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जिल्लत की रोटी

मनमोहन

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2413
आईएसबीएन :81-267-1200-7

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प्रस्तुत है 1985 के बाद की चुनी हुई कविताओं का संग्रह...

Jillat Ki Roti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मनमोहन 1969 से कविता लिख रहे हैं और उनके मित्रों की एक ख़ासी तादाद कम से कम पिछले तीस साल से उनके किसी कविता संग्रह का इंतिज़ार कर रही है। ‘ज़िल्लत की रोटी’ नाम का यह संग्रह मनमोहन की 1985 के बाद की कविताओं का संक्षिप्त चयन है। इससे पहले की कविताएँ एक अलग संकलन की माँग करती हैं और बाद की कविताओं से भी एक किताब और बनती है। मनमोहन बेशक उन कवियों में है जो ‘साहिबे-दीवान’ बनने से पहले ही अपनी पीढ़ी की प्रतिनिधि आवाज़ बन जाते हैं।

मनमोहन की कविता में वैचारिक और नैतिक आख्यान का एक अटूट सिलसिला है। उनके यहाँ वर्तमान जीवन या दैनिक अनुभव के किसी पहलू, किसी मामूली पीड़ा या नज़ारे के पीछे हमेशा हमारे समय की बड़ी कहानियों और बड़ी चिन्ताओं की झलक मिलती रही है। वह मुक्तिबोधियन लैंडस्केप के कवि हैं। उनकी भाषा और शिल्प को उनके कथ्य से अलग करना नामुमकिन है। यहाँ किसी तरह की कविताई का अतिरिक्त दबाव या एक वैयक्तिक मुहावरे के रियाज़ की ज़रूरत नहीं है, एक मुसलसल नैतिक उधेड़बुन है जो अपने वक्त की राजनीतिक दास्तानों और आत्मीय अनुभवों के पेचदार रास्तों से गुज़रकर उनकी भाषा और शिल्प को एक विशिष्ट ‘टेक्स्चर’ और धीमा लेकिन आश्वस्त स्वर और एक वांछनीय ख़ामोशी प्रदान करती है। मनमोहन अपनी पीढ़ी के सबसे ज़्यादा चिंतामग्न, विचारशील और नैतिक रूप से अत्यंत शिक्षित और सावधान कवि हैं। एक मुक्तिबोधीय पीड़ा और महान अपराधबोध उनके काव्य संस्कार में हैं, इन्हें एक रचनात्मक दौलत में बदलने की प्रतिभा और तौफीक उनके पास है और इनका इस्तेमाल उन्होंने बड़ी विनम्रता, वस्तुनिष्ठता और सतर्कता से किया है।

मनमोहन की कविता में एक ‘गोपनीय आँसू’ और एक ‘कठिन निष्कर्ष’ है। इन दो चीज़ों को समझना आज अपने में कविता और समाज के, राजनीति और विचार के और, अन्ततः रचना और आलोचना के रिश्ते को समझना है।

 

भूमिका

 

 

इन दिनों अक्सर यह लगता है कि हम किसी महानाटक के बीचों-बीच उलझे हुए हैं। हालाँकि यह पता करना आसान नहीं कि इसे कब और कितना हम बाहर होकर देख रहे हैं और कब अपना आपा खोकर इसमें इसी के एक किरदार की तरह शरीक हो गए हैं। इस नए रंगमंच पर मुफ़्तखोर लम्पट पूँजी के कुटिल खेलों ने लगभग एक विराट बम्बइया फिल्म की शक़्ल अख़्तियार कर ली है। पिछले दिनों अन्तर्राष्टीय और राष्टीय पैमाने के कितने ही हत्या- अनुष्ठानों और फासीवादी पूर्वाभ्यासों को हमने दूरदर्शन के ‘सोप ऑपेरा’ की तरह कमरों में बैठकर देखा है।

नई दुनिया के ज़िद्दी और मग़रूर शहंशाह अपना निरंकुश बुलडोज़र लेकर इन दिनों राष्ट्र-राज्यों की सरहदों, राजनीतिक-आर्थिक संरचनाओं और पेचीदा रास्तों को मिस्मार करते और रौंदतें हुए एक नया भूगोल रचने का दुर्दांत अभियान चला रहे हैं। नए नक़्शे में दुनिया की शक़्ल एक खुले चरागाह की है। इस मुहिम के नतीजे में तबाही, अफ़रातफ़री और बदहवासी का भयानक दृश्य सामने है। यह एकल प्रलय जैसा दृश्य है।

अभी इस विध्वंसलीला की शुरुआत है लेकिन यह स्पष्ट है कि सामाजिक संरचनाओं में विस्फोटों और अन्तःस्फोटों की एक श्रृंखला चल पड़ी है और उखड़ने-उजड़ने और टूटने-बिखरने के विनाशकारी भीषण दृश्य अभी और भी देखने होंगे।
हम अपने सामने पुराने नवजागरणकालीन उदारवाद का आत्मसमर्पण, पतन और विसर्जन घटित होते हुए देख रहे हैं। ऐसे में नागरिक-समाज के निर्माण की विशद् कार्यसूची को परे धकेलते हुए राज्य, समाज और संस्कृति के निरंकुश पुनर्गठन का विचार प्रचारित और प्रतिष्ठित किया जा रहा है। शासक तबकों, नए दौलतमंदों और खाते-पीते मध्यवर्ग में ख़ासतौर पर लोकप्रिय ‘कल्चरल लुंपेनिज़्म’ हमारे युग में सांस्कृतिक जागरण की शक्ल में सामने आ रहा है। ज़ाहिल उपभोग और अपराध की संस्कृति सामाजिक प्रतिक्रियावाद की ताकतों और फासीवादी तत्त्वों के कुटिल गठजोड़ से इसे भीड़ का उन्माद जगानेवाले अन्धलोकवाद के आक्रमण रूपों में पेश कर रही है। नृशंसता के इस अश्लील उत्सव के पीछे मनुष्यद्रोह की विचारधारा और निर्बल-निर्धन आबादी के प्रति हिंसक हिक़ारत के भाव को आसानी से देखा जा सकता है।

परिस्थिति के जिस तर्क से असंगठित, असहाय, उत्पीड़ित आबादियाँ भारी मार झेल रही हैं; उसी तर्क से रचना, विचार या आविष्कार की अभी तक उपलब्ध जगह तेज़ी से गायब हो रही है। भोलेभाले बन कर लेखन या कविताई करना आज भी कोई मुश्किल काम नहीं है। लेकिन एक गम्भीर रचनाकार के लिए इतिहास की इस घड़ी की उद्धिग्नताएँ, बेचैनियाँ, विकलताएँ कशमकश और दबाव काफ़ी तीखे और कठिन हैं, लेकिन अनिवार्य भी हैं। हालाँकि उनसे बचने के तमाम रास्ते हमेशा उपलब्ध हैं।

मनुष्य और उसकी रचनात्मक ऊर्जा के अवमूल्यन और उसके स्वत्व और उसकी गरिमा की तिरस्कारपूर्ण अवहेलना के जिस अपदृश्य से इस समय हम रूबरू हैं उसे देखने और खड़े रहने के लिए भी काफी जीवट चाहिए। कहा जा सकता है कि समकालीन रचनाशीलता ख़ासकर कविता ने इस जीवट का परिचय दिया है और इस अपमानपूर्ण परिस्थिति से कोई ख़ास समझौता नहीं किया है। लेकिन इतना काफ़ी नहीं है।

नई परिस्थित की एक विशेषता यह है कि इसने प्रतिरोध का एक अभूतपूर्व विराट समाजिक क्षेत्र खोल दिया है, जिसमें नए हस्तक्षेप और नई रचनात्मक कल्पना के लिए अपार सम्भावनाएँ छिपी हैं जो कुछ-कुछ सामने भी आने लगी हैं। अनेक आसानियाँ और झूठी तसल्लियाँ जो थीं, फिलहाल नहीं हैं और अलक्षित असम्बोधित प्रश्नों को टालना अब लगभग नामुमकिन है।

गरीब आबादी  वंचित तबकों के लिए नागरिक समाज के निर्माण की लोकतान्त्रिक कार्यसूची अप्रासंगिक नहीं हुई है, बल्कि यह उनके पहले से कहीं ज़्यादा जीवन-मरण का प्रश्न है। इस विशाल आबादी में इस समय जनतन्त्र का हिस्सा बनने और उसे विस्तृत और सामभूत बनाने के लिए अभूतपूर्व व्याकुलता और सचे्ष्टता दिखाई दे रही है। लेकिन गहरे ऐतिहासिक रिश्ते के बावजूद प्रतिरोध की ऊर्जा के ये नए स्रोत समकालीन रचनाशीलता से दूर दिखाई देते हैं। अकिंचनता के खोल में शरण लेकर रचना की आज़ादी और उसकी जगह को ज़्यादा समय नहीं बचाया जा सकता। अनुकूलन या आत्मविसर्जन का ख़तरा पूरा है। रचना का देश-काल इस वक़्त प्रतिरोध पक्षनिर्माण और सामाजिक रूपान्तरण या पुनर्रचना के बड़े संघर्षों और उपायों से सक्रिय सम्बन्ध बनाकर ही पुनः प्राप्त किया जा सकेगा।

कविता की किताब के इस प्रकाशन के साथ यह उम्मीद कर सकता हूँ कि दोस्तों की जायज़ नारज़गी और शिकायत में अब कुछ कमी होगी।
आख़िरी प्रूफ पढ़ते हुए कुरुक्षेत्र से डॉ. ग्रेवाल के निधन का दुखद समाचार मिला है। यह किताब उन्हें दिखा पाता तो मुझे खुशी होती।
रोहतक
11.1.2006
मनमोहन

इन शब्दों में

 


इन शब्दों में
वह समय है जिसमें मैं रहता हूँ

ग़ौर करने पर
उस समय का संकेत भी यहीं मिल जाता है।
जो न हो
लेकिन मेरा अपना है

यहाँ कुछ जगहें दिखाई देंगी
जो हाल ही में ख़ाली हो गई हैं
और वे भी
जो कब से ख़ाली पड़ी हैं

यहीं मेरा यक़ीन है
जो बाकी बचा रहा

यानी जो ख़र्च हो गया
वह भी यहीं पाया जाएगा

इन शब्दों में
मेरी बचीखुची याददाश्त है

और जो भूल गया है
वह भी इन्हीं में है

कला का पहला क्षण

कई बार आप
अपनी कनपटी के दर्द में
अकेले छूट जाते हैं

और कलम के बजाय
तकिये के नीचे या मेज़ की दराज़ में
दर्द की कोई गोली ढूँढते हैं

बेशक जो दर्द सिर्फ़ आपका नहीं है
लेकिन आप उसे गुज़र न जाने दें
यह भी हमेशा मुमक़िन नहीं

कई बार एक उत्कट शब्द
जो कविता के लिए नहीं
किसी से कहने के लिए होता है
आपके तालू से चिपका होता है
और कोई नहीं होता आसपास

कई बार शब्द नहीं
कोई चेहरा याद आता है
या कोई पुरानी शाम

और आप कुछ देर
कहीं और चले जाते हैं रहने के लिए
भाई, हर बार रुपक ढूँढ़ना या गढ़ना
मुमक़िन नहीं होता
कई बार सिर्फ़ इतना हो पाता है
कि दिल ज़हर में डूबा रहे
और आँखें बस कड़वी हो जायें

दुखद कहानियाँ

 


दुखद कहानियाँ जागती हैं
रात ज़्यादा काली हो जाती है
और चन्द्रमा ज़्यादा अकेला

इनका नायक अभी मंच पर नहीं आया

या बार-बार वह आता है
अब किसी मसखरे के वेश में
और पहचाना नहीं जाता

दुख कहानियाँ जागती हैं
जो सुबह की ख़बरों में छिपी हुई रहीं
और दिन चर्या की मदद से
हमने जिनसे ख़ुद को बचाया

इन्हें सुनते हुए हम अक्सर बेख़बरी में
मृत्यु के आसपास तक चले जाते हैं
या अपने जीवन के सबसे गूढ़ केन्द्र में लौट आते हैं

याद नहीं

 


स्मृति में रहना
नींद में रहना हुआ
जैसे नदी में पत्थर का रहना हुआ

ज़रूर लम्बी धुन की कोई बारिश थी
याद नहीं निमिष भर की रात थी
या कोई पूरा युग था

स्मृति थी
या स्पर्श में खोया हाथ था
किसी गुनगुने हाथ में

एक तकलीफ़ थी
जिसके भीतर चलता चला गया
जैसे किसी सुरंग में

अजीब ज़िद्दी धुन थी
कि हारता चला गया

दिन को खूँटी पर टाँग दिया था
और उसके बाद क़तई भूल गया था

सिर्फ़ बोलता रहा
या सिर्फ़ सुनता रहा
ठीक-ठीक याद नहीं

आसानियाँ और मुश्किलें

न कहना आसान है
और कहना मुश्किल
लेकिन कहते चले जाना
न कहने जैसा है
और काफ़ी आसान है

इसी तरह न रहना आसान है
और रहना मुश्किल

लेकिन रहते चले जाना
न रहने जैसा है
और काफ़ी आसान है

चाहें तो सहने के बारे में भी
ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है

विस्मृति

 


एक दिन उसने पानी को स्पर्श करना चाहा

तब पानी नहीं था
त्वचा व्याकुल थी काँटे की तरह
उगी हुई पुकारती हुई

यही मुमक़िन था
कि वह त्वचा को स्पर्श से हमेशा के लिए
अलग कर दे

तो इस तरह स्पर्श से स्पर्श
यानी जल अलग हुआ
और उसकी जगह
ख़ाली प्यास रह गई

किसी और दिन किसी और समय
मोटे काँच के एक सन्दूक में
बनावटी पानी बरसता है
जिसे वह लालच से देखता है
लगातार

पानी की कोई स्मृति
अब उसके पास नहीं है

शर्मनाक समय

कैसा शर्मनाक समय है
जीवित मित्र मिलता है
तो उससे ज़्यादा उसकी स्मृति
उपस्थित रहती है

और उस स्मृति के प्रति
बची खुची कृतज्ञता

या कभी कोई मिलता है
अपने साथ खु़द से लम्बी
अपनी आगामी छाया लिए

एक आदमी

 


एक आदमी
कम कहता है
और कम साँस लेता है

कम सुनता है
और कम देखता है

कम हँसता है
और कम रोता है

कम चलता है
और लौट आता है

कम याद करता है
और बार-बार भूल जाता है

छोड़ देता है
और क्षमा कर देता है

एक आदमी रहता है
प्रियजन के बिना
और रहे जाता है

                   
                                                                                                                                                   

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