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विनयपत्रिका और निराला के विनयगीत

मधुप कुमार

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 2400
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है निराला के विनयगीत...

Vinay patrika aur nirala ke vinayageet

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इलियट के परम्परा सम्बन्धी कथनों का सटीक प्रयोग करते निराला और तुलसी में समान्तरता स्थापित करना और उससे दोनों के बारे में निष्कर्ष निकालना गहरी समझ और प्रतिपादन क्षमता का प्रमाण है।

सत्यप्रकाश मिश्र

मेरी दृष्टि में पहली ही बार निराला जैसे महत्त्वपूर्ण आधुनिक कवि के विनय गीतों का ऐसा मौलिक सार्थक विश्लेषण तुलसी की रचना विनय पत्रिका को साथ-साथ पढ़ते हुए किया गया है। न तो यह परिपाटीबद्ध तुलनात्मक अध्ययन है न प्रभावी विवेचन तक सीमित है। इस दृष्टि से.....सारतत्व छठे और अन्तिम अध्याय ‘तुलसीदास और निराला की वेदना का तुलनात्मक अनुशीलन’ में उपलब्ध है ।
परमानन्द श्रीवास्तव


आत्म निवेदन का सीधा सम्बन्ध अन्तः करण के आयतन से है। इस तरह की रचनाओं में आत्म संवाद झलकता है। सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के इतिहास में तुलसीदास की ‘विनयपत्रिका’ और ‘निराला’ की ‘अणिमा’ से लेकर ‘सान्धकाकली’ तक की रचनाओं में यह स्वर विशेष रूप से सुनाई पड़ता है। अन्तर्मुखी होकर किया गया है आत्मविश्लेषण, अन्तर्द्वन्दों की गहराई, निर्भय होकर की गयी आत्म समीक्षा और सामाजिकता इन रचनाओं को अपने युग का प्रतिनिधित्व प्रदान करती हैं। तुलसीदास के ‘हौं’ और निराला के ‘मैं’ की प्रकृति, घनत्व और आत्मविस्तार का धरातल उन्हें भिन्न कालखण्डों में भी समानधर्मा बनाता है-‘उत्पस्यतेकोऽपि  समानधर्मा, कालोहयं-निरवधिर्विपुला च पृथ्वी’।

‘विनय-पत्रिका’ और निराला की परवर्ती रचनाओं में अभिव्यक्त विनय-भावना कपोल कल्पना या आत्म-प्रवंचना नहीं है। यह दोनों कवियों के जीवन की गाढ़ी कमाई और सर्जनात्मक उपलब्धि है। दार्शनिक स्तर पर जीवन जगत के प्रति द्वन्द्वात्मक अन्तर्दृष्टि एवं ‘अखिल कारूणिक मंगल’ के प्रसार की कामना ने भक्ति का साधारणीकरण कर दिया है। तुलसीदास का ‘हौं’ एवं निराला का ‘मैं’ अपने समाज से अन्तःक्रिया करते हुए बना है। आत्म-मुक्ति आत्म-प्रसार की भावना से अविच्छिन्न है। दोनों की विनय भावना का अंत न तो भाग्यवाद में होता है और न ही निराशा में। इस दृष्टि से ‘विनय पत्रिका’ का अंतिम पद और निराला की अंतिम रचना सहज तुलनीय है।

समर्पण

स्मृतिशेष माँ को
 स्खलन्ति स्वर्लोकादवनितलशोकापह्तये
जटाजूटग्रन्थौ यदति विनिबद्धा पुरभिदा।
अये निर्लोभानामपि मनसि लोभं जनयंता
गुणानामेवायं त जननि दोषः परिणयः।।
(पाण्डितराज जगन्नाथ, गंगालहरी)

आभार


 गुरुदेव प्रो० नामवर सिंह को-यमांश्रितो हि वक्रोऽपि.......
इसी भाव से प्रो० केदारनाथ सिंह को
प्रो० मैनेजर पाण्डेय को
डॉ० ओमप्रकाश सिंह को
आचार्य विष्णुकांत शास्त्री को सहयोग एवं स्नेहाशीः के लिए
प्रो० सत्यप्रकाश मिश्र एवं डॉ० परमान्द श्रीवास्तव को  प्रकाशन में सहयोग एवं उत्साहवर्धन हेतु
श्री कमलेश वर्मा एवं शुचिता को पाण्डुलिपि तैयार करने में सहयोग हेतु प्रणय कृष्ण, डॉ० सचिन चौधरी, प्रदीप कुमार शर्मा, परितोष मणि, उमाकान्त चौबे, ज्ञानेद्र कुमार ‘संतोष’ नवलेन्द्र कुमार सिंह, अमित कुमार, अचिन्त्य सिंह, मधुसूदन (डॉ०) संजय भारद्वाज सुबुद्धि नारायण दुबे......को सामग्री संकलन, प्रूफ संशोधन, विचार-विनिमय आदि में सहयोग के  लिए।  

भूमिका


आत्मनिवेदनपरक कविताओं की दृष्टि से ‘विनयपत्रिका’ भक्ति साहित्य का प्रतिनिधि ग्रंथ है। आधुनिक काल के साहित्य में सर्वाधिक विनयगीत निराला के यहां मिलते हैं। पारवर्ती रचनाओं में निराला की विनयभावना और निखरकर सामने आती है। इस दृष्टि से ‘विनयपत्रिका’ और ‘अणिमा’ से ‘सान्ध्यकाकली’ तक की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन महत्त्वपूर्ण हो सकता है। ‘विनयपत्रिका’ तुलसीदास की काव्ययात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव है इसकी भावभूमि वही नहीं है जो ‘रामचरितमानस’ की  है। ‘अणिमा’ की है। ‘अणिमा’ से निराला के यहाँ ‘नये ढंग  के यथार्थवाद’ की शुरूआत दिखायी पड़ती है। उसकी काव्यदृष्टि में छायावादी उच्छवास का अभाव पाया जाता है। इस नये यथार्थवाद के केन्द्र में विनयगीतों को रखा जा सकता है। तुलसीदास और निराला दोनों की परवर्ती रचनाओं में यथार्थबोध आत्मीय धरातल पर अभिव्यक्ति हुआ है, जिसमें करुणा की गहरी धारा अन्तर्व्याप्त है।  

बकौल रामविलास शर्मा महाभारत का कुरुक्षेत्र, धर्मक्षेत्र भले रहा हो, साहित्य क्षेत्र तो निराला के लिए सूकर खेत ही था। यह तो बात अलग है कि तुलसीदास की तरह निराला ज्ञान-नेत्र इस सूकर खेत में ही खुले (परम्परा का मूल्यांकन, पृ० 120) यह संयोग भी परम्परा की निरन्तरता की सूचना देता है। आचार्यो में इस ‘सूकरखेत’ को लेकर काफी विवाद है। प्रस्तुत पुस्तक के विषय पर भी ऐसी ही स्थिति है। प्रयास किया गया है कि इस विवाद में अन्तर्निहित  सामान्य सूत्रों की पहचान की जाये। अतः जोर निरन्तरता पर ही है, ‘विवाद’ पर ही नहीं। इस क्रम में दोनों महाकवियों के बीच अलगाव के बिन्दुओं को भी देखा गया है। वैसे यह अलगाव न होकर विशिष्टता है। इसी अर्थ में इसे विकास कहा जा सकता है। अपने आदर्श कवि तुलसीदास के साथ निराला के संबंधों के बारे में ‘अभिन्न’ और भिन्न’ की यही व्याख्या उचित है।

निराला की काव्यचेतना में तुलसीदास की विशिष्ट छवि निर्मित हुई है। उनके समीक्षात्मक निबन्ध और रचनाएँ मुख्य रूप से ‘तुलसीदास’ इसे स्पष्ट करते हैं। यह देखने की जरूरत है कि निराला की काव्यदृष्टि और काव्य संवेदना में तुलसीदास का कौन-सा स्वरूप अभिव्यक्त हुआ है। तुलसीदास के किन पक्षों को लेकर निराला आगे बढ़े हैं। किस रूप में तुलसीदास का रचनात्मक विस्तार निराला के यहाँ हुआ है। दोनों महाकवियों को जोड़ने वाली आधारभूत विशेषताएँ कौन-सी हैं ? यह एक तरह से उनकी आत्मछवि है।

तुलसीदास और निराला की भक्ति-भावना का तुलनात्मक अध्ययन यह दिखाता है कि दोंनों महाकवि अपने समय की विचारधारा और दार्शनिक मतवादों की समीक्षा करते हुए क्रमशः निस्साधनता की ओर बढ़ते हैं। दोनों कवियों की भक्ति भावना आत्म-समीक्षा के साथ ही समाज-समीक्षा भी है। शास्त्रीय अवधारणाएँ भक्ति संवेदना की व्याख्या में कहां तक सहायक सिद्ध हो सकती हैं-यह विचारणीय है। निराला की भक्ति–भावना पर तुलसीदास के अतिरिक्त कबीर और अन्य कवियों का भी गहरा असर है। निराला की भक्ति संवेदना में अनास्था एवं संशय के तत्त्व भी पाए जाते हैं। उनका आत्मनिवेदन शरणागति सामाजिक चेतना और आधुनिक चेतना और आधुनिक मन के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश है।

तुलसीदास मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के अन्तिम दौर के कवि हैं। निराला की ‘अणिमा’ से ‘साध्यकाकली’ तक की रचनाएँ उस समय की हैं, जब नवजागरण की लहर थम चुकी थी। तुलसीदास का ‘हौ’ और निराला का ‘मैं’ अपने समय के समाज से अन्तः क्रिया करते हुए बना है। उनके आत्मनिवेदन के स्वरूप को समझने के लिए यह आवश्यक है कि मध्यकालीन और स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज की विभिन्न संरचनाओं, स्तरीकरण समाज एवं अन्तर्विरोधों को देखा जाए। साहित्येतर अनुशासनों की मदद से मध्यकालीन एवं आधुनिक समाज के मध्य निरन्तरता और परिवर्तन के पहलुओं को समझा जा सकता है। दोनों कवियों का आत्मनिवेदनपरक साहित्य अपने समय की जटिलता एवं अस्पष्टता को स्पष्ट करता है।

‘विनयपत्रिका’ तुलसीदास की आत्मकथा है। इसमें तुलसीदास द्वारा निर्द्वन्द्व भाव से की गयी आत्मसमीक्षा, शील निरूपण, मंगलाशा, कलियुग का प्रकोप, निर्वासन और अकेलेपन की अनुभूति से समृबन्द्ध भाव संघातों के माध्यम से तुलसीदास का अन्तः एवं बाह्य संघर्ष प्रकट हुआ है।

निराला के यहाँ तुलसीदास की तरह भक्ति का कोई एक सुस्पष्ट अवलम्ब नहीं है। उनके यहाँ आलम्बन के आधारों में वैविध्य है। कई जगह अस्पष्टता है। इन्हें किसी एक पक्ष में आरोपित करना कठिन है। सुविधा के लिए मातृवन्दना अस्पष्ट आलम्बन या निर्गुण को सम्बोधित, मृत्यु सम्बन्धी सगुण या नाथ, प्रभु, हरि राम, कृष्ण, शिव आदि को सम्बोधित और प्रकृतिपरक विनयगीत जैसे उपवर्ग किए जा सकते हैं। निराला अपने आराध्य की विशिष्ट और आत्मीय छवि निर्मित करते हैं। उनकी विनय भावना परम्परागत भक्ति संवेदना से सम्बद्ध है और अलग भी। इससे सामाजिक चेतना, रागात्मक दृष्टि और मुक्तिकामना की अनुगूंज सुनाई पड़ती है ।

तुलसीदास और निराला की भक्ति-भावना में जितनी समानता है उससे कहीं अधिक वेदना की बनावट में है। दोनों कवियों का जीवन-चरित्र एवं रचनाएँ उनके अन्तः एवं बाह्य संघर्ष का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं ‘हौ’ ‘मैं’ की व्यापकता एवं गहराई यह बतलाती है कि आत्मनिवेदन की वेदना किस हद तक व्यक्तिगत और किस अर्थ में सामान्य है। तुलसीदास के यहाँ मध्यकालीन मनुष्य की नियति विडम्बना, संत्रास, दिखायी पड़ती है, तो निराला की वेदना का सम्बन्ध आधुनिक मनुष्य की चेतना से है।

यह पुस्तक अपने मूल रूप में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में पी० एच० डी० उपाधि हेतु प्रस्तुत शोध प्रबन्ध है। इसे लगभग ज्यों का त्यों प्रकाशित किया जा रहा है। इस विषय पर प्रकाशित सामग्री का अभाव है। दोनों कवियों के इस पक्ष को लेकर एक भी स्वतंत्र लेख मेरे देखने में नहीं मिला। विष्णुकान्त शास्त्री ने ‘बन शरण का उपकरण मनःनिराला’ नामक लेख में दोनों कवियों के तुलनात्मक आधारों की थोड़ी सी चर्चा की है। रामविलास शर्मा ने कवियों के तुलनात्मक आधारों की थोड़ी सी चर्चा की है। रामविलास शर्मा ने ‘निराला की साहित्यसाधना-2’ में निराला की विनयभावना पर स्वत्रंत रूप से नहीं लिखा है, लेकिन जगह-जगह इस दृष्टि से विचार किया है। निराला की भक्तिभावना पर सिर्फ दो स्वतंत्र लेख उपलब्ध हैं। जानकीबल्लभ शास्त्री का ‘भक्ति कवि निराला’ और दूधनाथ सिंह का उनकी पुस्तक ‘निरालाः आत्महन्ता आस्था’ में संकलित ‘प्रपत्ति-भाव’ नामक लेख। इस सामग्री का उपयोग करते हुए मुख्य रूप से रचनाओं को ही आधार बानाया गया है।

निवेदन है कि पुस्तक में ‘121’ का अर्थ ‘निराला रचनावली खण्ड-2’ है। रचनावली के अन्य खण्डों के लिए भी इसी संकेताक्षर का प्रयोग किया गया है। ‘विनयपत्रिका’ और ‘सान्धयकाकली’ के उल्लेख में एकरूपता का पालन नहीं हो सका है, क्योंकि इन दोनों पुस्तकों के नामों में भिन्नता मिलती है। कहीं ‘विनय-पत्रिका’ तो कहीं ‘विनयपत्रिका’। यही स्थिति ‘सान्धयकाकली’ के विषय में भी है। अन्य पुस्तकों के नामों में भी योजक चिन्ह (-) की त्रुटि मिल सकती है। भरसक प्रयास किया गया है कि उद्धरण संदर्भ–सूची और प्रूफ में अशुद्धि न रहे, फिर भी यदि दिखायी पड़े, तो इसमें कुछ मेरा और कुछ कम्प्यूटर का दोष है।  


-मधुप कुमार

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