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गुंजन

सुमित्रानंदन पंत

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :84
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2385
आईएसबीएन :0.

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यह मेरे प्राणों की उन्मन गुंजन मात्र है।

Gunjan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

असहयोग आन्दोलन के समय महात्मा गांधी के सम्मुख शिक्षा-संस्थान छोड़ने की प्रतिज्ञा करने के कारण फिर आपने विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं की। किन्तु अपनी लगन के कारण आपने अनेक विषयों का और विशेषकर साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया। आधुनिक युग की सम्पूर्ण प्रगतियों के सम्बन्ध में भी आपका ज्ञान विशेष रुप से प्रोढ़ है।
कविता की ओर पंत जी की रुचि जन्मजात रही। बाल्य-काल ही से आप कविता लिखने लगे थे। किसी-कवि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह एक ही रात में अथवा एक ही रचना से प्रसिद्ध हो गया। पन्त जी के सम्बन्ध में भी यह अक्षरशः सत्य है। आप अपनी पहली ही छवि रचना से हिन्दी के साहित्यकाश में पूर्ण प्रभा से उदित हो गये। आपकी कविता के छन्द, भाषा, भाव भौर कल्पना ने सबको विमोहित कर लिया।
‘ग्राम्या’ और ‘गुँजन’ पंत जी की सर्वश्रेष्ठ काव्य कृतियाँ हैं।

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गुंजन पाठकों के सामने हैं, इसमें सभी तरह की कविताओं का समावेश है; कुछ नवीन प्रयत्न भी। सुविधा के लिए प्रत्येक पद्य के नीचे रचना-काल दे दिया है। यदि गुंजन मेरे पाठकों का मनोरंजन कर सका, तो मुझे प्रसन्नता होगी, न कर सका तो आश्चर्य न होगा, यह मेरे प्राणों की उन्मन गुंजन मात्र है।
‘मेंहदी’ में दूसरे वर्ण पर स्वरपात मधुर लगता है, तब यह शब्द चार ही मात्राओं का रह जाता है। जैसा कि साधारणत: उच्चरित भी होता है। प्रिय प्रियाऽह्लाद से ‘प्रिय प्रि’-‘आह्लाद’ अच्छा लगता है, इस प्रकार की स्वतन्त्रता मैंने कहीं-कहीं ली है। ‘अनिर्वचनीय’ के स्थान पर ‘अनिवर्च’, ‘हरसिंगार’ के स्थान पर ‘सिंगार’ आदि।
‘पल्लव’ की कविताओं में मुझे ‘सा’ के बाहुल्य ने लुभाया था। यथा-
अर्थ-निद्रित-सा, विस्मृत-सा,
न जागृत-सा, न विमूर्छित-सा-इत्यादि।
‘गुंजन‘ में ‘रे’ की पुनरुक्ति का मोह मैं नहीं छोड़ सका। यथा-
‘तप रे मधुर-मधुर मन’-इत्यादि।
‘सा’ से, जो मेरी वाणी का सम्वादी स्वर एकदम ‘रे’ हो गया, यह उन्नति का क्रम संगीत-प्रेमी पाठकों को खटेगा नहीं, ऐसा मुझे विश्वास है।
इति

सुमित्रानंदन पंत

गुंजन


वन- वन उपवन
छाया उन्मन- उन्मन गुंजन
नव वय के अलियों का गुंजन !

रुपहले, सुनहले, आम्र, मौर,
नीले, पीले औ ताम्र भौंर,
रे गंध-गंध हो ठौर-ठौर
उड़ पाँति-पाँति में चिर उन्मन
करते मधु के वन में गुंजन !
वन के विटपों की डाल-डाल
कोमल कलियों से लाल-लाल,
फैली नव मधु की रूप ज्वाल,
जल-जल प्राणों के अलि उन्मन
करते स्पन्दन, भरते-गुंजन !
अब फैला फूलों में विकास,
मुकुलों के उर में मदिर वास,
अस्थिर सौरभ से मलय-श्वास,
जीवन-मधु-संचय को उन्मन
करते प्राणों के अलि गुंजन !

(जनवरी, 1932)

1


तप रे मधुर-मधुर मन !
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ’ कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन !
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन;
ढल रे ढल आतुर मन !
तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन !
गल रे गल निष्ठुर मन !

(जनवरी, 1932)

2


शांत सरोवर का उर
किस इच्छ के लहरा कर
हो उठता चंचल, चंचल !
सोये वीणा के सुर
क्यों मधुर स्पर्श से मरमर्
बज उठते प्रतिपल, प्रतिपल !
आशा के लघु अंकुर
किस सुख से पर फड़का कर
फैलाते नव दल पर दल !
मानव का मन निष्ठुर
सहसा आँसू में झर-झर
क्यों जाता पिघल-पिघल गल !
मैं चिर उत्कंठातुर
जगती के अखिल चराचर
यों मौन-मुग्ध किसके बल !

(फरवरी,1932)

3


आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल ?
जब लगता सब विश्रृंखल;
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल !
खो देती उर की वीणा
झंकार मधुर जीवन की,
बस साँसों के तारों में
सोती स्मृति सूनेपन की !
बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन !
आत्मा है सरिता के भी
जिससे सरिता है सरिता;
जल-जल है, लहर-लहर रे,
गति-गति सृति-सृति चिर भरिता !
क्या यह जीवन ? सागर में
जल भार मुखर भर देना !
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना !
सागर संगम में है सुख,
जीवन की गति में भी लय,
मेरे क्षण-क्षण के लघु कण
जीवन लय से हों मधुमय

(जनवरी,1932)

4


मैं नहीं चाहता चिर सुख,
मैं नहीं चाहता चिर दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरण;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

जग पीड़ित है अति दुख से
जग पीड़ित रे अति सुख से,
मानव जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न,
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन।

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !

(फरवरी,1932)

5


देखूँ सबके उर की डाली
किसने रे क्या-क्या चुने फूल
जग के छवि-उपवन से अकूल !
इसमें कलि, किसलय,कुसुम, शूल !

किस छवि, किस मधु के मधुर भाव ?
किस रँग, रस, रुचि से किसे चाव !
कवि से रे किसका क्या दुराव !

किसने ली पिक की विरह तान ?
किसने मधुकर का मिलन गान ?
या फुल्ल कुसुम, या मुकुल म्लान ?
देखूँ सबके उर की डाली-

सब में कुछ सुख के तरुण फूल
सब में कुछ दुख के करुण शूल-
सुख-दुख न कोई सका भूल ?

(फरवरी,1932)

6


सागर की लहर लहर में
है हास स्वर्ण किरणों का,
सागर के अंतस्तन में
अवसाद अवाक् कणों का !

यह जीवन का है सागर,
जग-जीवन का है सागर,
प्रिय-प्रिय विषाद रे इसका
प्रिय प्रि’ आह्लाद रे इसका !

जग जीवन में हैं सुख-दुख,
सुख-दुख में है जग जीवन;
हैं बँधे बिछोह-मिलन दो
देकर चिर स्नेहालिंगन !

जीवन की लहर-लहर से
हँस खेल-खेल रे नाविक !
जीवन के अंतस्तल में
नित बूड़-बूड़ रे भाविक !

(फरवरी,1932)

7


आँसू की आँखों से मिल
भर ही आते हैं लोचन,
हँसमुख ही से जीवन का
पर हो सकता अभिवादन !

अपने मधु में लिपटा पर
कर सकता मधुप न गुंजन,
करुणा से भारी अंतर
खो देता जीवन-कंपन

विश्वास चाहता है मन,
विश्वास पूर्ण जीवन पर;
सुख-दुख के पुलिन डुबा कर
लहराता जीवन-सागर !

दुख इस मानव-आत्मा का
रे नित का मधुमय-भोजन
दुख के तम को खा-खा कर
भरती प्रकाश से वह मन !

अस्थिर है जग का सुख-दुख
जीवन ही सत्य चिरंतन !
सुख-दुख से ऊपर; मन का
जीवन ही रे अवलंबन !

(फरवरी,1932)

8


कुसुमों के जीवन का पल
हँसता ही जग में देखा,
इन म्लान, मलिन अधरों पर
स्थिर रही न स्मिति की रेखा !

वन की सूनी डाली पर
सीखा कलि ने मुसकाना,
मैं सीख न पाया अब तक
सुख से दुख को अपनाना !

काँटों से कुटिल भरी हो
यह जटिल जगत की डाली,
इसमें ही तो जीवन के
पल्लव की फूटी लाली !

अपनी डाली के काँटे
बेधते नहीं अपना तन
सोने-सा उज्जवल बनने
तपता नित प्राणों का धन !

दुख-दावा से नव अंकुर
पाता जग-जीवन का वन,
करुणार्द्र विश्व की गर्जन,
बरसाती नव जीवन-कण !

(फरवरी,1932)

9


जाने किस छल-पीड़ा से
व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,
ज्यों बरस-बरस पड़ने को
हों उमड़-उमड़ उठते घन !

अधरों पर मधुर अधर धर,
कहता मदु स्वर में जीवन-
बस एक मधुर इच्छा पर
अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन

पुलकों से लद जाता तन,
मुँद जाते मद से लोचन
तत्क्षण सचेत करता मन-
ना, मुझे इष्ट है साधन

इच्छा है जग का जीवन
पर साधन आत्मा का धन;
जीवन की इच्छा है छल
आत्मा का जीवन जीवन !

फिरतीं नीरव नयनों में
छाया-छबियाँ मन-मोहन
फिर-फिर विलीन होने को
ज्यों घिर-घिर उठते हों घन

ये आधी, अति इच्छाएँ
साधन भी बाधा बंधन;
साधन भी इच्छा ही है
सम-इच्छा ही रे साधन !

रह-रह मिथ्या-पीड़ा से
दुखता-दुखता मेरा मन
मिथ्या ही बतला देती
मिथ्या का रे मिथ्यापन !

(फरवरी,1932)

10


क्या मेरी आत्मा का चिर धन ?
मैं रहता नित उन्मन, उन्मन !

प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,
तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,
सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;

निज सुख से ही चिर चंचल मन,
मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन।

मैं प्रेम उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;

लगता अपूर्ण मानव-जीवन,
मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।

जग-जीवन में उल्लास मुझे,
नव आशा; नव अभिलाष मुझे;
ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे;

चाहिए विश्व को नव जीवन
मैं आकुल रे उन्मन उन्मन !

(फरवरी, 1932)




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