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देशद्रोही

यशपाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2215
आईएसबीएन :9788180313738

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यह उपन्यास भारतीय स्वतंत्रता युद्ध के 1942 के काल, उत्तर सीमान्त और तत्त्कालीन दक्षिण सोवियत के जीवन का चित्रण...

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने इस उपन्यास से संतुष्ट होकर लिखा था....‘‘यशपाल की परतूलिका उतावलेपन के लिये नहीं, स्थायी मूल्यों के लिये है।.....इस उपन्यास को संसार की किसी भी उन्नत भाषा के उपन्यासों की श्रेणी में तुलना के लिये रखा जा सकता है।’’
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ भगवतशरण उपाध्याय ने ‘देशद्रोही’ को ताल्ताय और शोलोखोव के उपन्यासों की तुलना में रखा है।
यह उपन्यास भारतीय स्वतंत्रता युद्ध के 1942 के काल, उत्तर सीमान्त और तत्कालिक दक्षिण सोवियत के जीवन का चित्र है।

 

परिचय

 

परिचय के ये शब्द पुस्तक समाप्त हो जाने के बाद लिखे गये हैं, परन्तु इन्हें आरम्भ में दिया जा रहा है। रीति और उपयोगिता की दृष्टि से यही उचित भी जान पड़ता है।
लेखक यदि कलाकार भी है तो उसके प्रयत्न की सार्थकता समाज के दूसरे श्रमियों की भाँति कुछ उपयोगिता की सृष्टि करने में ही है। उसके श्रम की उपयोगिता समाज के विकास में सामर्थ्य और पूर्णता की ओर ले जाने में ही है।
लेखक के लिये समाज के अस्तित्व से स्वतंत्र कोई कल्पना कर सकना सम्भव नहीं। उसकी कला या प्रयत्न का आधार समाज की अनुभूतियाँ, आकांक्षाएँ और आदर्श होते हैं। हमारी अनुभूति हमारे अनुभवों का सार होती है और हमारे आदर्श हमारी सँवारी हुई कल्पनाएँ हैं। आदर्श के बिना हम जीवन की आकांक्षा और चेष्टा खो बैठेंगे। आदर्श हमारे जीवन का लक्ष्य है परन्तु यथार्थ की हमारी अनुभूति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वह अनुभूति असन्तोष और उसे दूर करने का उत्साह उत्पन्न कर आदर्श की सृष्टि करती है। आदर्श की तुलना में यथार्थ अरुचिकर होगा ही वर्ना आदर्श की कल्पना और उसके लिये प्रयत्न ही क्यों किया जाये ?

यथार्थ से खिन्न होकर हम आदर्श की ओर बढ़ना चाहते हैं। यथार्थ के अरुचिकर वीभत्स सत्य की नग्नता को प्रकट करके उससे मुक्ति की इच्छा को उत्कट और दुर्दमनीय बनाना आवश्यक होता है। हमारी अवस्था का नग्न रूप का अतृप्त ‘शिष्णोदर’ का चीत्कार भी है। वह श्रेणी संघर्ष और राष्ट्र के संघर्ष के रूप में भी प्रकट होता है। वह जघन्य है, परन्तु वह हमारी अपनी सामाजिक स्थिति की वास्तविकता है। हमारा साहित्य कला नैतिकता और न्याय की धारणा हमारी शिष्णोदर की अतृप्त आवश्यकता की पूर्ति के प्रयत्न हैं। हमारी परम्परागत सुरुचि और संस्कृति इन प्रयत्नों को आवरण देकर संतुष्ट है। जिन लोगों को सुरुचि और संस्कृति का अवसर और सौभाग्य प्राप्त नहीं है वे भी मनुष्य ही हैं। उनके चीत्कार को प्रकट करना क्या कला का कर्तव्य नहीं है ?

मनुष्य के इस असंतोष को रूढ़िगत विश्वास और प्रवंचना से ढाक देना मुक्ति का उपाय नहीं है। हमारा आदर्श समाज ऐसी अवस्था प्राप्त करना है जिसमें मनुष्य शिष्णोदर की अतृप्ति और तृष्णा से पशु न बना रहे और मनुष्य-समाज श्रेणियों और राष्ट्रों के संघर्ष से ध्वंस न होता रहे !
समाज की उस अवस्था को आज ‘कल्पना का चाँद’ कहकर उसकी प्राप्ति के स्वप्न और प्रयत्न को केवल विडम्बना-मात्र कहा जा सकता है, परन्तु यदि मनुष्य आत्मविवेचन द्वारा अपनी शक्ति को पहचान ले तो ?.....किसी दिन आकाश मार्ग से यात्रा कर सकना और देश भर के नागरिकों का स्वयं स्वामी और राजा बन जाना भी तो आकाश-कल्पना ही थी ?
हमारे वर्तमान जीवन का यथार्थ क्या है ?

क्या ऐसे समय में भी मिथ्या-विश्वास और प्रवंचना की पिनक में संतुष्ट रह सकना सम्भव है ?
सौन्दर्य और तृप्ति की अभिलाषा उत्पन्न कर देना एक काम है। सौन्दर्य और तृप्ति की स्मृति जगा कर सुख की अनुभूति उत्पन्न कर देना भी काम है, परन्तु उससे बढ़कर काम हो सकता है, सौन्दर्य और तृप्ति के साधनों की उत्पादन और परिस्थिति के निर्माण के लिए भावना और संकेत द्वारा सहयोग देना। साहित्य का कलाकार केवल चारण बनकर सौन्दर्य, पौरुष और तृप्ति की महिमा गाकर ही अपने सामाजिक कर्तव्य को पूरा नहीं कर सकता। विकास और पूर्णता के सामाजिक प्रयत्न की इच्छा और उत्साह उत्पन्न करना और उस उत्साह को विवेक और विश्लेषण की प्रवृत्ति द्वारा सजग और सचेत रखने की भावना जगाना, साहित्य के कलाकार का काम है।

अगले पृष्ठों में अपनी इस धारणा को लेखक के कर्तव्य और अधिकार ही दृष्टि से निबाहने का यत्न किया है। यही इस रचना का परिचय है।
अनेक ज्ञातव्य विषयों में अनेक सहृदय सज्जनों से मुझे सहायता मिली है। इन सज्जनों और प्रकाशन कार्य में सहयोग देने वाले मित्रों के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। अपने पाठकों को धन्यवाद देता हूँ, जिनका प्रोत्साहन मेरे साहस का आधार है।
मई दिवस, 1943
विप्लव, लखनऊ
-यशपाल

अजानी अंधेरी राह

 


अजानी अंघेरी राह पर उसे घसीटे लिये जा रहे थे। आँखों पर कपड़ा बँधा था, दोनों हाथ पीठ पीछे जकड़े हुए, गले और कमर में दायें-बायें से फन्दे पड़े थे। जो कुछ सुनाई पड़ रहा था, उससे वह समझ सका, उसके आगे-पीछे, अगल-बगल आदमियों के भारी-भारी चुस्त कदम पड़ रहे हैं।

उसके नंगे पाँव सुन्न हो चुके थे। पाँवों के नीचे कंकड़ हैं या पत्थर, रेत है या धूल, समझ पाने लायक मस्तिष्क की अवस्था नहीं थी। कदम शिथिल हो जाने से पीठ पर काठ की बोझिल-सी वस्तु की चोट आ पड़ती। पाँव उखड़ने से वह दो-तीन कदम आगे लुढ़क जाता। उसे कहाँ ले जाया जा रहा है यह प्रश्न मन में उठे बिना ही वह अनुभव कर रहा था, किसी अज्ञात प्राणान्तक भय की ओर वह जा रहा है, जो आशा और कल्पना के क्षितिज से परे था; जहाँ निश्चय था केवल मृत्यु का।...किसी भी रूप में हो !

बहुत देर तक तेज चाल से चलते हुए सबल कदमों के गिरोह में चुपचाप घसिटते चले जाने के बाद, उन कदमों के अनुकूल शरीरों के सबल कंठ की संक्षिप्त बातचीत के शब्द उसके कानों में पड़ने लगे। चोट और भय से धुँधले मस्तिष्क में स्मृति की अस्पष्ट-सी फूटने वाली चिनगारियों में दीख पड़ने लगा, गहरी नींद में एक प्रहार से जाग कर आँखों के सामने सहसा छुरा देख सहम जाना। वे भयानक रौद्र चेहरे, वे गोल-गोल चक्करदार बड़ी-बड़ी काली-सफेद पगड़ियाँ, अँधेरे में अस्पष्ट रूप से चमकती हुई आँखें, भिचे हुए दाँत; लाल, काली, भूरी छँटी हुई दाढ़ियाँ, हाथों में छुरे और कन्धों या बगल से झाँकती हुई बन्दूक की नालियाँ, कुछ गोलियाँ छूटने का शब्द, मोटे कपड़े के चौड़े कुरते, रंगीन बास्केट और सलवारें....। सबल कदमों की तेज चाल के कारण उनके ढीले, मोटे कपड़े फरफराते जा रहे थे। मुँदी हुई आँखों से ही वह सब अनुभव कर रहा था, जैसे कोई महा भयंकर दुःस्वप्न देख रहा हो।

प्रत्यक्ष भय से बहुत अधिक भयंकर स्वप्न की निस्सीम कल्पना की भाँति इस भय की भी सीमा न थी। सचेत हो जाने पर जैसे स्वप्न के भय का अन्त हो जाता है, वैसे इस भय का अन्त न हुआ। प्रतिक्षण वह निराशा में बदलता जाता था।
शरीर की चेतना और इच्छा से चलने वाली शक्ति समाप्त हो चुकी थी। उसके साथ ही चेतना से अनुभव होने वाले भय की अनुभूति भी जड़ हो गई। केवल पीड़ा के अनुभव और भय से चौंककर शरीर अपने आपको खींचे लिये जा रहा था। जैसे मृत्यु का धक्का ही उसे ढकेलता जा रहा हो।

चढ़ाई और उतराई में ठोकर खा वह कई बार गिर पड़ा। ओठों और दाँतों से निकल आये खून के नमकीन स्वाद से उसे जान पड़ा, रक्त आ गया है। परन्तु निश्चय न था वह निरा रक्त ही है। माथे और कनपटियों से बह कर आने वाला पसीना भी हो सकता है परन्तु पीठ और कन्धों पर पड़ने वाली चोटों के विषय में सन्देह न था। उनसे उसकी चाल तेज हो जाती। कानों में आने वाले शब्द से यह भी सूझ पड़ रहा था कि उसकी भाँति हाँके जाने वाले दूसरे जीवन भी हैं। उनमें कुछ पशु भी हैं, जिनमें सुमों की आहट, श्वास लेने का शब्द और पसीने की तीखी गन्ध अनुभव हो रही थी।

मुलायम बिस्तर पर पड़े गाढ़ी नींद में जाने कैसे यह वीभत्स स्वप्न आरम्भ हो गया और वास्तविकता में परिणत हो समाप्त होने में न आता था। जैसे गले और कमर में पड़े फन्दे का खिंचाव और पीठ-कन्धों पर पड़ने वाली चोट सत्य थी, वैसे ही चल-चल कर जख्मी हो गये पैरों से निकलने वाली आग भी सच थी। वैसे ही चलना रुककर पत्थरों पर बैठा दिया जाना और बहते पानी का कल-कल शब्द भी वास्तविक ही था। जल से भरे किसी बर्तन के होंठों में आ लगने में भी सन्देह न था। उस खूब ठण्डे जल को वह पेट भर पी गया। शरीर के निढाल होने के अनुभव के साथ ही मस्तिष्क में बिजली-सी कौंध गई—क्या वह यात्रा की मंजिल पर पहुँच गया ?

कुछ क्षण बैठ पाने पर धूप की गरमी अनुभव होकर सूर्य की किरणें माथे पर चुभने लगीं। बहते जल का कल-कल शब्द अधिक स्पष्ट जान पड़ने लगा। पत्थरों पर खच्चरों की नालों का शब्द, शीतल जल में उनका थिरकते होंठों से फुफकार कर जल पीना, तृप्त हो आकाश की ओर मुख उठाकर कुछ हिनहिनाना यह सब उसे सुनाई देने लगा। स्थिति स्पष्ट हो गई; रात में धावा बोल वजीरियों ने कैम्प लूट लिया था और उसे पकड़ कर वे भगाये लिये जा रहे हैं।

सीमान्त में वजीरियों द्वारा लूटमार और स्त्री-पुरुषों के उठा ले जाने की अनेक रोमांचकारी कहानियाँ, उसने सुनी थीं, परन्तु उसे आशंका न हुई थी कि तुत्ती में शक्तिशाली ब्रिटिश सेना के कैम्प से, कप्तान के ओहदे के फौजी डॉक्टर को भी वजीरी विवश पशु की भाँति हाँक ले जायेंगे। उसे मालूम था, वज़ीरिस्तान और मसूदी इलाकों के पठान पेशावर, कोहाट और बन्नू से इस प्रकार लोगों को बाँध ले जाते हैं। उनकी रिहाई के लिये तावान पाकर वे उन लोगों को छोड़ देते हैं। उसकी रिहाई के लिये तो ब्रिटिश सेना, हजारों सिपाही, तोपें और हवाई जहाज मौजूद हैं, परन्तु उस क्षण तो वह बिल्ली के पंजे में फँसे हुए जख्मी चूहे की भाँति बेबस था।

आँखों पर बँधे कपड़े की कोरों से मिलने वाले प्रकाश के आभास के भाँति, मृत्यु और निराशा के घटाटोप अन्धकार में रक्षा की सुदूर आशा झलकने लगी। मस्तिष्क ने सोचना शुरू किया—यदि ब्रिटिश सेना की शक्ति इन दुरूह पहाड़ों की छिपी खोहों में उसका पता न भी पा सकी तो तावान देकर छूट जाना ही सम्भव है। तावान कहाँ से आयेगा ? तावान के विचार के साथ ही अपनी पत्नी राज की छवि और उसके साथ ही देहली में अपना घर उसकी मुँदी हुई आँखों के सामने नाच गया। राज और स्वयं उसके बड़े भाई उसे बचा लेने के लिये कुछ भी न उठा रखेंगे। देहली से तुत्ती के लिये उसे बिदा देते समय राज की आँखों में छलक आये आँसू, उसका उदास पीला चेहरा, दर्द से फटते चकराते दिमाग के सामने घूमने लगे। एक शब्द सुनाई दिया, जिसे वह समझ न सका। कमर पर एक ठोकर लगी। शायद यह उठ खड़े होने के लिये इशारा था।
फिर ठेला जाना शुरू हुआ। वही अनेक मनुष्यों और पशुओं के चलने की आहट। विश्राम पा लेने से थकावट और कष्ट की अनुभूति और भी तीव्र हो गई। दिखाई न पड़ने वाला मार्ग अधिक बीहड़ होता जा रहा था। दुरूह चढ़ाइयों और संकरी पगडंडियों पर खच्चरों के शरीर के धक्के से वह अनेक बार गिरते-गिरते बचा। जानवर का सुम अपने नंगे पाँव पर पड़ जाने की आशंका से वह सिहर उठता। धूप से तपी चट्टानों पर चलना और भी कठिन हो गया। प्यास बार-बार लगने लगी। हाँफ-हाँफ कर उसके मुख से हताश पुकार निकल जाती—पानी ! पर उस ओर किसी का ध्यान न था। कदम शिथिल होने पर पीठ या कन्धे पर पड़ी चोट संकेत करती—बढ़ते चलो ! उसकी संज्ञा और चेतना घटती जा रही थी। घना कोहरा-सा उसके मस्तिष्क में भरता जा रहा था। सहसा सब कुछ शून्य हो गया। वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। मारने और घसीटने से भी उठते न देखकर उसे एक खच्चर पर डाल दिया गया और काफिला चलता गया।

कप्तान डाक्टर भगवानदास खन्ना की मूर्छा टूटी। उस समय उसकी आँखों पर पट्टी न थी। भयभीत चकित दृष्टि चारों ओर फैलाकर उसने देखा। उसका चेहरा भीग रहा था, सिरहाने बैठी एक बुढ़िया उसके मुँह में पानी की बूँदें टपकाती जा रही थी और चेहरे पर छींटे दे रही थी। बुढ़िया ने पानी का बर्तन उसके होंठों की ओर बढ़ाया। डाक्टर ने सिर उठाकर कुछ घूँट पिये और फिर लेट गया। उसके गले और कमर से फन्दा खुल चुका था। पीठ पीछे बँधे हाथ भी खुल गये थे, परन्तु कलाइयों के बहुत कस कर इतनी देर बँधे रहने के कारण उँगलियाँ हिल न पाती थीं। बुढ़िया ने उसकी कलाइयों पर पानी छोड़ दिया। डाक्टर पीड़ा से छटपटा उठा।

डाक्टर एक लम्बे-चौड़े सहन में पड़ा था। चारों ओर नीची छतों के मकान बने थे, जिनके कोनों पर बाहर जाने की राह बनी थी। मकानों के सामने नीची खटिया पर दीर्घकाय पठान शिथिल भाव से बैठे खा-पी रहे थे या हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। डाक्टर को सचेत होते देख उनका ध्यान उस ओर गया। उसके सिर और दाढ़ियाँ हिलने से जान पड़ा वे सन्तुष्ट हैं।
काले-नीले कपड़े पहने, सिर पर कलगीदार टोपी रखे, छोटे-छोटे बच्चे भय और विस्मय से गोल-गोल गाल, भूरी-नीली आँखें फैलाये, मैल से चितकबरे चेहरों पर गम्भीर मुद्रा लिये कुछ दूर खड़े उसे देख रहे थे। खाने में व्यस्त पठानों के लिये बड़ी-बड़ी रोटियाँ, मिट्टी के बर्तन में खाने की दूसरी चीजें या पानी लाने वाली स्त्रियाँ भी काली-नीली चादर से माथा और चेहरा नाक तक ढँके, कौतूहल भरी दृष्टि उसकी ओर डाल जाती। डाक्टर की दृष्टि जिस ओर भी जाती, सभी को अपनी ओर देखती पाती। उसने अपने सिरहाने बैठी बुढ़िया की ओर देखा। आँखें चार होने पर बुढ़िया ने संतोष से डाक्टर के सिर पर हाथ धर कर पूछा—‘‘तबीयत खत ?’’ (अच्छा है) और पानी का बर्तन लिये वह एक ओर के घर में चली गयी।

अपनी ओर लगी आँखों से बचने के लिये वह उठकर करवट से बैठ गया। खाने-पीने में लगे पठानों की ओर दृष्टि हटा वह समीप ही बँधे खच्चरों की ओर देखने लगा। मार्ग में आँखें बँधी रहने पर भी खच्चरों के सूमों की सुनी आहट याद आ जाने से उसने अनुमान किया, वे भी उसी की तरह और उसके साथ ही आये हैं। वे ताजे गाड़े खूँटों से बेतरतीब, बिना पिछाड़ी के बँधे थे। खच्चर अपनी काली पुतलियाँ और आँखों के श्वेत और लाल भाग को फैला, सतृष्ण दृष्टि से खाने-पीने में लगे लोगों की ओर देख रहे थे। ब्रिटिश सेना के इन जानवरों को अभ्यास था, किसी भी पड़ाव पर पहुँचते ही मनुष्य से पहले अपनी खातिर होते देखने का। उस दिन अपनी उपेक्षा के इस नये ढंग से वे शायद विस्मित थे।

खच्चरों की ओर से हट कर उसकी दृष्टि सहन से छलावन की ओर उतर जाने वाली गली में गई। चट्टानों के पीछे कुछ बकरियाँ रूखी झाड़ियों के डण्ठल चबाने का यत्न कर रही थीं। नीचे ढलावन से कुछ पठान स्त्रियाँ काले कपड़े के खूब ढीले, नीचे कुरते और मोरवों पर तंग सलवार, कानों और गले में चाँदी का बहुत-सा जेवर पहने, सिर पर पानी का घड़ा या कमर पर मशक लादे चली आ रही थीं। वे उसकी ओर संकेत कर परस्पर बात करती आतीं, परन्तु सहन में कदम रखते ही मर्दों से सिर की चादर से नाक तक चेहरा ढक अपने घर में जा घुसतीं।

पीठ पीछे से आहट सुन डाक्टर ने घूमकर देखा—वही बुढ़िया एक बड़ी-सी रोटी, जिस पर शोर्वे की तरी के दाग और दो टुकड़े मांस के रखे थे, उसकी ओर बढ़ा रही है। डाक्टर ने रोटी थाम ली और उसे खाने भी लगा। बुढ़िया ने खटिया पर से आधे पिये जल का बर्तन ले उसके समीप रख दिया। खाने-पीने में लगे पठानों की ओर देखने का उसका संकोच दूर हो गया। स्वयं खा-पीकर पठान लोग वहीं खटिया पर बैठे हुक्के गुड़गुड़ाने लगे। एक आदमी ने एक कूँड़े में खच्चरों को जल पिला कुछ सूखा घास और भुट्टे के छिलके डाल दिये। सूर्यास्त तक डाक्टर वहीं बैठा रहा। नये-नये लोग आते और उसकी ओर देख बातचीत कर चले जाते।

रात पड़ने पर उसके सहन के किनारे की एक कोठरी में उसे ले जाया गया। उसके दोनों पाँव एक काठ में फँसा अजीब ढंग का एक ताला लगा दिया गया। नीचे बिछाने के लिए उसे घास की एक चटाई दी गई। काठ के एक छोर से बकरी के दो मेमने बँधे थे और दूसरी ओर दो बकरियाँ बँधी जुगाली कर रही थीं। समीप ही खाट पर एक बूढ़ा वज़ीरी दमे की खाँसी खाँसता हुआ कराह रहा था। मिट्टी के हुक्के में लगी नेचे की निगाली उसके ओठों से छू रही थी। अर्थचेतन अवस्था में भी वह नेचे को गुड़गुड़ा कर अपने खबरदार रहने का संकेत कर देता।

काठ में जकड़े पाँवों की असुविधा, गाँजा मिले सूखे तम्बाकू की दम घोटने वाली गन्ध, बकरी के पेशाब की झझक और उनके श्वास से आने वाली बबूल की कसैली गन्ध, एक विचित्र-सी जी मिचला देने वाली खरास से डाक्टर का सिर चकरा रहा था। मेमने कभी काठ पर चढ़ने-उतरने का खटका करने लगते, कभी मिमिया देते। दोनों पाँव काठ में जकड़े डाक्टर चित लेटा ही गाढ़ी नींद में सो गया। करवट लेने का यत्न करने पर पाँव काठ में फँसे होने के कारण नींद उचटी, परन्तु वह शरीर को जैसे-तैसे साध कर फिर नींद में बेखबर हो गया। सर्दी लगने पर घुटने सिकोड़ने में असमर्थ वह स्वयं काठ की ओर खिसक गया।

नींद पूरी हो, कई प्रकार करवटें ले औंघाते रहने के बाद जब दिन का प्रकाश फैल गया और बकरियों को खोलकर बाहर निकाल दिया गया, डाक्टर ने विवश हो खाट पर बैठे बूढ़े को हाजत रफा करने की सुविधा के लिये संकेत किया। उसका अभिप्राय समझ बूढ़े ने उसे प्रतीक्षा के लिये इशारा किया। कुछ देर में एक जवान कन्धे पर बन्दूक रख, डाक्टर की कमर में रस्सी बँधे प्राकृतिक आवश्यकता पूरी कराने का अवसर देने के लिये ले चला।
आँगन में रखे घड़े की ओर संकेत कर डाक्टर ने जल की आवश्यकता प्रकट की। जवान ने संकेत से पूछा—प्यास लगी है ? डाक्टर के दूसरा अभिप्राय प्रकट करने पर जवान ने वितृष्णा से उसे आगे चलने के लिये धमका दिया। बिना किसी तर्क के डाक्टर समझ गया, यत्न से सिर पर ढोकर लाये जल को यों बरबाद करने की क्या आवश्यकता ? परिस्थिति ने डाक्टर को यह भी समझा दिया कि बन्दूक लिये एक मनुष्य के उसकी ओर आँख लगाये रहने पर भी प्राकृतिक आवश्यकता को पूरी कर लेने में संकोच क्या ?

वह समझ गया कमोड, साबुन, तौलिये और चिलमची के बिना भी जीवन चल सकता है। मोटे गद्दो, दूध-सी सफेद चादर, तकिये और मुलायम कम्बलों के बिना भी नींद आ जाती है। मेज, कुर्सी, सफेद चादर, स्फटिक के समान स्वच्छ प्लेटों और काँटा छुरी के बिना भी भोजन पेट में चला जाता है। कैम्प में रहते एक बूँद भी बिना उबला और बिना छाना जल पेट में जाने से या मक्खी-मच्छरों के समीप आ जाने से उसे रोग की आशंका आ घेरती। रोगी के कीटाणुओं को मारने वाली दवाइयाँ और लाइसोल कार्बोलिक लोशन उसके लिये अत्यन्त आवश्यक थीं। मन को स्वस्थ रखने के लिये लेवेंडर जरूरी था, परन्तु अब निरन्तर बकरी के पेशाब और सेना के अस्तबल से भी मैले मकान में उसे रोग के छूत की चिन्ता न रही। किसी प्रकार काठ से पाँव छुड़ाने की चिन्ता ही उसके मस्तिष्क को घेरे थी।

वजीरी लोग लूट में आये माल का लेखा-जोखा करने में व्यस्त थे कैम्प अस्तपाल से लाये गये कम्बलों, चादरों, दूसरे कपड़ों और रसद के ढेर अलग-अलग लगे थे। सन्तरियों से छीनी राइफलें और कारतूस एक ओर रखे थे। दूसरी ओर खच्चर बँधे थे। बूढ़े जवान बड़े चाव से इन राइफलों की जाँच कर रहे थे। कोई उनकी नाल सूर्य की ओर उठा उनकी बनावट को देखता, कोई उनके कलपुर्जे को। डाक्टर की समझ में न आने वाली पश्तू में खूब कहा-सुनी हो रही थी। प्रश्न था, माल की हिस्सा-बाँट का।

वजीरी स्त्रियाँ ओढ़नी से माथा और नाक ढके पानी लाने और दूसरे काम में लगी थीं। उन्हें इस सब व्यापार से कोई सम्बन्ध न था। आठ-दस साल अधनंगे बच्चे हाथ में थमे रोटी के टुकड़े चबाते इधर-उधर घूम रहे थे। वे खच्चरों पर कंकड़ फेंक तमाशा देखना चाहते थे। खच्चर बिजुक कर दुलत्ती झाड़ने लगते, इससे वजीरियों की बातचीत में विघ्न पड़ जाता। कभी डाक्टर की ओर आकर्षित होने पर, बच्चे उस पर भी कंकड़ फेंक तमाशा देखना चाहते। डाक्टर अपनी बेबसी में उन्हें पुचकार कर बचने का यत्न करता, परन्तु फल कुछ न होता। बच्चों की शरारत से परेशान हो लाल दाढ़ी वाले एक पठान ने उनके गालों और पीठ पर धौल जमाने शुरू किये। बच्चों के भाग जाने पर डाक्टर को कंकड़ों की मार से तो छुटकारा मिला, पर वह भूख से छटपटा रहा था। सूर्य के मध्याकाश से उतर जाने पर भी बँटवारे में व्यस्त वजारियों को खाने की चिन्ता न थी।

तीसरा पहर समाप्त होते-होते खूब शोरगुल और चख-चख के बीच सामान के ढेर बँट-बूँटा कर उठ गये। खच्चर भी एक-एक कर चले गये। खच्चर अकेले घसीटे जाने पर पाँव पटक और पिछड़ी झाड़ अकेले ले जाये जाने का विरोध करते। बाद में अकेला रह जाने वाला खच्चर घबराने लगा। उसके भी चले जाने पर रह गया अकेला डाक्टर, अपने साथ से बिछुड़ा हुआ, निस्सहाय अदृश्य भय की आशंका करता हुआ।


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