर निकालकर बुरुन ने एक मुट्ठी दूब उखाड़कर उसे घिसकर उसका रस निकाल लिया। यह दवा उसके दादाजी की सिखायी हुई थी। दूब के रस से कई बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं। कई तरह के ज़हर उतर जाते हैं।

दादाजी उसे कुछ न कुछ सिखाते ही रहते थे। मनुष्य के शरीर में रोज़ एक तरह का ज़हर तैयार होता है, जिसे टॉक्सिन कहते हैं। यह ज़हर जमते-जमते शरीर में तरह-तरह के रोग पैदा करता है। मांस-मछली खाने से टॉक्सिन की मात्रा और बढ़ जाती है। इसलिए उसके दादाजी उसे रोज़ सुबह खानकुनी पत्ते का रस थोड़े दूध और गुड़ के साथ देकर ढेर सारा पानी पिला देते। उसके शरीर में टॉक्सिन नहीं जम पाता। उसके दादाजी भोजन में मांस-मछली के सख्त विरोधी थी। इस बात को लेकर उसके पिताजी के साथ दादाजी की अक्सर बहस होती थी। पिताजी कहते, प्रोटीन के लिए मांस-मछली जरूरी है। दादाजी कहते, पशु-पक्षियों के शरीर के कोशिकाओं में और मनुष्य के शरीर की कोशिकाओं में बहुत अंतर होता है। उन्हें खाने से तकलीफ़ें ही बढ़ती हैं।

बुरुन घास का रस लगाकर खड़ा हो गया। चारों तरफ़ के अनगिनत पेड़ों में बेर और करौंदें के गुच्छे घने बादलों की तरह झुक आये थे। वहाँ पर लगे कुछ एक अमरख के पेड़ों से पके अमरख की महक आ रही थी। चारों तरफ़ चिड़ियाँ अपने पंख फड़फड़ाते हुए उड़ रही थीं। तितलियाँ भी अपने रंग-बिरंगे पंख फैलाकर उड़ रही थीं। वहाँ का पूरा वातावरण भीगी हुई ज़मीन, घनी ठंडी छाँह और अपने सन्नाटे के कारण बड़ा डरावना लग रहा था। उस ताल के पानी का इस्तेमाल न होने के कारण उसका पानी सड़कर हरे रंग का हो गया था। उस ताल में जलकुंभियाँ ज़रूर नहीं थीं मगर पानी पर काई की महीन पर्त छायी हुई थी। उस ताल का घाट भी टूटा हुआ था। उसके किनारे पर घना जंगल था और चारों तरफ़ काँटों और बिच्छू के पत्तों की घनी झाँड़ियाँ उगी हुई थीं। इस जंगल में कोई लकड़ियाँ भी बीनने नहीं आता था। तब वह आदमी कहाँ से आ गया ?

बुरुन भी उसे देखने लगा। उस दिन उसका मन ठीक नहीं था। नहीं तो वह उस आदमी को देखकर ज़रूर चौंकता या हो सकता है डर भी जाता। लेकिन इस वक़्त वह इतना उखड़ा हुआ था कि उसे किसी भी चीज़ से डर नहीं लग रहा था, और न उसे किसी बात की कोई चिन्ता ही हो रही थी।
बुरुन के देखते ही देखते उस आदमी ने तट से उतरकर पोखर के पानी में अपना पैर रखा। इसके बाद बिना किसी परेशानी के वह उस पानी पर तेज़ क़दमों से बढ़ता हुआ उसकी तरफ़ आने लगा। पानी पर भी कोई इस तरह से चल सकता है, बुरुन को उसका पता नहीं था। वह चकित हो गया। विज्ञान तो इस पर यकीन नहीं करता। गुरुत्वाकर्षण नाम की कोई चीज़ होती है। स्पेसिफिक ग्रेविटी होती है। तब ?

जो भी हो वह आदमी उसी तरह चलता हुआ इस पार चला आया। उसके पैर से तलुवे ज़रा भी नहीं भीगे थे।
वह आदमी अपने बड़े-बड़े दाँत दिखाकर हँसता हुआ बोला, ‘‘क्यों मुन्ना डर गये ?’’
बुरुन ने हैरान होकर पूछा, ‘‘कैसा डर ? डरूँगा क्यों ?’’
‘‘डरे नहीं ?’’ वह आदमी चौंक गया।
‘‘नहीं ! भला इसमें डरने की क्या बात है ? मैं तो सिर्फ़ विज्ञान की बात सोच रहा था। मुझे लगा विज्ञान को अभी बहुत कुछ जानना बाक़ी है।’’
‘‘वह तो होगा ही।’’ इतना कहकर उस आदमी ने मुस्कराते हुए, जिस तरह कोई अपनी टोपी उतारता है, ठीक उसी तरह अपने सिर को गर्दन से अलग किया और उसे अपने हाथ में लेकर सर की गंज वाली जगह को थोड़ा झाड़ने के बाद फिर से सही जगह पर लगाकर बोला, ‘‘सिर में काफ़ी जूँ पड़ गई हैं, इसलिए खुजला रहा था।’’
‘‘ओह !’’ बुरुन ने कहा।

वह आदमी खीझकर बोला, ‘‘क्या बात है, ज़रा बताओ तो ? इस बार भी तुम बिलकुल नहीं डरे !’’
बुरुन ने कंधे उचकाकर कहा, ‘‘आपके सिर में काफ़ी जूँ पड़ गयी हैं, जिससे आपको खुजली हो रही है, इसमें डरने की क्या बात है ?’’
उस आदमी ने नाराज़ होकर कहा, ‘‘तुम सोच रहे हो कि मैं तुमसे मज़ाक कर रहा हूँ।’’
‘‘ऐसा क्यों सोचूँगा ?’’
बेहद नाराज़गी से कुछ देर तक बुरुन को घूरने के बाद वह बोला, ‘‘सोचते होगे कि मैं जादू दिखा रहा हूँ।’’
‘‘हो सकता है !’’
उस आदमी ने अचानक अपना दायाँ हाथ ऊपर उठाया। बुरुन ने देखा कि वह काफ़ी लम्बा होकर अमरख के पेड़ की फुनगी तक पहुँच गया। दूसरे ही पल उसने एक पका हुआ अमरख तोड़कर उसे बुरुन का सामने फेंकते हुए बोला, ‘‘देखा ?’’
बुरुन ने खीझकर कहा, ‘‘इसमें न देखने की क्या बात है ? मेरे सामने ही आपने इसे तोड़ा है।’’
उसने डाँटते हुए पूछा, ‘‘तब डरते क्यों नहीं हो ?’’

‘‘डर नहीं लगता तो मैं क्या करूँ?’’ यह कहकर बुरुन ने उस बेर के गुच्छे से कुछ बेर तोड़कर अपने मुंह में डाल लिया।
उस आदमी ने मुँह बनाकर कहा, ‘‘इस तरह से बेर खाते हुए शर्म नहीं आती ? अपनी आँखों के सामने मुझे मौजूद देखकर भी बड़े इतमीनान से बेर खाये जा रहे हो। और भी देखोगे ? ऐं !’’
इतना कहकर वह अचानक अपने दाहिने हाथ से अपने बाँये हाथ को खोलकर उसे चारों तरफ़ तलवार की तरह भाँजने लगा। इसके बाद अपने बायें हाथ से उसने अपने दाहिने हाथ को खोला। फिर दोनों हाथों से अपने दोनों पैरों को खोलकर दिखाया। इसके बाद अचानक ग़ायब होकर फिर प्रकट हो गया। एकाएक तेरह-चौदह फुट लम्बा हो गया। फिर होमियोपैथी की शीशी जितना छोटा भी हो गया। इतना कुछ कर चुकने के बाद उसने अपना पहले जैसा रूप धरकर हाँफते-हाँफते बुरुन से कहा, ‘‘देखा ?’’
‘‘हूँ।’’
‘‘हूँ, मतलब ? इतना कुछ देखने के बाद भी तुम बेहोश नहीं हुए। न यहाँ से भाग रहे हो। बस खड़े-खड़े बेर खाये जा रहे हो। जानते हो मैं कौन हूँ ?’’
‘‘कौन हैं ?’’

‘‘मैं गोसाईं डकैत का दाहिना हाथ निधिराम हूँ। यहाँ पर दो सौ साल से रह रहा हूँ। समझे ? दो सौ साल से !’’
समझ गया।’’
‘‘क्या समझे ?’’
बुरुन ने खीझते हुए कहा, ‘‘बड़ी-सीधी सी बात है। इसमें न समझने का क्या है ? आप दो सौ सालों से यहाँ रह रहे हैं।’’
उस आदमी ने गंभीर होकर कहा, ‘‘मुन्ना, तुम इस सच्चाई को नहीं समझ रहे हो। भला दो सौ साल तक कोई आदमी ज़िंदा रहता है ?’’
‘‘नहीं रहता।’’
‘‘तब मैं किस तरह से हूँ ?’’
‘‘इस बारे में मैं क्या कह सकता हूँ ?’’
वह आदमी बिगड़कर बोला, ‘‘अभी भी तुम हक़ीक़त नहीं समझ रहे हो !
दरअसल मैं ज़िंदा ही नहीं हूँ।’’

बुरुन ने फिर से एक बेर अपने मुँह में डालते हुए कहा, ‘‘इससे मुझे क्या ?’’
‘‘ओफ ! बहुत लपड़-झपड़ किये जा रहे हो। भूत से नहीं डरते ? तुम कैसे बेअदब लड़के हो !’’
बुरुन ने कहा, ‘‘मुझे बिल्कुल डर नहीं लग रहा है।’’
यह सुनकर उस आदमी का चेहरा लटक गया। बेहद कातर होकर छलछलायी आँखों से बुरुन को देखने लगा। फिर एक गहरी साँस लेकर बोला, ‘‘सचमुच, ज़रा भी डर नहीं लग रहा है ?
‘‘नहीं।’’
निधिराम ने अपने हाथ से शायद अपनी आँखें पोंछीं। दुख से भरकर उसके नथुने काँपने लगे। आँखें पोंछकर भरे हुए गले से बोला, ‘‘तुमने तो मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया। अब मुझे अपने लोगों के बीच अपना मुँह दिखाना मुश्किल हो जायेगा। गोसाईं सरदार को पता लगेगा तो मेरी गर्दन नाप लेगा।’’


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