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नयी सदी की पहचान - श्रेष्ठ दलित कहानियाँ

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2306
आईएसबीएन :00000

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इसमें दलित चेतना और संघर्ष को लेकर वैचारिक, ऐतिहासिक और सामाजिक लेखन हुआ है......

Nayi Shadi Ki Pahchan Shresth Dalit Kahaniya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी क्षेत्र में दलित लेखन शुरू तो बहुत पहले ही हो गया था पर उसकी पहचान बनने में देर लगी। पहले हिन्दी में दलित लेखकों और चिन्तकों द्वारा दलित चेतना और संघर्ष को लेकर वैचारिक, ऐतिहासिक और सामाजिक लेखन हुआ। हिन्दी में दलित लेखन का यह एक महत्त्वपूर्ण दौर माना जायेगा। इसके बाद रचनात्मक लेखन का दौर शुरू हुआ। हिन्दी में दलित रचनात्मक लेखन का इतिहास ज्यादा लम्बा नहीं है।
 बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दलित लेखक हिन्दी में सामने आए।

हिन्दी रचनाजगत में दलित लेखकों की सक्रियता तीन क्षेत्रों में सामने आई। उन्होंने बड़े पैमाने पर रचनात्मक साहित्य लिखा। दलित लेखकों की कविताएँ और कथाकृतियाँ प्रकाशित हुईं। राजेन्द्र यादव लिखते हैं-दलित साहित्यकारों की यह मजबूरी है कि वे सिर्फ अपने निजी अनुभवों को जमीन पर जीने के संघर्षो और स्थितियों का इन्दराज करें। हाँ सबसे निचली गहराइयों से उछल-उछल कर आने वाली ये तस्वीरें इतनी खौफनाक हैं कि सारे समाज को दहलाकर रख देती हैं।
दलित कथा रचनाओं को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। उनमें अपने समय और इतिहास का समाजशास्त्र भी है और स्थितियों से ऐसी मुठभेड़ भी जो व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन के लिए प्रयत्नशील है।

इन कथा रचनाओं में मात्र यथार्थ नहीं है उनकी कृतियाँ यथार्थ की शल्यक्रिया भी करती हैं। लेकिन इस सामाजिक शल्यक्रिया के बावजूद दलित रचनाकार की समस्याएँ जीवन में ही नहीं साहित्य की दुनियाँ में सबसे ज्यादा जटिल और लगभग हिंसक हो गई हैं।
इस संग्रह में दलितों को केन्द्र में रखकर लिखी गयी 14 प्रतिनिधि कहानियाँ संकलित हैं।

भूमिका


धर्मसूत्रों तथा दूसरी ब्राह्मण पुस्तकों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को छोड़कर जो दूसरी श्रमजीवी जातियाँ थीं उन्हें भारतीय समाज में शूद्र जातियाँ घोषित कर दिया गया था। पर वस्तुतः ये कामगार और शिल्पी जातियाँ थीं। अमरकोष में शिल्पी ही शूद्र कहा गया है। महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है (अध्याय 108, श्लोक 33,34) शूद्र मजदूर हैं। शूद्र नहीं होंगे तो परिश्रम का काम कौन करेगा। नृसिंह पुराण (अध्याय 58 श्लोक 10-15) में कहा गया है कि कृषि शूद्र का काम है। यह निर्विवाद है कि तमाम औद्योगिक उत्पादन करने वाले लोगों को भारतीय समाज में हजारों बरस से शूद्र कहकर दुर्दशाग्रस्त जीवन बिताने को बाध्य किया गया।

इस स्थिति का विरोध अठारहवीं सदी से शुरू हुआ जो अन्ततः बीसवीं सदी में एक बड़े सामाजिक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। पंजाब से लेकर दक्षिण भारत तक, पूर्व में बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक जातीयता और वर्णव्यवस्था के कारण उत्पीड़ित समाज में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मुक्ति आन्दोलन उठ खड़े हुए। इस समाज-क्रान्ति में महात्मा फुले, रामास्वामी नायकर पेरियार और बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की भूमिकाएँ इस अर्थ में बड़ी थीं कि उन्होंने दलित समाज के मुक्ति आन्दोलन को तार्किक, वैचारिक और सैद्धान्तिक आधार दिया।

जातीय भेदभाव को पहली लिखित धार्मिक स्वीकृति वेदों से मिली जिसमें बड़े पैमाने पर वैदिक समुदाय के विरोधी जन समूहों और संस्कृतियों से युद्धों-संघर्षों की गाथाएँ लिखी गईं और ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूत्र में जाति विभाजन करते हुए ब्राह्मण को परमेश्वर के मुँह से उत्पदन, क्षत्रिय को बाँहों से, वैश्य को उदर से और शूद्र को पैरों से पैदा हुआ बताया गया। बाद में गौतम, वशिष्ठ, आपस्तंब, याज्ञवल्क्य आदि से लेकर मनुस्मृति तक सौ से अधिक ऐसे धर्मसूत्र या धर्मशास्त्र लिखे गये जिनमें शूद्र कही गई जातियों के लिए कठोर, अपमानजनक और अमानवीय व्यवहार किये जाने की व्यवस्था की गई। शूद्र घोषित समाज किसी भी तरह के सांस्कृतिक, धार्मिक राजनीतिक आर्थिक अधिकार से वंचित कर दिया गया। उसे बची-खुची जूठन खाने और फटे-पुराने कपड़ों से गुजारा करने को बाध्य किया गया। उनके जीने के साधन बद से बदतर बनाए जाते रहे। वे उन सड़कों पर नहीं चल सकते थे जिन पर सवर्ण चलते थे। बहुत से क्षेत्रों में तो उन्हें गले में हाँडी लटका कर निकलना होता था ताकि वे हाँडी में ही थूकें, जमीन पर नहीं और पीछे एक झाड़ू लटकानी होती थी ताकि उनके पैरों के निशान मिटते जायें।

भारतीय इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पृष्ठ है कि लगभग तीन हजार बरस से ज्यादा लम्बी अवधि तक शूद्र घोषित जन समुदाय को अन्तहीन दासता और दुर्दशा झेलनी पड़ी। इसमें संदेह नहीं कि भारत की ही जो संस्कृतियाँ ब्राह्मण धर्म के प्रभाव से मुक्त थीं उनमें कामगार-शिल्पी समाज इस तरह के उत्पीड़न से मुक्त था। बौद्ध, जैन और लोकायत जैसे जीवन दर्शनों में शूद्र व्यवस्था नहीं थी। भारत के बहुत बड़े इलाकों के कामगार-शिल्पी इस अभिशाप से मुक्त थे। जातिवादी वर्णव्यवस्था का सबसे तीखा तार्किक विरोध बुद्ध ने किया था। सम्भवतः यही वजह है कि आज भारत के सवर्णेतर समाज में सबसे गहरा आदर बौद्ध धर्म को ही दिया जाता है। निस्संदेह बौद्ध विचारकों ने इस देश को विश्वस्तरीय दार्शनिक और वैज्ञानिक चिन्तन दिया और समाज को अंधविश्वासों से बाहर लाकर तार्किक बौद्धिक संस्कृति का विकास किया था। दलित आन्दोलन की यही बुनियादी ताकत रही है।

साहित्य में दलित रचनाकारों का पहला बड़ा और कारगर हस्तक्षेप मराठी भाषा में हुआ। अम्बेडकर प्रेरित दलित पैन्थर आन्दोलन ने मराठी कविता और कथासाहित्य में सहसा एक चकाचौंध पैदा कर दी थी जिसकी अनुगूँज साठ और सत्तर के दशक में हिन्दी में भी सुनाई दी। पर यह भी सच है कि जब पहली बार कमलेश्वर ने दलित लेखन का हिन्दी में बड़े पैमाने पर प्रस्तुतीकरण किया। हिन्दी क्षेत्र में वह कुतूहल का विषय ही ज्यादा बना। हिन्दी क्षेत्र में दलित लेखन शुरू तो बहुत पहले हो गया था। पर उसकी पहचान बनने में देर लगी। पहले हिन्दी में दलित लेखकों और चिन्तकों द्वारा दलित चेतना और संघर्ष को लेकर वैचारिक ऐतिहासिक और सामाजिक लेखन हुआ। हिन्दी में दलित लेखन का यह एक महत्त्वपूर्ण दौर माना जायेगा। इसके बाद रचनात्मक लेखन का दौर शुरू हुआ। हिन्दी में दलित रचनात्मक लेखन का इतिहास ज्यादा लम्बा नहीं है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दलित लेखक हिन्दी में सामने आए पर उनकी उपस्थिति न कविता में दर्ज हुई न कथा रचना में पर इसी बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में दलित प्रश्न एक केन्द्रीय मुद्दे के रूप में सामने आया।
हिन्दी रचनाजगत में दलित लेखकों की सक्रियता तीन क्षेत्रों में सामने आई। उन्होंने बड़े पैमाने पर रचनात्मक साहित्य लिखा। दलित लेखकों की कविताएँ और कथाकृतियाँ प्रकाशित हुईं। उन्होंने आत्मकथाएँ लिखीं जिनमें उन जीवन स्थितियों की भयावह तस्वीरें थी जो उन्होंने खुद वर्ण व्यवस्था के चलते झेली थीं। इसके साथ ही दलित लेखकों ने बड़े पैमाने पर सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य में जाति व्यवस्था के अभिशाप के विरुद्ध वैचारिक लेखन किया।
 
यहाँ पिछले कुछ बरसों में सभी सवर्ण लेखकों ने दो बड़े सवाल उठाए। पहला सवाल दलित साहित्य के सौन्दर्य और रचना कौशल को लेकर उठाया गया। कहा यह गया कि दलित रचनाकार शिल्प और रचना सौन्दर्य की दृष्टि से सफल नहीं है। ठीक यही सवाल बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में अमरीका में अश्वेत रचनाकारों की कृतियों को लेकर उठाए गए थे और एडिसन गायलर (जू.) जैसे अश्वेत विचारकों ने ‘दि ब्लैक ईस्थेटिक्स’ जैसी किताबें लिखी थीं। हिन्दी में भी मोहनदास नैमिषराय और ओम प्रकाश वाल्मीकि जैसे लेखकों ने दलित साहित्य के स्वायत्त सौन्दर्यशास्त्र पर विचारात्मक लेखन किया। दलित लेखक का जोर सौन्दर्यबोध पर नहीं जातीय समाजशास्त्र पर रहा है और यही समाजशास्त्रीय विवेक उसके लेखन की पहचान रहा है। दलित रचनाकार का आदर्श कबीर रहे हैं जो सामाजिक व्यवस्था ही नहीं रचना के ढाँचे को भी तोड़ते हैं।
एकदूसरा बड़ा सवाल आज के हिन्दी साहित्य की सबसे बड़ी बहस बना है। दलित लेखक की यह मान्यता है कि स्वयं दलित ही दलित जीवन पर लिख सकता है।

हिन्दी के अधिकांश लेखकों ने इस बात का गहरा प्रतिवाद किया कि दलित ही दलित लेखन कर सकता है। यह तर्क दलित सिद्धान्तकारों ने पूरी तरह खारिज किया। उनका कहना था कि जिस समाज की दुर्दशा का जिम्मेदार ही सवर्ण और उसका धर्मतंत्र है वह उसकी तकलीफ के बारे में क्या जानता है ? वह क्यों दलित पर लिखे ? साठ के दशक में अश्वेत साहित्य को लेकर श्वेत साहित्यकारों ने भी ऐसा ही सवाल उठाया था पर जल्दी ही वहाँ यह मान लिया गया कि अश्वेत रचनाकार ही अश्वेत साहित्य के प्रतिनिधि हैं। हिन्दी में अभी यह खींचतान जारी है। अक्सर तर्क यह दिशा जाता रहा है कि लेखक स्वानभूति और सहानुभूति के आधार पर लिखता है। लेकिन सामाजिक न्याय की शर्त न सहानुभूति से पूरी होती है न ही सहानुभूति से। सहानुभूति अक्सर सामन्ती उदारता का ही एक रूप होती है और सामन्ती उदारता यथास्थिति में किसी बुनियादी परिवर्तन का प्रयत्न नहीं करती। स्वानुभूति एक धोखा भी हो सकती है। किसी की स्वानुभूति यह भी तो हो सकती है और होती रही है कि उत्पीड़ित के साथ जो हो रहा है वह सही हो रहा है। जिन्होंने शूद्रों के विरुद्ध अमानवीय नियम बनाए वे स्वानुभूति पर ही निर्भर कर रहे थे। यह उनका विश्वास था कि उन्हें अनुभव से मालूम है कि दलित दुर्दशा का पात्र है।

दलित सौन्दर्यशास्त्र पर विचार करते हुए रमणिका गुप्ता ने लिखा था-‘दलित साहित्य ने नए बिम्ब गढ़े, पौराणिक मिथकों की भाषा बदल डाली। नए मिथक बनाए, गौरवान्वित झूठ और आस्था पर चोट की और चमत्कार को तोड़ा। यह वर्तमान साहित्य के लिजलिजेपन और बासीपन तथा एकरूपी रसवादी प्रणाली से भिन्न है और चमत्कारी कल्पनाओं से बिल्कुल अलग होता है। इसके दायरे में अंधविश्वास, भाग्य, पूर्वजन्म के कर्म, धर्म तथा भगवान नहीं आते।’
ओम प्रकाश वाल्मीकि का कहना है-‘दलित साहित्य में अनुभवों से उत्पन्न आशय निष्ठा ही अधिक है। पारम्परिक साहित्य ने जिसे त्याज्य और निषिद्ध माना है, दलित साहित्य ने उसे अपने अनुभवों के आधार पर प्रमुखता दी है। उन अनुभवों की अभिव्यक्ति के मूल्यांकन के लिए पारम्परिक समीक्षा के मानदण्ड गलत निष्कर्ष देंगे।’

जनवादी समीक्षक डॉ. शिवकुमार मिश्र ने स्वीकार किया है कि ‘हिन्दी या अन्यान्य भाषाओं में दलितों के बारे में जो भी लिखा गया है, नामी गिरामी रचनाकारों द्वारा भी, उसकी अपनी सीमाएँ हैं। वह अधिकांशतः उदार मानसिकता और मानवतावादी चेतना के सवर्ण रचनाकारों द्वारा ही लिखा गया है। इस लेखन में दलित जीवन की सच्चाइयाँ और उसका यथार्थ जरूर सामने आया है पर कुछ अपवादों को छोड़कर इनमें दलितों की नारकीय जीवन स्थितियों पर या तो आँसू बहाए गए हैं, उन पर दया या सहानुभूति प्रकट की गई है।’

राजेन्द्र यादव इस मुद्दे को और साफ करते हैं-‘दलित साहित्यकारों की यह मजबूरी है कि वे सिर्फ अपने  निजी अनुभवों को जमीन पर जीने के संघर्षों और स्थितियों का इन्दराज करें। हाँ सबसे निचली गहराइयों से उछल-उछल कर आने वाली ये तस्वीरें इतनी खौफनाक हैं कि सारे समाज को दहला कर रख देती हैं।’
दलित कथा रचनाओं को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। उनमें अपने समय और इतिहास का समाजशास्त्र भी है और स्थितियों से ऐसी मुठभेड़ भी जो व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन के लिए प्रयत्नशील है। इन कथा रचनाओं में मात्र यथार्थ नहीं है। उनकी कृतियाँ यथार्थ की शल्यक्रिया भी करती हैं। लेकिन इस सामाजिक शल्यक्रिया के बावजूद दलित रचनाकारों की समस्याएँ जीवन में ही नहीं साहित्य की दुनिया में पहले से ज्यादा जटिल और लगभग हिंसक हो गई हैं।

आज से कोई डेढ़-दो दशक पहले तक दलित लेखन समग्र उपेक्षा का शिकार था। सवर्ण लेखक की किसी भी समीक्षा, आलोचना या इतिहास की कृति में किसी दलित लेखक का जिक्र पूरी तरह अनुपस्थित होता था। यह स्थिति कमोवेश नब्बे के दशक के पूर्वार्ध तक चलती रही। सवर्ण लेखक के लिए साहित्य के इतिहास में दलित साहित्य के लिए कोई जगह नहीं थी। दलित रचनाकार भी कुछ होता है यह हिन्दी साहित्य स्वीकार करने को तैयार नहीं था। जैसे समाज में दलित बस्ती अलग-अलग होती रही है ठीक वही स्थिति हिन्दी में दलित साहित्य की बनाकर रखी गई।
अमरीका के शिखर के उपन्यासकार, अश्वेत रचनाकार रैल्फ एलिसन का विख्यात उपन्यास है ‘द इन-विजिब्ल मैंन’। यह एक अश्वेत चरित्र की संघर्ष गाथा है। इस उपन्यास की शुरूआत में लेखक कहता है-मैं अदृश्य मनुष्य हूँ। किसी जादुई अर्थ में नहीं। मैं एक अश्वेत व्यक्ति हूँ और यही वजह है कि कोई मेरी उपस्थिति को देखता ही नहीं। लोगों के लिए मैं होता ही नहीं हूँ।

दलित साहित्य के साथ भी नब्बे के दशक के शुरुआती दौर में इसी तरह का सुलूक होता रहा। साहित्य की दुनिया यह मान कर चलती रही कि साहित्य ऐसी कोई चीज है ही नहीं जिसकी तरफ ध्यान दिया जाय। इसके बाद उत्तर भारत विशेषकर हिन्दी क्षेत्र में दलित आन्दोलन ज्यादा तीव्र हुआ। दलित सामाजिक राजनीतिक आन्दोलन के तेज होते ही बुद्धिजीवी समाज में दलित समस्या को लेकर बहस उठी। इस समय तक दलित बुद्धिजीवियों का वैचारिक आन्दोलन भी मजबूत हो रहा था पर दलित प्रश्न पर अधिकांश बुद्धिजीवियों का रवैया उसमें खामियाँ खोजने और उसकी अर्थवत्ता को खारिज करने का ही था।

पर अगले चन्द बरसों में ही इस स्थिति में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। प्रोफेसर तुलसीराम, प्रोफेसर अग्नेलाल जैसे वरिष्ठ विचारकों ने देश के पूरे समाज की ऐतिहासिक व्याख्या करते हुए सवर्ण बुद्धिजीवियों के वैचारिक निर्माण को ध्वस्त करना शुरू किया और यह स्थापना लेकर सामने आए कि देश की संस्कृति बुद्ध, कबीर, महात्मा फुले, पेरियार और अम्बेडकर की विचार भूमि में निर्मित हुई है। सवर्ण और दलित बुद्धिजीवियों के बीच इसी बिन्दु पर गहरे टकराव पैदा हुए। इस दिशा में डॉ. राम विलास शर्मा, डॉ. भगवान सिंह, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे वामपंथियों ने बहुत शिद्दत से दलित प्रश्न को खारिज करने की कोशिश की। चूँकि ये वामपंथी लेखक हैं इसलिए उन्होंने दलित प्रश्न को वर्ग संघर्ष कमजोर करने वाला घोषित किया। हालाँकि पिछले लगभग पचहत्तर बरस के कम्युनिस्ट आन्दोलन के चलते आज कहाँ कितना वर्ग संघर्ष वे कर पा रहे हैं इसका उत्तर वे शायद ही दे सकें। वे एक बात लगातार दुहराते रहे हैं कि दलितों की स्थिति को लेकर वे चिन्तित हैं पर उनकी यह करुणा शुद्ध सामन्ती संस्कार का नमूना है। वे यह कहते हैं कि दलित का दुर्दशाग्रस्त जीवन अच्छी बात नहीं है पर यह दुर्दशा जिन कारणों से है उन्हें वे खारिज कभी नहीं करते।

दलित प्रश्न की बहस का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है कि देश का वामपंथी आन्दोलन, खास कर वह जो डाँगे की परम्परा से जुड़ा रहा है, घोर अम्बेडकर विरोधी है इसीलिए दलित बुद्धिजीवियों से उनके मतभेद बहुत गहरे रहे हैं।
हिन्दी साहित्य के आधुनिक दौर में छायावाद के उत्तरकाल से दो बड़े आन्दोलन सामने आये थे। एक आन्दोलन प्रगतिशील लेखकों का था और दूसरा उन रचनाकारों का जिन्हें प्रगतिशील कलावादी कहते थे। संयोग से अज्ञेय, जैनेन्द्र, भारती जैसे प्रगतिवाद विरोधी लेखक निश्चय ही कलात्मकता या रचनात्मक गुणवत्ता में प्रगतिशील लेखकों से बेहतर थे और प्रगतिशील आन्दोलन का अधिकांश लेखन खासा ही कचरा या दूसरे दर्जे का था। आज जो डाँगेवादी वामपंथी दलित लेखकों की गुणवत्ता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं उन्हें तत्कालीन प्रगतिशील कचरे पर भी पुनर्विचार करना चाहिए।

दरअसल इसी लेखक समुदाय ने यह सवाल ज्यादा शिद्धत से उठाया कि दलित ही दलित लेखन कर सकता है, यह बात गलत है। कोई भी दलित लेखन कर सकता है क्योंकि लेखक सहानुभूति और स्वानुभूति से लिखता है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने जब चतुरी चमार जैसी रचना लिखी तो निश्चय ही उनके मन में दलिस के प्रति सहानुभूति थी पर उनकी स्वानुभूति का उदाहरण भी इसी के साथ देखा जाना चाहिए।

पिछली सदी के शुरू में आर्यसमाज के प्रभाव के कारण कुछ पिछड़ी जातियों ने जनेऊ पहनना शुरू कर दिया था। उस काल की एक निजी घटना, स्वानुभूति का विस्तृत जिक्र निराला ने किया था-‘और जरा एक और मजेदार बात सुनिए। ब्राह्मण देवताओं का अपमान भी कम नहीं हो रहा है। पहले के लिखे अनुसार पूरे चालीस वर्ष के बाद जनेऊ धारणकर अहीर महासभा के यज्ञकुण्ड से निकले हुए हाल कौम क्षत्रिय प्राचीन अहीर महाशय मेरे लड़के को ले जाने के लिए आए। मैंने सोचा पुरानी प्रथा के अनुसार यह मेरे यहाँ की पकाई रोटियाँ अवश्य ही खाएँगे। अस्तु उनके लिए मैंने वैसा ही इन्तजाम करवाया। उस समय मेरा लड़का घर पर न था। वह आया तो कहने लगा-रोटियों का इन्तजाम आपने व्यर्थ कराया। नानी के यहाँ तो इसने पूड़ियाँ भी नहीं खाईं। मैंने पूछा क्यों ? उसने कहा यह कहता है, अब मेरा जनेऊ हो गया है, अब मैं थोड़े ही कुछ खा सकता हूँ ! मैंने उस क्षत्रिय भाई से पूछा तो बात सच निकली। मैंने उसके लिए मिठाई मँगवा दी।’’
यह लेख निराला ने सन् 1929 में माधुरी में छपाया था जो निराला रचनावली खण्ड 6, पृष्ठ 104 पर उद्धृत है। छोटी मानी गई जातियों में से एक यादव जाति के व्यक्ति के बारे में निराला की यह स्वानुभूति है। उनकी अपनी अनुभूति यह कहती है कि उनके परिवार के घर में खाना न खाकर यादव ने ब्राह्मण का अपमान किया, निराला की अवमानना की-‘ब्राह्मण देवताओं का अपमान भी कम नहीं हो रहा है।’ निराला ने ब्राह्मण देवता के इस अपमान का बुरा माना कि अहीर ने उनका छुआ खाने से इनकार कर दिया पर उन्होंने यह क्यों नहीं सोचा कि ब्राह्मणों की व्यवस्था और उनके आचरण से समाज कितना पीड़ित होता होगा। जो लोग बड़े उत्साह से लेखन में स्वानुभूति को मानक बनाते हैं उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि उनकी इस स्वानुभूति का नियमन उनके सवर्ण संस्कार कितना करते हैं।

इस सिलसिले में कभी कभी एक और अवधारणा की चर्चा समीक्षक करते रहे हैं। यह अवधारणा है अनुभूति की प्रामाणिकता की। यह अवधारणा आलोचना में वैज्ञानिकता या आधुनिक विज्ञान बोध का तिरस्कार करती है। अनुभूति किसकी ? जिस चरित्र पर रचना आधारित होती है, क्या उसकी अनुभूति ? या उस चरित्र के सम्बन्ध में रचनाकार की अनुभूति ? दोनों अलग चीजें है और किसी भी रचना में अनुभूति का यह तत्त्व घोर वैयक्तिक या सब्जेक्टिव होता है। उसमें आब्जेक्टिविटी सम्भव ही नहीं होती। फिर प्रामाणिकता का फैसला कौन करेगा ? चरित्र, लेखक अथवा पाठक (या आलोचक) और वे कौन से मानक हो सकते हैं जिनसे प्रामाणिकता सिद्ध होती है ? क्या वे मानक सार्वभौम होते हैं ? अगर सार्वभौम हैं तो कोरी रसानुभूति से वे किस अर्थ में भिन्न हो सकते हैं ? जिसे अनुभूति की प्रामाणिकता कह लिया जाता है वह मात्र रससिद्धान्त का ही दूसरा नाम क्यों नहीं है ?

ध्यान देने की बात है कि इस बेहद चमकदार शब्द अनुभूति की प्रामाणिकता का इस्तेमाल पिछले चार दशकों में खूब हुआ है पर रचनाओं के सन्दर्भ में एक भी ऐसा विश्वसनीय विवेचन नजर नहीं आता जो यह सिद्ध कर सके कि अमुक रचना में अनुभूति की प्रामाणिकता क्या है और कितनी है और किसी अन्य रचना में वह कम क्यों है या अनुपस्थित क्यों है। दरअसल हिन्दी समीक्षा की दुनिया में अनुभूति की प्रामाणिकता जैसे शब्द भावुक और अवैज्ञानिक काम का प्रतिनिधित्व करते हैं। सिद्धान्तहीन और एक तरह की शौकिया समीक्षा के प्रयत्नों ने इस तरह की शब्दावली की ईजाद की जो रचना की पड़ताल के लिए आकर्षक होते हुए भी अर्थहीन है। सच यह है कि हिन्दी में अधिकांश आलोचना कर्म चूँकि शौकिया या ऐमेच्योर ही है इसलिए ऐसी अर्ध सैद्धान्तिक भाषा खासी ही लोकप्रिय बनी हुई है। दलित रचनाबोध के क्षेत्र में इसीलिए हिन्दी समीक्षा तंत्र का ज्यादातर हिस्सा या तो खुद अप्रासांगिक होता रहा है या फिर उसकी नजर में दलित बोध मात्र अप्रासंगिक माना जाता है। एक ओर आज की अज्ञेय परम्परा के लेखक अशोक वाजपेयी, विद्यानिवास मिश्र आदि की नजर में दलित प्रश्न साहित्य में मौजूद नहीं है तो दूसरी ओर रमेश उपाध्याय, खगेन ठाकुर आदि जैसे वामपंथी भी लगभग यही कहते दिखाई देते हैं। वजह साफ है कि दोनों पक्षों के ये समीक्षक भावुक, अवैज्ञानिक और शौकिया समीक्षा के अभ्यासी हैं। वे एक निश्चित और पूर्व निर्धारित समाज को तो पहचानते हैं पर समाज के इतिहास में हुए किसी अनपेक्षित और बुनियादी बदलाव के लिए वे बिल्कुल तैयार नहीं होते।

अक्सर हिन्दी में यह शिकायत होती है कि समीक्षा के मानक कथासाहित्य में भी वे ही हैं जो कविता के रहे हैं। कथासाहित्य की अपनी सैद्धान्तिकता  विकसित नहीं हुई। बात सही है कि सवर्ण समीक्षक कथा साहित्य का मूल्यांकन काव्य सिद्धान्तों के आधार पर इसलिए करता है कि आज वह रस सिद्धान्त से बाहर नहीं आना चाहता। अज्ञेय और उनकी परंपरा के लेखक बराबर इस बात पर जोर देते रहे हैं कि साहित्य की समझ के लिए रसज्ञ या सहृदय होना जरूरी है।
संस्कृत और हिन्दी साहित्य के इतिहास में रसज्ञ और सहृदय वही और सिर्फ वही रहा है जो दलित समाज और इतिहास का शत्रु रहा है। रसज्ञता और सहृदयता पर संस्कृत साहित्य में ब्राह्मणों तथा अन्य कुलीन सवर्णों का एकाधिकार रहा है। सहृदय और रसज्ञ के लिए जिस आभिजात्य की अनिवार्यता काव्यशास्त्रकार मानते रहे हैं उसी से शूद्र समाज को सम्पूर्णता में वंचित भी रखते रहे हैं। हिन्दी समीक्षा ने भी वह जमीन छोड़ी कभी नहीं बल्कि जिसे आधुनिक समीक्षाकर्म कहा जा सकता है खुद वह भी इस आभिजात्य से मुक्त नहीं है। जब हिन्दी में यह प्रश्न उठता है कि दलित रचनाकारों में गुणवत्ता कितनी है, उस वक्त प्रश्न उठाने वाले की समझदारी यही होती है कि दलित का साहित्य रसज्ञ और सहृदय को कितना रिझा सकता है कितना नहीं। पर दलित साहित्य इस रसज्ञता का ही प्रतिरोध होता है, वह इसी के विरुद्ध खड़ा होता है। यही कारण है कि दलित साहित्य के संदर्भ में वर्तमान हिन्दी साहित्य की सवर्ण परम्परा पूरी तरह अप्रासांगिक और खारिज होती है।

-मुद्राराक्षस


घायल शहर की एक बस्ती


-मोहनलाल नैमिषराय


वक्तव्य


मैं जिस शहर (मेरठ) में पल कर बड़ा हुआ, वही शहर सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसता रहा है। शहर में बस्ती-बस्ती आग बरस रही है। मार काट मची है। लोग चीखते-चिल्लाते जान बचाकर भाग रहे हैं। वैसा खौफनाक मंजर बचपन में भी देखा और जवानी में भी। मेरठ शहर का चप्पा-चप्पा हिंदू मुस्लिम दंगों का चश्मदीद गवाह रहा है।
इन्हीं दंगों में दलितों को यह अहसास भी होता रहा है कि वे न हिंदू हैं और न मुसलमान। उनके भीतर से सवाल दर सवाल उभरते रहे हैं। इन्हीं सवालों के उत्तर तलाशने की कोशिश ‘‘घायल शहर की एक बस्ती’’-लगभग डेढ़-दो दशक पूर्व यह कहानी लिखी थी, छपी बाद में।

 

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