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राष्ट्रकवि कुवेंपु की कविताएँ

तिप्पेस्वामी

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :201
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2209
आईएसबीएन :81-8031-078-7

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प्रस्तुत है कविता श्रेष्ठ संग्रह...

Rashtra kavi kuvempu ki kavitayen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘ओ मेरे चेतन, बन तू अनिकेतन’, कहकर सारे जहाँ में कहीं भी निकेतनिवासी बनने की इच्छा न रखनेवाले कुवेंपु ने अपने विश्वमानव संदेश के द्वारा मनुष्य को जाति, वर्ण और अन्यान्य उपाधि-विशेषणों से बाहर आकर मात्र मनुष्य की हैसियत से जीने और जीने दो के सिद्धान्त पर डटे रहने को कहा है। उनके पंचमंत्रों और सप्तसूत्रों में विश्व मानव की परिकल्पना है।
कुवेंपु के जीवन में आध्यात्मिकता का पुट उनके बचपन के दिनों से विकसित होता आता है। उनके ‘दर्शन’ के मूल में प्रकृति का महत्वपूर्ण योगदान है, प्रकृति उनके काव्य का अविभाज्य अंग है। उनके काव्य में अभिव्यक्त आध्यात्मिकता ने अध्यन-चिंतन-मंथन एंव अनुभव से उद्भूत होकर धीरे-धीरे रूप प्राप्त किया है। यह आध्यात्मिकता उनके लिए बाहरी वेष न होकर अंतरंग विकास के अविभाज्य अंग के रूप में है। मतलब यह है कि कुवेंपु में जो आध्यात्मिकता पायी जाती है, उसके लिए उस परिवेश का भी योगदान है, जिसके अंतगर्त वे पाले-पोसे गये थे।

प्राक्कथन


भारत बहुभाषाओं का देश है। यहाँ की भाषाओं में समृद्ध साहित्य है जिससे साक्षात्कार करने का यदि कोई सशक्त माध्यम है तो वह अनुवाद है। अनुवाद के माध्यम से हम एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं। अनुवाद के माध्यम से न केवल साहित्य की अपितु विज्ञान तकनीकी तथा मानविकी क्षेत्रों की उपलब्धियों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। अनुवाद से भाषायी क्षेत्रों की परिधियों का विस्तार होता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि अनुवाद के बिना हर भाषा द्वीप बनकर रह जाती है।

मुझे प्रसन्नता है कि मैसर विश्वविद्यानिलय हिन्दी और कन्नड के बीच आदान-प्रदान कार्य के प्रति समर्पित है। इस विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. मे. राजेश्वरय्या जी ने अनुवादों के द्वारा हिन्दी और कन्नड़ के बीच मधुर संबंधों का विकास कराने का सपना ही नहीं देखा अपितु अपने सपने को साकार करने की दिशा में अथक परिश्रम से सफलता भी प्राप्त की। डॉ. राजेश्वरय्या जी के इस सारस्वत यज्ञ में सहयोग देने वाले पूर्व सांसद एवं गाँधीवादी श्री तुलसीदासदासप्पाजी के योगदान का भी मैं यहाँ स्मरण करना चाहता हूँ। इन दोनों ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मानवीय श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी से मिलकर इस अनुवाद योजना की महत्ता उन्हें बताई। मानवीय मुख्यमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी ने बहुभाषाओं के इस देश में ऐसी अनुवाद योजना की प्रासंगिकता का अनुवाद किया। उनके उदार चिंतन और साहित्यिक प्रेम के कारण उत्तर प्रदेश सरकार ने मैसूर विश्वविद्यानिलय को चार लाख रुपये की अनुग्रह राशि देकर एक एवडोमेंट की स्थापना कराने के द्वारा अनुवाद कार्य को संपन्न करने के लिए मार्ग सुलभ बनाया। इस संदर्भ में माननीय श्रीविश्वनाथ प्रताप सिंह जी, श्री तुलसीदासप्पाजी और प्रो. राजेश्वरय्याजी के प्रति आभार प्रकट करते हुए संतोष का अनुभव कर रहा हूँ। मैसूर विश्वविद्यानिलय में स्थापित उत्तर प्रदेश सरकार के एनडोमेंट की स्थायीनिधि से प्राप्त ब्याज से हमारे विश्वविद्यानिलय का हिन्दी विभाग अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित कर चुका है, यथा-आधुनिक कन्नड़ काव्य (1997), प्रातिनिधिक हिन्दी कथेगळु (2000) आधुनिक हिन्दी काव्य (2001) और कन्नड़ की श्रेष्ठ कहानियाँ (2004)।

अब इस योजना के अंतर्गत कन्नड के महाकवि कुवेंपु की कविताओं के हिन्दी अनुवादों का यह संग्रह प्रकाशित हो रहा है जो कि मेरे लिए अत्यन्त खुशी की बात है। कुवेंपु इस देश के महान कवि हैं, चिंतक हैं, दार्शनिक हैं, शिक्षाविद् हैं और विश्वमानवता के अनन्य प्रतिपादक हैं। मैं चाहता हूं कि इनकी कविताएँ हिन्दी के द्वारा देश के कोने-कोने तक पहुँचें और देशवासी इनसे प्रेरणा ग्रहण करें। गत वर्ष हमने कुवेंपु का जन्मशती वर्ष धूमधाम से मनाया है। जन्मशती वर्ष की स्मृति को ताजा रखने की दिशा में यह संकलन निश्चय ही एक महत्वपूर्ण देन है।

प्रस्तुत काव्य संकलन के संपादक मंडल के अध्यक्ष प्रो. तिप्पेस्वामी और सदस्य डॉ. शनिधर एल.जी, प्रो. प्रधान गुरुदत्त और इन अनुवादों के परिशीलक डॉ. राजेन्द्रमोहन भटनागर ने बड़े मनोयोग से यह संकलन तैयार किया है, अतः मैं इन सबको साधुवाद देना चाहता हूँ और आशा करता हूँ कि भविष्य में भी यह कार्य गतिशील रहे। मैसूर विश्वविद्यानिलय का यह सारस्वत यज्ञ पूरे देश के सामने एक आदर्श बने, यह मेरी हार्दिक कामना है। अंत में प्रो. तिप्पेस्वामी का विशेष अभिनन्दन करना चाहता हूँ जिन्होंने बड़ी आस्था से प्रस्तुत संकलन को सुंदर ढंग से प्रकाशित कराने का प्रयास किया है। देश के प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान लोकभारती प्रकाशन से यह संग्रह प्रकाशित हो रहा है। जिसके कारण इस संग्रह की गरिमा बढ़ी है। अतः लोकभारती प्रकाशन के श्री दिनेशचन्द्र का भी मैं आभार मानता हूँ।

मैसूर
4 जनवरी 06

प्रो. जे. शशिधर प्रसाद
कुलपति
मैसूर विश्वविद्यानिलय

दो शब्द


मैसूर विश्वनिद्यानिलय में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित एनडोमेंट की धनराशि से प्राप्त हो रहे ब्याज से आधुनिक हिन्दी और कन्नड की महत्वपूर्ण कृतियों की अनुवाद द्वारा आदान-प्रदान करने की योजना के अंतर्गत राष्ट्रकवि कुवेंपु की कविताएँ संकलन काव्यप्रेमियों के कर कमलों में समर्पित करते हुए अतीव हर्ष का अनुभव हो रहा है।

भारत जैसे बहुभाषाओं के देश में अनुवाद एक ऐसा स्रोत है जिसके माध्यम से हम एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं। जबकि भारतीय भाषाओं की कृतियाँ हिन्दी में अनूदित होकर आएँगी तब तुलनात्मक अध्ययन की संभावनाएँ बढ़ेंगी और भारतीय साहित्य के एकात्मक बिन्दुओं को रंखाकिंत करना भी संभव हो पाएगा। इस दृष्टि से मैसूर विश्वविद्यालनिलय के हिन्दी विभाग के पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष डॉ. में. राजेश्वरय्याजी ने अथक परिश्रम से अनुवाद योजना की प्रासंगिकता को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मानवीय विश्वनाथ प्रताप सिंह जी को अवगत कराने में सफलता प्राप्त की। इस कार्य में प्रसिद्ध गाँधावादी एवं पूर्व सांसद श्री तुलसीदासदासप्पाजदी का सहयोग भी स्मरणीय है। परिणामतः उत्तर प्रदेश सरकार ने मैसूर विश्वविद्यानिलय में अनुवाद योजना के लिए स्थायीनिधि स्थापित की जिसके अधीन हिन्दी विभाग निरंतर क्रियाशील है।

प्रस्तुत योजना में आधुनिक हिन्दी और कन्नड़ साहित्य की विभिन्न विधाओं की श्रेष्ठ रचनाओं का एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने का प्रावधान है। अब तक इस श्रृंखला में निम्नलिखित चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं :-
1.    आधुनिक कन्नड़ काव्य (1997)
(कन्नड़ कविताओं के हिन्दी अनुवाद)
2.    प्रातिनिधिक हिन्दी कथेगळु (2000)
(हिन्दी कहानियों के कन्नड़ अनुवाद)
3.    आधुनिक हिन्दी काव्य (2001)
 (हिन्दी कविताओं के कन्नड़ अनुवाद)
4.    कन्नड़ की श्रेष्ठ कहानियां (2004)
(कन्नड़ कहानियों के हिन्दी अनुवाद)



यह उल्लेखनीय है कि ये चारों संग्रह पाठकों को बेहद पंसद आए।
राष्ट्रकवि कुवेंपु की कविताएँ-इस श्रृंखला का पाँचवाँ पुण्य है। प्रस्तुत संकलन को तैयार करने की बड़ी प्रासंगिकता है। कुवेंपु बीसवीं शती के महाकवि हैं जिन्होंने सर्जना कन्नड़ भाषा में की अवश्य, मगर इनकी संवेदना विश्वमुखी है। कुवेंपु ने अपने जीवन और साहित्य द्वारा सार्वकालिक एव सार्वदेशीय मूल्यों का प्रतिपादन किया है जो कि पूरे विश्वसमुदाय को आलोकित करते रहेंगे। सन् 2003, दिसम्बर 29 से सन् 2004 दिसम्बर 29 तक पूज्य कुवेंपुजी का जन्मशती वर्ष पूरे कर्नाटक में हर्षोल्लास से मनाया गया। कर्नाटक सरकार, कर्नाटक के विश्वविद्यानिलयों और कई स्वैच्छिक संस्थाओं ने कई उत्सवों के आयोजन के द्वारा कवि का हार्दिक स्मरण किया है।
 
महान चेतना राष्ट्रकवि कुवेंपु के मैसूर विश्वविद्यानिलय के साथ घनिष्ठ और अंतरंग संबंध रहे हैं। मैसूर विश्वविद्यालय की गरिमामय प्रतिष्ठा की श्री वृद्धि में कुवेंपुजी के योगदान का स्मरण हमेशा-हमेशा के लिए किया जाएगा।
कुवेंपु जी के जन्मशती वर्ष की पावन स्मृति में मैसूर विश्वविद्यालय में स्थापित उत्तर प्रदेश सरकार के एनडोमेंट की समिति ने कुवेंपु जी की चुनी हुई कविताओं के हिन्दी रूपांतरों का एक संग्रह प्रकाशित करने का निश्चय करके निम्न संपादन मंडल का गठन किया-

प्रो. तिप्पेस्वामी          - अध्यक्ष
डॉ. शशिधर एल.जी      -सदस्य
प्रो. प्रधान गुरुदत्त         - सदस्य

कुवेंपु के कविता सागर से कौन सी रचना चुनें, कौन सी रचना छोड़े, यह एक ससस्या थी। क्योंकि कुवेंपु की हर रचना की अपनी महत्ता एवं गरिमा है। तथापि संग्रह की महत्ता को ध्यान में रखकर संपादक मंडल ने कुवेंपु जी की उनहत्तर कविताओं और एक खंडकाव्यांश का चयन किया है और इनके अनुवाद कराए हैं। हमें आशा है कि ये कविताएँ पाठकों को पसंद आएँगी। हमें अतीव खुशी है कि कुवेंपु जी की कविताओं के काव्यानुवादों का यह पहला संग्रह है जो हिन्दी में प्रकाशित हो रहा है।

कुवेंपु जी की कन्नड़ कविताओं के हिन्दी काव्यानुवादों को प्रस्तुत करने के इस प्रयास में उन्नीस अनुवादों ने सहयोग दिया है। इन सभी अनुवादकों ने बड़े ही मनोयोग से अनुवाद कार्य किया है। अपने अनुवादों को मूल रचनाओं के प्रति प्रामाणिक रखने का भरसक प्रयत्न किया है।

विभिन्न अनुवादकों द्वारा ये अनुवाद संपन्न हुए हैं तो अनुवादों में अनुवादकों की छाप सहज ही आ जाती है। विभिन्न शैलियाँ देखी गई। विभिन्न भाषा प्रयोग देखने में आए। इन अनुवादों को भाषा, शैली और प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से परिशीलन करने के लिए हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. राजेन्द्र मोहन भटनागर जी को आमंत्रित किया गया था जिन्होंने संपादक मंडल के सदस्यों के साथ बैठकर इन सारे अनुवादों को हिन्दी भाषा की प्रकृति के अनुसार एक रूप देने में विद्वतापूर्ण सहयोग दिया है। एतदर्थ डॉ. भटनागर जी के प्रति विशेष आभारी हूँ। संपादक मंडल के अन्य सदस्यों के सहयोग का भी स्मरण करता हूँ। सो भी प्रो. प्रधान गुरुदत्त जी की मुझ पर विशेष कृपा रही है।

कन्नड़ के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पूज्य कुवेंपु जी के सुपुत्र श्री के.पी. पूर्वचन्द्र तेजस्वी जी के आत्मीय सहयोग का यहाँ विशेष उल्लेख होना है। कुवेंपु जी की कविताओं के इन अनुवादों के लिए अनुमति माँगते हुए जब पत्र मैंने लिखा तो उन्होंने तुरन्त सहर्ष अपनी अनुमति प्रदान की। अतः मैं श्री तेजस्वी जी के प्रति विश्वविद्यानिलय की तरफ से धन्यवाद समर्पित करता हूँ।



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