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दुर्ग का पतन

टी. आर. सुब्बाराव

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :643
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2158
आईएसबीएन :81-260-0639-0

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चित्रदुर्ग पर राज्य करनेवाले नायक वंश के अन्तिम राजा मदकरि नायक और दुर्ग राज्य के पतन के बारे में....

Durg Ka Patan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

दुर्गास्तमान तारासु लिखित कन्नड का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास है। यह चित्रदुर्ग पर राज्य करनेवाले नायक वंश के अंतिम राजा मदकरि नायक और दुर्ग राज्य के पतन के बारे में है। इसको ऐतिहासिक पक्ष से प्रमाणिक बनाने के लिए उन्होंने उपन्यास लिखने से पहले ऐतिहासिक खोजों की जानकारी प्राप्त की। इस ऐतिहासिक उपन्यास में उन्होंने राजनीति के चौसर के खेल में चली चालों, साज़िशों, फ़रेबों और षड्यंत्रों का प्रभावशाली ढंग से वर्णन करके अद्भुत संसार रच दिया है। युद्ध का वातावरण उकेरने के लिए अपनी शैली में वीर रस भरने में वे बेहद कामयाब हुए हैं। काव्यमयी भाषा में जीवन की कठोर सच्चाइयाँ—राज्य प्राप्ति की हवस, क्रूरता के साथ ही मानवीय गुणों का वर्णन बड़े प्रभावशाली ढंग से किया है।
कन्नड साहित्य में यह उपन्यास अप्रतिम स्थान रखता है। इसकी गिनती कन्नड के चर्चित एवं महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यासों में की जाती है। इस कृति को वर्ष 1985 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

 

1

 

 

काँसे का खरल सामने रखकर पान के रेशे नाखूनों से निकालते हुए होन्नव्वे की आँखें हाथीदाँत के कामवाले चन्दन के पलंग के एक किनारे गावतकिए के सहारे बैठी ओबव्वा नागति को ही देखे जा रही थी।
    वह सोचने लगी, ‘रानी माँ कैसी थीं, अब कैसी हो गई हैं ?’
    नरम पान के पत्तों के रेशे निकालना रोककर, पोरुओं पर गिनकर उसने हिसाब लगाया।
    उस दिन—
    दिनदहाड़े सूरज डूब जाने की तरह कस्तूरी रंगप्पा नायक ने मुश्किल से माँ कहा परन्तु उनमें मुँह से वह शब्द निकाल पाने की शक्ति भी न थी। माँ का हाथ पकड़कर उन्होंने आँखें मूँद लीं।
    कितने दिन बीत गए ?

    नायक के पलंग के पास ही खड़े पंडित ने नायक का हाथ थामा और नाड़ी देखकर कहा, ‘‘रानी माँ जी, अब नायक हमारे नहीं रहे।’’
    यह सुनते ही राजमहल को भी दहला देने वाले आर्तस्वर में ‘बेटे’ कहकर चीख़ती हुई ओबव्वा नागति उसकी देह पर ढह पड़ी।
    उस दिन राजमहल आँसुओं का दह बन गया।
    कितने ही रो न पाने पर, फिर भी उनकी आँखें आँसुओं से भर गई थीं। कितने ही रो-रोकर निढाल हो गए। ऐसे लोग कितने होंगे इसका हिसाब भला किसके पास था। दुःख के अतिरेक के समय नगाड़े बजे, तुरहियाँ भी चीख़ीं। दुर्ग के सारे लोग सिमटकर दुर्ग के आँगन में जुड़ आए।
    ‘‘हम सबको अनाथ करके क्यों चले गये अन्नदाता’’...कहते हुए लोग अपनी हथेलियों से आँसू पोंछने लगे थे।
    उस दिन—
    बलि चढ़ाकर दो मुद्राएँ कमानेवाले, रक्त में मर्दन करके ठहाके मारनेवाले जल्लाद भी-
    ‘‘हाय माँ, हम लुट गए।’’ कहते हुए छाती पीटने लगे थे।
    उस दिन-
    घरों के द्वारों पर बँधी आम के पत्तों की बन्दनवारें आँखों में चुभने लगी थीं। वे सब तोड़कर फेंक दी गईं। घरों के आगे रचाई गई रंगोली पाँवों से मिटा दी गई। सबको जन्म देनेवाले भगवान को भी दुर्ग की स्त्रियाँ कोसने लगी थीं।  
    उस दिन-

    आवाजों से गूँजनेवाला दुर्ग, उस दिन साँस रुक जाने की भाँति निःशब्द हो उठा था।
    राजमहल की आँखों में ही अँधेरा छा गया था। पलंग पर पड़ी देह फूलों का पहाड़ हो उठी थी। कन्धों पर उठाकर ले जाने वालों के कंधे झुक गए थे, धँस-से गए थे। आँसू गिराते हुए वे लोग कस्तूरी रंगनायक का शव राजघराने के श्मशान की ओर लेकर चल पड़े थे। कुबेला में सूर्य उदित हुआ था।
    उस दुर्दिन को—
    कितने दिन बीत गए ?
    उस दिन-
    सुदी थी या बदी थी-नक्षत्र आदि ज्योतिषी ने पंचांग देखकर कहा था।
    ‘‘दिन और नक्षत्र अच्छे हैं। किसी के लिए भी ख़राब नहीं।’’ यह बात सुनते ही ‘‘छिः’’ तेरे मुँह में आग लगे। कहते हुए ज्योतिषी को ही कोसने लगे थे न, उस दिन-
    कितने दिन बीत गए ?
    पोरों को छू कर गिनते हुए हिसाब लगाया होन्नव्वे ने।
    बारह या तेरह दिन हुए होगें।

    उस दिन-
    गुरुवार था।
    गुरुवार से गुरुवार आठ, उसके बाद पाँच।
    हाँ तेरह दिन बीत गए।
    बरस भी नहीं, महीने भी नहीं, सिर्फ़ तेरह दिन बीते हैं। इतने ही में—
    रानी माँ कैसी थीं और अब कैसी हो गईं ?
    नायक के गुज़रने के तीन दिन बाद तक इन्होंने अन्न-जल छुआ भी नहीं था। बेटे के जाने के दिन स्नान करने के बाद पलंग पर मुँह ढाँपकर पड़ गईं। ‘यह चाहिए वह नहीं चाहिए।’ यह भी नहीं कहा। उनके पास किसी ने आ कर ‘यह कैसे करना है या वह कैसे करना है,’’ पूछने पर उन्होंने ‘‘राजमहल में और कोई बड़ा नहीं क्या ? उन्हीं से पूछ लो।’’ बेटे के साथ मानो दुनिया ही ख़त्म हो गई, ऐसा ख़ाली हाथ हिलाकर कह दिया।
    तीन दिन ऐसे ही गुज़र गए।
    चौथे दिन ख़ुद ही उठ कर-

    ‘‘मेरा बेटा ही भाग्यशाली था। आँसू गिराती सहगमन को जाती बहू को देखने का कष्ट भी उसने मुझे नहीं दिया। अपनी पत्नी के हिस्से का काम भी वह स्वयं ही कर गया।’’ कहकर अपने को ढाँढ़स दिया और—
    ‘‘पीने को एक गिलास पानी दो।’’कहकर उन्होंने अधमरी-सी मुझे जिला लिया।
    नागति के मुँह से जब यह शब्द निकले तब होन्न्व्वे ने ‘‘इतने से ही यह आग ठंडी पड़ गई।’’ कहते हुए तसल्ली की साँस भरी। उसमें नई जान-सी आ गई। उन्होंने जो भी कहा उसने तुरत-फुरत किया और जो, माँगा से लाकर हाज़िर किया।
    आने-जाने वालों के साथ उनके एक-दो बातें करते ही—
     होन्नव्वे ने मन ही मन कहा-
    ‘‘शिव भली करे, रानी माँ फिर से पहले की तरह हो गईं।’’
    रानी माँ ने पानी पिया, भोजन किया। आने-जाने वालों से बातें कीं, यह सब तो ठीक था पर होन्नव्वे की कल्पना के अनुकूल वे पहले जैसी रानी माँ न हो सकीं ?
    तब-
    तेरह दिन पहले-
    ओबव्वा नागति वास्तव में ओबव्वा नागति थी।

    अब ओबव्वा नागति, नागति तो है पर ऐसी जैसे पिंजरे से पक्षी उड़ चुका हो।
    अब उनकी उमर क्या होगी ? मेरे जितनी ही या मुझ से एक-दो बरस बड़ी होगी। उनका ब्याह दुर्ग के बड़े नायक मदकरि नायक से हुआ। जब वे ससुराल को चलीं तब मेरे पिता ने मुझे उन्हीं के साथ दहेज में देने की बात कही। तब मैंने ज़िद पकड़ी, मैं घर छोड़ कर नहीं जाऊँगी। उस पर पिताजी ने ‘‘दस बरस की धींगड़ी हो चली, नसीब होता तो अब तक ब्याह करके ससुराल चली जाती। अब राजकुमारी के साथ जाने के लिए कहता हूँ तो बेशर्म रो रही है।’’ कहते हुए डाँट कर ‘आनेगोंदी’ से मुझे ओबव्वा नागति के साथ ही भेज दिया। यह सब बातें होन्नव्वे को अच्छी तरह याद थीं। तब मैं कोई दस बरस की रही होऊँगी। बाद में कितने बरस बीत गए इसका भला किसे हिसाब था। नागति के बेटे कस्तूरी रंगप्पानायक के पट्टाभिषेक के समय किसी ने कहा था, ‘‘रानी माँ कोई साठ-सत्तर की होंगी।’’ इस पर होन्नव्वे ने सोचा, ‘‘क्या मैं भी इतने बरस की हो गई।’’ कभी-कभी आयु की बात चलती तो वह यह सोचकर आश्चर्य करती कि इत्ते बरस बीत गए ?
    कस्तूरी रंगप्पानायक के राजतिलक के समय अगर रानी माँ सत्तर बरस की थी तो अब—उन्होंने तो सिर्फ़ छह बरस राज्य किया न ? तो अब रानी माँ छिहत्तर बरस की होंगी।
    इतने बरस की हो गई थीं ओबव्वा नागति।

    इतने बरसों में नागति ने कितने कष्ट सहे थे और सुख भी देखे थे। महारानी के रूप में सिंहासन पर बैठीं और सुख से इतराईं। हाथी के हौदे में, चाँदी की पालकी में, हाँथीदाँत के पलंग पर बैठकर महालक्ष्मी की तरह इठलाईं। इतने ऐश्वर्य से रखने वाले पति ‘मायाकोंड’ की लड़ाई में हाथी के हौदे में बैठ कर लड़ते-लड़ते स्वर्गवासी हो गया। तब रानी दस दिन तक रोती रही। माथे का सिंदूर पोंछ डाला पर बेटे के राजा बनने की खुशी में वह सारा दुःख भुलाकर जीने लगी।
    लेकिन तब भी ऐसी तो नहीं हुई थीं।
    ‘‘पति के प्राण लेनेवाले हरपनहल्ली के नायक को जब तक बेटा हरा नहीं देता तब तक मैं दूध नहीं छुऊँगी।’’ कहकर उन्होंने प्रण लिया था। आनेगोंदी के राय ने अपनी बेटी को जो ‘मर्दानी ओबव्वा’ नाम दिया था वह सार्थक हो गया। आयु का भी लिहाज न करके मृत्यु को एड़ी के तले दबाकर ऐसे ही चलती चली गईं।
    ऐसी नागति—

    अब-कैसी हो गई हैं ? बेटे के गुज़र जाने के तेरह दिनों में ऐसी ढह गई हैं, मानो अब वे आयु के उस भार को सँभाल नहीं पाएँगी। अब तक सोने की मूँठवाली बेंत हाथ में थामने पर भी न लेने वाली नागति अब स्वयं उसे पकड़ा देने का आग्रह करती हैं। बेंत थाम कर भी दस-पाँच क़दम ही रख पाती हैं कि साँस फूल उठती है। चारों ओर कुछ भी थाम लेने को नज़र दौड़ाती हैं। एक हाथ से बेंत के सहारा लेने पर भी दूसरे हाथ के लिए एक और सहारा खोजती हैं। ‘‘चुपचाप बैठे-बैठे भी प्यास लगी है जरा पानी दो’’ कहती हैं। फिर पानी लेकर पीना भूलकर कुछ और ही कहने लगती हैं।
    आँसू नहीं, रोना नहीं, लम्बी साँस नहीं—

    यह कैसा दुःख है ? बड़े से पेड़ को भीतर ही भीतर दीमक लग जाने जैसा यह दुःख। रानी माँ अब ऐसी लगती हैं मानो दुःख को ही पिघलाकर ढाली गई मूर्ति हो।
    कैसा विचित्र दुःख है यह।
    वह जुबान से कह नहीं सकती।
    मैं आँखों से देख नहीं सकती।...इतनी दूर से भट्ठी की आग की तरह झुलस जानलेवा दुःख।
      ऐसे दुःख को रानी माँ कैसे सह रही हैं ? रोज़ फूलों से पूजा लेने वाली उच्चंगम्मा (देवी) तुम्हारा दिल कैसा पत्थर है ? इस माँ को इतना दुःख क्यों दिया ?
    यह कहते हुए नागति की ओर देखती होन्नव्वे ने अपनी आँखें छत की ओर घुमाईं। देखते-देखते  उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उनका बाँध टूट गया था। होन्नव्वे बिलख-बिलखकर रो उठी।
    उसकी रुलाई सुनकर ओबव्वा नागति ने होन्नव्वे की ओर घूमकर देखा। उनके लिए बिलखनेवाली होन्नव्वे को तसल्ली देने की इच्छा हुई। पर किससे कौन क्या कहती ? और कुछ कहने से लाभ ? तसल्ली देना तो दुःख को शाबाशी देने जैसा है। नहीं तो आँसू की दो बूँद बहाकर वह हृदय में सूख जाता है। यह बात ओबव्वा नागति अपने अनुभव से जानती थीं। कुछ देर चुप रहने के बाद वे बोलीं-
    ‘‘होन्नव्वे जो होना था सो हो गया। अब जो नहीं होना था वह भी हो गया। अब हमारे रोने से क्या होगा ? और हँसने से क्या होगा ?’’

     ‘‘मेरा दुःख क्या चीज़ है रानी माँ ? इस उम्र में आप से ज्यादा दुःख...।’’
    होन्नव्वे आगे कुछ कहना चाहती थी पर बीच ही में रोक कर लम्बी साँस छोड़कर रानी बोलीं, ‘‘दुःख और आयु में क्या सम्बन्ध है, होन्नव्वे ? दुःख उम्र देखकर नहीं आता ? फिर भी स्त्री को इतने वर्ष जीना नहीं चाहिए। ‘सौ साल जियो’ कहकर आशीष देनेवालों को अक्ल नहीं। इतनी लम्बी उम्र तक कितना दुःख सहना पड़ता है-वह यदि स्त्री को पता होता तो कोई ऐसा आशीर्वाद न देता। वे अवश्य ही कहते कि हँसने के कुछ दिन बाकी रहते ही शिव चरणों में जा पहुँचो। पर अब यह सब सोचने से लाभ...।’’
    ‘‘करने को ढेरों काम हैं। प्रधानमंत्री जी ने इस समय तक आ जाने की बात कही थी। ज़रा जाकर देखो तो आए कि नहीं ?’’
    ‘‘अच्छी बात है, रानी माँ देखकर आती हूँ। यह ताम्बूल...।’’
    ‘‘अब ज़रूरत नहीं। जो काम होना है, उसे देखो।’’
    उनके आदेशानुसार होन्नव्वे प्रधानमंत्री नरसप्पय्या आए हैं या नहीं, पता लगाने गई।
    उसके जाने की ओर ही निहारते हुए ओबव्वा नागति ने अपने आप से कहा, ‘‘कौन किसके लिए रोए और कौन किसे तसल्ली दे ? पर स्त्री पैदा ही होती है दुःख उठाने को, आँसू गिराने को। विधि ने स्त्री के भाग्य में यही लिखा है।’’

 

2

 

 

बाहर
    आषाढ़ मास का आकाश, चारों ओर धुँधले बादल छा जाने से निस्तेज हो उठा था। मलेनाड की पर्वत श्रेणी पर रूद्राभिषेक करने के उपरान्त दुर्ग की पहाड़ियों तक आते-आते बादल धुएँ की तह की तरह झीने-झीने हो चुके थे। दुर्बल की आँखों से यदा-कदा गिरनेवाले आँसुओं की भाँति चित्रदुर्ग की पहाड़ियों पर गिरते-गिराते छितराते चले जा रहे थे। मौक़ा और अधिकार हाथ से निकल जाने पर घंमड से चूर नौकर की भाँति हवा पहाड़ियों की संधियों से ऐसे भिन्नाई-सी चल रही थी मानो पहाड़ियों को ही हिला कर रख देगी। चैत-वैशाख में गर्मी से तपे पत्थर जहाँ गर्म हवा फेंकते थे, अब ठंडे पड़कर शरीर कँपानेवाली ठंडक फेंकने लगे थे। सूर्य का प्रकाश मद्धम हो चला था। पहाड़ों की गुफाएँ ठंडी से बर्फ़ हो गई थीं। आनेवाले त्यौहारों के कारण घर-द्वार, राजमहल, हवामहल और गुरुमन्दिर आदि पर पुताई की जा चुकी थी। हरे-भरे पौधे अपनी कान्ति खोकर ठंड से ठिठुरने लगे थे। दुर्ग की दीवारें, बुर्जियाँ, झरोखे, ऐसे दीख रहे थे मानो राख पोत दी गई हो। पहाड़ों पर उग आई घास ऐसी दीख रही थी जैसे सर्दी की ही कपोलें फूट पड़ी हों। राजमहल, गुरुमठ और मन्दिर व राजकार्यालयों में चारों ओर चहल-पहल होनी चाहिए थी पर लोगों का आवागमन कम हो जाने से केवल अति आवश्यक कामों के लिए ही इक्के-दुक्के लोगों के बाहर निकलने के कारण, सब स्थान निर्जन से पड़े थे। ऐसा लगता था जैसे सब सर्दी की ही चादर ओढ़ कर उदास से सो रहे हों।

    दुर्ग का वातावरण तो निस्तेज और निर्जीव सा था। पालकी में शाल ओढ़े बैठे प्रधानमंत्री कल्लीनरसप्पय्या की आँखों में भी वही उदासी थी। उनके हृदय में जड़ता थी। पारे के समान उज्जवल बुद्धि भी अप्रतिभ हो उठी थी। कहार पालकी ढो रहे थे। प्रधानमंत्री उसके झरोखे से राह में पड़ने वाले मन्दिरों को बैठे-बैठे ही नमस्कार कर रहे थे। प्रधानमंत्री की पालकी ढोते कहार सदा लोगों को चेताते ‘हटो बचो’ कहते हुए चला करते थे पर आज उसकी आवश्यकता न थी लेकिन अभ्यासवश उनके मुँह से ‘हटो बचो’ निकलता ही जा रहा था। कम्बल ओढ़े कहार पालकी राजमहल की ओर ले जा रहे थे।
    दूर से आती कहारों की आवाज़ सुनकर महल के पहरे पर आराम से बैठे चौकीदार सावधान होकर झट से वरदी ठीक करते हुए हथियार सँभालते तनकर खड़े हो गए। प्रधानमंत्री जी पहरेदारों के नमस्कार अभ्यास से ही देखे-अनदेखे हाथ हिलाकर स्वीकार करते हुए सीधे राजमहल की ओर चले गए।

    प्रधानमंत्री ने आस-पास बिन-देखे सिर और कमर ऐसे झुकाकर मानो कोई बोझ सिर पर धरा हो राजमहल का आँगन पार किया। तभी द्वार पर खड़े दरबार बख्शी ने उनका स्वागत करते हुए नमस्कार करके बिन बोले, आगे का रास्ता दिखाया।
    चिरपरिचित महल को एक अपरिचित की भाँति आँखें घुमाकर देखते हुए नरसप्पय्या ने आगे बढ़ते  हुए धीमी आवाज़ में क्या पूछा-
    ‘‘जिन-जिन को आना था सब आ गए क्या ?’’
    दरबार—बख्शी ने कहा, ‘‘छह चौकियों के दलपति, नगर सेठ आदि सभी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। जगदगुरू से भी सूचना आई है कि वे भी आ रहे हैं। उन्हें भी सूचना भेज दी गई थी। आपकी पालकी को आते हुए मठवालों ने देख लिया होगा। वे भी एक-दो क्षण में पधार रहे होंगे।’’
    नरसप्पय्या ने चलते-चलते रुककर पूछा, ‘‘बड़ी नागति जी कैसी  हैं ?’’
    ‘‘अब दो दिन से जऱा सँभली हैं। उनकी निजी सेविका होन्नव्वे ने अभी-अभी आकर पूछा था कि कौन-कौन आ चुके हैं। आपके और जगदगुरु के आते ही सूचित करने को कह गई हैं।’’
    ‘‘आज की सभा में वे भी आ रही हैं न ?’’

    ‘‘होन्नव्वे ने बताया था कि वे भी आएँगी ?’’
    यह बात सुनकर नरसप्पय्या को आपनी छाती पर लदा बोझ हल्का होता-सा लगा। उन्होंने कहा-
    ‘‘बड़ी नागति जी के सँभल जाने से ऐसा लग रहा है मानो दुर्ग में फिर से नवजीवन आ गया हो....उन्हें हमारे आने की सूचना दीजिए। किसी भी बात की जल्दबाज़ी नहीं कीजिए। वे आराम से आ सकती हैं। भले ही हमें थोड़ी देर प्रतीक्षा क्यों न करनी पड़े। उनकी सुविधा ही हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है। अब हमारे मार्गदर्शन को केवल वे ही अकेली बची हैं।’’
    यह कह कर नरसप्पय्या गुप्त मन्त्रणा-कक्ष की ओर बढ़ गए।
    चलते-चलते उन्होंने महल के चारों ओर निगाह दौड़ाई। हर खम्बे के पास नंगी तलवार थामे एक-एक पहरेदार सावधान की मुद्रा में खड़ा था। मूर्तियों जैसे मौन खड़े पहरेदारों की गिद्ध जैसी आँखें आने-जाने वालों पर खोज भरी दृष्टि डाल रही थीं। वह दृष्टि भी उनकी नंगी तलवार जैसी ही पैनी थी।
    ‘दलपति ने राजभवन का प्रबन्ध बढ़िया किया है।’ मन ही मन यह कहते हुए नरसप्पय्या ने मन्त्रणा कक्ष में प्रवेश किया। चाँदी की मूठवाला दंड लिए द्वार पर खड़े हरकारे का नमस्कार स्वीकार करके उसी के पीछे-पीछे जाकर उन्हीं के लिए आरक्षित आसन की ओर बढ़े।
    प्रधानमंत्री के प्रवेश करते ही उस दिन सभा के लिए आमन्त्रित सभी लोगों ने उठ कर उन्हें नमस्कार किया। नरसप्पय्या ने बैठते-बैठते एक नज़र दौड़ाकर देखा कि कौन-कौन आ चुका है।

    दलपति भरमण्णा नायक, बाण के मदकरि नायक, दलपति निंगप्पा नायक, कोतवाली के दलपति काशण्णा नायक, खजांची अज्जाप्पा चप्पे, चावड़ी के हुच्चप्पा नायक, सीमा चौकी के दलपति काटनायक, नगर सेठ चन्नमल्लप्पा, आदि सभी लोग आ चुके थे। इन सबको पहुँचना ही था। केवल कुछ आसन ख़ाली थे। वे राजघराने के बुजुर्गों के लिए सुरक्षित आसन थे। उस दिन वह सभा बुलाने के उद्देश्य सन्तान-हीन गुज़र गए नायक की गद्दी पर किसे बिठाया जाए इस विषय पर चर्चा करना था। पालेगार के दायादियों और नज़दीकी रिश्तेदारों को नरसप्पय्या ने उस दिन की गुप्त मन्त्रणा सभा में जानबूझकर नहीं बुलाया था। नायक की गद्दी कौन सँभालेगा इस विषय की चर्चा उठते ही हर व्यक्ति अपने-अपने उम्मीदवार का नाम लेगा तो इससे अँतःकलह की कोपलें न फूटने पाएँ।  

    किसे गद्दी पर बैठाना चाहिए इस बारे में सबको अपनी स्पष्ट राय देनी चाहिए। राय ज़ाहिर करनेवाले की राय में सामने वाला व्यक्ति आड़े नहीं आना चाहिए। संयम से ही सब बात चलनी चाहिए, कहीं भी गर्मा-गर्मी होने को अवकाश नहीं मिलना चाहिए। चर्चा भले ही दसों दिशाओं में हो पर निर्णय सबको एकमत होकर करना चाहिए। राज्य रक्षा को कटिबद्ध किसी भी व्यक्ति को यह अवकाश नहीं मिलना कि उसकी क़ीमत नहीं पड़ी या उस पर ध्यान नहीं दिया गया। भीतर का निर्णय बाहरवालों को पता चलने पर भी भीतर हुई किसी भी चर्चा की बात किसी को पता नहीं चलनी चाहिए। नरसप्पय्या ने केवल उन्हीं लोगों को उस दिन निमन्त्रित किया था जिनकी निष्ठा में उन्हें रंचमात्र भी संदेह न था। आमन्त्रित सभी लोग आ गए थे। कोई भी किसी भी बहाने से अनुपस्थित न हुआ था। यह देखकर नरसप्पय्या के मन को तसल्ली हुई और उन्हें लगा कि चर्चा लाभप्रद रहेगी। यह सोचकर वे एक दीर्घ निश्वास लेते हुए बैठ गए।
    वे जब बैठ ही रहे थे तभी राजगुरु श्री मुरगराजेन्द्रस्वामी की बिरुदावली का बखान करते चारणों की ‘जगदगुरु महास्वामी की जय हो’ की जय-जयकार सुनाई पड़ी। तब एकत्रित सभी लोग राजगुरु के स्वागत को उठ खड़े हुए।
    


































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