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युगपुरुष तुलसी - भाग 1

रामरंग

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :527
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2317
आईएसबीएन :00000

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गोस्वामी तुलसी दास जी के जीवन पर आधारित उपन्यास...

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Yugpurush Tulsi-1

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘युगपुरुष तुलसी’’ से रचनाकाल में ही परिचित होने के अवसर प्राप्त होते रहे। यह कृति मात्र गो. तुलसीदासजी का जीवनवृत्त न होकर भारत की तत्कालीन राजनैतिक, धार्मिक अवस्था का जीवंत चित्रण है। विदेशी विधर्मियों के क्रूर कुटिल उन्माद और देश के प्रमाद ने इस दुरावस्था को कैसे पनपाया, हमारे पूज्य संतो ने राष्ट्रोन्मुखी अध्यात्मरक दूरदृष्टि से उसका आकलन कर, उसके निराकरण में किस प्रकार एक प्रभावी भूमिका का निर्वाह किया, यह कृति उसे जिस प्रामाणिकता से प्रस्तुत करती है, वह चित्त को चमत्कृत किये बिना नहीं रहती।

गोस्वामी जी विषयक भ्रांतियों का आचार्य रामरंग जी ने युक्तिमुक्ति खण्डन करके, उनकी लगभग 15 वर्षों की देशव्यापी यात्रा का वर्णन इतिहास के अनेक अनखुले पृष्ठों को खोलता है। जिन्हें दलित कहकर समाज से विमुख करने के जो कुत्सिक षड़यंत्र आज दिख रहे हैं, उनके स्रोत उन्होंने उजागर किये हैं। श्रीराम जन्म भूमि का विध्वंस स्वयं बाबर ने कराया, यह बाबरनामा ने ही सिद्ध किया। अपने समय के ही नहीं पूर्व के भी राष्ट्ररक्षकों-विधर्मी शासकों-संतो-कवियों आदि के सुकृत्य और दुष्कृत्य की समीक्षा, साहित्य को एक नवीन दृष्टि देने वाली है। उन्होंने श्रीरामलीला का आरम्भ कराकर एक अलौकिक लोकपर्व ही जागृत किया। अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में युवक नारायण को त्रयोदशाक्षर श्रीराम मंत्र देकर, उनके भावी रूप समर्थ स्वामी रामदास का निर्माण करके ही इस धरती का परित्याग किया।

‘‘युगपुरुष तुलसी’’ इतिहासकारों, साहित्यकारों विश्वभर में फैले हुए मानस के श्रद्धालू पाठकों, तुलसी साहित्य के शोधकर्ताओं आदि में एक ओजस्वी ऊर्जा का संचार करेगा, उन्हें एक नवीन दृष्टि प्रदान करेगा, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। यह कृति आचार्य रामरंग जी को वस्तुतः लोकधारक रामरंग ही सिद्ध करती है।

समर्पण


वद्यं
लोकाभिराम श्रीराम
आपको करते हुए प्रणाम।।
आपका दिया जिन्होंने नाम।।
उन्हीं तुलसी का चरित ललाम।।
आपको अर्पित जगदाधार।।
स्व-परिकर सहित करें स्वीकार।।
वरद ! दें वर, तव माया-पाँति।
नृपतिसुत-धात्रियूह की भाँति।।
सर्वदा संरक्षण दें, देव।
स्वप्न में भी न किन्तु अहमेव।।
विपल भर को भी आए नाथ।
रखें सिय सह शिशु-माथ स्वहाथ।।
याचना रामरंग की यही।
कामना रामरंग की यही।।
भावना रामरंग की यही।
प्रार्थना रामरंग की यही।।


प्रकाशकीय



संभवत: 1997 का ही वर्ष था, जब मेरे दो लेख ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस देव एवं स्वामी विवेकानन्द जी के विषय में प्रकाशित हुए। उन्हें पढ़कर आचार्य रामरंग ने मुझे पत्र लिखा। परिचय का सूत्रपात हुआ। उत्तर साकेत महाकाव्य के दोनों खंडों एवं ध्रुव चरित्र की प्रतियाँ प्राप्त हुईं। पढ़ना आरंभ किया तो पढ़ता ही चला गया। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामचन्द्र के उत्तर चरित्र पर आधृत इतनी बृहद् कृति पहली बार देखी। अनेकानेक नवीन प्रसंगों से साक्षात्कार हुआ। शैली की सरसता, छंदों का चयन, भावों का स्वाभाविक प्रस्तुति ने चित्त को चमत्कृत कर दिया।
आंसुओं से नहा-नहा गया।

अभी यह क्रम चल ही रहा था कि बंधुवर श्री परमानंद जी चूड़ीवाले कोलकत्ता से पधारे। साहित्यिक-सांस्कृतिक आदि विषयों में उनकी गहरी पैठ है। वहाँ की अनेकानेक संस्थाओं से उनका अत्यन्त निकट का संपर्क ही नहीं बल्कि वे उनके कार्य-कलाप के कारण आज एक उल्लेखनीय स्थिति में हैं। उनसे चर्चा हुई। उनकी भी स्थिति मुझ जैसी ही हुई। उन्होंने आचार्य रामरंग को भारतीय संस्कृति संसद के मंच पर आमंत्रित किया। उनकी वाणी ने कोलकत्ता निवासियों के हृदय पर एक विशिष्ट छाप अंकित की। इसी क्रम में श्री परमानंद जी के सुपुत्र चि. अरुण कुमार चूड़ीवाल जिनसे मेरा पुत्रवत् स्नेह है, वे श्री रामरंग जी के सम्पर्क में आए। परिचय की प्रगाढ़ता ने संबंधों में आत्मीयता उत्पन्न की। चूड़ीवाल सदन में नवरात्रों के अवसर पर रामरंग जी का नव-दिवसीय प्रवचन सत्र चला। मुझे भी सपत्नीक उपस्थित रहने का अवसर प्रभु कृपा से प्राप्त हुआ। उन्हीं दिनों अनौपचारिक चर्चा के मध्य विदित हुआ कि वे गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन-वृत्त पर आधारित कोई रचना कर रहे हैं। कुछ अंश देखे और कुछ अंश सुने।

इसी मध्य हमारे विशेष आग्रह पर वे विश्व रामायण सम्मेलन में त्रिनिडाड गए। वहां से कोई सज्जन उन्हें सूरीनाम, गियाना, वाशिंगटन आदि अनेक स्थानों पर ले गए। अंतर्राष्ट्रीय जगत में उनकी पहचान बनी। यहाँ आकर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय तुलसी संगम की स्थापना की। ‘युगपुरुष तुलसी’ का लेखन पुन: आरम्भ हुआ। कम्प्यूटर पर अध्याय आने लगे। गोस्वामी तुलसीदास जो श्रद्धालु जनों में संत-भक्त और साहित्यकारों में एक रससिद्ध कवि के रूप में प्रख्यात हैं किन्तु वे इसके अतिरिक्त अन्य भी कुछ क्या बहुत कुछ हैं, यह तो ‘युगपुरुष तुलसी’ के शनै: शनै: प्राप्त होते हुए पत्रों-अध्यायों को देखकर ही जाना।

आचार्य रामरंग की साधना के प्रति सहज विश्वसनीय भाव होते हुए भी, उनके द्वारा प्रतिपादित कई चर्चाओं को चित्त निश्शंक भाव से एकाएक स्वीकार नहीं कर पाया है। यद्यपि ‘युगपुरुष तुलसी’ उपन्यास है, कोई ‘तुलसीनामा’ नहीं है। जो ‘नामे’ आज प्रकाशित होकर सामने हैं वे भी सर्वथा प्रामाणिक नहीं हैं। फिर भी जिन कृतियों का आधार इतिहास हो, उन्हें ऐतिहासिक तथ्यों को सर्वथा अनदेखा या उनका उल्लंघन तो नहीं करना चाहिए, यह विचार कर विभिन्न विषयों पर चर्चा की, परन्तु उसके संग्रहीत सूत्र, उनके व्यास-समास पद्धति से उपयोग, प्रबंध की दृष्टि से उनका तारतम्य, तिथियों-मितियों का यथसंभव मिलान, पात्रों का उनकी समग्र भूमिका के आधार पर चरित्र-चित्रण, तदनुकूल भाषा और शैली, संक्षेप में लगा कि ‘‘युगपुरुष तुलसी’ एक उपन्यास होते हुए भी न्यूनाधिक रूप से साहित्य के साथ-साथ दर्शन और इतिहास का एक शोध-ग्रन्थ भी है।

आचार्य रामरंग श्रीराम साहित्य के मर्मज्ञ होने के साथ-साथ भारतीय साहित्य और भारतीय इतिहास के भी प्रौढ़ विद्वान हैं। अंतर्राष्ट्रीय कुलसी संगम संस्थापक प्रधानमंत्री होने के कारण अंतर्राष्ट्रीय जगत् में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसे मनीषी की यह विशिष्ट कृति प्रकाशित करते हुए, ‘भीलवाड़ा संस्कृति संस्थान’ एवं ‘चर-अचर अर्पण न्यास’ स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहा है। न केवल भारतवर्ष अपितु विश्वभर में गोस्वामी तुलसीदास जी के प्रति समर्पित श्रद्धालुओं का एक विशाल वर्ग है। नियमित रूप से श्री रामचरित मानस, हनुमान बाहुक, श्री हनुमान चालीसा का पाठ करने वाले असंख्य नर-नारी हैं। उनके ग्रंथों पर विभिन्न दृष्टिकोण से समालोचनात्मक शोध प्रबंध प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। हमें आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि ‘युगपुरुष तुलसी’ इन सभी में एक नव-अभिनव ऊर्जा का संचार करेगा। उन्हें विवेचनात्मक दृष्टि प्रदान करने में सहायक सिद्ध होगा।

हमारे पुराने मित्र व प्रकाशक, प्रयाग के ‘लोकभारती’ ने ‘रामकृष्ण मिशन’ के वरिष्ठ संन्यासी व रायपुर शाखा के संस्थापक-सचिव श्रद्धेय श्री आत्मानंद जी के गीता के प्रथम छह अध्यायों पर प्रवचन मुद्रित किए थे। ‘रामकृष्ण मिशन’ रायपुर एवं ‘भीलवाड़ा संस्कृति प्रकाशन’ का यह सामूहिक प्रयास था। उसका विद्वान् पाठकों ने बहुत स्वागत किया। वह ‘लोकभारती’ की सम्मिलित साधना से यह कृति पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है।

दिनांक : नवरात्र अष्टमी, 2003  
भीलवाड़ा संस्कृति प्रकाशन

लक्ष्मीनिवास झुनझुनवाला


निवेदन



एक नितांत अपरिचित के विषय में कुछ कहना, कठिन होते हुए भी स्यात् सरल हो सकता है किन्तु वह, जो अपने अनेकानेक आकारों से रोम-रोम को रंगागार बनाकर, चित्त से विस्मृति को विस्मृत कर, स्व-स्मृतियों का सतत् स्वत: स्मरण कराता हुआ हृदय में रमण रहा हो, जिसका प्रतिबिंब प्राणों को अधिष्ठातृ देवता के रूप में आत्मा में प्रतिष्ठित हो चुका हो- उसके विषय में कुछ कहना ऐसा ही है जैसे क्षितिज के पार से आकाश को छूती हुई सी उस लहर से महासागर की चर्चा करना जो धीरे से तट को छूकर पुन: उसी अनंत में विलीन होने के लिए बिना ठिठके लौट रही हो। ठीक यही स्थिति इस समय मेरी हो रही है जब ‘युगपुरुष तुलसी’ की भूमिका के रूप में कुछ लिखने के लिए मुझे बाध्य किया जा रहा है।

बालक को भूख का परिचय एवं माता पयपान का शिक्षण कब किसने किया, वह तो, वह जन्म लेते ही सीख जाता है क्या, बल्कि जैसे सीखकर ही जन्म लिया हो, ऐसा लगता है। इसी प्रकार भारत का बालक सीता-राम-कृष्ण-शंकर-दुर्गा-हनुमान आदि से कब परिचित हो जाता है, यह वह स्वयं भी नहीं जानता। यदि किसी दिन इनसे किसी भारतीय बालक को प्रयत्नपूर्वक परिचित कराने की स्थिति आई तो उस दुर्भागे दिन का वह हत्भागा क्षण इस देश के लिए महाप्रलय का घंटानाद ही होगा।

अब जहाँ तक रामचरित के गायक ‘युगपुरुष तुलसी’ के नायक गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज का संबंध है तो उनके जन्मस्थान एवं तिथि के विषय में राजापुर-सोरों या किसी अन्य स्थान अथवा तिथि-संवत् आदि के विषय में विवाद होता रहे परन्तु मेरे मानस में उनका निर्विवाद जन्म, मानस-कथा के प्रारम्भ और अंत में बोली जाने वाली ‘गुसाईं तुलसीदास की जय’ से हुआ। इन जन्मकांड के समय मेरी आयु 3-4 वर्ष की रही होगी। ‘नहिं समुझउँ तस बालपन’ की वह अचेतावस्था कैसे चित्त में चेतना को चैतन्य करती गई, यह मैं नहीं जानता। हाँ, इतना अवश्य जानता हूँ कि इस चेतना को चैतन्य करने का श्रेय तुलसीकृत-मानस के उन नायक को है जिन्होंने अपनी अहैतुकि कृपा का आश्रय प्रदान कर, इस मानस को मानसकार का आश्रम बना दिया।

उत्तर साकेत के रचना काल में विभिन्न प्रसंगों के लिए अनेक रामायणों को देखा। अनेकों बार के देखे हुए मानस को भी देखा तो लगा कि जैसे पहली बार ही देखा। सौन्दर्य की कसौटी उसकी चिरनवीनता ही तो है। कैसी प्रबंधबद्धता, कैसी मर्यादा, कैसा शब्द सौष्ठव- लगा कि योगशास्त्र के अंतगर्त ब्रह्मविद्या के क्षेत्र में सांख्य-कर्म-संन्यास-ज्ञान-विज्ञान-श्रद्धा-भक्ति आदि दैवी-आसुरी प्रकृति, त्रिगुणी पद्धति आदि का जो विराट दर्शन स्वयं परब्रह्म ने गीता में प्रस्तुत किया है, उस सूत्रों की सरल-सरस व्याख्या मानस है।

 कुछ कहते है कि गीता समझना लोहे के चने चबाने हैं। मुझे लगा कि यदि मानस का पाठ ढंग से करके कोई गीता पाठ करे तो वे लोहे के चने कितने ही छप्पन भोगों को फीका कर देंगे। मानस अद्वैत-द्वैत-विशिष्टाद्वैत-शुद्धाद्वैत-द्वैताद्वैत-शब्दाद्वैत-त्रैत की क्यों बल्कि मार्क्स के ईश्वर विहीन अद्वैत तक की प्रफुल्लित-पुष्पित क्यारियों का वासंती उपवन है। ‘तुलसी ने अपने विषय में, देश-काल-परिस्थिति के विषय में कुछ नहीं लिखा’ यह भी बहुत समय से सुनते रहे परन्तु विनयपत्रिका-कवितावली-हनुमानबाहुक और मानस का सप्तम सोपान (उत्तर खंड) देखते हैं तो फिर अपने क्या बल्कि किसके विषय में क्या कुछ नहीं कहा, यह सोचने पर बाध्य होना पड़ता है। दोहावली के अनेक दोहे तो जीवन की अनेक घटनाओं के उद्घाटक है। ‘बोलिए जु तउ जउ बोलिबे कि बुद्धि होय, ना तरु तौ मौन गहि चुप बैठि रहिए’ संत रवि सुंदरदास की यह उक्ति गोस्वामी जी पर युक्तियुक्तरूपेण चरितार्थ होती है।

पत्नी का एक सामान्य व्यंग्य जिसके जीवन सागर की अधोमुखी लहरों को उर्ध्वमुखी तरंग बना गया, ऐसी संवेदनशील मानसिकता का मानुष, भवन से निकल पड़ा, भुवन-भ्रमण के लिए चल पड़ा तो फिर पीछे फिरकर नहीं देखा। चौदह वर्ष, दस मास, सत्रह-दिन- एक युग का युग राष्ट्र देवता की परिक्रमा को तन्यासक्ति से समर्पित कर दिया। सतहत्तर वर्ष की आयु में मानस जैसे ग्रन्थ के लेखन के लिए लेखिनी उठाई। निरन्तर नामस्मरण से नामी को रेम-रोम में बसाकर, नामी के अंतर के अनुरूप हो गए। मांगने पर रोटी का टुकड़ा भी नहीं मिला तो किसी के सेवक नहीं बने और चरण पूजने के लिये राजाओं की पंक्तियाँ लग गई तो किसी से सेवा नहीं ली। न कोई सम्प्रदाय चलाया और न कहीं मठ बनाया। आज भी असीघाट असी तट पर असिव्रतधारी जैसा खड़ा है। ऐसा स्थान-ऐसी किस विभूति का कहाँ मिलेगा ?

      

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