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सम्पूर्ण सूरसागर- खण्ड 5

किशोरी लाल गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :572
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2412
आईएसबीएन :81-8031-041-8

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इस खण्ड में भ्रमरगीत, दशम स्कन्ध उत्तरार्द्ध एवं एकादश तथा द्वादश स्कन्ध है....

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Sampoorna Soorsagar Lok Bharti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पण

अपने शोध प्रबन्ध सूरदास (1943 ई०) में ‘साहित्य लहरी’ एवं ‘सूर सारावली’ को
27 पुष्ट तर्कों से महाकवि सूर की रचना न स्वीकार करने वाले,
‘महाकवि सूर एक पुनश्चिन्तन’ (1983 ई०) में
साहित्य लहरी का रचना काल स० 1677
होने की संभावना करने वाले
स्व० डॉ० बृजेश्वर वर्मा

एवं

सूर निर्णय (द्वितीय संस्करण 1945 ई०) अष्टछाप परिचय (1950 ई०) सूर सर्वस्व (बसंत पंचमी 1983 ई०) जैसे सूर सम्बन्धों प्रामाणक ग्रन्थों के रचयिता एवं सूर सागर के दो संस्करणों श्री कृष्ण लीलात्मक  एवं द्वादश स्कंधात्मक की चर्चा करने वाले
स्व. बन्धुवर प्रभुदयाल जी मीतल तथा
‘सूर सारावली’ एक प्रमाणिक रचना लेखन
डा० प्रेम नारायण टंडन
की पुण्य स्मृतियों को सादर समर्पित


प्राक्कथन



चंदवरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट सूरदास के द्वादश स्कंधात्मक सूरदास का तृतीय भाग प्रस्तुत है। इसमें दशम स्कंध पूर्वार्द्ध की मथुरा लीला, गोपी विरह, एवं  भ्रमरगीत तथा दशम स्कंध उत्तरार्द्ध, एकादश एवं द्वादश स्कंध हैं।

नागरी प्रचारिणी सभा के सूरसागर में लीलाएं मुक्तक  पदों में संकलित हैं। कुछ लीलाएं प्रबन्ध रूप में दुहरा दी गयी हैं। इन्हें ‘दूसरी लीला’ कहा गया है। इन दूसरी प्रबंधात्मक लीलाओं को मैंने सूर नवीन की कृति समझा है और इन्हें तृतीय खंड में अलग से अंत में दे दिया है। साथ ही हर रचना का संकलन-सूत्र भी दे दिया है।

इन सूर के विनय संबंधी 53 पद मैंने स्वीकार किए हैं। लघु रचनावली की अंतिम रचना के रूप में इन्हें मैंने अंत में संकलित कर दिया है। विनय के पद मुक्तक हैं।

ग्रंथ के अंत में दशम, एकादश एवं द्वादश स्कंधों के पदों की अनुक्रमणिका दे दी गई है। लघु रचनावली के अंतर्गत संकलित विनय-पदावली की भी अनुक्रमणिका दी गई है।

इस खंड में प्रकाशन के साथ द्वादश स्कंधात्मक सूरसागर का सटीक संस्करण संपूर्ण हो रहा है। सरल से सरल और गूढ़ कूट पदों की टीका यहाँ कर दी गई है। सरल पदों को सरल है, कहककर छोड़ा नहीं गया है।
इस अवसर पर आभार प्रदर्शन परम पुनीत कर्तव्य है। अभिनव भरत पंडित सीताराम चतुर्वेदी ने ‘सूर ग्रंथावली’ के संपादक-मंडल में यदि मुझे सन्निविष्ट न किया होता तो सूर के स्वाध्याय में शायद मेरी अभिरुचि न हुई होती। इसी माध्यम से मुझे दो सूरदासों एवं सूरसागरों की बात सूझी और मैं दोनों सूरसागरों के विश्लेषण में दत्त-चित्त हुआ चतुर्वेदी जी मेरे गुरु भी हैं। उन्होंने मुझे बी.टी. में 1943-44 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ाया है। सबसे पहले मैं उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ।

सूरसागर के विशिष्ट पाँचों भागों के प्रकाशन की योजना स्वर्गीय कृष्णचन्द्र बेरी हिन्दी प्रचारक संस्थान, पिशाच मोचन, वाराणसी ने स्वीकार की थी, उन्होंने ही उनके टीका लिखने की प्रेरणा दी और एतदर्थ दस हजार रुपये अग्रिम भी प्रदान किए। अपनी रुग्णता के कारण वे इसे प्रकाशित न सके और 10 अप्रैल 2002 को उन्होंने सारी पांडुलिपियाँ मुझे लौटा दीं। वे 1 जुलाई 2002 को सुरलोक सिधारे। अब मैं उनका आभार क्या प्रकट करूँ, उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूँ।

6 अगस्त 2002 को लोकभारती, प्रयाग के प्रख्यात प्रकाशन  स्वयं मेरे घर पधारे उन्हें मेरे यहाँ लाने का श्रेय डॉ. बदरीनाथ कपूर, वाराणसी को है। श्री ग्रोवरजी ने सूरसागर की डूबती नाव को उबार लिया। एतदर्थ मैं ग्रोवर साहब एवं डा० कपूर का आभार स्वीकार करता हूँ और प्रसन्न हूँ।

इन सूरसागरों के पाठकों की रचनात्मक प्रतिक्रिया के लिए अनुग्रहीत होऊँगा।


सुधवै, भदोही
30 जून 2003

किशोरी लाल गुप्त
एम.ए.पी.एच.डी लिट्
साहित्य वचस्पति


दशम-स्कंध पूर्वाद्धा का शेषांश

अक्रूर-व्रज-आगमन


2380/3540 रागबिलावल

फागु रंग करि हरि रस राख्यौ । रह्यौ न मन  जुवतिन के काख्यौ ।।
सखा संग सबकौ सुख दीनौ । नर-नारी मन हरि हरि लीनौ ।।
जो जिहिं भाव ताहि हरि तैसें । हित कौं हित नैसनि कौं नैसैं।।
महरि नंद पितु मातु कहाए । तिनही के हित तनु धरि आए।।
जुग-जुग यह अवतार धरत हरि । हरता-करता विश्व रहे भरि।।
धरनी पाप-भार भइ भारी । सुरनि लिए संग जाए पुकारी ।।
त्राहि-त्राहि श्रीपति दैत्यारी ।  राखि लेहु मोहि सरन उबारी।।
राजस रीति सुरनि कहि भाषी। भए चंद सूरज तहँ साखी।।
छीर-सिंधु अहि-सयन मुमारी । प्रभु स्रवननि तहँ परी पुकारी।।
तब जान्यो कमला के कंता। दनुज भार पुहुमी मैमंता।।
सिंधु मध्य बानी परगासी । भुर अवतार कहयौ अबिनासी ।।
मथुरा जनमि गोकुलहिं आए। मातु पितासुत हेत कहाइ।।
नारद कहि यह कथा सुनाई । व्रज लोगनि सुख दियौ कन्हाई।।
नंद जसोदा बालक जान्यौ । गोपी कामरूप करि मान्यौ।।
प्रथम पियत पय बकी बिनासी । तुरत सुनत नृप भयौ उदासी ।।
इहिं अंतर बहु दैत्य सँहारे । इहिं अंतर लीला बहु धारे।।
को माया कहि सकै तुम्हारी । बाल तरुन सब न्यारी-न्यारी।।
धन्य धन्य से व्रज के वासी । बस कीन्हे जिन ब्रह्म उदासी।।
अकल-कला, निगमहु तैं न्यारे । तिन जुवती बन बननि बिहारे ।।
अग्या इहै मोहिँ प्रभु दीन्हौ । यह अवतार जबहिँ प्रभु लीन्हौ।।
दैत्य-दहन सुर के सुखकारी । अब मारौं प्रभु कंस प्रचारी ।।
यह सुनि हँसे सुरनि के नाथा । जब नारद गाई यह गाथा ।।
श्री मुख कहयौ जाइ समुझावहु । नृप आयसु करि मौहिं बुलावहु ।
अंजलि जोरि राज-मुनि हर्षे । कृपा वचन तिनसौं हर  बर्षे।।
तुरत चले नारद नृप पासा । यहै बुद्धि मन करत प्रकासा।।
संकरषन हिरदै प्रगटाई। जो बानी रिसि गए सुनाई।।
आदि पुरुष उद्यौत बिचारी। सेष रूप हरि के सुखकारी।।
अंतरजामी हैं जगताता । अनुज हेत जग मानत नाता। ।
इहै बचन हलधर कहि भाख्यौ । सुनि-सुनि स्रवन हृदय हरि राख्यौ।।
तुम जनमे भू भार उतारन । तुम हौ अखिल लोक से तारन
तुम संसार सार के सारा । जल-थल जहाँ तहाँ बिस्तारा।।
तब हँसि कहि भाँत सौं बानी ।  जो तुम कहत बात मैं जानी।।
कंस-निकंदन नाम कहाऊँ । केस गहौं, भुव मैं घिसटाऊँ ।
इहि अंतर मुनि गए नृप पासा। मन मारे मुख करे उदासा ।।
हरषि कंस मुनि निकट बुलायौ । आदर करि आसन बैठायौ ।।
कैसौ मुख, क्यौ रिषि मन मारे । कह चिन्ता जिए बढ़ी तुम्हारैं।।
नारद कहयौ सुनौ हो राव । कह बैठे, कछु करहु उपाव ।।
त्रिभुवन मैं उन हरि को ऐसौ । देख्यौ नंद-सुवन व्रज जैसौ ।।
करत कहा रजधानी ऐसी । यह तुमकौं उपजी कहौ कैसी ।।
दिन-दिन भयौ प्रबल वह भारी। हम सब हित कौ कहैं तुम्हारी ।।
तब गर्वित नृप बोले बानी । कहा बात नारद तुम जानी।।
कोटि दनुज मो-सरि मो पासा । जिनकौ देखि तरनि-तनु त्रासा ।।
कोटि-कोटि तिनके सँग जोधा । को जीवै तिनके तनु क्रोधा ।।
मल्लनि कौ बल कहा बखानौं । जिनके देखत काल डरानौं ।।
कोटि धनुर्धर संतत द्वारैं । बचै कौन तिनके जु हँकारै ।।

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