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स्मृतियों का शुक्ल पक्ष

राम कमल राय

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2406
आईएसबीएन :00000

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बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध का एक गहरा साक्षात्कार इस कृति के माध्यम से प्रस्तुत होता है....

Smritiyon Ka Shukl Paksha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत कृति मनुष्य रस से अभिसिंचित कृति है। बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध का एक गहरा साक्षात्कार इस कृति के माध्यम से सम्पन्न होता है। साहित्य, संस्कृति, शिक्षा, राजनीति के क्षेत्र में जुड़े शीर्षस्थ व्यक्तियों के अन्तरंग संस्मरणों के द्वारा एक युग सामने आ खड़ा होता है। इन संस्मरणों के माध्यम से पाठक मनुष्यता का वह पहलू देख पाता है जिसके द्वारा उसका विश्वास मनुष्य में और गहरा होता जाता है। इसकी चेतना में यह आस्था घर करने लगती है कि सारी अन्धी गलियों को पार कर मनुष्य अन्ततः एक उज्ज्वल प्राणी है। उसके जीवन में कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्ष होते हैं। मनुष्यता के इसी शुक्ल पक्ष का आख्यान इन संस्मरणों में हुआ है जो जितना प्रामाणिक है उतना ही अन्तरंग।

भूमिका


स्मृतजीवी मेरा स्वभाव रहा है। कड़वी समृतियों को विस्मृतियों के गर्भ से सुलाते जाना और प्रेरक अनुभवों की सृमतियों को अपनी जीवन-धारा में प्रवाहित करते जाना मेरी प्रकृति का हिस्सा रहा है। जीवन में अनेक प्रकार के लोगों से सम्पर्क-संवाद रहा। जो अनुभव मेरे लिए समृद्धिकारी रहे और जिनका आख्यान दूसरों में भी समृद्धि का तत्त्व जोड़ सके, ऐसे अनुभवों और स्मृतियों को लिपिबद्ध करने की आकांक्षा मन में अर्से से थी। जैसे स्मृतिजीविता मेरे स्वभाव का हिस्सा रही, उसी प्रकार संस्मरण-लेखन भी मेरी प्रिय विधा रही है। अनेक यात्राओं और व्यक्तियों के, संस्मरण जब-तब पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा। शिमला का दो वर्षों का प्रवास मेरे लिये इन संस्मरणों को सहेजने में बहुत उपयोगी रहा। मैंने उन समृतियों में फिर से डूबने का मन बनाया। इस पुनरावगाहन में मुझे अनेक मूल्यवान अनुभव प्राप्त हुए। बहुत से संस्मरण नयी आभा के साथ कौंध आये।

निश्चय-सा बना कि उन्हें सहेजकर, यथासम्भव पुनर्लेखन कर पुस्तकाकार छपने दें।
मेरे जीवन में अनेक मित्र, सखा और अग्रज बारी-बारी से आये। जो आये टिकते गये। संबंधों के टूटने का इतिहास नहीं के बराबर है। सम्बन्ध बने तो बनते ही गये और दृढ़तर होते गये नहीं बनना था, वहां बने ही नहीं। साहित्य और राजनीति के क्षेत्रों से विशेष जुड़ाव था। राजनीतिक क्षेत्र से लोहिया की मृत्यु के पश्चात् जुड़ाव क्षीण होता चला गया। साहित्य के लोगों से बढ़ता गया। फिर भी जिन राजनीतिक व्यक्तियों से सम्बन्ध बने, उनका निर्वाह अन्त तक होता रहा। छात्र जीवन में ही जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, जे०बी० कृपलानी, डॉ० राममनोहर लोहिया और श्री अशोक मेहता को सुनने का अवसर मिला। जयप्रकाश जी को हाईस्कूल में था, तभी सुना। मऊ में। डॉ० राममोहन लोहिया को क्रिश्चियन कालेज, इलाहाबाद में सुना, जब इण्टर का छात्र था। उसी दौर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ का उद्घाटन करने आये आचार्य नरेन्द्र देव और आचार्य जे० बी० कृपलानी को सुना।

इलाहबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ में ही अशोक मेहता को सुना। प्रत्येक व्याख्यान की कुछ बातें जेहन में स्थाई रूप से बैठ गईं। आचार्य कृपलानी ने कहा था कि ‘‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापन के पश्चात् जब मैं गान्धी जी के पास गया और उनके आश्रम में रहने का प्रस्ताव किया तो उन्होंने कहा कि मेरे यहां एक खाना बनाने वाला रसोइया की जगह है मैं उस आदमी को देखता ही रह गया। वह आदमी चम्पारन में और बनारस में मेरा मेहमान रह चुका था। उसे मालूम था कि मैं बनारस में प्राध्यापक हूँ फिर भी मुझे रसोइया की जगह रखने का प्रस्ताव कर रहा है। मुझे लगा गान्धी मेरा सच्चा गुरु हो सकता है। मैं आश्रम में रहने लगा। चुपचाप अपना काम करता था। कांग्रेस के अधिवेशनों में आता था, परन्तु कभी बोलता नहीं था। सोलह वर्षों पश्चात् गान्धी के ही कहने पर मुझे अधिवेशन में बोलने को कहा गया। पहले ही व्याख्यान के पश्चात् मुझे अखिल भारतीय कांग्रेस का महासचिव बना दिया गया। मेरी पदोन्नति रसोइया से कांग्रेस के महासचिव के पद पर हुई थी। अब लोगों में धीरज नहीं है।’’

उसी व्याख्यान में कृपलानी जी की कही एक बात की स्मृति ज्यों की त्यों बनी हुई है। उन्होंने कहा था, ‘‘It makes my blood boil when I see a boy gazing at a girl in the compus ’’ फिर हिन्दी में उन्होंने कहा था ‘‘मैं विश्वविद्यालय में उन्मुक्त वातावरण का विरोधी नहीं हूँ। मैं इस बात का भी विरोधी नहीं हूँ कि विश्वविद्यालय के मुक्त वातावरण में लड़के और लड़कियाँ आपस में मिले सम्बन्ध बनायें। मैंने स्वयं हिन्दू विश्वविद्यालय के स्वतंत्र वायुमण्डल में प्रेम किया है और विवाह किया है। मुझे अशिष्टता और अभद्रता से विरोध है। लड़कों को लड़कियों से सीखना चाहिए। लड़को को पता भी नहीं चल पाता कि उन्हें देख लिया गया है। इस कला को लड़के क्यों नहीं सीख पाते ? वे क्यों घूर-घूरकर लड़कियों की तरफ देखते हैं ?’’ कृपलानी जी की दोनों बातें मेरी स्मृति में आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं।
आचार्य नरेन्द्र देव वाराणसी और लखनऊ विश्वविद्यालयों में कुलपति रह चुके थे। वे भी इलाहाबाद के छात्र संघ का उद्घाटन करने आये थे। छात्र संघ के अध्यक्ष श्री पद्माकर लाल ने उन्हें आमंत्रित किया था। आचार्य जी की एक बात मुझे आज तक याद है। उन्होंने कहा था ‘‘व्यक्ति में चरित्र और दृष्टि दोनों होना चाहिए। केवल चरित्र हो और दृष्टि न हो तो ऐसा व्यक्ति अपने साथ बहुतों को खन्दक में गिरा देगा। उसके चरित्र के नाते लोग उसके पीछे आयेंगे। दृष्टिहीनता के कारण वह स्वयं भी खाई में गिरेगा और अपने अनुयाइयों को भी गिरने देगा। दृष्टि है और चरित्र नहीं तो ऐसे व्यक्ति का कोई विश्वास ही नहीं करेगा। क्योंकि विश्वास तो लोग चरित्रवान का ही करेंगे।’’

आगे के जीवन में मेरा विकास क्रम ऐसा रहा कि पढ़ाई विज्ञान की रुचि साहित्य की और कर्मक्षेत्र राजनीति और अध्ययन का। इन चारों से जुड़े लोग मेरे जीवन में आये। अनेकों के सम्बन्ध बने, टिके। सबसे अधिक संबंध साहित्य के क्षेत्र में बने। राजनीति तो छूट ही गयी। सन् सड़सठ में डॉ० राममनोहर लोहिया के निधन और संयुक्त विधायक दलों की सरकारों के क्रियाकलापों से मोहभंग ने मुझे राजनीति से अलग कर दिया। साहित्य में ही खिंचाव बढ़ता गया। यूँ तो साहित्य और राजनीति में प्रायः प्रतिकूलता का ही सम्बन्ध रहता है परन्तु इस पुस्तक में इन दोनों बातों के पारस्परिक अनुकूल पक्षों का ही परिदृश्य उभर कर आता है।

अज्ञेय जी, नरेश मेहता जी से गहरे सम्बन्ध बने। अनेक साहित्यकारों से रिश्ते बने, जिनमें कुछ के ही संस्मरण इस पुस्तक में लिपिबद्ध हैं। परन्तु ऐसे व्यक्तियों की संख्या बड़ी है, जिनसे अच्छे सम्बन्ध बने और आज भी हैं, जिनके संस्मरण इस पुस्तक में नहीं हैं। पुस्तक के आकार की अपनी सीमा होती है। इलाहाबाद में भी अमृत राय जी, अमर कान्त जी, शेखर जोशी, श्री रवीन्द्र कालिया, श्रीमती ममता कालिया, दूधनाथ सिंह, नीलाभ और अनेक ऐसे साहित्यकार हैं, जिनसे समय-समय पर साथ रहा है। शहर के बाहर भी श्री भवानी प्रसाद मिश्र, श्री नेमिचन्द्र जैन, ज्ञान रंजन, श्री अशोक बाजपेई, अरुण कमल, प्रो० कमला प्रसाद पाण्डेय, डॉ० रमेश चन्द्र शाह, डॉ० प्रभाकर श्रोत्रिय, प्रो.युगेश्वर, श्री कैलाश चन्द्र पन्त, श्री गोविन्द मिश्र, श्रीगिरिधर राठी, श्रीमती राजी सेठ, कृष्णदत्त पालीवाल और अनेक ऐसे मित्र हैं जिनके बारे में लिखना एक प्रीतकर अनुभव होता। विश्वविद्यालय में श्री श्याम किशोर सेठ डॉ० गौरी चट्टोपाध्याय, प्रो० आकिल रिज़वी प्रो० जनक पाण्डेय प्रो० आर० सी ० त्रिपाठी, प्रो० मानस मुकुल दास डॉ० महेश चट्टोपाध्याय, डॉ० राजेन्द्र कुमार जैसे अनेक मित्र हैं जिनसे कन्धे से कन्धा मिलाकर काम किया। सभी के साथ कुछ बहुत गहरे सम्बन्ध अनुभवों की समृतियाँ हैं। उन्हें लिख सका होता तो यह पुस्तक और अधिक सम्पन्नतर होती।

राजनीति के क्षेत्र में तो ऐसी बड़ी संख्या है, जिसमें गहरी निकटता का संबंध रहा। मामा बालेश्वर दयाल, श्री जनेश्वर मिश्र, गौड़े मुरहरि, श्री लाडिली मोहन निगम, श्री विजय कुमार, प्रो० सत्यमित्र दुबे ऐसे ही नाम हैं।
भारतीय हिन्दी परिषद में कोषाध्यक्ष और प्रबंधमंत्री के रूप में 6-7 वर्षों तक काम किया। वहां दो अध्यक्षों से गहरे रिश्ते बने। प्रो० कल्याण मल्ल लोढ़ा और प्रो० राकेश कुमार शर्मा। दोनों ने मुझे अतुलित स्नेह और विश्वास दिया। उनके संस्मरण शामिल न कर पाना एक प्रकार की कृतघ्नता ही कहलायेगी। परन्तु वही स्थान और आकार की सीमा आड़े आई।

जिनके नाम इस पुस्तक में नहीं आये और जिन्होंने मेरे जीवन के किसी-न-किसी भाग में महत्त्वपूर्ण रोल अदा किया है, उनसे मैं क्षमा याची हूँ। मन के चेतन और अन्तश्चेतन हिस्सों में उनकी मूल्यवान स्थिति है। उनके प्रति मैं सदा आभारी रहूँगा। इन संस्मरणों को लिपिबद्ध करने के पीछे मेरी दृष्टि समष्टि-मूलक रही है। जिन व्यक्तियों ने जिन अनुभवों ने मुझे उदात्त बनाया, आस्था सम्पन्न बनाया उन्हीं व्यक्तियों और अनुभवों को लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है। दृष्टि यह रही है कि पाठक भी उन अनुभवों से कुछ वैसी ही सम्पन्नता अनुभव करेगा। जीवन में बहुत कुछ ऐसा भी घटित होता है जिन्हें भूल जाना ही श्रेयकर होता है। मैंने भी उन अनुभवों को लिखना आवश्यक नहीं समझा, जो मनुष्य के कृष्णपक्ष को उजागर करते हैं। जिस देवासुर संग्राम में हम सदा जूझते रहते हैं, उनमें जो देव-पक्ष है उस है रेखांकित करना मैंने उचित समझा। उसी में समष्टि का हित है। परन्तु ये संस्मरण कहीं से भी कल्पना-प्रसूत नहीं है। इनमें केवल यथार्थ है। भरकस जीवन का उज्जवल यथार्थ। उन्हें पढ़ कर पाठक को यदि कुछ संस्पर्शी मिलता है, संस्कारी मिलता है, तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूँगा। संस्मरणों के प्रत्येक चेहरे हमारे जीवन के यथार्थ हैं।

यह संयोग ही रहा कि निराला, पन्त, महादेवी, अज्ञेय, नरेश मेहता जैसों को देखने और जानने का अवसर मिला। कइयों से निकट सान्निध्य भी बना। उनके साथ बीते हुए क्षण मेरे जीवन के अमूल्य क्षण हैं। पाठकों को उन क्षणों को समर्पित करते हुए मुझे अतिशय आह्लाद का अनुभव हो रहा है।
पुस्तक सुधा वासन को समर्पित है। सुधा वासन भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में मेरे साथ ही अध्येता रहीं। वे मूलतः मद्रास की रहनेवाली थीं, परन्तु अमेरिका के येल विश्वविद्यालय में पर्यावरण-विज्ञान की प्राध्यापिका थीं। वे एक कुशाग्र बुद्धि, बहुपठित, संवेदनशील एवं तेजस्वी महिला हैं। मैंने उन्हें अपनी बेटी का स्नेह दिया और उन्होंने मुझे पिता का सम्मान।

इन संस्मरणों को पाण्डुलिपि के रूप में देखने की कृपा मेरे अग्रज और मित्र प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने की। उनकी अनुशंसा मेरी निधि है। लोकभारतीय के दिनेश जी और विनीत जी ने इन्हें प्रकाशित किया। मैं उनके प्रति भी आभारी हूँ।

-रामकमल राय


आँखों देखे निराला



सन् पचास में ईविंग क्रिश्चयन कालेज में इण्डरमीडिएट करने इलाहाबाद आया था। उन दिनों का रिवाज़ ही यह था कि पढ़ने में जो लड़के अच्छे होते थे, उन्हें विज्ञान पड़ने भेज दिया जाता था। प्रथम श्रेणी और अंग्रेजी में विशेष योग्यता अर्थात् पचहत्तर प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त कर मैंने भी हाईस्कूल पास किया था। उसी तर्क से मैं भी गणित, भैतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र पढ़ने लगा था। मेरे घर का वातावरण साहित्य का था। मेरे पितामह रामचरितमानस के मर्मज्ञ थे। बचपन में ही मैंने भी पूरा रामचरितमानस पढ़-सुन लिया था। हाईस्कूल में ही प्रेमचन्द, प्रसाद और शरत चन्द्र का पूरा पाठ कर चुका था। साहित्यकारों के प्रति भी गहरी श्रद्धा का भाव मन में रहता था। इसी मानसिक पृष्ठभूमि के साथ इलाहाबाद आया था। इलाहाबाद में उन दिनों निराला जी, पन्त जी, महादेवी जी एवं इलाचन्द्र जोशी जी जैसे साहित्यकार रहते थे। इन सभी के मन में गहरे आकर्षण का भाव था।

साहित्यकार संसद की स्थापना का समारोह था। गंगा के तट पर रसूलाबाद में यह समारोह आयोजित था। देश भर से अनेक भाषाओं के साहित्यकार इलाहाबाद में एकत्र हुए थे। संसद की स्थापना नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के हाथों होनी थी। मैं इण्टर विज्ञान का छात्र था। क्रिश्चियन कालेज शहर के दक्षिणी छोर पर था और रसूलाबाद उत्तरी छोर पर। परन्तु समाचार-पत्रों में पढ़ कर किराये की साइकिल से मैं रसूलाबाद पहुँच गया था। पूरा दिन वहीं रहा। अनेक साहित्यकारों को पहली बार देखने का अवसर मिला। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, निराला, इलाचन्द्र जोशी सभी को एक-एक कर पहचाना।

भव्य व्यक्तित्व वाले रामधारी सिंह दिनकर को भी पहले-पहल देखा। दूसरी भाषाओं में भी अनेक साहित्यकार थे। हिन्दी के युवा साहित्याकारों का भी जमघट था। समारोह के केन्द्र में मैथिलीशरण गुप्त और महादेवी जी थीं। परन्तु लोगों में विशेष आकर्षण निराला जी को लेकर था। मैं केवल श्रद्धालु भाव से घूम रहा था। रात में एक कवि गोष्ठी हुई थी। ‘दिनकर’ ने अपनी कविता ‘व्याल विजय’ सुनाई थी। ‘‘तान-तान फन व्याल कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।’’ यह पंक्ति कई दिनों तक मेरे मन में गूँजती रही। पूरी कविता की चेतना में निनादित होती रही। इलाहाबाद के साहित्यिक वातावरण का एक सघन परिचय हुआ जो मेरी आगे की यात्रा का एक मील का पत्थर बन गया।
जाड़े के दिन थे। मेरे पिता जी इलाहाबाद आये हुए थे। वे पेशे से वकील थे, परन्तु साहित्य-प्रेम उनके भीतर भी गहरा था। वे मेरे छात्रावास में ही ठहरे थे।


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