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परिमल स्मृतियाँ और दस्तावेज

केशवचन्द्र वर्मा

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :342
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2391
आईएसबीएन :00000

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इसमें कला और संस्कृति के क्षेत्र में हुए बदलावों का वर्णन किया गया है....

Parimal Smritiyan Aur Dastavej

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


आजादी के बाद कला और संस्कृति के क्षेत्र में जो बदलाव हुए उनसे हिन्दी साहित्य में बड़े परिवर्तन हुए। इन महत्वपूर्ण परिवर्तनों के केन्द्र में पाँचवें और छठवें दशक ने काफी बदलाव दर्ज किये जिनके मूल स्वरूप से आज के हिन्दी साहित्य जगत की आपसी प्रतिस्पर्धा और अनर्गल प्रचार ने धूमिल कर रखा है।
इन मूलभूत बदलावों के केन्द्र में प्रायः इलाहाबाद की साहित्यक संस्था ‘परिमल’ ने बहुतेरे मूल्यगत परिवर्तनों की शुरूआत की। ये बदलाव का काम किसी योजनाबद्ध तरीके से नहीं किया गया, बल्कि कुछ मनमौजी अलमस्त युवकों ने मिलजुलकर एक साहित्य संस्था बनाई जिसका नाम ‘परिमल’ रखा। अब आज इतना वक्त बीत जाने पर उस संस्था के कार्यों का जैसा महत्व ऐतिहासिक दृष्टि से बन गया है वह अपने में ही एक अचरज का विषय है। इसको लेकर जितने किस्मों की छोटी और घटिया बातों का प्रचार ईर्ष्यालू लेखकों ने इधर चला रखा था उससे यह ज़रूरी हो गया की ‘परिमल’ के एकाद लेखक जो बचे खुचे रह गये हैं वे भ्रमों का निराकरण करे और सही तथ्यों को सामने रख कर ‘परिमल’ की आश्चर्यजनक उपस्थिति का इतिहासपरक ब्यौरा सामने रख दें।

ये कोशिश जो हिन्दी साहित्य के एक अत्यंत विवादस्पद बन चुकी घटना का सही विवरण दे रही है उसका अपने स्थान पर सही मूल्यांकन हो सकेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
‘परिमल की यह ऐतिहासिक धरोहर
प्रियवर सत्यप्रकाश मिश्र को
जो हमारी पीढ़ी के स्नेह-भाजन और
अपनी पीढ़ी के भी विश्वावापत्र प्रवक्ता हैं
उन्हें सौंप रहा हूँ......
मेरा कार्य पूरा हो गया।


मैं ही क्यों ?



मैं न तो कोई अध्यापक हूँ न कोई रिसर्च-स्कॉलर। ज़िन्दगी में थोड़ा बहुत हर विधा में लिखता रहा जहाँ-जहाँ से चुनौती मिली वहाँ भरपूर मैंने उसका सामना किया और अच्छा बुरा जैसा बन पड़ा वह लिखा। परिमल के लोग तमाम साहित्यिक जगत में पहले उपेक्षा के शिकार हुए फिर आँखों में गड़ने लगे। उन पर तरह-बेतरह के निराधार कलंक मढे़ जाने लगे पर ये सब परिमल के ही सदस्य थे वे तो अपनी राह से विचलित हुए और न उन्होंने अपना लिखने का ढर्रा छोड़ा या बदला। एक अज़ीब कशमकश के वातावरण में पच्चीस-तीस साल गुज़र गये और अब तो उस सबका को बीते हुए आधी सदी से कुछ ऊपर ही हो गया, अब सिवाय अपनी स्मृतियों को याद करके साहित्य के उस दौर की याद करना और कुछ पुराने कागज़-पत्तर जोड़–गाठकर साहित्य के उस अज़ूबा दौर की एक अधूरी कहानी कहने के लिए मैं ही बचा हूँ, जो परिमल के नाम पर योजनायें बनाते थे, साहित्य की धारा को नये मनुष्य के निर्णय की कल्पना कलम की कल्पना के द्वारा करते थे वे सब धीरे-धीरे काल के हवाले हो गये।

मैंने अपने सभी मित्रों से जो क्रमशः ‘पाबेरकाब’ थे उनसे बड़ी चिरौरी-मिन्नत की कि वे परिमल के दिनों की याद में अपने संस्मरण लिख दें ताकि आने वाली पीढ़ी को जिससे रास्ता भले न मिले परन्तु एक रोशनी का एहसास तो मिल ही जाएगा। सबों ने मेरी इस बात का मज़ाक ही उड़ाया और परिमल के एक मूल-उसूल ‘टालो यार’ का भरपूर पालन किया। अब ऐसा दायित्व निभाने के लिए सम्भवतः काल ने मुझी को अकेला पाकर धर-दबोचा है। मैंने पहले ही कहा है मैं तो हिन्दी का रिसर्च-स्कॉलर हूँ जो भरी दोपहरी में दरवाजा खटखटाते परिमल के बारे में पूछते-जाँचते घूमते हैं और न ऐसा अध्यापक हूँ जिसे शोध पूरी करके कोई डिग्री लेना है और जीविका तलाश करनी है।

अब इतने वर्ष बीत जाने के बाद यह जानकर और भी अज़ब लगता है कि उसे उसके ये सारे सदस्य जो अपनी एकांत विशेषताओं के कारण परिमल में एकत्र हो गये थे वे सचमुच कि किसी संग्राहालय में रखने के लायक जीव थे। साहित्य उनका कोई धंधा नहीं था न ही वे अपने ऊपर साहित्यकार का बिल्ला लगाकर घूमते थे। परिमल की गोष्ठी में न तो किसी से कुछ विशिष्ट लिखने का आग्रह किया गया और न उस व्यक्ति की आज़ादी में कभी कोई दखलअंदाज़ी की गई। अपनी सदस्यता, मित्रता, अटूट स्नेह संबंध, भरपूर आलिंगन को अपने जीवन का ध्येय रखते हुए दूसरे की नयी रचनाओं की ऐसी धज्जियाँ उड़ाते थे कि कोई दूसरा देखकर दाँतों तले उँगली दबा जाता था। यह सब कुछ परिमल में उसकी गोष्ठियों में और गोष्ठियों से बाहर भी दैनिक दिनचर्या में उसके ममत्व की प्रतिच्छाया में सभी के परिवार भी शामिल हो जाते थे। परिमल की उन गोष्ठियों में सशरीर उपस्थित न होकर भी हर सदस्य की गृहणी, उनकी माँएँ और अभिभावक इस तरह शामिल होते रहते थे कि-जैसे वे हर गोष्ठी से अभी-अभी बाहर निकले हैं। बहुदा सदस्य के परिवार उनमें आश्चर्यजनक रूप से शामिल हो जाते थे। इस मेल-जोल का ही कुछ अप्रत्यक्ष प्रभाव उन परिवारों पर पड़ता रहा और लिखने पढ़ने के साथ-साथ जीवन जीने का एक प्रतिमान स्वतः ही निर्मित होने लगा-कोई कारण नहीं था कि किसी के घर में यदि कोई कलह हो जाए तो परिमल का कोई दूसरा अंतरंग सदस्य उसमें दखलअंदाज़ी करके उसे शान्त न कर दे। यह भी एक अजूबा ही था कि परिमल का कोई सदस्य यदि अपनी विवाहिता पत्नी को छो़ड़ दे तो उसके लिए परिमल की आंतरिक बुनावट में कोई उबाल आने लग जाय। यह सब न पहले के साहित्यकारों ने अपने जीवन में कहा-सुना और माना न परिमल के बाद पीढ़ी ने इन मर्यादाओं पर कोई ध्यान देने की ज़रूरत समझी।

परिमल के प्रति आकर्षण का यह रहस्यमय लोक इतना विस्मयकारी था कि एक सामान्य लेखक भी परिमल का सदस्य होने की महत्वाकांक्षा रखने लगा था। परिमल कोई सदाचारी आश्रम नहीं था और न ही उसके अन्दर आचरण के कोई प्रतिमान घोषित करके कोई दीक्षा का फारम भरवाया जाता था परन्तु एक प्रभामंडल स्वतः उत्पन्न हो गया था जिससे कहीं न कही अंधकार और निराशाओं से लड़ने का एक जोख़म भरा शक्तिपुंज स्वतः ही निर्मित होने लगता था। जो इस प्रकिया में शामिल हुए केवल वे ही इसका अनुभव बता सकते हैं।

सच पूछिए तो परिमल आदमी के भीतर बैठे हुए उसके समग्र व्यक्ति से साक्षात्कार करने का मौका देता था। इसमें उसका लेखन एक औपचारिक उपादान था और उसके माध्यम से जो भीतर के बंद दरवाजों पर कभी उसका परिवार, कभी उसकी जीविका, कभी उसके हँसी-मजाक के उत्फुल्ल करने वाले क्षण, कभी प्रतिस्पर्धाएँ, कभी दोस्तों के द्वारा पिटाई और कभी पीठ थपथपाई जाना यह सब जिस तरह दस्तक देते रहते थे उसमें ही वे कवितायें जन्म लेती थीं, वे उपन्यास लिखे जाते हैं थे, वे प्रेम गाथायें जो अनकही रहती थीं-जो भीतर और बाहर के मनुष्य को निरंतर कलंक से बचे रहने का एक कवच प्रदान करती थीं। वह सब परिमल की गोष्ठियों के प्रति आकर्षण पैदा करता था। वह केवल बातें करने का मंच था कोई आंदोलन नहीं। परिमल कोई औपचारिक प्रस्ताव पास-फेल नहीं करता था केवल अपने कार्यों से उस नये रचनालोक की झलक छोड़ देता था।

परिमल का जैसा विवरण इस पुस्तक में मैंने जोड़-गाँठ कर इकट्ठा किया है वह शत-प्रतिशत तवारीख़ी इतिहास नहीं है। मेरी स्मृतियों में जो कुछ छिहत्तर वर्ष की आयु में बचा रह गया है उसी को मैंने अपनी आत्म-परक शैली में कह देने का जोख़िम उठाया है। यह सब भी बटोरना और लिखना कठिन ही होता यदि मेरी वंदिता ने तमाम दस्तावेज़ मेरी आलमारी से छाँटकर मुझे सौंपे न होते, मेरे अनुपम कालीधर ने मुझे लिखने की बम्बई में एकांत सुविधा न दी होती और बंधु बृजेश शुक्ला ने यह सब मेरे साथ बैठकर लिपिबद्ध करने में मुझे नियमतः अपना समय न दिया होता तो यह निश्चय है कि ये सब लिखना मेरे द्वारा सम्भव न होता। अपनी बातों के प्रमाण में मैं अपने दो घनिष्ट मित्रों के-धर्मवीर भारती और सर्वेश्वर दलाल सक्सेना के अत्यंत आत्मीय पत्र इस पूरे परिमल आख्यान के अंत में दे रहा हूँ जो परिमल का वास्तविक चित्रण उसके मूल अवधाणाओं में से कुछ-बिम्ब दे सकता है। परिमल के ये लोग अपनी ही धारणाओं की ऐसी जमकर खिल्ली उड़ाना जानते थे कि जिससे सामान्य एक नये दौर में जो कुछ मिला उसे ‘गूँगे के गुड़’ की तरह वही व्यक्ति अनुभव कर सका होगा जो उसमें रह चुका है। ‘अनबूड़े बूड़े तिरे जे सब अंग’।

65, टैगोर टाउन,
इलाहाबाद -2

केशवचन्द्र वर्मा


परिमल की अनवरत यात्रा



(परिमल-पर्व, 1961 के अवसर पर स्वागताध्यक्ष रूप में सुमित्रानंदन पंत द्वारा दिये गये प्रकाशित अभिभाषण से प्रस्तुत, प्रयाग। )



परिमल का प्रत्येक, सदस्य केवल सदस्य होकर परिमल परिवार का प्राणी भी है। परिमल अपने सदस्यों में एक सामाजिक शील, सांस्कृतिक संस्कार तथा परिष्कृत रूचि गढ़ने का प्रयत्न करता रहा है। उसने-समय-समय पर बाहर के पंक में सने उनके भावना के चरणों को अपनी सहानुभूति से धोया है एवं भीतर के अंधकार में भटकते हुए उनके मार्गों को विस्मृत राजपथ की ओर मोड़ा है। उसने संशय तथा नैराश्य के बोझ से झुकी हुई रीढों को अपनी सदभावनापूर्ण तीव्र आलोचना के आघातों से सीधी तथा ऊर्ध्व रखने का प्रयत्न किया है।

किसी भी देश का साहित्य उसकी अन्तश्चेतना के सूक्ष्म संगठन का घोतक हैः वह अन्तःसंगठन जीवन-मान्यताओं, नैतिकशील, सौन्दर्य-बोध, रुचि, संस्कार आदि के आदर्शों पर आधारित होता है। आज के संक्रांति काल में जब कि एक विश्वव्यापी परिवर्तन तथा केन्द्रीय विकास की भावना मानव-चेतना को चारों ओर से आक्रांत कर उसमें गम्भीर उथल-पुथल मचा रही हैं, किसी भी साहित्यिक तथा संस्कृति संस्था का जीवन कितना अधिक कंटकाकीर्ण तथा कष्टसाध्य हो सकता है, इसका अनुमान आप-जैसे सहृदय मनीषी एवं विद्वान सहज ही लगा सकते हैं। इन आधिभौतिक, आदिदैविक कठिनाइयों को सामने रखते हुए मेरा यह कहना अनुचित न होगा कि परिमल-पर्व का यह आयोजन आज के युग कि विराट् स्वप्न-संभावनाओं स्वल्प समारंभों में से एक है जो आप पिछली संध्याओं के पालने में झूलती हुई अनेक दिशाओं में, अनेक प्रभातों के नवीन सुनहली परछाइयों में जन्म ग्रहण करने का तुच्छ प्रयास कर रही है। ऐसे समय हम अपने गुरुजनों का आशीर्वाद तथा पुण्य दर्शन चाहते हैं। अपने समवयस्कों तथा सहयोगियों से स्नेह और सदभाव चाहते हैं, जिससे हम अपने महान युग के साथ पैंग भरते हुए क्षितिजों के प्रकाश को छू सकें। आप जैसे विद्वद्जनों के साथ हमें विचार-विनिमय तथा साहित्यिक आदान-प्रादन करने का अपूर्व संयोग मिल सके, यही हमारे इस अनुष्ठान का उदेश्य, इस साहित्यिक पर्व का अभिप्राय है।

परिमल का जन्म वैसे सन् 2944-45 की वर्ष संधि में हुआ था, जब एक वर्ष अपनी साँझों की धुँधली ललाइयों में डूब रहा था और दूसरा तारा-पथ के रुपहले कुहासों में लिपटा हुआ नवीन प्रभात के स्वार्णिम अंचल में बैठने का उपक्रम कर रहा था। 10 दिसम्बर, 1944 को संध्या के समय, एक निर्जन कल्पना-कक्ष में सात-आठ व्यक्तियों ने मिलकर अपने करुण हृदय की पलकों में परिमल स्वप्न का आवाहन किया था और अपनी नवोदित प्रतिभा के प्रकाश से उसे सँवारा था। युग के बदलते हुए बालुका-तट पर संध्या के उद्देश्य, साधन, सदस्यता आदि की रुपहली रेखाएँ खींच दी गई थीं !...तब से आज तक अपनी सात वर्षों की अविराम यात्रा में परिमल ने अनेक बाधा-विघ्नों के दुर्गम पर्वतों को लाँघते हुए युवकोचित उत्साह से अपने पैरों के बल चलना सीखा और रूपक की भाषा में धैर्यपूर्वक आँधी-तूफानों का सामना करते हुए अपनी नई युग की कल्पना को आगे बढ़ाने के लिए राह बनाने का प्रयत्न किया। अब तक कुल मिलाकर परिमल ने 140 गोष्ठियाँ कीं, जिनमें निबंध, कहानियाँ एकांकी पढ़े गये। साहित्य और कला-संबंधी विषयों पर समय-समय पर विचार विनिमय हुआ, जिसमें हिन्दी के प्रायः सभी लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वानों ने भाग लिया। अपनी काव्य-गोष्ठियों की स्मृति परिमल के सदस्यों के मन में अजस्त्र रूप से अपनी मन्द-मधुर-सुगंध बिखेरती रहती है-उनकी अपनी एक विशेषता रही है। इसके अतिरिक्त परिमल की गोष्ठियों में लोकगीतों के उत्सव तथा साहित्यकारों के अभिनन्दन भी आयोजित किये गये हैं, जिनका विस्तृत वर्णन आपको परिमल की विवरण-पत्रिका में मिलेगा। संक्षेप में, साहित्य का ऐसा कोई भी महत्वपूर्ण अंग नहीं बना जिसके सौन्दर्य की टहनी संस्था के आँगन में न रोपी गई हो। इन सात वर्षों में परिमल अपनी अनेक शाखाएँ फैला चुका है और इस दीर्घ अवधि में परिमल के अधिकांश संस्थापक सदस्यों को जीवन के उत्तरदायित्व ने नई पगडंडियाँ पकड़ने को बाध्य किया है और वे अपनी सद्भावनाएँ तथा मानसिक सहयोग की धरोहर हमारे पास छोड़कर काल की किसी होड़ में विलम गये हैं। किंतु परिमल को निरंतर नवीन सदस्यों की तरुणाई का रक्त मिलता रहा है और अपने ही हृदय की प्रेरणा से संस्था की ओर आकर्षित होते रहे। इस प्रकार अपने समवेत हृदय की प्रेरणा से संस्था की ओर आकर्षित होते हुए और अपनी सांस्कृतिक सिराओं में नवीन युग की गत्यात्मकता को प्रभावित करते हुए हम अपनी संस्था के व्यक्तित्व में पिछले आदर्शों का वैभव तथा नवीन जागरण के आलोक को मूर्तिमान करने का प्रयत्न करते रहे हैं।

आज के साहित्यिक अथवा कलाकार की बाधाएँ व्यक्तिगत से भी अधिक उसके युग केवल राजनीतिक-आर्थिक क्रांति का ही युग नहीं, वह मानसिक तथा आद्यात्मिक विप्लव का भी युग है जीवन मूल्यों तथा सांस्कृतिक मान्यताओं के प्रति ऐसा घोर अविश्वास तथा उपेक्षा का भाव पहिले शायद ही किसी युग में देखा गया हो। वैसा सभ्यता के इतिहास में समय-समय पर अनेक प्रकार के राजनीतिक तथा आध्यात्मिक परिवर्तन आये हैं, किंतु वे एक दूसरे से इस प्रकार संबद्ध होकर शायद ही कभी आये हों। आज के युग की राजनीतिक सांस्कृतिक चेतनाएँ धूप-छांव की तरह जैसे एक दूसरे से उलझ गयी हैं। मानव-चेतना की केन्द्रीय धारणाओं तथा मौलिक विश्वसों में शायद ही कभी ऐसी उथल-पुथल मची हो आज विश्व-सत्ता की समस्त भीतरी शक्तियाँ तथा बाहरी उपादान परस्पर विरोधी शिविर में विभक्त होकर लोक-जीवन क्षेत्र में घोर अशान्ति तथा मानवीय समान्यताओं के क्षेत्र में विकट अराजकता फैला रहे हैं आज अध्यात्म के विरुद्ध भौतिकवाद, ऊर्ध्वचेतन-अतिचेतन के विरुद्ध समूहवाद एवं जनतंत्र के विरुद्ध पूँजीवाद खड़े होकर मनुष्य का ध्यान स्वतः ही एक व्यापक अन्तर्मुख विकास तथा बहिमुर्ख समन्वय की ओर आकृष्ट हो रहा है। मनुष्य की चेतना नये स्वर, नये पतालों तथा नई ऊँचाइयों-नई गहराइयों को जन्म दे रही है। पिछले स्वर्ग-नरक, पिछली पाप-पुण्य तथा सद्-असद् की धारणाएँ एक दूसरे से टकराकर विकीर्ण हो रही हैं। आज मनुष्य की अहंता का विधान अपने ज्योति-तमस् के ताने-बाने सुलझा कर विकसित रूप धारण कर रहा है। मानव-कल्पना नवीनचेतना के सौन्दर्य-बोध को पकड़ने की चेष्ठा कर रही है। ऐसे युग में सामान्य बुद्धिजीवी तथा सृजनप्राय साहित्यिक के लिए बहिरतर की इन जटिल गुत्थियों को सुलझाकर नवीन भावभूमि में पर्दापण करना अत्यन्त दुर्बोध तथा दुःसाध्य प्रतीत हो रहा है इसलिए आज यदि वो स्वप्नस्त्रष्टा चेतना के उर्ध्वमुख रुपहले आकाशों के यौवन में प्रसारों में खो गया है तो कोई जीवन के बाह्मतम् प्रभावों के सौन्दर्य में उलझकर कला की संतरंगी उड़ानों में फँस गया है।

किंतु परिमल को हमने इस प्रकार के वाद-विवादों, अतिविवादों तथा कट्टरपंथी संकीर्णताओं के दुष्परिणामों से मुक्त रखने की चेष्टा की है। परिमल का पथ सहज बोध तथा सहज भावना पथ बना है। वह व्यापक समन्वय का पथ रहा है। ऐसा समन्यव जो कोरा बौद्धिक ही न हो, किन्तु जिसमें जीवन, मन, चेतना के सभी सदस्यों की प्रेरणाएँ सजीव सामंजस्य ग्रहण न कर सकें जिसमें बहिरंतर के विरोध एक सक्रिय मानवीय संतुलन में बंध सकें। परिमल साहित्यकारों तथा कलाकारों की सृजन-चेतना के लिए उपयुक्त परिवेश निर्माण करने का प्रयत्न करता रहा है, जिससे उनके हृदय का स्वप्न संचरण वास्विकता की भूमि पर चलना सीख कर स्वयं भी बल प्रात्त कर सके और वास्तविकता के निर्मम कुरूप वक्ष पर अपने पद-चिन्हों का सौन्दर्य भी अंकित कर सके। परिमल परिस्थितियों की चेतना को अधिकाधिक आत्मसात कर उसके मुख पर मानवीय संवेदना की छाप लगाने तथा उसे मानवीय चरित्र में ढालने में विश्वास करता आया है। उसने मानव-एकता के यांत्रिक सिद्धान्त को पारिवारिक एकता का रूप देकर ग्रहण किया है।

परिमल के सदस्यों के हृदय में जीर्ण-जर्जर रूढ़ियों तथा अहितकार प्रवृतियों के लिए सदैव विद्रोह की भावना तथा जीवनोपयोगी ऊँची नवीन मान्यताओं के लिए पर्याप्त साहस रहा है। उनके मन में पिछली पीढ़ी के प्रति गम्भीर आदर तथा नवीन प्रतिभाओं के प्रति अविराम तथा स्नेह तथा प्रोत्साहन की भावना रही है। उन्होंने प्राचीन मान्यताओं एवं आदर्शों को जिज्ञासापूर्वक परखा है, नवीन मूल्यों एवं स्थापनाओं के प्रति सदैव आग्रह भाव रखा है। आज के वे गंभीर अनुभवों, वर्तमान संघर्ष के तथ्यों तथा भविष्य की आशाप्रद संभावनाओंको साथ लेकर युवकोचित अदम्य उत्साह तथा शक्ति के साथ सतत् जागरूक रहकर नवीन निर्माण के पथ पर सब प्रकार की प्रतिक्रियाओं से जूझते हुए असंदिग्ध गति से बराबर आगे बढ़ना चाहता है जिसके लिए हमारे गुरुजनों के आशीर्वाद की छत्रच्छाया, तथा सहयोगियों की सदभावना का संबल अत्यंत आवश्यक है। हमारा परिवार जो एक मात्र संस्था न होकर मानवीय सृजन-चेतना तथा रचना-शक्ति का तीर्थ-स्थल भी है, इस युग के सभी प्रबुद्ध हृदयों तथा उर्वर मस्तिष्कों से स्नेह सहानुभूति तथा सब प्रकार के संग्रहणीय तत्वों का उपहार चाहता है, जिससे हम सब के साथ सत्य-शिव-सुन्दर मय साहित्य की साधना-भूमि पर, ज्योति-प्रीति-आनन्द की मंगलवृद्धि करते, सुन्दर से सुन्दरतर एवं शिव से शिवतर की ओर अग्रसर होते हुए, निरंतर अधिक प्रकाश, व्यापक कल्याण तथा गहन सत्य का संग्रह करते रहें।

हिन्दी हमारे लिए नवीन संभावनाओं की चेतना है, जिसे वाणी देने के लिए हमें सहस्रों स्वर, लाखों लेखनी तथा करोड़ों कंठ चाहिए उसके अभ्युदय के रूप में हम अपने साथ समस्त लोकचेतना निर्माण कर सकेंगे। उसको सँवार श्रृंगार कर हम नवीन मानवता के सौन्दर्य को निखार सकेंगे। जिस विराट युग में हिन्दी की चेतना जन्म ले रही है, उसका किंचित आभास, पाकर, यह कहना मुझे अतिशयोक्ति नहीं लगता कि हिन्दी को सम्पूर्ण अभिव्यक्ति देना एक नवीन स्वरों की तरह आज हम समस्त साहित्यकारों कलाकारों तथा साहित्यक संस्थाओं का हृदय से अभिनन्दन करते हैं और आशा करते हैं कि हमारे प्राणों, भावनाओं तथा विचारों का यह मुक्त समवेत आदान-प्रदान युग मानवता के समागम को तथा मानव हृदयों के संगम को अधिकाधिक सार्थकता तथा चरितार्थ प्रदान कर सकेगा धरती की चेतना आज नवीन सौन्दर्य चाहती है, वह सौन्दर्य मानवचेतना के सर्वांगीण जागरण का सौन्दर्य है। धरती की चेतना आज नवीन पवित्रता चाहती है, वह पवित्रता मनुष्य के अन्तर्मुख तप तथा बहिर्मुख साधना की पवित्रता है। धरती की चेतना आज नवीन वाणी चाहती है और वाणी मानव प्रेम की वाणी है। आज की साहित्यिक संस्था मानवता के अन्तरतम सम्मिलन का सृजन-तीर्थ है। इस सृजन तिथि पर एक बार मैं फिर आप मानव-देवों का हृदय से स्वागत करता हूँ।

-सुमित्रानंदन पंत






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