लोगों की राय

सामाजिक >> ब्रह्मपुत्र के आसपास

ब्रह्मपुत्र के आसपास

लील बहादुर क्षेत्री

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2171
आईएसबीएन :81-260-0105-4

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

230 पाठक हैं

इसमें असम में बसे लाखों नेपालियों की पुनर्स्थापन एवं जीविकोपार्जन की एक मार्मिक संघर्ष-गाथा है....

Brahmaputra Ke Aaspas a hindi book by Leel Bahadur Kshetri - ब्रह्मपुत्र के आसपास - लील बहादुर क्षेत्री

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नेपाली साहित्य में अपने उल्लेखनीय योगदान के लिए भानुभक्त पुरस्कार से सम्मानित श्री लील बहादुर क्षेत्री (जन्म 1933) भारतीय नेपाली पाठकों के लिए प्रिय और सुपरिचित लेखक रहे हैं। असम के नेपालियों के बीच अपनी साहित्यिक कृतियों के कारण इनकी विशिष्ट पहचान है। ब्रह्मपुत्र के आसपास असम में बसे लाखों नेपालियों के पुनर्स्थापन एवं जीविकोपार्जन की एक मार्मिक संघर्ष-गाथा है।

विशिष्ट कथ्य, पैनी एवं सतर्क दृष्टि, सांस्कृतिक अस्मिता, जातीय गौरव और सौहार्द्र के प्रामाणिक अंकन तथा अकृत्रिम शिल्प के नाते वर्ष 1987 में नेपाली में लिखित श्रेष्ठ कृति के रूप में इसे साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। जीविका से अध्यापक और सामाजिक कार्यकर्ता होने के कारण श्री क्षेत्री ने आम नेपाली एवं असमी लोगों के जीवन को बहुत नजदीक से देखा-और परखा है। वे उनके हर्ष-विषाद, शान्ति संघर्ष, स्वार्थ-परमार्थ के साक्षी ही नहीं, उनके अधिकारों के प्रवक्ता भी रहे हैं।

इस कृति का सरल एवं सुंतुलित अनुवाद डॉ. सुरेन्द्र प्रताप साह ने किया है। हिन्दी और नेपाली भाषा के सुपरिचित विद्वान डॉ. साह की कई कृतियाँ प्रकाशित हैं। हिन्दी में अजगर और सतह के नीचे इनके दो प्रकाशित कथा संग्रह हैं।


एक

एक शिखर के ऊपर दूसरे शिखर के तह के रखकर ऊँचे उठे हुए पहाड़ और आँख से ओर छोर न देखे जा सकने वाले विस्तृत समतल मैदान का सम्मिश्रण टुकड़े में विभाजित खेत और सघन वन, हरा भरा घास का मैदान विस्तृत फैला चाय बगान, कल कल करती छोटी बड़ी नदियाँ इन सबके रंगों से रँगी रजाई को ओढ़कर प्रकृति द्वारा श्रृंगार करने की चेष्टा किये जाने वाले इस सुन्दर प्रान्त आसाम के वक्ष को चीरते हुए सागरमाथा की गर्दन और हृदय से निकलकर, अपनी शाखा उपशाखा दिशाङ, जात्र्जी दिशाई, धनशिरी, बुढ़ीदिहङ्ग आदि अनेक उपनदियों को अपने अन्दर समेटते और स्वयं को फैलाते हुए ब्रह्मपुत्र ने अपने पवित्र जल से इस छोटे गाँव के तलुए को भिगो दिया है। असम के ऐसे अनेक गाँव और शहरों को अपना जलसिंचन कर बह रही है यह ब्रह्मपुत्र नदी, सागर की ओर धरती, के पेंदे का आलिंगन करने हेतु। सागरमाथा की ऊँचाई और सागर की गहराई के बीच अपनी जलधारा की अल्पन बनाकर मानों यह सामंजस्य लाना चाहती है, इनको मिलाने का प्रयास करना चाहती है। लेकिन हिमालय झुकता नहीं, सागर ऊपर उठता नहीं और इनका मिलन यहाँ हो नहीं पाता।
इस छोटी जगह का नाम है कछुगाँव। गाँव से ज़्यादा इसे झोपड़पट्टी और गोचारण स्थल कहना बेहतर है और यही कहने का यहाँ प्रचलन भी है। पट्टैर तथा कांसधारी के बीच है यहाँ नेपाली की झोपड़ी, बगीचा, गाय बाँधने की छपड़ी, पाड़ा-बाछा को खिलाने की नाद और भैंस का खूँटा। आसाम को आप्लावित करने के लिए सागरमाथा की उपत्यसका से नीचे उतरनेवाली ब्रह्मपुत्र नदी की शीतल हवा में खेलने के लिए उन्मत नेपाली जीवन जो युगों पहले वहाँ के शोषण और शासन की तप्त सूई से उनींदा सा हो गया था, उसकी जलन न सह सकने के कारण वह असम के जंगल को आप्लावित करती हुई नीचे बहने लगी। हिमालय शीतल हवा को साथ लेकर बहनेवाली नदी का किनारा अपनी जगह भूलता गया। बाद में, स्वतंत्रताप्रेमी नेपाली ने अनेक पुश्तों से इसी निर्जन वन में अपनी जगह खोजी।

कछुगाँव में पहला नेपाली पाँव पड़े कई पुश्त बीत गये, लेकिन घरों की संख्या उतनी अधिक बढ़ नहीं पाई। कारण यह कि बहुत सारे नेपाली गाय भैंस का व्यवसाय छोड़कर अन्यत्र जाकर तथा जंगल उजाड़कर खेती करने लगे। चारागाह की सुविधा देखकर कितने घरों के लोग यहाँ से दूसरी जगह चले गये-अपने साथ जानवरों को लेकर। यहाँ आजकल मात्र बीस बाईस पशुशालाएँ हैं।
जाड़े की ऋतु के न आने पर भी वर्षा ने विदाई ले ली है। नदी का जल घट जाने के कारण छपड़ी से काफी दूर तक नदी के द्वारा परित्यक्त बलुआही ज़मीन फैली हुई है। मनुष्य चारों ओर मदेरो, नल झेउवा खगड़ो इडा बेरबारी और काँसधारी जगहों में बिखर गये। इसी बीच इन नेपाली लोगों का गाँव और झोपड़बस्ती है।
नदी के पास की बुलआही जमीन पर खड़े होकर यहाँ से दूर तक नदी के बहाव को देखने पर नदी और आकाश मिले हुए से लगते हैं और प्रतीत होता है कि क्षितिज में सूर्य नदी के गर्भ के अंदर बहा जा रहा है। लेकिन, ये दोनों आँखों के भ्रम हैं, न वहाँ आकाश और धरती मिलते हैं और न सूर्य नदी के अंदर बह रहा है।

यह जीवन भी तो एक भ्रम के समान ही है। इच्छा, आशा और आकांक्षा के घूलसमूह को पकड़ने के लिये दौड़ते हुए उल्टे उसी की गर्दन मृत्यु के निर्मम पंजे के द्वारा कब धर ली जायेगी, इसका पता नहीं होता। बाद में, अवशेष के रूप में दिखाई पड़ती है जड़ चेतनरहित राख। शरीर का अंत ही जीवन का अंत नहीं है। जीवन एक रिक्त स्वप्न नहीं है। मृत्यु के पार भी इसका अस्तित्व है। नये कलेवर में यह पुनः एकबार आकांक्षा का पंख लगाकर उड़ता है" जैसी बातों में सभी धार्मिक मत एक हैं तो भीयथार्थ में ठोस प्रमाण की जगह मतभेद और तर्क ने लेली है। यह तो चिन्तन का विषय हुआ, दर्शन का विषय। हमारे चर्मचक्षु के लिये तो जीवन और इसकी सभी बातें शरीर क्षय के साथ ही समाप्त हैं।
ज्ञानचक्षु को बहुत दूर तक फैला सकने पर, मृत्यु के बाद भी जीवन का अस्तित्व अवश्य दीखेगा और कितनों ने देखा भी है। यथार्थ क्या है-जानना कठिन है। जो भी हो इतना तो स्पष्ट है कि हमारे जीवन की डोर किसी दूसरे के हाथ में है और वह कब छिन जायेगी, हम कह नहीं सकते।

आज इस झोपड़पट्टी की एक झोपड़ी में एक नेपाली शरीर का अंत हो गया है और कुछ दिन बाद वह ब्रह्मपुत्र की लहर में मिल भी जायेगा। इस संसार से मृत्यु लोक में न जाने पर उसके जीवन में पुनः दिन आता परन्तु इस संसार में तो अब उसके लिये रात हो गई, कभी न समाप्त होनेवाली रात।

समाचार सुनकर एक कोस दूर बयरआंटी से प्राथमिक स्कूल के संचालक केशव काकती भी आ पहुँचे। उनके बारे में यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वे इस स्थान पर काकती बाबू के नाम से सबके द्वारा जाने और माने जाने वाले प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आस पास के ग्रामीण लोग झोपड़पट्टी के ग्वाले महाजन सभी एकत्र हो हुए हैं। इस समय सब में एक ही हड़बड़ी और खलबली है-शव को वहाँ से शीघ्र हटाने और नदी किनारे पहुँचाकर उसे राख में परिवर्तित करने की। इस समय इन लोगों का कर्त्तव्य भी यही है। कुछ देर पहले तक इस शरीर के प्रति उनका व्यवहार और भावना भिन्न थे। इसे सभी हल्की चोट तथा धक्के से बचाने का प्रयत्न करते थे। हाथ से छूने पर कष्ट होगा-इसका भी ध्यान रखते थे। लेकिन अभी इसे बाँस के फट्टे में जोर से कसा जा रहा है। न वहाँ दुःखने का भय है, न चोट लगने का डर। कैसा अद्भुत है हमारा जीवन, कितना क्षण भंगुर। लेकिन यही है वास्तविकता। यह चक्र सबके बीच घूमता है। जीवन का ऐसा अवशेष देखकर ग्रामीणों के मन में एक भाव उठता है-हम तो व्यर्थ मैं और मेरा का हुंकार भरते रहे हैं। यह संसार ही मेरा के लिए उछल कूद करता रहता है। अवशेष केरूप में न तो मैं रहता है और न मेरा। लेकिन, यह भावना क्षणमात्र ही टिकपाती है। यदि ऐसी भावना चिरस्थायी हो जाये तो इस संसार का अभिनय ही समाप्त हो जाये। सांसारिक मंच एक रिक्त गुफा बन जायेगा।

काफी शाम हो गई। अब शव के उठने में देर नहीं है। ग्रामीणों के हृदय में उस मृतक के प्रति सहानुभूति है, यह उनके चेहरे पर थोड़ा बहुत अंकित है, लेकिन उसके लिये आँसू किसी की आँख में नहीं है। केवल एक वर्षीय बालक का हृदय उसी प्रकार व्यस्थित है जैसे किसी जंगल को अचानक प्रचण्ड आँधी ने झकझोर दिया हो। उसके हृदय को एक अनबुझ विकलता ने ढाँक लिया है। अश्रुवृष्टि कर वह उस विकलता की छाप को पोंछना चाहता है, हृदय से मिटाना चाहता है लेकिन जैसे कैनवस पर डाला गया रंग पानी से भीगकर विरूप हो जाता है उसी प्रकार उसके आँसू इस विकलता से मिलकर अजीब कारुणिक से हो गये हैं। सारा हृदय उससे आप्लावित है लेकिन मिटने का नाम नहीं लेता यही बालक है मृतक का रक्त संबंध वाला एकमात्र प्राणी-उसका पुत्र।

कच्ची उम्र में होने के बावजूद गुमान सिंह, माता पिता के प्यारे गुमान की बुद्धि परिपक्व हो गई है। उसे इस बात में संदेह नहीं है कि उसके पिता अब मात्र उसकी स्मृति में हैं। अब उनके हाथ उसे सहलाने के लिए आगे नहीं बढ़ेंगे। आज से तीन वर्ष पूर्व उसने ममता के हनन को सहा है। उसकी माँ भी एक दिन इसी प्रकार निस्तेज होकर गिर पड़ी थी और इसी प्रकार लोग जमा हुए थे। उसके पिता सभी के मस्तिष्क को हिला देने जैसा रोये थे। फिर उसकी माँ कभी दिखाई नहीं पड़ी। उसके मुख में तो सर्वप्रथम उसी ने अग्निशिखा जलाई थी।

धर्म और सदाचार का पाठ गुमान ने माँ से प्राप्त किया था। संघर्ष, कर्त्तव्य बोध, ईमानदारी और परिश्रम को उसने पिता के जीवन से लिया था। गरीबी से उसका संबंध पुश्तैनी था। फिर भी गरीबी की ज्वाला ने उसके हृदय को कभी दग्ध नहीं किया था। आधा पेट खाकर भी वह प्रसन्न रहता था क्योंकि सुख और विलासिता से उसका परिचय नहीं हुआ था।
दुःख के बीच रहकर भी गुमान को स्नेह रस प्रचुर मात्रा में मिला था। नौ वर्ष की उम्र तक उसे स्नेह रस देनेवाले दो मधु के छत्ते थे। तत्पश्चात् एक छत्ते के समाप्त होने पर भी उसका रस दूसरे में ही समाहित हो गया। रसधारा उतनी ही बहती रही। उसमें कमी नहीं हो पाई। लेकिन आज अचानक दूसरा छत्ता भी समाप्त हो गया। स्नेह का स्रोत सूख गया। स्नेह वारि से उसके हृदय को भिंगाने वाला कोई नहीं रहा। यह बात उसके बाल हृदय में जितनी आती है वह उतना ही विह्वल हो जाता है। उसकी व्याकुलता आँसू की भाषा में प्रकट हो रही है। वह रो रहा है, लगातार रोये जा रहा है।

ब्रह्मपुत्र के खुले मैदान में चिता की तैयारी की गई। नग्न शव को चिता में रखा गया। उसका तकिया लकड़ी बिछावन लकड़ी और ओढ़ना भी लकड़ी। जीवन में अंत में शरीर का यही सम्मान होता है। अब अग्नि संस्कार का समय समीप आया। एक आदमी ने गुमान को बुलाया-"लो यह बत्ती जलाओ, पिता को अग्नि देनी होगी।" गुमान के लिये यह एक असह्य बात थी। लालटेन की धुँधली रोशनी में उसने अपने पिता का चेहरा देखा, मुख देखा वही, मुख जो गुमान को स्नेह से पुकारने में कभी थकता नहीं था। जिसका मुख सदा स्नेहिल स्वर में गुमान कह कर पुकारता रहता था, आज उसी मुख में अग्निशिखा जलानी होगी उसे। कितनी कठोर परीक्षा है यह ? गुमान का हृदय चीत्कार कर उठा। दिमाग सभी बातों को समझ नहीं पा रहा है। अर्ध चेतनावस्था में किसी ने जली हुई बाती उसके हाथ में दे दी और उस हाथ को पकड़कर शव के मुख में डाल दिया। अन्य विधि विधान भी इसी प्रकार पूरे हुए। गुमान के लिये अब ठहरना मुश्किल हो रहा था, वह अलग हट गया। वह देख रहा था कि चिता सुलग उठी और ब्रह्मपुत्र के किनारे ज्वाला फैलने लगी। साथ आए लोगों के बीच तरह-तरह की बातें। शव को बाँस से खोंचा मारकर जलाया गया। सारी बातें निद्रा में आये स्वप्न की तरह लगीं, सभी बातें अस्पष्ट कितनी कितनी दूर।

इसी प्रकार गहरे अंधकार के बीच एक बड़ी ज्वाला एकदम सिर तक आई, धीरे धीरे जीवन का अवशेष अब एक मुट्ठी राख जिसे ब्रह्मपुत्र में तैरने डाल दिया गया। इस प्रकार एक जीवन का अध्याय समाप्त हो गया।
गुमान ने तीन वर्ष पहले भी इसी प्रकार माँ का दाह संस्कार देखा था। उसे प्यार करने वाली माँ के उस शरीर में आग लगाया जाना उसने देखा था। आज की तरह, उस दिन भी उसको अग्नि संस्कार करने के लिये लगाया गया था। उसका मन उस समय भी विकल हुआ था। लेकिन आज की तरह नहीं। उस समय उसके पिता सामने थे जो उसे तसल्ली देते रहते थे। वे स्वयं रोते जाते और कहते-"मत रो बाबू मत रो। मैं तो हूँ न ! क्यों रोते हो ?" उसे पिता का ढाढ़स था। सिर उस समय वह और भी छोटा था। "माँ ऐसी जगह चली गई जहाँ से दोबारा नहीं लौटेगी"-इतना जानते हुए भी उसमें कोई दायित्व बोध नहीं था।

आज तो वह अच्छी तरह यह समझने की स्थिति में है कि अब से वह इस संसार में अकेला हो गया है। आज से वह टूअर हो गया, पूरी तरह टूअर। उसको अपना कहनेवाला अब कोई नहीं है। एक कौर खाने के लिये उसे भले मिल जाये पर स्नेह का रस पीने की जगह उसे नहीं रही। अब तो उसे जीना पड़ेगा अपने लिये और अपने पैर पर।
रात अपनी मध्यरेखा पारकर धीरे धीरे सुबह से मिलने हेतु बढ़ती रही। लाश जलानेवाले लोगों ने ब्रह्मपुत्र में स्नान किया। गुमान को स्नान कराने के बाद एकदम श्वेत वस्त्र पहनाया गया। सभी कार्य समाप्त कर वे लोग अभी-अभी फैली हल्की चाँदनी में वापस लौटे। सबका मन थोड़ा-थोड़ा भारी हो गया था-कोई मर गया है-इस बात से नहीं। अपने जीवन के बारे में सोचकर। लाश जलाकर लौटने के दिन कम से कम यह टीस प्रत्येक के हृदय में उठती है कि हमारा भी अंत चिता में है और वह घड़ी कब आ जायेगी, हम नहीं जानते। वह किसी मुहूर्त में आ सकती है। अभी कल या वर्षों बाद।"


दो



उसका नाम है मानवीर जाति है क्षत्रीय उपजाति है कार्की। नेपाल के पहाड़ के बीच उसका जन्म हुआ है। वहाँ का ठंडा पानी एवं खुली हवा पाकर वह स्वस्थ बना है। साग-पात तथा लिट्टी खाकर वह बड़ा हुआ। वहाँ की ऊँची चोटी ने उसके हृदय में उदारता भर दी। सदा दिखाई देनेवाले गर्वीले हिमालय से उसने आत्म सम्मान सीखा। उसे ईमानदारी, परिश्रम और संघर्ष पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हुए थे तथा दुःख और गरीबी उसे सदा साथ देनेवाले कुल देवता थे। इतना ही है गुमान के मृत पिता का व्यक्ति परिचय।

यह है सन् 1950-51 के आस-पास की बात जब मानवीर ने ब्रह्मपुत्र के किनारे अपना चिर विश्रामस्थल चुना। असम में आए उसे मात्र 6-8 वर्ष हुए थे। उसके असम में आते ही एक ओर दूसरा विश्वयुद्ध बढ़ रहा था तथा दूसरी ओर भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने अंतिम चरण में पहुँच गया था। बहुत सारे गोरखा जवान ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर होम हो रहे थे। कितने भारतीय नेपाली सपूत नेताजी की आजाद हिन्द फ़ौज से जुड़कर जीवन अर्पण कर अपनी देशभक्ति का परिचय दे रहे थे तथा स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय योगदान देकर अपने को होम करनेवाले भी काफी थे।
परन्तु, असम का आम नेपाली जनजीवन अपनी गति में प्रवाहित हो रहा था। वे लोग भैंस को रखने एवं चराने की जगह की खोज में व्यस्त थे। साथ ही वे व्यस्त थे जंगल को काटकर साफ करने में तथा असम के निर्जन वन को विस्तृत खेतीबाड़ी में परिवर्तन करने में।

औरों की तरह मानवीर का तीन पुश्त असम में बीता नहीं है। वह असम के लिये अभी नया है। स्वदेश ने उसे निष्कृष्ट समझकर निरुद्धेश्य दिशा में गले में हाथ देकर धकिया दिया फिर अंत समय में मानवीर के हृदय में जन्म भूमि के प्रति गाढ़ा स्नेह था। वह अभी असम के साथ पूरी तरह स्वयं को आत्मसात भी नहीं कर सका था कि उसकी देह के अवशेष को ब्रह्मपुत्र बहाकर ले गया।
मानवीर पच्चीस बसन्त देख भी नहीं पाया था कि उसे माता पिता दोनों से वंचित होना पड़ा था। परन्तु उसके जीवन में बसन्त कभी आया ही नहीं, फूल खिलते ही झर गया। ऋतुराज ने प्रकृति को इतना हँसाया कि उसके पेट में बल पड़ गया लेकिन मानवीर के हृदय के खिलने और हँसने की ऋतु कभी नहीं आई। उसके जीवन में तो सदा शिशिर ही रहा तथा चालीसवाँ शिशिर पार करते-करते वह रह गया। उनचालीस शिशिर की आग उसने चिता में तापी।

उसकी पत्नी कहिए, संघर्ष की साथिन कहिए, उसकी प्रेरणा कहिए, प्रेममयी जुरेली मानवीर के चौबीसवें वर्ष में उसकी दुल्हन बनकर आई। उसके बाद मानवीर के जीवन में एक नई गति आई। जीवन उसका था पर साँस जुरेली लेती थी, परिश्रम वह करता था पर थकावट जुरेली ओढ़ लेती थी।
दुःख मानवीर पर पड़ता लेकिन आँसू जुरेली बहाती थी। अब मानवीर अकेला नहीं था।
उसने एक नया भविष्य देखा, उसमें एक नई आशा पैदा हुई। उसके जीवन का मूल्य समझनेवाला कोई दूसरा भी था। जीवन संघर्ष अब उसे कुछ कुछ रसपूर्ण लगने लगा था।

जुरेली और मानवीर के मिलने को उसकी माँ नहीं देख पाई। यह कष्ट मन में लिये ही मानवीर की माँ दो वर्ष पहले विदा हो गई। घर में किसी औरत के न रहने से पिता पुत्र को चूल्हा सुलगाने की भी समस्या हो गई और इसी बहाने पिता ने पुत्र का विवाह कर दिया। अपने पास की बची खुची रकम माँ का चाँदी का बाला, पायल, नाक का जेवर तथा बुलाकी के साथ-साथ खेत का छोटा टुकड़ा भी इस विवाह में समाप्त हो गया। इससे गरीबी थोड़ी और बढ़ गई, फिर भी पोतोहू के साथ भोजन बूढ़ा छः महीने से अधिक नहीं खा पाया। पुत्र के विवाह का वर्ष दिन पूरा होते होते वह भी अनन्त में पत्नी से भेंट करने चला गया।

अब जुरेली ही मानवीर का सब कुछ थी और मानवीर ही जुरेली का सर्वस्व। मानवीर जहाँ एक ओर जुरेली से पत्नी का प्रेम और प्रेरणा पाता था वहाँ दूसरी ओर वात्सल्यपूर्ण मातृहृदय का स्नेह और देखरेख भी। इस प्रकार मानवीर मातृ-पितृ वियोग की पूर्ति जुरेली के द्वारा करने लगा। विवाह के तीन वर्ष बाद इनके प्रेम रूपी पौधे ने एक नयी शाखा को जन्म दिया। प्रेम के वरदान के रूप में एक शिशु का जन्म हुआ। दोनों ने अपनी इच्छा, आकांक्षा और आशा का भार इसी शिशु पर डाल दिया। यही शिशु जीवनका लक्ष्य बन गया।
अब स्नेह के साथ साथ समस्या भी नई दिशा की ओर बढ़ी। इसका समाधान खोजा उन लोगों ने अपने परिश्रम में। परिणामतः परिश्रम की मात्रा और बढ़ गई।

अपने अथक परिश्रम से खानदानी सम्पत्ति जैसी चारों ओर फैली गरीबी के पर्दे को चीरकर, वे लोग जीवन की उजली चांदनी खोजने की चेष्टा करने लगे। पैतृक सम्पत्ति के नाम पर प्राप्त खेत के एक टुकड़े के अलावा ये लोग साहू की जमीन भी जोतने लगे। उसमें अपना पसीना बहाया लेकिन स्वदेश की छाती चीरकर जीने का इनका प्रयास विफल रहा। ग़रीबी का पर्दा अब और भी लक्ष्य खींच गया। सामन्ती समाज, धनीमानी शाहूकार पंच परमेश्वर हाकिम मुखिया सभी ने मिलकर इस पर्दे को चारों कोने से पकड़कर इस प्रकार ताना कि वह रबर की तरह तनता गया, फैलता गया। उसके अंदर मानवीर का छोटा परिवार उलझ पुलझ गया, साँस अवरुद्घ सी होने लगी। इससे मुक्ति पाने का कोई रास्ता मानवीर के पास नहीं रहा।

अंत में एक दिन नेपाली परम्परानुसार अपने परिवार तथा सम्पूर्ण गृहस्थी की जमा पूँजी को गठरी में समेटकर निरुद्धेश्य दिशा की ओर विदेश चल पड़ा।
पहाड़ के निचले स्तर पर आने के बाद मानवीर की भेंट असम की ओर जाने वाले एक नेपाली व्यक्ति से हुई। उससे उसे असम में बहुत सारे नेपालियों द्वारा मवेशी पालकर तथा खेती-बारी करके जीविका अर्जित कर बस जाने की जानकारी मिली। वहाँ जाने पर जीविकोपार्जन का कोई-न-कोई साधन अवश्य निकल आयेगा। मानवीर को आखिर कहीं न कहीं जाना ही था। वे लोग उसी नेपाली के साथ जोगबानी आ पहुँचे। वहाँ मानवीर तथा जुरेली ने जीवन में पहली बार रेलगाड़ी देखी। इस अद्भुत वाहन का नाम और वर्णन इन लोगों ने गाँव घर में सुना था लेकिन देखने का सौभाग्य आज ही प्राप्त हुआ। पहली बार डिब्बे में चढ़ने के बाद उनका तीन वर्षीय पुत्र डर गया। यह उसके लिए कभी न देखा गया बड़ा जानवर था। इतने बड़े जानवर के सामने होने पर अब कल्याण नहीं है-ऐसा उस छोटे शिशु के हृदय ने समझा। वह जुरेली की ओढ़नी में सिमट गया।

यहाँ से कटिहार तक छोटी लाइन होने के कारण उतनी भीड़ नहीं थी। डिब्बे के अंदर कुछ बिहारी मधेशी और नेपाली टोपी पहने तीन-चार गोरखा सैनिक थे। शायद वे छुट्टी बिताकर घर से वापस लौट रहे थे। अब दूसरे विश्वयुद्ध के किसी आग में होम होने पहुँचे थे।

रेलगाड़ी ने धीरे धीरे स्टेशन को छोड़ा। मानवीर और जुरेली एक ऐसे अज्ञात रास्ते पर आगे बढ़ने लगे जिसके बारे में कभी कुछ पता न था। मात्र पहाड़ का निर्जन वन, कठोर चोटी, नदी, ढूह तथा पहाड़ी एवं विशाल पत्थर देखनेवाले इन लोगों के लिए यह नया संसार था। मानवीर कभी-कभी नमक-तेल ख़रीदने धरान आता था। जिससे उसने मोटर-लॉरी देखी थी। नया बाज़ार मोड़ की कपड़ा दूकान में बैठकर वह धूलवाली सड़क पर धूल उड़ाती तथा आगे पीछे करती एक दो लॉरी तथा ट्रक को अचम्भे के साथ देखता रहता। लेकिन तब तक वह लोहे की दो पटरियों को पकड़कर दौड़नेवाली रेल की तरह किसी वस्तु की कल्पना नहीं कर सकता था। जुरेली के लिये मोटर भी एक नई बात थी, रेल का क्या कहना ?
मन में एक आशंका तथा एक प्रकार का भयमिश्रित आश्चर्य के साथ जब ये कटिहार पहुँचे तब इन्हें पता चला कि संसार ज़्यादा विस्तृत है। स्टेशन का वह जन कोलाहल, अनेक रेलगाड़ियाँ, कुलियों की छीन-झपट, भिखारियों की खींचतान इन सभी बातों से ये लोग घबड़ा-से गये। इतने अधिक लोगों का एक ही स्थान पर समागम,गाँव घर के बड़े विवाहोत्सव में भी नहीं होता था। हाट बाजार में कभी कभी अच्छी भीड़ हो जाती थी, परन्तु चोटियों के बीच खुली जगह में लगने वाले हाट बाजार का वातावरण तथा यहाँ के इस जन समुदाय के बीच कहीं कोई सामंजस्य नहीं था।

मानवीर और जुरेली छोटे बालक के साथ प्लेटफ़ॉर्म पर उतरे। पूर्व की ओर जाने वाली बंगाल एक्सप्रेस आई नहीं थी लेकिन प्लेटफ़ॉर्म पर काफ़ी आदमी थे। उन लोगों का नेपाली साथी कुछ अनुभवी था जिससे उसने एक कुली का आश्रय लिया। बंगाल एक्सप्रेस में सभी को चढ़ाने हेतु कुली ने दो रुपये की माँग की। उससे कम में वह तैयार नहीं हुआ। दो रुपया स्वीकार कर ये लोग पूर्व जाने वाली बंगाल एक्सप्रेस की प्रतीक्षा करने लगे। एक क्षण के बाद ही बंगाल एक्सप्रेस आ पहुँची और प्लेटफ़ॉर्म पर आकर रुक गई लेकिन आम जनता के लिये तीसरी श्रेणी के डिब्बे में तिल धरने की भी जगह नहीं थी। दूसरे महायुद्ध के बीच का समय था वह। प्रत्येक डिब्बे में सैनिक खचाखच भरे थे। अनेक रंग के लोग कोई काला हब्शी, कोई गोरा और बहुत सारे भारतीय, सैनिक। शायद ये लोग पूरब के नागा पहाड़ की ओर बढ़ती जापानी सेना को रोकने के लिये चले थे। कुली ने उन्हें ले जाकर एक डिब्बे की खिड़की से अंदर धकेल दिया। इतना कर उसका दायित्व पूरा हो गया और वह दो रुपया लेकर चलता बना। एक किनारे गठरी रखकर जुरेली उसी पर बैठ गई। मानवीर खड़ा रहा। उनका साथी दोनों देशवासियों के बीच बेंच पर सिमटकर बैठा।



प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book