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स्वतंत्रता पुकारती

नन्दकिशोर नवल

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :333
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2157
आईएसबीएन :81-260-2256-6

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हिन्दी की चुनिन्दा राष्ट्रीय कविताओं का संग्रह...

Swatantrata Pukarti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वतंत्रता पुकारती हिन्दी की चुनिन्दा राष्ट्रीय कविताओं का संकलन है, जिसमें 23 कवियों की 173 कविताएँ शामिल हैं। यह संकलन पाँच खण्डों में विभाजित है। हालाँकि एक खण्ड में संकलित कवियों में से कई दूसरे खण्डों में संकलित कवियों के काव्य-सृजन के सहयात्री रहे हैं, तथापि यह कहना उचित होगा कि पाँचों खंडों में सम्मिलित कवि क्रमशः हिन्दी कविता के पाँच युगों अथवा धाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं-भारतेन्दु-युग, द्विवेदी युग, स्वच्छंद धारा, छायावाद तथा छायावादोत्तर युग।
भारत अपनी स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगाँठ मना चुका है, ऐसे में यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि स्वतंत्रता-आंदोलन में तथा राष्ट्रीय भावना के विकास में हिन्दी कवियों की क्या भूमिका रही है। प्रस्तुत संकलन तैयार करते हुए चयनकर्ता नंद किशोर नवल ने यह महसूस किया है कि कवियों की भूमिका निश्चय ही महत्त्वपूर्ण एवं शानदार रही है तथा राष्ट्रीय कवियों ने अपनी कविताएँ मानो स्याही से नहीं, वरन् अपने ह्रदय के रक्त से लिखी है। उनकी कविताएँ पाठकों में सच्चा देश प्रेम जगाती हैं, उन्हें राष्ट्र की अस्मिता से परिचित कराती हैं और वर्तमान स्थिति के प्रति उन्हें असहिष्णु बनाती हैं।

हिन्दी कवियों की राष्ट्रीय भावना की मोटामोटी तीन मंजिलें दिखलाई पड़ती है। पहली मंजिल देशभक्ति की है, जिसमें राजभक्ति मिली हुई है, दूसरी स्वातंत्र्य चेतना में वर्ग-चेतना का समावेश हो गया है। ये तीनों ही मंजिलें हमेशा एक दूसरी में संक्रमण कर जाती हैं।
हिन्दी की राष्ट्रीय कविता की जो विशेषता सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वह है देशभक्ति का आवेश का विषय बन जाना, जैसे मध्ययुग में ईशभक्ति आवेश का विषय बन गई थी। कवि जिस भी वस्तु का वर्णन करें, राष्ट्र के प्रति उनकी गहन प्रेमानुभूति छलकती चलती हैं। ईशभक्ति से देशभक्ति तक और वैयक्तिक मुक्ति से राष्ट्र की मुक्ति तक की यह यात्रा हिन्दी कविता की एक बड़ी प्रगति की परिचायक है।

निवेदन


ब्रिटिश साम्राज्यवाद की भारत में भूमिका थी, उसी के परिणाम-स्वरूप यहाँ एक शक्तिशाली साम्राज्यवादी-विरोधी आंदोलन का विकास हुआ। इसकी प्रक्रिया प्राय: उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से शुरू हुई और 15 अगस्त, 1947 यानी भारत के स्वतंत्रता प्राप्त करने के दिन तक चलती रही। निस्संदेह यह एक राष्ट्रीय आंदोलन था, क्योंकि इसमें सभी क्षेत्रों, भाषाओं, संप्रदायों और वर्गों के लोगों ने भाग लिया था। इनके आपसी अन्तर्विरोध भी थे, लेकिन उन्हें भीतरी मामला समझा गया और बाहरी शत्रु का सामान्य मानकर उसके विरुद्ध संगठित रूप से संघर्ष किया। इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन ने आपसी एकता को दृढ़ करने में भी भरपूर सहायता की।

आज धर्म और जाति के नाम पर राष्ट्रवाद को नकारने की प्रवृत्ति दिखलाई पड़ती है। यह प्रवृत्ति उतनी ही खतरनाक नहीं है, जितना एक वैकल्पिक राष्ट्रवाद के निर्माण का प्रयास। यह सांस्कृतिक एक रूपता के नाम पर किया जा रहा है, जो वस्तुत: इस देश में कभी नहीं रही। यहाँ महात्मा गाँधी का यह कथन स्मरणीय है कि ‘‘भारतीय संस्कृति पूरी तरह न हिन्दू है, न इस्लामी और ही कुछ अन्य। वह सबका संयोजन है।’’ उक्त वैकल्पिक राष्ट्रवाद अपवर्जी राष्ट्रवाद है। जो इस प्रयास में लगे हैं, वे सोचते हैं कि राष्ट्रवाद जितना अनमनीय अथवा कठोर होगा, उतना ही ताक़तवर, जबकि अपने देश में इसका उल्टा ज़्यादा सही है। भारतीय स्वीकृति और जुड़ाव का नाम है; भारत एकता में अनेकता को सशक्त करने से बना है।

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कुछ ही वर्ष पूर्व देश ने स्वतंत्रता की पचासवीं जयंती मनाई है। इस अवसर पर यह जानने की इच्छा स्वाभाविक थी कि स्वतंत्रता-आंदोलन में हिन्दी कविता का क्या योगदान रहा। भारत में आधुनिक विचारों के प्रसार में, जिनमें से देशभक्ति सिर्फ एक है, विकासमान भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य का बहुत ज्यादा हाथ रहा है। यह तथ्य जिज्ञासा को और बल देता है। स्वतंत्रता-आंदोलन में योगदान का महत्त्व तो है ही, इस बात का भी महत्त्व है कि राष्ट्रीयता की चेतना कविता में अनेक रूपों में व्यक्त हुई और उससे स्वयं कविता अत्याधिक समृद्ध हुई। उसे भाषा से लेकर भाव तक नवीन विस्तार प्राप्त हुआ और वह असंख्य भास्वर छवियों से जगमगा उठी। इस प्रसंग में ध्यातव्य यह है कि हिन्दी की राष्ट्रीय कविता के रचयिताओं ने अपनी राष्ट्रीय भावना स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्ति की, दल-विशेष की नीति और कार्यक्रम के अनुसार नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नहीं माना। उसे मानते हुए भी उन्होंने स्वतंत्र मानस का परिचय दिया। इस कारण कभी-कभी वे कांग्रेस से आगे दिखलाई पड़ते हैं। उस समय प्रेमचन्द्र का यह कथन सही मालूम पड़ता है कि ‘‘वह (साहित्यकार) देशभक्ति और राजनीतिक के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है।’’

जब मैं ‘स्वतंत्रता-पुकारती’ नामक इस संकलन के लिए कविताएँ देखने लगा, तो मेरे सामने कवियों की भीड़ उमड़ पड़ी, जो कि स्वाभाविक था। उनमें से मैंने उन्हीं कवियों का चुनाव किया, जो हिन्दी के श्रेष्ठ और प्रतिनिधि कवि हैं और फिर उनकी भी उन्हीं कविताओं को चिह्नित किया, जिनमें सिर्फ वक्तव्य या वक्तृव्य नहीं है, बल्कि उच्च कोटि का कवित्व है। इस कवित्व का विस्तार शक्ति से सौन्दर्य तक है। हिन्दी के कुछ कवि मूलत: राष्ट्रीयतावाद कवि माने गए हैं। इस संकलन में उनकी कविताएँ पाठकों को अधिक जगह घेरती हुई दिखलाई पड़ेंगी। ऐसे कवियों में मुख्य गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलील चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सुभद्राकुमारी चौहान और रामधारी सिंह दिनकर हैं। इनमें से किन्हीं-किन्हीं कवि की कविताओं की संख्या ज्यादा नहीं है, लेकिन उनकी कुछ कविताओं का आकार बड़ा है। इन कवियों के अलावा हिन्दी के कुछ ऐसे कवि भी हैं, जो राष्ट्रीयतावादी कवि के रूप में जाने नहीं जाते, लेकिन राष्ट्रीय भावना शक्तिशाली अंतर्धारा के रूप में उनमें प्रवाहमान रही है। ऐसे कवियों में मुख्य हैं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, श्रीधर पाठक, सत्यनारायण ‘कविरत्न’, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और शिवमंगल सिंह ‘सुमन’। इन्हें भी अधिक पृष्ठ दिए गए हैं, या इनकी भी कविताओं की संख्या पर्याप्त है। कहने की आवश्यकता नहीं कि उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, प्रतापनारायण मिश्र, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, सियारामशरण गुप्त और सुमित्रानंदन पंत भी राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति में किन्हीं से पीछे नहीं। इन कवियों के साथ जो कवि अलग से उल्लेखनीय हैं, वे हैं सच्चिदानंद वात्यस्याय ‘अज्ञेय’। वे राष्ट्रभावना सम्पन्न कवि के रूप में कतई नहीं जाने जाते, बावजूद इसके कि उनके संपूर्ण साहित्य-कर्म की मूल प्रेरणा स्वतंत्रता रही है।

इस कारण इस संकलन में उन्हें अपनी सात कविताओं के साथ देखकर पाठकों को विस्मय होगा। यहाँ स्मरणीय है कि ‘अज्ञेय’ जी भी स्वतंत्रता-आंदोलन के एक सैनिक रहे हैं और क्रांतिकारी आतंकवादियों से उनका घनिष्ठ संबंध था। स्वभावत: उस दौर में उन्होंने अनेक राष्ट्रीय कविताएँ लिखीं। स्वतंत्रता से उनकी प्रतिबद्धता ही थी, जो द्वितीय विश्वयुद्ध में सैन्यवादी जापानियों से मिलकर आजाद हिन्द फौज़ द्वारा पूर्वी भारत पर जानेवाले हमलों का प्रतिरोध करने के लिए उन्हें सेना की नौकरी तक ले गई। इस संकलन में तीन कवियों की सिर्फ़ एक-एक कविता दी गई है। वे कवि हैं : जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ और गिरिजाकुमार माथुर।

‘हितैषी’ जी की ग़ज़ल क्लासिक का दर्जा प्राप्त कर चुकी हैं, जिसका शेर ‘शहीदों की चिताओं पर जुडेंगे हर बरस मेले’ कभी बच्चों की जुबान पर भी थी। ‘अंचल’ जी की कविता बहुत सशक्त होने पर भी प्रचलित नहीं हुई, लेकिन गिरिजाकुमार माथुर की कविता आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास में अपना स्थान बना चुकी है। इन तीनों में किसी कवि को छोड़कर राष्ट्रीय कविताओं का कोई संकलन पूरा नहीं हो सकता था।

यह संकलन पाँच खंड़ों में विभाजित है। यह विभाजन अंतत: सुविधा के लिए है, क्योंकि एक खंड में संकलित कवियों में से कई दूसरे खंड के कवियों के साथ भी कविता में सक्रिय रहे हैं, यथा ‘प्रेमघन’ और श्रीधर पाठक। ‘प्रेमघन’ द्विवेदी-युग में भी जीवित रहे और श्रीधर पाठक ने तो छायावाद-युग का उत्कर्ष भी देखा। दूसरे खण्ड के कवि, जो द्विवेदी युगीन हैं, तीसरे-चौथे ही नहीं, पाँचवें खण्ड के कवियों के साथ भी कविता लिखते रहे, जो छायावादी और स्वच्छंद अथवा कथित उत्तर-छायावादी कवि थे। तीसरे और चौथे खण्ड के क्रमश: स्वच्छंद और छायावादी कवियों ने बहुत कुछ एक दूसरे के समानांतर काव्यरचना की है। पाँचवाँ खण्ड कथित उत्तर-छायावादी कवियों का है, जो मूलत: स्वच्छंदतावादी थे। उनके साथ ‘अज्ञेय’ और गिरिजाकुमार को इस कारण रखा गया है कि शुरू में ये भी उन्हीं के सहयात्री थे। इस उलझाव के बावजूद यह सही है कि पाँचों खंड़ों के कवि हिन्दी कविता के पाँच युगों अथवा पाँच धाराओं के प्रतिनिधित्व करते हैं। वे हैं भारतन्दु-युग, द्विवेदी-युग, स्वच्छंदधारा, छायावाद और कथित उत्तर-छायावाद अथवा छायावादोत्तर युग। कविताएँ यथासंभव रचना-क्रम से दी गई हैं और उनके स्रोत्र का संकेत वहीं दिया गया है, जहाँ वह आवश्यक है।


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हिन्दी कवियों की राष्ट्रीय भावना की मोटामोटी तीन मंजिलें दिखलाई पडती है। पहली मंजिल देशभक्ति की है, जिसमें राजभक्ति मिली हुई है, दूसरी स्वातंत्र्य चेतना में वर्ग-चेतना का समावेश हो गया है। ये तीनों ही मंजिलें हमेशा एक दूसरी में संक्रमण कर जाती हैं। भारतेन्दु-युग के कवियों ने राजभक्तिमूलक अनेक कविताएँ लिखीं। मैंने उन कविताओं को छोड़कर उनकी वहीं कविताएँ चुनी हैं, जो देशभक्तिमूलक हैं। स्वभावत: उनमें भी कहीं-कहीं राजभक्ति मिलती है। इस राजभक्ति के कई कारण हैं। अंग्रेजों ने इस देश में पिछले शासन की तुलना में बेहतर पुलिस, न्याय और विधि-व्यवस्था कायम की थी, साथ ही बहुत सीमित रूप में आधुनिक शिक्षा का द्वार भी खोला था, जिसके लिए वे उनकी दृष्टि से प्रशंसनीय ही नहीं, स्वागत योग्य भी थे।

दूसरे, अन्य ढेर सारे लोगों की तरह वे भी हृदय से यह विश्वास करते थे कि ब्रिटेन के साथ भारत के राजनीति संबंध इसके अलावा उनमें से कुछ का सोचना यह भी था कि ब्रिटिश शासन को चुनौती देने के लिए अभी अनुकूल समय नहीं। इससे स्पष्ट है कि भारतेन्दु-युग के राजभक्त या अंग्रेज़ी राय में निष्ठा-प्रदर्शन करने वाले कवियों की देशभक्ति संदेहास्पद नहीं थी। वे कायर या खुदगर्ज न थे। इसका प्रमाण यह है कि जब ब्रिटिश शासन ने अपने दुर्गुणों को दूर करने और सुधार की राष्ट्रवादी माँगों को मानने से इनकार कर दिया तथा जनता की हालत लगातार बिगड़ती गई, तो उन्होंने ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा की बात बंद कर दी और उनकी आग में तपे सोने-सी सच्ची देशभक्ति सामने आ गई। उनका ब्रिटिश शासन से ऐसा मोहभंग हुआ है कि वे आगे चलकर सत्याग्रह और असहयोग की बात ही नहीं, स्वराज्य की भी माँग करने लगे। स्वदेशी और बहिष्कार का समर्थन तो वे पहले से करते आ रहे थे। अंतत: उन्होंने भारत को वैज्ञानिक ज्ञान और औद्योगिक विकास में संपन्न एक आधुनिक राष्ट्र बनाने की अपनी अदम्य आकांक्षा का खुलकर इजहार किया, जो विदेशी शासन में संभव न था।

हिन्दी की राष्ट्रीय कविता की जो विशेषता सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वह है देशभक्ति का आवेश का विषय बन जाना, जैसे मध्ययुग में ईशभक्ति आवेश का विषय बन गई थी। कवि जिस भी वस्तु का वर्णन करें, राष्ट्र के प्रति उनकी गहन प्रेमानुभूति छलकती चलती हैं। ईशभक्ति से देशभक्ति तक और वैयक्तिक मुक्ति से राष्ट्र की मुक्ति तक की यह यात्रा हिन्दी कविता की एक बड़ी प्रगति की परिचायक है। देखते-देखते उसका दृश्य पटल परिवर्तित हो जाता है। भारतेन्दुयुगीन कवियों द्वारा देश-दशा का चित्रण जनसाधारण से उनके गहरे लगाव का सूचक है। अतीत-गौरव का गान उनसे लेकर बाद तक के कवियों ने इसलिए किया कि वे अंग्रेजों के इस दुष्प्रचार का खंडन कर सकें कि भारतीय सदा से दीन-हीन, पराधीन और स्वशासन के अयोग्य रहे हैं।

यह ठीक है कि अतीत-स्मरण में ये कवि ज्यादातर प्राचीन भारत तक ही गए और प्राय: अपने इतिहास पर अलोचनात्मक दृष्टि डाली, पर मुख्य बात राष्ट्र के रूप में अपनी अस्मिता की गर्वपूर्ण पहचान है, जो इनमें भरपूर मात्रा में थी। इन कवियों में जो एक खास बात दिखलाई पड़ती है, वह है राष्ट्रीय दुर्दशा से ईश्वर की गुहार। यह उनकी निरुपायता की बहुत ही संगठित अभिव्यक्ति है। सनातन धर्म की पुन: प्रतिष्ठा या आर्यवंश की एकता की पुन: स्थापना की आकांक्षा को सांप्रदायिकता से जोड़कर नहीं देखना चाहिए, क्योंकि इसमें अपने दृढ़ करने की बात थी, किसी दूसरे संप्रदाय के प्रति असहिष्णुता या द्वेष नहीं। अधिक से अधिक यह हिन्दी जातीयता की बात थी, जिसका राष्ट्रीयता से कोई टकराव न था। बाद के कवियों में भी ‘आर्य’ या ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग मिलता है। कहा जा सकता है कि ये मात्र शब्द नहीं, भावना या अवधारणा थे। इनके संबंध में भी उपर्युक्त बात ही सही है।

मैं पाठकों का ध्यान ख़ास तौर से भारतेन्दु की ‘भारतजननी जिय क्यों उदास’-जैसी कविता की तरफ़ दिलाना चाहता हूँ, जिसमें वकृत्वय नहीं, बल्कि राष्ट्रप्रेम की बहुत ही गहन अनुभूति देखने को मिलती है। उनकी ‘होली’, ‘मुकरी’ और ‘अंधेर नगरी’ ऐसी कविताएँ हैं, जिनमें व्यंग्य की धार बहुत तीखी ही नहीं, दोहरी भी है। एक तरफ़ वह अंग्रेजों को काटती है, तो दूसरी तरफ़ भारतीयों को भी। ‘प्रेमघन’ की कविता ‘क्षोभ’ भी ध्यातव्य है, जिसे भक्तिकाल के पदों के मुकाबले रखकर देखने से स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी कविता का परिदृश्य वाक़ई बदल गया है ! धर्म अभी भी है, पर चिन्ता का मुख्य विषय राष्ट्र की मुक्ति है, अपना मोक्ष नहीं। उनकी ‘वंदेमातरम्’ कविता जैसे मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘मातृभूमि’ का पूर्वाभास है। ‘चरखे की चमत्कारी’ शीर्षक दोनों गीत भी अनुभूति और अभिव्यक्ति की तीक्ष्णता की दृष्टि से बेजोड़ हैं। प्रतापनारायण की कविता एक राष्ट्रनायक के स्तवन से शुरू होती है।

यह परंपरागत प्रशस्ति-काव्य की परंपरा की रचना नहीं, जिसमें कवि का उद्देश्य अपने आश्रयदाता की कृपा प्राप्त करना होता था। इसमें कवि राष्ट्र को समर्पित है, किसी भी अन्य सत्ता को नहीं। आगे चलकर सत्यनारायण ‘कविरत्न’ के अलावा अन्य कवियों ने भी ऐसी रचनाएँ कीं, उदाहरणार्थ हरिऔध, माखनलाल और पंत ने। ऐसी कविताओं को भी निस्संदेह राष्ट्रीय कविताओं में गिनना चाहिए, क्योंकि उनका मूल विषय वस्तुत: व्यक्ति न होकर आंदोलन है। प्रतापनारायण ने कांग्रेस के अधिवेशन ही नहीं, कांग्रेस पर भी कविता लिखी, जिसमें उन्होंने उसका विराट रूप प्रस्तुत किया। उनकी कविता ‘महापर्व’ में जो राजभक्ति है, वह ‘दीनदयाल दया करिए’ कविता में आकर मोहभंग का शिकार हो जाती है। ‘होलिकापंचक’ के कुछ बंदों में उनकी भाषा बहुत कँटीली हो गई है।

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