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अँधेरे में अपना चेहरा

नगेन शइकीया

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2143
आईएसबीएन :81-260-1289-7

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प्रस्तुत है असमिया कहानी संग्रह का हिन्दी अनुवाद

Andhere Main Apna Chehra a hindi boo by Nagen Saikiya - अँधेरे में अपना चेहरा - नगेन शइकीया

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्री नगेन शइकीया का जन्म 1941 में असम के हटिया खोवा नामक गाँव में हु्आ। आपने डिब्रुगढ़ विश्वविद्यालय से असमिया साहित्य में एम.ए. और पी.एच.डी. की उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। आपने एक अध्यापक के रूप में अपना कार्य-जीवन प्रारम्भ किया। बाद में आप पत्रकारिता के क्षेत्र में आ गये और असोम बटोरी के सहायक सम्पादक के रूप में कार्य करते रहे। 1992 में डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय से असमिया के प्रोफेसर के रूप में सेवा-निवृत्त होने से पूर्व आप राज्य सभा के भी सम्मानित सदस्य रहे। आपकी बीस से अधिक मौलिक कृतियाँ प्रकाशित हैं। इसके अलावा आपने दो कृतियों के अनुवाद भी किये हैं। अनेक शैक्षिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से आप सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। कई सम्मान और पुरस्कार आपको प्राप्त हुए हैं, जिनमें "असम साहित्य सभा पुरस्कार" और "मोहनचन्द्र शर्मा पुरस्कार" शामिल हैं।

वर्ष 1997 के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित प्रस्तुत कहानी-संग्रह आधारित निजर मुख में बीस कहानियाँ संकलित हैं। ये श्री नगेन शइकीया के सांस्कृतिक, सौन्दर्यपरक और अभिव्यक्तिपूर्ण परिवेश के कुशल निरूपण की परिचायक हैं। अपने सूक्ष्म एवं अनुभूतिक्षम अवलोकन और मानव मनोविज्ञान में गहरी अन्तर्दृष्टि, प्रभावी विषय-निरूपण, आकर्षक शैली और अन्तःसंवादमूलक कथान्यास के प्रभावी उपयोग के लिए यह कृति असमिया में लिखित भारतीय कथा-साहित्य के एक महत्वपूर्ण योगदान मानी गयी है।

इस कृति का मूल असमिया से हिन्दी अनुवाद श्री सत्यदेव प्रसाद ने किया है। आप इसके पहले भी साहित्य अकादेमी तथा संस्थाओं के लिए असमिया की कई कृतियों का हिन्दी अनुवाद कर चुके हैं।

मजीद सर की मौत


टेलीप्रिंटर की लगातार खट्-खट् आवाज़, अचानक किसी के अंदर से दरवाज़ा खोलने के साथ-साथ भीतर की मशीन की तैरती आवाज़, टाइप राइटर की खटर-पटर ध्वनि, ऊपर पंखे की सों-सों आवाज़, और थाक से न उड़ पाने पर भी काग़ज़ की फरफराहट, बीच-बीच में शूइंग दरवाज़ा खोलकर एक थाक न्यूज लेटर लिये चपरासी का आना और जाना, अचानक दरवाज़ा खोलकर हाथ में काग़ज़ का लिफ़ाफ़ा लिये गणतांत्रिक हँसी बिखरते हुए खड़ा अपरिचित चेहरा, सहकर्मी समुवा, खाटनियार और शर्मा के निरर्थक वार्त्तालाप और सिगरेट के धुएँ की कुंडली-इन सबके बीच व्यस्त और उदासीन विपुल के मन में अकस्मात् कभी-कभी कौंध जाती है, प्रताप की चिट्टी की एक छोटी-सी पंक्ति, ‘‘मजीद सर मर गए।’’ अन्तः करण में मानों कहीं एक अनिर्वच यंत्रणा अटकी है, जिसे ठीक यंत्रणा भी नहीं कह सकते। समझ में न आनेवाले एक दर्द की तरह हो सकता है-जिसे कहा नहीं जा सकता, पर जिसके होने का अहसास बीच-बीच में किया जा सकता।

उसकी इच्छा हो रही है कि वह मजीद सर की बात सोचे-लेकिन नहीं, समय नहीं है। कारण प्रधानमंत्री ने पदत्याग कर दिया है और उसके साथ ही राजनीतिक अनिश्चितता और अस्थिरता से राजधानी में सरगर्मी मच गई है। वह सरगर्मी हवा में तैरती आई है, टेलीप्रिंटर में प्रवेश कर अक्षर बनकर निकल रही है और विपुल उसे पकड़ने का प्रयत्न कर रहा है। उस सरगर्मी को फैलाने में वह भी एक मशीन की ही भूमिका निभा रहा है। उसके बीच छोटे बाल और समान दादीवाले, आँखों पर पुराने गोल फ्रेम के चश्मावाले-जिसकी एक तरफ़ का नाल टूट जाने के कारण एक बटा हुआ धागा लगा रहता है और पढ़ाते समय मजीद सर कान पर धागा लपेट लेते-उन मजीद सर की उम्र का ढलना, पत्थर पर कढ़े हुए के समान स्थिर चेहरा याद करने का समय नहीं रह गया। खाटनियार भाषण झाड़ रहा है-बोनस की माँग में कौन-कौन सदस्य मालिक का पक्ष ले सकता है और शर्मा टीका-टिप्पणी कर रहा है। बरुआ लिखते हुए बीच-बीच में कहता है, ‘‘हमारे इन कई एक संवाददाताओं के नाम निकाल देने चाहिए जी। कूड़ा-कचड़ा लिख भेजेंगे और अख़बार में न छपने पर लंबी चिट्ठी लिखेंगे।’’
शर्मा टिप्पणी करता है, ‘‘लगता है बेचारों की प्रेमपत्र लिखने की आदत नहीं गई। इसीलिये निरर्थक कचड़ा लिखकर पिनपिनाते रहते हैं।’’ तीनों ख़ूब खीं-खीं कर हँसते और विपुल का माथा टनकने लग जाता। मजीद सर क्लास में बात करते सुनते ही कहा करते ‘‘ऐ, बातें कम, काम ज़्यादा’’-बाद में यह वाक्य एक राजनीतिक वाक्य बन गया था-बहुत बाद में। लेकिन मजीद सर तभी कहा करते थे-शायद पच्चीस वर्ष हो गये-तब हम शायद क्लास नौ में थे। उनकी कुछ बातें मन में बैठ गई थीं-ठीक बातें नहीं, बातें कहने की जो शैली थी, वह शैली।

उहूँ, अभी सोचने का समय नहीं है कि मंत्रिमंडल का गठन करने के लिए उनके पास समय नहीं। चूँकि विपक्ष ने कहा है कि मंत्रिमंडल का गठन करने के लिये उनके पास सांसद हैं। इसीलिए खेल ख़ूब जम रहा है-इधर भिन्न-भिन्न दलों के नेता सतर्क हैं-किसका समर्थन करेंगे और किसका विरोध, इसको लेकर खींचातानी है।
बरुआ पूछता है, ‘‘अजी काकति, क्या हुआ जो आज एकदम चुपचाप हो।’’ विपुल ने सिर उठाकर एक बार हँसने की कोशिश की और ‘मजीद सर’ नामक उसके एक शिक्षक जो मर गये हैं, वह ख़बर दे या नहीं, एक पल सोचकर देखा। नहीं, ज़रूरत नहीं। लेकिन अनजाने ही उसके मुँह से निकल गया, ‘‘मेरे एक स्कूल शिक्षक की मौत हो गई।’’
‘‘क्या मतलब ?’’ खाटनियार ने अपनी सुग्गे-सी नाक आगे कर भौंहें सिकोड़ी और पूछा, ‘‘क्या टेलीप्रिंटर पर ख़बर आई है ?’’

शर्मा को खाटनियार का प्रश्न शायद भला न लगा। उत्तर उसी ने दिया।
‘‘आप अपनी यूनियन में ही लगे रहिए। मौत तो एक भावावेश की घटना है।’’
विपुल ने शर्मा की ओर एक बार आँखें उठाकर देखा और कहा, ‘‘जानते हैं, बड़े पाक-साफ़ आदमी थे।’’ उसका मन हुआ कहने का-मजीद सर तो देखने-सुनने में, पहनने-ओढ़ने में एकदम सीधे थे। पायजामा बिना इस्त्री के पहनते, कुर्ता भी। पर क्या जो अनुशासन-प्रिय ! कितने सिमय के कितने पाबंद। धूप हो या बारिश, जाड़ा हो या गर्मी-ठीक दस बजने में दो मिनट बाक़ी रहते ही वे साइकिल से आएँगे ही। घंटी पड़ते ही हाथ में रजिस्टर लिए कक्षा में हाज़िर ! लेकिन नहीं, कहकर कुछ भी लाभ नहीं ! कल के शीर्षकों में मजीद सर की ख़बर के स्थान पाने का प्रश्न ही नहीं उठता-इतने साफ़ आदमी की क्या कोई ख़बर भी हो सकती है।
चपरासी दुर्लभ के हाथ में ढेर सारे काग़ज ! किसी राजनीतिक दल की ख़बर ! संपादक ने हाशिये पर टिप्पणी दी है-आज के अख़बार में जानी चाहिए। विपुल एक बार नज़रें उठाकर देखता और आगे का समाचार तैयार करने में ध्यान देना चाहता। चपरासी फिर पुर्जी लेकर हाज़िर होता : शहर में किसी जगह चाकू घोंपने से एक आदमी की मौत हुई है। यदि हो सके, तो विपुल घटनास्थल का दौरा कर एक समाचार तैयार करे। विपुल बहुत दुखित होता-बरुआ और शर्मा कथा पृष्ठ देखकर आराम से बैठ अड्डा मारेंगे और विपुल पर गदहे का बोझ लाद देंगे। खाटनियार मेज़ के ऊपर पाँव रखे सिगरेट फूँकता रहेगा और विपुल सिर उठाये बिना काम करता रहेगा। नहीं, इस तरह चलना संभव नहीं। उसने क़लम रोक दी और प्रताप की चिट्ठी की छोटी पंक्ति उसके मन में अंकित हो गई-‘‘मजीद सर की मौत।’’

किसी काम का समाचार नहीं, क्योंकि यदि वे समय पर स्कूल आते थे, वे यदि अनुशासन का पालन करते थे, तो वे अपनी कर्त्तव्य करते थे, वह क्या कोई समाचार बन सकता है? वे कपड़े-लत्ते से दयनीय थे, वे बाल छोटा-छोटा कटाते थे ये सब क्या किसी व्यक्ति के गुण हो सकते हैं ? वे कहा करते थे-‘‘देखो, धोखा मत दो यदि कुछ न समझ पाओ या न कर सको, तो सच्ची बात कहना-एक सौ बार में नहीं समझो, तो हज़ार बार समझाऊँगा। पर यदि धोखा दोगे, तो पीठ की चमड़ी उधेड़ दूँगा।’’ उस समय हम डर जाते थे। क्या पता, झूठ बोलने पर पूछताछ करने घर भी जा सकते हैं-‘‘इसने कहा है कि कल इसे बुख़ार हुआ था, सच है ?’’ नहीं, नहीं धोखा नहीं दे सकता।
ठीक ही धोखा नहीं दे सकता। खाटनियार यदि धोखा देकर तनख़्वाह मारता है, तो मारे, पर विपुल वैसा नहीं कर सकता। क्योंकि कल लोगों को मालूम होना चाहिए कि प्रधानमंत्री को क्यों पदत्याग करना पड़ा, त्यागपत्र की शब्दावली कैसी थी, उस समय कौन-कौन उपस्थित थे, विपक्षी दलों से इस बारे में क्या विचार-विमर्श किया-भविष्य में क्या होने की संभावना है-ये सारी खबरें पूरी विश्वसनीयता से लोगों को मिलनी चाहिए।

विपुल ने समाचारों का पुलिंदा निकाला और नज़रें दौड़ाने लगा, एक दल ने दूसरे के विरुद्ध भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है-कहीं का रुपया डकार जाने की बात कही है, बेटे बहू के नाम पर ज़मीन और मकान करने की बात कही है और किसी इंजीनियर या ठेकेदार ने उसके लिये रुपयों का प्रबंध किया है। अच्छी ख़बर होगी-सनसनीख़ेज ख़बर ! सरगर्मी फैला देनेवाली ख़बर ! उनके बीच मजीद सर की ख़बर भी कोई ख़बर है ? मजीद सर ने आई.एस.सी. पास कर आबकारी निरीक्षक का काम शुरू किया था। सुनी बात है। तब वे एक सफल युवक थे। उस समय वे जीन का पैंट पहनते थे, सोने का बटन व्यवहार करते थे, पाँव के जूते इतने चकाचक कि चेहरा देखा जा सकता था। गाँव लौटने पर सब कहा करते कि रहीम दीवान का बेटा एक ढंग का आदमी हुआ। लेकिन इस ढंग के आदमी मजीद को विपुल ने देखा नहीं। कारण यह कि मजीद इंस्पेक्टर के पहले लड़के के जन्म पर जब उसने कुछ फल-फूल ख़रीदकर अपने पड़ोसी को दिया, तब शफ़ीयत बूढ़े की कानी पत्नी ने अपनी आँखों से उसे ठीक से न देख पाने के कारण गाल-मुँह पर हाथ फेरकर कहा था, ‘‘ओ बेटा तू ! घूस के पैसे से कोई अच्छा काम मत करना। अब तो तेरे एक बेटा भी हुआ है।’’
युवक, सफल बीससाला मजीद ठिठके खड़े रह गए। एक हफ़्ते बाद मजीद फिर गाँव आये-हमेशा के लिये आ गये। क्योंकि जो विभाग था, उसमें घूस न लेने का सवाल ही नहीं उठता। इसीलिए वे इस्तीफ़ा देकर आ गए। बाप ने पूछा, ‘‘पेट कैसे भरेगा ?’’

मजीद ने कहा, ‘‘हल चलाएँगे।’’ गाँव के लोगों ने बहुत दुःख प्रकट किया। किसी ने शफ़ीयत बूढ़े की कानी औरत को शाप दिया : गाँव के एक लड़के को सरकारी नौकरी मिली और बूढ़ी ने उसका भाग्य भी खोटा बना दिया। कुछ दिन बाद मजीद गणित के शिक्षक हुए। अंग्रेज़ी भी अच्छी बोलते, अच्छी सिखाते। टकसाली। लड़के डरते। लेकिन यदि कोई खेल में ज़ख़्मी होता, मजीद मास्टर तेल मालिश कर देते। बेंच पर खड़े होने के लिये कहने पर यदि कोई रो देता, वे दबाकर उसे बैठा देते। वाह ! क्या शेर आदमी। ‘‘काम करोगे, खाओगे। धोखा मत देना। तकलीफ़ होगी, फिर भी सच पर चलना। झूठ के साथ समझौता मत करना।’’
विपुल ने लिखना शुरू कर दिया-‘‘ख़बरों में कहा गया है कि कई हज़ार रुपयों के बदले सबसे ऊँची दर की निविदा कैसे मंज़ूर हुई, उसकी विस्तृत जानकारी हाथ लग गई है।...’’
दुर्लभ चाय ले आया है। पहला प्याला खाटनियार ने आगे बढ़कर ले लिया है। विपुल ने एक चुस्की लेकर प्याला मेज़ पर रख दिया और निश्चय किया कि थोड़ा-सा समय निकालकर मजीद सर की बात सोचूँ। क्योंकि विपुल को-विपुल को ही क्यों, सबको, मजीद सर बहुत अच्छे लगते थे। ठीक है कि मुँह खोलकर किसी दिन कहा नहीं, बल्कि चेहरे पर तो कठोरता ही चिपकी रहती थी।
शर्मा ने टेलीप्रिंटर से निकला एक लंबा फीता निकाला और उत्तेजित होकर कहा, ‘‘अजी, यह देखा या नहीं ? भयंकर समाचार-मध्यवर्ती निर्वाचन हो सकता है।’’ खाटनियार और समुवा उत्कंठित हो गये।
खाटनियार ने कहा, ‘‘काकति, इसे शीर्षक में दिया जा सकता है-देखना।’’

विपुल ने चाय का प्याला पटककर रखा और कहा, ‘‘मैं अपना काम करता रहूँगा-तुम अपना करते रहो।’’ बहुत कठोर बात निकल गई।
‘‘क्या हुआ, बड़े ग़ुस्से में हो ?’’ खाटनियार की आवाज़ कुछ नरम थी।
विपुल ने कुछ नहीं कहा। फीता निकालकर उसके टुकड़े-टुकड़े करके फेंक डालने का मन हुआ। नहीं, माथा गरम करने से फ़ायदा नहीं। ये ख़बरें कल जानी ही होंगी, क्योंकि ये तो घोर राजनीतिक सरगर्मी की ख़बरें है। किसी भी राजनीतिक दल का ब्यौरा भेजना ही होगा। वह कौन होता है झूठ-सच का चुनाव करनेवाला ? वह ज़िंदा रहने के लिये नौकरी कर रहा है, ख़बरें कैसी हैं, इससे उसका क्या लेना-देना ? वह तो व्यवस्था का एक अंग मात्र है।
फिर भी, कभी-कभी याद आती-‘‘मजीद सर की मौत।’’
विपुल ने सोचा-समाचार पत्र के आख़िरी पृष्ठ पर कहीं एक छोटी-सी श्रद्धांजलि देगा, मजीद सर की मौत। फिर उसने क़लम रख दी और सोचने लगा- कब मरे ? क्या हुआ था ? क्या उम्र थी ? कौन-कौन हैं ? उहूँ, प्रताप ने तो चिट्ठी में यह सब नहीं लिखा। वह अंदर-ही-अंदर उत्तेजना अनुभव करने लगा। वह कृतज्ञता स्वरूप यह ख़बर भी दो पंक्तियों में देने लायक़ बातें नहीं जानता। छिः छिः, कितना कृतघ्न है ! कितना नालायक़ है वह !

नहीं-भला ही हुआ-घुन लगे इस समाज में मजीद सर जैसे लोगों का रहना संभव नहीं। भला हुआ-वे मर गए।
विपुल घर लौट पड़ा। तब ‘मजीद सर की मौत’ की बात उसके हृदय में कभी-कभी झंकृत होने लगी।
उसने बरामदे पर पाँव रखे और कॉलबेल के दबाते ही प्रणीता ने दरवाज़ा खोला और चेहरे की ओर देखकर पूछा, ‘‘क्या हुआ तुम्हें ? क्या तबीयत ठीक नहीं ?’’
विपुल ने सिर हिलाया, ‘‘ऊँ, नहीं, ठीक है।’’ वह कहना चाह रहा था, ‘‘जानती हो, एक बहुत दुःखद ख़बर मिली है-मजीद सर की मौत।’’ लेकिन उसके कहने से पहले ही प्रणीता ने कहा, ‘‘तुम्हारे आँख-मुँह देखकर मुझे लगा था कि कुछ हुआ है। यदि कुछ हुआ ही नहीं, तो ख़ाली हाथ क्यों आये ? बच्चे का दूध लाने के लिये नहीं कहा था ?’’
विपुल ने प्रणीता को एकटक देखा। ख़ामोश रहा। नहीं, ठीक ही हुआ-मजीद सर मर गए। आह, क्या-क्या न होता रहता है। उसकी दोनों आँखों में अनजाने ही दो बूँद आँसू भर गये।
अच्छा हुआ-मजीद सर अब नहीं रहे।


कैरो साहब की मेम


मैंने पहले आवाज़ सुनी न थी। मौसम अनुकूल न होने के कारण गुवाहाटी के लिए 201 स्काइमास्टर एक घंटा देरी से उड़ान भरेगा-यह घोषणा सुनने के बाद करने के लिये कुछ नहीं रह गया। फलतः दमदम के विस्तृत प्रतीक्षालय के एक कोने में चमड़ा मढ़े गद्दीदार सोफ़े में धँसकर तरह-तरह की पोशाक, रंग और जाति के स्त्री-पुरुषों के चेहरे देखने और बॉबकट बाल, निम्न उरोज-उदर-नाभिदर्शना टमाटरी रंग की साड़ी, लिपस्टिक और आईब्रो पेन्सिल के भरपूर इस्तेमाल से पके और गोल टमाटर की तरह चेहरेवाली मेम-सी भारतीय रिसेप्शनिस्ट की दृष्टिकटु भावभंगी निहारने में अपने आप को लीन कर रखा था। बीच-बीच में ‘कृपया ध्यान दीजिए’ और ‘धन्यवाद’ की आवाजें और फिर तुरन्त यात्रियों के दलों का बाहर निकलना। इन सबके बीच कभी-कभी याद आती थी कलकत्ते के मेडिकल कॉलेज में इलाज की व्यवस्था करके रख आये अपने संबंधी की बात। मुझे आशंका होती कि उसे कहीं कोई असुविधा तो नहीं होगी। इसीलिये इस आत्मलीन अवस्था और अनजानी जगह में मेरी जान-पहचान का कोई अचानक निकल आयेगा-ऐसी आशा मैंने नहीं की थी। तिस पर पहली बार, सुनाई पड़ने पर भी-मैंने ध्यान न दिया था, इसीलिए मैंने शायद सुना ही नहीं। जब दूसरी बार कान में पड़ा ‘‘क्या तुम असम जाओगे।’’ तब मैंने घूमकर देखा। हाँ, मेरी ओर देखती हुई बाईं ओर के सोफ़े पर बैठी एक बूढ़ी मेम ने अंग्रेज़ी में प्रश्न किया है। मेरी धारणा थी कि अंग्रेज़ लोग किसी की बात नहीं पूछते। पूछना वे अभद्रता समझते हैं। इसीलिये मैं मन-ही-मन किसी लंबे उत्तर के लिये तैयार न था। सिर हिलाकर केवल कहा, ‘हाँ।’
बूढ़ी ने नीली आँखों से घूरकर पूछा, ‘‘असम में कहाँ जाओगे, क्या गोलाघाट जाओगे ?’’

मैं अवाक् रह गया। कलकत्ते के दमदम में कोई बूढ़ी गोलाघाट की बात पूछेगी-इसकी आशा मैं कैसे कर सकता ? मैंने भी बूढ़ी को अच्छी तरह निहारा। सुनहरे बाल पकने पर जैसे पीले हो जाते हैं-ठीक पेड़ के पके पत्ते की तरह-वैसे ही बालोंवाली, नीली आँखोंवाली, चेहरे पर उम्र की छापवाली, गर्दन की लटकी चमड़ीवाली किसी भी अंग्रेज़ वृद्धा के चेहरे से मेरा परिचय नहीं। बूढ़ी की पोशाक में है नीले चेक का घुटने तक का फ्रॉक, पाँव में चमड़ी के रंग से मिलते क्रीम रंग का मोजा और ऊँची एड़ी का काला जूता। बूढ़ी के प्रश्न के उत्तर में इस बार भी मैंने ‘हाँ’ के अलावा कुछ नहीं कहा। बूढ़ी ने हाथ के छोटे बैग में से एक छोटा रूमाल निकाला और जिस तरह सोख्ता काग़ज़ से स्याही सुखाते हैं, उसी तरह चेहरा पोंछ डाला। और फिर, मुझे आश्चर्य में धकेलते हुए उसने पूछा, ‘‘माफ़ करना मुन्ना, तुम राजाबाड़ी के पोनाकण तो नहीं ?’’
मुझे अपने ही बदन में चिकोटी काटकर देखने की इच्छा हुई-मैं जगा हुआ हूँ कि नहीं ? असीम कौतूहल से बूढ़ी की ओर देखकर कुछ पूछना चाह ही रहा था कि बूढ़ी ने हँसकर कहा, ‘‘तुम्हारे चेहरे-मोहरे पर छाई हैरानी को देखकर ही मैंने समझा-तुम ही हो।’’
मैंने असमंजस, हैरानी और उत्सुकता से अंत में पूछा, ‘‘हाँ लेकिन आप-माने आपने कैसे...’’
मेरा प्रश्न पूरा होने से पहले ही बूढ़ी ने बहुत आवेग से मेरी ओर मुड़कर मेरा एक हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया और कहा, लेकिन टूटी-फूटी असमिया में-‘‘मैं तुम्हारी मामी हूँ-मामी ! याद आया कि नहीं ?’’
मामी कहने के साथ-साथ मानों मेरी आँखों के सामने लगे अपरिचय का ढक्कन झट से खुल गया और उम्र की ढलान से मेरे मानस पटल पर बीस वर्ष पहले की बात आ गई। हाँ, बीस वर्ष पहले की बात ही होगी-की मामी के सुनहरे बाल, सुंदर नीली आँखें और सुनहरे उजले रंग का चेहरा चमक उठा।

मेरा हृदय आवेग, आनंद, आश्चर्य और कौतूहल से लबालब भर गया और मैं क्या पूछूँ, क्या प्रश्न करूँ- निश्चय नहीं कर पाया। उसने शायद मेरा यह ख़ामोश भावावेग अनुभव किया। उसने धीरे-धीरे गंभीर स्वर में कहा ‘‘तुम्हारी आँख और भौंहों के बीच घाव का दाग़ देखते ही मैं समझ गई थी। याद नहीं कि तुम बग़ीचे के हमारे बँगले की सीढ़ियों से फिसलकर गिर पड़े थे और तुम्हारी आँखों के ऊपर भौंहों पर लंबा कटाव हो गया था।’’
मैंने भावावेश में ही कहा, ‘‘है मामी, है। सारी बातें याद नहीं आ रहीं, पर उसकी धुँधली छवि अब भी याद आ रही है।’’
उसने दुःख मिश्रित हँसी हँसते कहा, ‘‘अगर तुम्हें पहले ही पा गई होती ! कितनी बातें थीं कहने के लिए !’’
सच, मुझे भी न जाने कितनी बातें पूछनी थीं। बीस बरस पहले, जब राजाबाड़ी चाय बग़ीचे के मैनेजर के बँगले में कैरो साहब रहते थे। कैरो साहब का असल नाम मैं जान न पाया। पिता ने कहा था, ‘‘कैरो साहब अंग्रेज़ नहीं, आयरलैंड के आदमी हैं। कहते हैं कि आयरिश लोग ठेठ अंग्रेज़ से कुछ कठोर और लाल होते हैं। कैरो साहब की आंखें कुछ छोटी, पर बहुत गुस्सैल लगती थीं और बाल मूँगे के रंग के। कैरो साहब घर में साधारणतः उजला हाफ़पैंट और उजली स्पोर्टिंग गंजी पहने रहते। मुँह में एक बहुत मोटी सिगार या पाइप होती। मुझे सबसे विचित्र लगती यूरोपियनों की नीली आँखें।

इतना ज़रूर है कि कैरो साहब ने कभी-भी मुझ पर ग़ुस्सा नहीं किया। वे अपने बेटे डेविड के साथ मुझे खेलने दिया करते। डेविड के पास बैंगनी रंग की एक सुंदर गेंद थी और शाम के समय खेलने का मन होते ही उसके माता या पिता नरसिंह बेहरा को भेजा करते, ‘‘बड़ा बाबू के बेटे को बुलाओ कैरो साहब के बँगले से दो सौ ग़ज की दूरी पर हमारा घर था। नरसिंह को आया देखते ही माँ मुझे जूता –मोजा पहनाकर और मुँह अच्छी तरह पोंछकर भेज देती। हम ‘डेविड के बँगले के आगे के साफ़ मैदान में तब तक खेला करते, जब-तक उसका मन भर नहीं जाता। कभी-कभी समय रहने पर कैरो साहब भी हमारे साथ खेला करते और पोर्टिको के सोफ़े पर बैठी उसकी माँ-वह माँ को जैसे मम्मी कहा करता, वैसे ही मैंने भी मम्मी कहना शुरू कर दिया था-हँस-हँसकर हमें उत्साहित किया करती। कभी-कभी डेविड खेल की और दूसरी भी तरह-तरह की चीज़ें दिखाया करता। पूरे घर का फ़र्श आईने की तरह चमकता रहता और कहीं भी धूल का एक कण भी दिखलाई नहीं देता। दूसरी चीज़ें भी इतनी स्वच्छ, सुंदर और चमचम थीं कि मुझे हाथ रखते भी डर लगता। खेल के बाद हमेशा दूध और कोई-न-कोई फल खाने के लिये मिला करता और फिर, नरसिंह घर छोड़ आया करता। समझ होने तक कैरो साहब के बँगले पर जाना थोड़ा भी बुरा नहीं लगा था। मामी का गोरा और सुंदर चेहरा किसी चित्र की तरह लगता। वे लोग सबके सब इतने साफ़-सुथरे थे कि मुझे हाथ रखते भी डर लगता। वे लोग सबके सब इतने साफ़-सुथरे थे कि मुझे लगता, मैं ही गंदा और अभागा हूँ।

कभी-कभी बँगले के कमरे से पद्म भैया आ जाया करते। वे भी बड़े सुंदर और साफ़-सुथरे थे। चेहरा भी बहुत सुंदर या और हमारी ओर देखकर हमेशा हँसा भी करते थे। पीछे सुन-सुनकर समझ पाया कि कैरो साहब के घर के किरानी थे। पद्म भैया भी कभी-कभी कैरो साहब और मेम के साथ गाड़ी में गोलाघाट जाया करते। बाद में सुना कि वे मामी के कहने पर ईसाई हो गये थे और प्रत्येक रविवार को कैरो साहब, मामी और पद्म भैया गोलाघाट गिरजाघर जाया करते थे। उस दिन वे लोग सज-धजकर धूम-धाम से निकला करते।
जिस साल मैंने हाईस्कूल में नाम लिखाया, उसी साल उन लोगों ने डेविड को शिलाँग के संत मेरीज़ स्कूल में भेज दिया। कैरो साहब के बँगले से मेरा भी प्रत्यक्ष संपर्क नहीं रह गया। कभी-कभी जब मम्मी गाड़ी से ही बग़ीचे में टहलने निकलती, तब ‘पोनाकण आओ’ कहकर बुलाती और मैं भी बग़ल में दुबककर बैठा हुआ बड़ी शांति पाता। पता नहीं क्यों, मम्मी का चेहरा देखकर मुझे भी बड़ा अच्छा लगता।

उसके बहुत दिन बाद-याद नहीं, कितने दिन बाद-अचानक कैरो साहब के बँगले में एक अप्रत्याशित घटना घटी। मम्मी ने एक शिशु को जन्म दिया और तभी से मम्मी और कैरो साहब के बीच झगड़े का सूत्रपात हुआ। साहब पहले से ज़्यादा उग्र हो उठे। यह उग्रता कभी-कभी दूसरी बातों में भी प्रकट हो पड़ती। छोटी-सी बात पर मुहर्रिर को उन्होंने बेंत से पीटा और एक सरदार को मार-मार कर अधमरा कर दिया। कहते हैं कि दो-एक दिन मम्मी को भी बेंत से मारा। मैंने मम्मी के बच्चे को देखा न था, केवल सुना था कि बच्चे की आँखें और बाल काले होने के कारण कैरो साहब उसे अपना बच्चा नहीं मानते थे और पद्म भैया को भी नौकरी से निकालना चाहते थे। मामी ने इल्जाम अस्वीकार किया और पद्म को नौकरी से नहीं हटाने के लिए ज़ोर दिया। इस घटना के बारे में सब कोई धीरे-धीरे जान गये। ऐसे ही समय एक दिन बच्चा अचानक मर गया। उसकी उम्र चार-पाँच महीने से ज़्यादा न थी। सच्ची बात क्या थी यह मैं आज तक मामी से पूछ न पाया। कहते हैं कि बच्चे को कैरो साहब ने मार डाला था।
बँगले के पश्चिम और बग़ीचे के अस्पताल की सीमा के एक कोने में एक पेड़ के नीचे बच्चे को दफ़नाया गया था और क़ब्र को पक्का करके मामी ने उस पर खुदवा दिया था, ‘‘एलिजा के जिगर का टुकड़ा-प्यारा स्वीट यहीं सोया है।’’ लगता है, मामी का नाम एलिजा और बच्चे का नाम स्वीट था।

बच्चे के मरने के बाद ही कैरो साहब के बँगले में दूसरी घटना घटी। कैरो साहब की मेम पद्म काकति के साथ लापता हो गई। कैरो साहब जैसे पागल हो गये और पूरे इलाक़े में इस घटना ने सबको हिलाकर रख दिया मुझे इस बात का दुःख था कि अब मामी को देख न पाऊँगा। वह सुनहरा बाल, वह मीठी हँसी, उस गोरे मुँह की सुषमा मन के अंदर ही रह गई।
डेविड भी अपने बचपन के खेल के साथी को भूल गया। शायद, बाद में वह मुझे ‘देशी’ समझकर घृणा भी करने लगा था।
मानव जीवन का प्रत्येक पल एक अप्रत्याशित अनुभव लिए होता है। मैं धीरे-धीरे विश्वास करने लगा हूँ कि प्रत्येक पल जीवन के एक-एक अनूठे वैशिष्ट्य से भरा होता। अगले पल का पिछले पल से कोई नाता नहीं रहता। नहीं तो क्या बीस वर्ष बाद अचानक दमदम स्टेशन के प्रतीक्षालय में मामी से भेंट हो सकती थी ? मामी के चेहरे पर बुढ़ापे की छाप होने पर भी वह पुराना मुखड़ा खो नहीं गया है।

मामी ने एक-एक कर कई ख़बरें पूछीं-पिता के स्वास्थ की ख़बर, माँ की ख़बर, मेरी अपनी ख़बर और राजाबाड़ी बग़ीचे की ख़बर। यह भी पूछा कि वह पुराना बँगला है या नहीं; यह कि सुनने में आया है बग़ीचा किसी मारवाड़ी ने ख़रीद लिया है। यहाँ तक कि नरसिंह, फगुवा और बग़ीचे के दुकानदार यतीन की बात भी पूछी। बीच में यह भी पूछा, ‘‘मेरी ख़बर जानने की तुम्हें इच्छा नहीं ?’’
मैंने कहा, ‘‘ज़रूर है मामी, पर शायद आपको बुरा लगे।’’
उन्होंने कहा, ‘‘क्यों बुरा लगेगा ? तुम तो हमारे डेविड के साथी हो।’’
‘‘डेविड अभी कहाँ है ?’’
‘‘यहीं रहता है। पद्म के साथ कलकत्ता आने के बाद मैंने ताज होटल में नाच-गान की नौकरी शुरू की। पद्म ने मोटर मरम्मत का काम पकड़ लिया।’’
पद्म का नाम उच्चारण करने के साथ-साथ उन्होंने हाथ से सीने पर क्रॉस बनाया।
‘‘पद्म भैया कब गुज़र गए ?’’

‘‘दो साल हुए। उसे थ्रंबोसिस हो गया था, उसने क्या नहीं किया। तीन वर्षों में ही उसने मोटर पार्ट्स की एक छोटी दुकान खोल ली और मैंने भी नौकरी छोड़ दी। उसके बाद एक बेटी हुई। पर वह भी नहीं बची। उसके कुछ दिनों बाद सुना कि कैरो साहब ब्रिटेन लौट गये। डेविड को मैं ले आई।’’
मामी ठहरीं और फिर उन्होंने कहा, ‘‘अगर तुम रहे होते, तो डेविड को बहुत अच्छा लगा होता।’’
उन्होंने फिर कहा, ‘‘अरे, मैं तो असल बात ही भूल गई। तुमने शादी की ?’’
मैंने लजाते हुए कहा, ‘‘की है मामी।’’
उन्होंने हँसते हुए पूछा, ‘‘बाप बने कि नहीं ?’’
मैं हँस पड़ा। कहा, ‘‘हमारा पहला बच्चा लड़का है और वह चार महीने का है।’’ उन्होंने मेरे हाथ सहलाते हुए कहा, ‘‘तुम अपनी पत्नी और बच्चे को मेरी ओर से चुम्मा लेना और आशीर्वाद देना।’’

माइक्रोफ़ोन पर उद्घोषित हुआ, ‘‘कारावेल 101 मुंबई से आ चुका है। अब उतरने ही वाला है।’’
मामी उठ खड़ी हुई। थैले से एक छोटा आईना निकालकर चेहरा देखा और कहा, ‘‘मुझे एक मेहमान का स्वागत करना है।’’ उन्होंने मेरा हाथ दोनों हाथों से पकड़ा और कहा, ‘‘तुम्हें छोड़कर जाने में बहुत तकलीफ़ हो रही है।’’ थोड़ा ठहरकर फिर कहा, ‘‘तुम राजाबाड़ी जाओगे न ?’’
‘‘जाऊँगा मामी।’’
उन्होंने पलभर कुछ सोचा। एक उसाँस के साथ कहा, ‘अस्पताल की सीमा में एक क़ब्र है। अभी भी है तो ?’’
सच, मैं नहीं जानता, है या नहीं। कहा, ‘‘ज़रूर होनी चाहिए।’’
उन्होंने कहा, ‘‘प्रत्येक नवंबर की दस तारीख़ को उस छोटी क़ब्र के लिए मैं यहीं एक मोमबत्ती जलाती हूँ। यदि क़ब्र है, तुम एक बार देखना और यदि तुम्हें बुरा न लगे, तो मेरी ओर से एक मोमबत्ती जला देना। पता नहीं, मैं तुम्हें बेकार परेशान तो नहीं कर रही ?’’
‘‘नहीं-नहीं। वह काम मैं आपके लिए क्यों नहीं कर सकता भला ?’’
‘‘धन्यवाद पोनाकण, धन्यवाद !’’ उनकी दोनों आँखें नम हो गईं।
‘‘पद्म और मेरी एकमात्र स्मृति वही छोटी-सी क़ब्र है।’’
उन्होंने मेरे एक हाथ को चूमा और तेज़ी से निकल गईं।


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