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जीवनी/आत्मकथा >> भौमर्षि

भौमर्षि

शुभांगी भडभडे

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :376
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 24
आईएसबीएन :8126310367

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आचार्य विनोबा भावे के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास। इस उपन्यास में भारत के आधुनिक इतिहास में आचार्य के कार्यों को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

Bhaumarishi - A hindi Book by - Shubhangi Bhadbhade - भौमर्षि - शुभांगी भडभडे

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मराठी की यशस्वी लेखिका शुभांगी भडभडे की आचार्य विनोबा भावे के प्रयोगधर्मी जीवन और कृतित्व को केन्द्रित कर लिखी गयी एक सशक्त औपन्यासिक कृति है- ‘भौमर्षि’। आजादी के दौर में विनोबा जी महात्मा गाँधी के पूरक व्यक्तित्व बनकर उभरे। गाँधीजी ने जिस ग्राम स्वराज के माध्यम से गरीबों के उन्नयन की परिकल्पना की थी उसको काफी हद तक वास्तविकता प्रदान की विनोबा जी ने। ग्यारह वर्षों से भी ज्यादा समय तक पूरे देश की निरन्तर पदयात्रा करते हुए विनोबा जी ने लाखों भूमिहीन किसानों में भूमि वितरित करके उन्हे आत्मनिर्भर बनाने का काम किया। विनोबाजी की कार्य-पद्धति के विश्लेषण के साथ ही, प्रस्तुत उपन्यास में बाधाओं में भी अडिग उनके व्यक्तित्व, खरी बातें कहने का आत्मबल, निश्चल स्वभाव और उनके मानसिक ऊहापोह का जैसा वर्णन किया गया है, उससे यह कृति अनजाने ही एक कालखण्ड का दस्तावेज बन गयी है। नयी पीढ़ी के लिये यह जानना आवश्यक है कि कभी इस देश में विनोबा भावे जैसे गरीबों के हमदर्द तथा किंवदन्तीतुल्य सन्त नेता भी जनमे थे। उनका व्यक्तित्व कितना विराट था, उनका कार्य कितना गुरुत्वपूर्ण था, इसे जानना, एक प्रकार से अपने देश को ही फिर से जानना है।

मराठी के इस बहुचर्चित उपन्यास का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करते हुये भारतीय ज्ञानपीठ ने महापुरुषों के प्रेरक व्यक्तित्व और कृतित्व पर रचनाएँ प्रकाशित करने की अपनी गौरवपूर्ण परंपरा निभाई है।
आशा है पाठकों के द्वारा इस कृति का भरपूर स्वागत होगा।

 

भौमर्षि के व्याज से

 

महात्मा गाँधी के आध्यात्मिक अनुयायी और भूदान यज्ञा के प्रणेता के रूप में आचार्य विनोबा भावे के व्यक्तित्व से समस्त संसार परिचित है। विनोबा महात्मा गाँधी के आदर्श का अनुशरण करते हुए सन् 1941 ई. तक पवनार और पवनार के परिसर में घूम-फिर रहे थे। सन 1921 से 1940 ई, के मध्य कालखण्ड में विनोबा परमधाम आश्रम में अखण्ड साधना और साधना में अनेक प्रयोग करते हुए ऋषितुल्य जीवन व्यतीत कर रहे थे। खान-पान के प्रयोग, कृषि के प्रयोग, स्वावलम्बन के, कांचनमुक्ति के घूमने-फिरने के, परिश्रम के, सूत-कताई के, गांव-गांव में स्वच्छता के-ऐसे अनेक प्रयोग करते थे। वे अत्यन्त प्रसन्न थे। जब सन् 1941 में महात्मा गाँधी ने प्रथम सत्याग्रही के रूप में विनोबाजी का चयन किया तो उसी समय समस्त संसार का ध्यान उनकी ओर गया। कांचनमुक्ति का प्रयोग वे पदयात्रा से सर्वोदय सम्मेलन के लिए तेलांगना की ओर चल पड़े।

तेलंगाना में अतिवादी, कम्युनिस्ट और जमींदारों के कारण साधारण जनता, दारिद्रयरेखा के नीचे जीनेवाली जनता, पिस रही थी। ऐसे समय में अहिंसा के मार्ग से साम्यवाद लाकर सबका कल्याण हो, महात्मा जी की इस इच्छा को विनोबा जी जानते थे। विनोबाजी कोई ‘वाद’ नहीं चाहते थे। वे चाहते थे साम्ययोग। इस साम्ययोग के प्रयोग इस पदयात्रा से सफल हों, यह विनोबाजी की इच्छा थी।

और फिर प्रारम्भ हो गई अवरित पदयात्रा। शिवरामपल्ली में सम्पन्न हुए सर्वोदय सम्मेलन में भाग लेकर वे लौट रहे थे कि मार्ग में हैदराबाद के निकट पोचमपल्ली में मुकाम करते समय चालीस हरिजन-परिवारों ने उनसे कृषि-भूमि की माँग की और उसी सभा में श्री रामचन्द्र रेड्डी ने 100 एकड़ भूमि का दान दिया। और विनोबाजी को दान-ब्रह्म का साक्षात्कार हो गया। साथ ही ईश्वर के अस्तित्व का साक्षात्कार हो गया। कर्मयोग पर अखण्ड निष्ठा रखने वाले विनोबाजी को जीवन का नया आयाम मिल गया। नया इतिहास रचा जाने लगा। विनोबाजी की पदयात्रा सम्पूर्ण भारत में प्रारम्भ हो गयी। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर के पीरपंजाल हिमाच्छादित पर्वत मालिकाओं तक और द्वारिका से गंगासागर तक तथा सीमावर्ती पूर्व-पश्चिम पाकिस्तान और बंग्लादेश तक यह पदयात्रा-भूदान यात्रा –आनन्द यात्रा-मैत्री यात्रा चल रही थी। विनोबाजी 52 हजार मील अखण्ड अवरित चले।

सम्पत्ति-दान, भूदान, ग्रामदान—इनकी गणना की जाए तो विनोबाजी ने विश्व विक्रम किया है, यही कहना पड़ेगा। स्वार्थी संसार की यह निःस्वार्थिता तथा हिंसाचारी जगत् की यह अहिंसा और इस अतिरेक से साम्यवाद विनोबा ही घटित कर सके। और भू दान में मिली हुई लाखों एकड़ भूमि अनासक्त ब्राह्मण योगी ने स्पर्श भी न करते हुए भूमिहीनों को दान कर दी।

ऐसा यह आनन्दमय व्यक्ति प्रथम साढ़े तेरह वर्ष पैदल घूमता रहा। बाद में दो वर्ष उसने मोटर से तूफानी यात्रा की। पैदल घूमने वाली इस यात्री के पैर कमल की पंखुड़ी जैसे कोमल थे। गाँव-गाँव में स्वच्छता करने वाले उसके हाथ अत्यन्त सुकोमल थे। उनकी बातें छोटे बच्चे जैसी निष्कपट और सरल सीधी थीं उनका कण्ठ छोटा था। परन्तु उनके गाने का स्वर अत्यन्त मधुर और उच्च था। कारागार की भित्तियों को पारकर वह आवाज वातावरण को प्रसन्न करती तथा ब्रह्मविद्या का रहस्य उनको आकर्षित करता था। उनकी प्राणिमात्र पर तथा प्रकृति पर ममता था। लोगों को भयंकर लगने वाले सर्प के विषय में भी वे अत्यन्त आत्मीयता से बात करते थे, ‘‘सर्प को विषैला कहते हैं परन्तु मनुष्य क्या कम विषैला है ? कोई न कोई डंक मारता ही रहता है। धनसत्ता, राजसत्ता, शस्त्रसत्ता, अहं और कर्तव्य के विषैले डंक समाज के लिए घातक नहीं होते हैं क्या ? सर्प तो किसानों का मित्र होता है। नब्बे प्रतिशत सर्प विषैले नहीं होते।’’

मृत्यु के विषय में उनका चिन्तन प्रगाढ़ था। सामने स्तम्भ है, यह आँखों को दिखाई दे रहा है, इसी प्रकार मृत्यु की कल्पना सतत हृदय में रखी जाए तो जीवन सहज और सुन्दर हो जाएगा। मृत्यु से सावधानी उन्होंने निरन्तर रखी। वे कहते थे, ‘‘शरीर नसर्गतः जैसे-जैसे जीर्ण होता जाएगा वैसे-वैसे प्रज्ञा की कला बढ़ती जानी चाहिए और जिस समय शरीर का पतन हो उस समय प्रज्ञा की पौर्णमासी होना चाहिए—इसको गीता शुक्ल पक्ष का मरण कहती है। इसके विपरीत शरीर के साथ प्रज्ञा क्षीण होकर मरण आना—यह कृष्ण पक्ष का मरण है।’’

श्रीमद्भागवद्गीता को विनोबाजी ने जिया है। गीता में कहा है, ‘प्रज्ञा प्रतिष्ठता।’ गीताई में लिखा है, ‘प्रज्ञा स्थिर हो गयी।’ उनकी माता श्रीमद्भगवद्गीता को पढ़ नहीं पाती थीं, इसलिए उन्होंने अत्यन्त विश्वास से कहा, ‘‘विन्या ! अरे तू ही गीता को मराठी में क्यों नहीं लिखता ?’’ और धुले की जेल में गीता-प्रवचन करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘अब गीताई मराठी में प्रकाशित हो रही है, परन्तु दिखाने के लिए माता तो है ही नहीं।’’

विनोबाजी की माता पर असीम भक्ति थी। जीवनभर वे माता को कभी कहीं नहीं भूले। माता के कथन का अर्थ बारम्बार स्मरण कर वे चकित होते थे। उनका मन भर आता था। ‘श्यामची आई’ (साने गुरुजी का उपन्यास) लोगों तक पहुँची परन्तु विनोबाजी ने मृत्यु तक माता की स्मृति को सुरक्षित रखा। इसके कारण ही ब्रह्मविद्या मन्दिर की स्थापना हुई।
श्री शंकराचार्य पर विनोबा जी की श्रद्धा थी। वे उनके प्रति अत्यधिक आकर्षित थे। ईश्वर का शोध करने के लिए वे काशी से हिमालय पर जानेवाले थे। कानडी (मद्रास) के शंकराचार्य, जो अद्वैत के पुरस्कर्ता तथा हिन्दू धर्म को पुनरुज्जीवन देने वाले थे, विनोबाजी के आदर्श थे। परंतु नियति की इच्छा नहीं थी कि विनोबा योगी-साधु-संन्यासी हों। इसीलिए काशी में निवास करते समय विश्वविद्यालय में दिए गए महात्माजी के भाषण को सुनकर ही वे प्रभावित होकर कोचरब आश्रम में आ गये। एक प्रकाण्ड पण्डित-एक अनन्य साधक-एक तत्ववेत्ता आखिर महात्माजी की अहिंसा का पुजारी हो गया और स्वामी विवेकानन्द की भाँति अहिंसा की ध्वजा पूरे हिन्दुस्तान में फहराता रहा तथा साम्ययोग का प्रसार करता रहा। महात्माजी की निष्ठा को विनोबाजी ने पहले से ही अंगीकार कर लिया था। वह उनकी प्रथम गुरु माता ने उनको दी थी। अहिंसा का कुछ पाठ उनको पितामह से मिला था। महात्माजी के सम्पर्क में आने पर विनोबाजी का स्वरण तेजस्वी हो उठा। वे अपने एकादश व्रत के चौसठवें अभंग (छन्द में कहते हैं :-

 

सत्य-अहिंसा हैं अभिन्न युगल
व्रतों की सकल जन्मभूमि।
या यों कहें कि वह मूल सत्य है
अहिंसा है उसकी शोभिता पुत्री।।

 

जीवनभर अहिंसा की उपासना करने वाले इस महामानव में अपना मार्ग स्वयं ही अतिशय परिश्रमपूर्वक आरेखित किया था। वे उत्तम गणितज्ञ थे। जीवन का गणित प्रस्तुत करते समय लोगों को वह कैसा दिखाई देगा। यह प्रत्येक व्यक्ति का प्रश्न है; परन्तु वे सामान्ययोगी, ज्ञानयोगी और शिक्षणमहर्षि थे। उनका ग्रन्थ ‘विचारपोथी’ एक दीपस्तम्भ है।
‘असत्य में शक्ति नहीं है। अपने अस्तित्व के लिए वह सत्य का आश्रय लेने के लिए विवश है।’
‘सत्य की व्याख्या नहीं है क्योंकि व्याख्या का ही आधार सत्य है।’

‘जो वाणी सत्य की रक्षा करती है, उस वाणी की रक्षा सत्य करता है।’
‘संन्यास नोट है। कर्म सिक्का है। मूल्य एक ही है।’
‘दुःख सहन करना—यह तितीक्षा की कसौटी सुख सहन करने में है।’
-ये विचार पोथी के कुछ वाक्य हैं।
विनोबाजी अनेक गुणों के रत्नाकर हैं, उनके तट पर मैं चकित खड़ी हूँ। उनकी विस्तृत गहन-गम्भीरता और व्यापकता का आकलन मेरी सामर्थ्य से परे है। उसका शोध और बोध करने में मैं असमर्थ हूँ। परन्तु जो सुन्दर दिखाई दिया, प्रतीत हुआ, जो मन में आया, मन को उदात्त और ईश्वरीय साक्षात्कार प्रतीत हुआ, परिश्रम का उत्तुंग शिखर दिखाई दिया, साधक की महान साधना प्रतीत हुई, उस योग्य का किंचित् दर्शन इस उपन्यास में है।

भौमर्षि-भूमि का ऋषि। जो भूमि पर प्रयोग करता रहा हो, जो भूदान का प्रचण्ड प्रवाह भूमिहीनों की ओर मोड़ता रहा, साढ़े तेरह वर्षों तक निरन्तर चलता रहा और मिला हुआ भूदान भूमिहीनों को देकर पुनः-पुनः रिक्त होता रहा—उस अनासक्त साधक की जीवन-शैली मुझको इतना प्रभावित करती रही कि मैं कह नहीं सकती।
विनोबाजी ने अनेक प्रयोग किए। उन प्रयोगों में सफलता भी उनको मिली है। परन्तु दो प्रयोगों से मैं अभिभूत हूँ। एक तो यह कि अँग्रेजों को भी हैरान कर देने वाले डाकुओं के राज्य में प्रवेश कर, हृदय परिवर्तन की अद्वितीय भूमिका मन में सँजोकर, निर्भय होकर उन तक जाना और डाकुओं द्वारा दस्युवृत्ति छोड़कर चम्बल के बीहड़ों में शरणागति स्वीकार करना। ये बातें सरल नहीं हैं।

विनोबाजी की प्रत्येक बात ही आध्यात्मिकता और व्यवहारिकता लिये हुए थी। उनके जीवन का प्रत्येक क्षण नये-नये प्रयोगों के लिए था। असंख्य प्रयोग करते हुए अपनी माता की तरह ‘अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक को’ सब कुछ अर्पण कर देने को उद्यत थे। रात में सोते समय एक नया विचार लेकर सोते थे। प्रातःकाल उस विचार का संकल्प करके दिन भर उस संकल्प के अनुसार आचरण कर सोने के पूर्व उस संकल्प की पूर्ति ईश्वर के चरणों में करते थे। संकल्प को सफल करने के लिए उनके दुर्बल प्रतीत होने वाले शरीर में दृढ़ निश्चयी और सशक्त मन था।

अनगिनत लोगों ने विनोबाजी को निकट से देखा है। उनके सहचर्य में अनेक लोग रहे हैं। पदयात्रा में उनके साथ चले हैं। निर्मला दीदी, कुसुम दीदी, महादेवी, मदालसा देवी आदि अनेक भगिनियाँ विनोबाजी के सहचर्य से धन्य हुई हैं।
विनोबाजी का दूसरा प्रयोग मृत्युसम्बन्धी था। विनोबाजी को मृत्यु की प्रतीत सदैव रहती थी। मृत्यु उनसे आकर मिले, इसकी अपेक्षा उनकी इच्छा थी कि वे मृत्यु तक पहुँचकर उसका स्वागत करें—यह बात वे कह चुके थे। मृत्यु जीवन की इतिश्री नहीं है, अपितु जीवन को पूर्ण विराम देने के बाद नवीन अनुच्छेद की, प्रगल्भ जीवन की, पुनः शुरुआत है। मृत्यु नितान्त रमणीय है। मृत्यु जीवन का विश्रामस्थल है। वे यही अनुभव करते थे। ‘मृत्यु के बाद क्या ?’ इस प्रश्न के रहस्य को समझने का वे प्रयत्न करते थे। उनका विचार था कि निद्रा लघु मृत्यु है।



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