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सूखी नहीं है नदी

वसु मालवीय

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2368
आईएसबीएन :00000

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अमानवीय शोषण साम्प्रदायिकता जातिवाद और नजदीकी रिश्तों की अबूझ पहेलियाँ....

Subrahanya Bharti Yug Aur Chintan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पुरोवाक्


सुब्रह्मण्य भारती से संबन्धित यह मेरा चौथा ग्रन्थ है। भारती जन्मशती के समाप्त होते-होते उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने के रूप में प्रकाशित यह ग्रन्थ भी मेरे पूर्वलिखित ग्रन्थों की भाँति भारती को सामाजिक दृष्टिकोण से एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर समझने का प्रयत्न है। भारती से सम्बन्धित मेरी कृतियों में प्रस्तुत ग्रन्थ का अपना विशिष्ट स्थान है। भारती के जीवनीकार, भारती के सन्बन्ध में लेखनी चलानेवाले लेखक, निबन्धकार एवं अनेक व्यक्तियों की दृष्टि में चूक गये अथवा आँखें मूँद कर’ अस्वीकार कर दिये गये या उन पर परदा डालकर चले गये। मैंने इस ग्रन्थ में भारती-साहित्य एवं उनके राजनीतिक जीवन के केवल एक आयाम के बारे में ही विचार किया है।

मेरे साहित्यिक दृष्टिकोण तथा साहित्यिक प्रवृत्तियों को रूपायित कर उसे विकासोन्मुख करने में भारती का बड़ा भारी योगदान है। मेरे साहित्यिक जीवन के आरम्भ से लेकर विगत चार दशकों में मैंने भारती को रचनाओं को कई कोणों में देखा-परखा, पहचाना और अध्ययन भी किया है और आज भी अध्ययन करता आ रहा हूँ। अतः मेरे साहित्यिक दृष्टिकोण और प्रवृत्ति के अनुरूप ऐतिहासिक विकास के प्रकाश में जैसे-जैसे मैंने अनेक कोणों से उन्हें जाना-पहचाना तभी से दो दशक पूर्व कोई इस ग्रन्थ-रचना का विचार मेरे मन में उत्पन्न हुआ। तथापि ग्रन्थ लिखने की जल्दी मैंने नहीं की। इसकी रचना करने के पूर्व अनेकानेक ग्रन्थों और पत्र-पत्रिकाओं का तलाश कर मैंने उनका अध्ययन किया। साथ ही कालान्तर में इसे लिखने के लिए आवश्यक नयी सामग्री, नयी सूचनाएँ, गुप्तधन की तरह मुझे उपलब्ध होने लगीं। बड़ी श्रद्धा और प्रयासपूर्व उन्हें संकलित एवं वर्गीकृत करने के उपरान्त ही मैं इस ग्रन्थ रचना में प्रवृत्त हुआ।

इस ग्रन्थ रचना के समय मैं अपनी आयु के साठवें वर्ष में पदार्पण कर चुका हूँ। इस ग्रन्थ का प्रथम निबन्ध ‘देशभक्ति का बीजारोपण’ ‘तामरै’ पत्रिका (सितम्बर 1967 के अंक) में संक्षिप्त रूप में प्रकाशित हुआ। उसे, उसके बाद उपलब्ध नवीनतम सामग्री के साथ विस्तार देकर इस ग्रन्थ में दिया है। इसी प्रकार भारती पहले पहल सम्पादक बने, पत्रिका ‘चक्रवर्तिनी’ के बारे में शोध कर ‘तामरै’ (सितम्बर 1968 अंक) में प्रकाशित किया। मैंने इस ग्रंथ में इसको विस्तार दिया है। इसे लिख चुकने के बाद भारती की ‘चक्रवर्तिनी’ पत्रिका के पुराने अंकों को ढूंढ कर मैंने उसमें प्रकाशित भारती के लेखों का संकलन कर भारती-प्रेमी श्री. ची. नि. विश्वनाथन और टी.वी. मणि दोनों ने भारती की ‘चक्रवर्तिनी’ पत्रिका में प्रकाशित निबन्ध’ शीर्षक से 1979 सितम्बर में पुस्तकाकार प्रकाशित कर प्रशंसनीय कार्य किया है। फिर भी, इस संकलन के प्रकाशन के पूर्व उस पत्रिका के बारे में मेरे लिखे निबन्धों में अनेक नयी सूचनाएं स्थान पा चुकी हैं जिसे पुस्तक पढ़ने वाले पाठक समझ सकेंगे। यद्यपि ये तीन अलग-अलग निबन्ध ही हैं। इसके बाद इस ग्रन्थ के अधिकांश में स्थान प्राप्त अन्य सभी निबन्ध सिर्फ़ प्रस्तुत पुस्तक के लिए पहली बार मुद्रित हो रहे हैं।

प्रस्तुत ग्रन्थ में मैंने इस प्रश्न के लिए उत्तर ढूँढने का प्रयास किया है कि भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रति भारती का आकर्षण, उत्साह, लगन और सम्पर्क रहा या नहीं। इसके फलस्वरूप मैंने जिस प्रश्न को उठाया उसकी, सीमा के अन्तर्गत ही रहकर, स्वदेशी आन्दोलन के जन्म से लेकर अन्त तक मात्र सन् 1905-1911 के बीच की कालावधि में भारती के राजनीतिक एवं साहित्यिक जीवन के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया है। किसी भी देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन से सम्बधित अनेक समाचार, सूचनाएं आदि उनकी गोपनीयता की वजह से पत्रिका तथा देश की पहचान से परे हो काल की बाढ़ में भारती या लोगों द्वारा भुलाये अथवा छिपाये जाकर नष्ट हो जाती हैं।

भारती के युग के क्रान्तिकारी आन्दोलन के सम्बन्ध में उनके समकालीन तथा उस आन्दोलन से सम्बन्धित लोग हमें कितनी ही खबर और सूचनाएँ दे सकते थे। मगर भारती के निधन के पश्चात लगभग एक पीढ़ी तक यहाँ विदेशी-शासन के दौरान ऐसी ख़बरों और सूचनाओं को प्रकाश में लाने की अनुकूल परिस्थितियों उन्हें नहीं मिली थीं। इसके अलावा भारती के स्वर्गवास के पूर्व ही भारतीय राजनीतिक रंगमंच पर ‘गाँधी-युग’ का उदय होने लगा था। ऐसा लगता है कि गाँधी जी के अहिंसात्मक-सत्याग्रह आन्दोलन के मार्ग की प्रशंसा होने के बाद लोग ऐसा मानने लगे कि इस प्रकार की सूचनाओं और ख़बरों को बताने या उन विचार करने की आवश्यकता ही नहीं समझने और पहचानने के लिए कतिपय संकेत अथवा सूचनाएँ या पदचिन्ह कहीं-न-कहीं दिखाई देंगे ही।

ऐसी ख़बरों और सूचनाओं को ढूँढ निकालकर उन्हें सही तौर पर जान समझ कर उनके आधार पर ही मैंने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में मैंने जो-जो निष्कर्ष निकाले हैं उन सबके लिए मैंने उचित प्रमाण या उद्धवरण जगह-जगह पर दिया है। जिसे ग्रन्थ को पढ़ने वाले कोई भी पाठक महसूस करेंगे, ऐसा विश्वास है कि मुझे आशा है कि मेरी अन्य कृतियों की भाँति यह ग्रन्थ भी पाठकों के बीच लोपप्रिय बनेगा।

ग्रन्थ के छठे, सातवें निबन्धों के अन्त में संकलित ‘तिरुनेलवेली षडयन्त्र’ के मुक़द्दमे से सम्बन्धित ‘एक्ज़ीबिट’ (प्रत्यक्ष प्रमाण) इसी ग्रन्थ में पहली बार मुद्रित हो रहे हैं। इनकी पुरानी प्रतियों को मेरे लिए उपलब्ध कराने वाले नैल्लै ‘दिनमलर’ समाचार-पत्र के उपसम्पादक श्री राधाकृष्णन् थे। भारती जन्मशती के अवसर पर मैं उन्हें अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहूँगा।

रघुनाथन


देश भक्ति के बीज


महाकवि भारती का प्रथम कविता-संकलन ‘स्वदेश गीतंकळ’ (स्वदेश (राष्ट्र) गीत) सन् 1908 जनवरी में प्रकाशित हुआ। अपने प्रथम-संग्रह को ‘समर्पण’ शीर्षक से भारती ने समर्पित कियाः-

‘‘जिस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना  विश्वरूप दरसाकर परमात्मास्वरूप को स्पष्ट किया था, उसी प्रकार मुझे भारत माता के सम्पूर्ण स्वरूप का दर्शन कराके देशभक्ति का प्रेरक उपदेश देकर अनुगृहीत करनेवाले गुरुजी के चरण-कमलों में मैं अपने इस छोटे-से ग्रन्थ को समर्पित करता हूँ।’’


लेखक

उपयुक्त समर्पण में भारती देशभक्ति का उपदेश देकर अनुग्रहीत करनेवाले अपने गुरु का उल्लेख तो करते हैं, मगर उस गुरु के नाम का उल्लेख नहीं करते।
अगले वर्ष अर्थात् सन् 1909 में भारती का दूसरा कविता-संग्रह ‘जन्मभूमि’ नाम से प्रकशित हुआ। इस पुस्तक के समर्पण में उन्होंने इस प्रकार लिखाः
‘‘मातृभूमि की वास्तविकता सेवा का महत्त्व, तथा संन्यासी की महता को क्षणों में मौन रूप से मुझे समझानेवाली मेरी गुरु एवं भगवान विवेकान्नद की धर्मपुत्री श्रीमती निवेदिता देवी को यह ग्रंथ समर्पित करता हूँ।


--चि. सुब्रह्मण्य भारती


इस ग्रन्थ के समर्पण में भारती इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि श्रीमती निवेदिता देवी ही उनकी गुरु हैं।
इसके बाद सन् 1910 फरवरी में पुदुचेरी (पाण्डिचेरी) प्रकाशित अपने गद्यग्रन्थ ‘ज्ञानरथम्’ के प्रथम  संस्करण के प्रकाशन के अवसर पर-
‘‘ओम्
श्रीमती निवेदिता देवी को
यह ग्रन्थ समर्पित किया जाता है’’
 
लिखकर केवल समर्पण के लिए एक पूरे पृष्ठ को अलग छोड़ा था।
‘ज्ञानरथम1’ के पश्चात भारती का तीसरा पद्यग्रन्थ ‘सुयचरितै’ (आत्मकथा) सन् 1910, नवम्बर में प्रकाशित हुआ। स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ को भी वे श्रीमती निवेदिता देवी को समर्पित कर चुके थे। यह समर्पण निम्न प्रकार की गुरुवन्दना कविता के रूप में रचित हैः


कृपा का नैवेद्य, प्रेम का मन्दिर
दास के मन के अन्धकार के लिए सूर्य
हमारे प्राणरूपी खेती के लिए वर्षा बन
अर्थसम्पादन का मार्ग न जाने हम दरिद्रों के लिए
अपार धन के रूप में, पाप रूपी कालुष्य को
भस्म करनेवाली अग्नि के रूप में विलसित
माता निवेदिता देवी की वन्दना करता हूँ।


[यह कविता अर्वाचीन संस्करणों में ‘सुयचरितै’ (आत्मकथा) से अलग किया जाकर ‘सान्रोर’ (सज्जन) नामक अंश के रूप में निवेदिता देवी शीर्षक के अतंर्गत प्रकाशित होती जा रही है।] इसका कारण यह भ्रम हो सकता है कि निवेदिता जी के बारे में लिखी एक स्वतन्त्र कविता है। सरकारी प्रकाशन से ही इस गलती की शुरूआत हुई। वास्तव में यह कविता भारती प्रचुरालयम द्वारा प्रकाशित ‘सुयचरितम् आरम्भ तथा अन्य गीत’ नामक गीत-संकलन के प्रथम संस्करण (1937) में ‘सुयचरितम’ के आरम्भ में हमारे ‘ज्ञानगुरु श्री निवेदिता देवी की स्तुति’’। शीर्षक टिप्प्णी के साथ अलग पृष्ठ पर मुद्रित हुई है। यह स्वत्रन्त्र कविता के रूप में नहीं लिखी गयी है। अतः हम मान सकते है कि अपने प्रथम तीन संग्रहों को अपने गुरुदेव को समर्पित करनेवाली भारती ने अपने चौथे ग्रन्थ को भी उसकी वन्दना के साथ ही प्रारम्भ किया है। फिर, ‘सुयचरितै’ (आत्मकथा) एक स्वतन्त्र ग्रंथ है। स्वतन्त्र ग्रन्थ-रचना के समय गुरु की वन्दना करना प्राचीन भारतीय परम्परा रही है। अतः यह कविता भी समर्पण के रुप में भारती का ही कथन है, ऐसा मानना उचित जँचता है।

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