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साधु ओझा सन्त

सुधीर कक्कड़

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :239
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2418
आईएसबीएन :81-267-0980-4

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इसमें साधुओं,ओझाओं,स्थानीय वैद्यों व संतों की मनोचिकित्सा पद्धतियों पर प्रकाश डाला गया है...

Sadhu Ojha Sant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आधुनिक चिकित्सा-पद्धति के विकास तथा शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बावजूद आज भी भारतीय जनमानस में साधुओं-ओझाओं, आदि के प्रति विश्वास पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। इसे आधुनिक विज्ञान और राज्य की अक्षमता कहें या जनसाधारण के मन में बैठा अंधविश्वास कि आज भी ऐसी-ऐसी खबरें सुनाई दे जाती हैं जिन पर सहज ही विश्वास नहीं हो पाता।

प्रतिष्ठित मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ अपनी इस कृति में उसी अविश्वसनीय लेकिन वास्तविक दुनिया की यात्रा करते हैं। साधुओं, ओझाओं, स्थानीय वैद्यों और संतों द्वारा सदियों से जारी परम्परागत मनोचिकित्सा पद्धतियों का विश्लेषण करते हुए वे उनके रहस्यों का उद्घाटन करते हैं मंदिरों, मठों, आदि पर निरंतर होनेवाली गतिविधियों का विवरण प्रस्तुत करते हुए वे इनकी कार्य-शैली और आस्थावान् लोगों की मनोरचना को अपने वैज्ञानिक नजरिए से भी देखते चलते हैं।
भारतीय ज्ञान में रूचि रखने वाले लोगों के लिए उपयोगी इस पुस्तक में लेखक ने भारतीय और पश्चिमी मनोविज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन भी किया है।

 

प्रस्तावना

 

 

पश्चिमी दुनिया में जिसे ‘मनोस्वास्थ्य’ कहा जाता है उसकी परम्परा भारत में भी मिलती है। इस पुस्तक में भारत की उन्हीं परम्पराओं का अध्ययन किया गया है। पुस्तक में ‘मनोस्वास्थ्य’ शब्द का प्रयोग किसी जटिल संकल्पना या परिभाषा के रूप में नहीं किया गया है। यह एक शीर्षक है न कोई संकीर्ण सैद्धान्तिक संकल्पना। ‘मनोस्वास्थ्य’ के अन्तर्गत बहुत सारी बातें शामिल हैं। व्यक्तिगत हैं। व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन के क्रिया-व्यापारों को प्रभावकारी तरीके से संचालित करना, नैतिक और आध्यात्मिक धरातल पर संतुष्ट अनुभव करना,. मानसिक क्रिया-व्यापारों में सामंजस्य होना तथा व्यक्ति को अक्षम बना देने वाले लक्षणों की अनुपस्थिति-ये सभी बातें ‘मनोस्वास्थ्य’ के अन्तर्गत आती हैं। मैंने तीन वर्ष तक एक विषय का अध्ययन किया है। मनोचिकित्सा के इस क्षेत्र में विभिन्न मत-मतान्तरों के गुरू, ओझा, वैद्य, हकीम तथा इन्हीं जैसे अन्यान्य देहाती लोग कार्यरत है। मैंने इन सबों से बातचीत की है। ये सभी लोग एक ही दिशा में कार्यरत है। इलाज के इनके क्षेत्र को ऑक्सफोर्ड इंग्लिश शब्दकोष में ‘हीलिंग’ शीर्षक के अन्तर्गत परिभाषित करते हुए कहा गया-‘‘व्यक्ति विशेष को किसी विशेष कुप्रभाव मसलन पाप-भावना, दुःख, निराशा, खतरा, बैचैनी, अन्यमन्यस्कता, विध्वंस-वृत्ति आदि से मुक्ति दिलाता और उसके मन को शुद्ध-स्वच्छ तथा कल्याणप्रद बनाना।’’

भारत में उपचार के इस क्षेत्र में नाना प्रकार की परम्पराएं प्रचलित हैं। इन परम्पराओं में बहुत अधिक विभिन्नता है। जो व्यक्ति इन बातों से अनजान है उसे लगेगा मानो चिकित्सा एक व्यक्तिगत तथा संस्कारगत वृत्ति है तथा अपने मूलरूप में सांस्कृतिक दायरे के अन्तर्गत आती है। यह बात बहुत हद तक सही भी है। दुनिया की अन्य कौमों की तरह भारत में भी मनोरोगों की चिकित्सा के लिए विभिन्न पद्धतियाँ अपनाई गई हैं। भारत में आधुनिक चिकित्सा के मनोचिकित्सकों के साथ-साथ हिन्दू धर्म के अन्तर्गत आनेवाले आयुर्वेद तथा सिद्ध-चिकित्सा पद्धति के वैद्य भी उपचार के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इसके अतिरिक्त इस्लामी यूनानी पद्धति के हकीम भी मनोरोगों के निदान का काम करते हैं। हस्तरेखा-विशेषज्ञ, जन्मपत्री बनानेवाले, जड़ी-बूटियों के विशेषज्ञ, सयाने, जादू-टोना करनेवाले, ओझा–गुनिया आदि ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी उपचार-प्रक्रिया में लोकप्रिय परम्पराओँ का पुट है। इतना ही नहीं आत्मा को कल्याणकारी बनाने का दावा, करने वाले बहुत से साधु, स्वामी, महाराज, बाबा, माताएँ और ‘भगवान’ भी मिलते हैं। जो किसी-न-किसी तरह अपना सम्बन्ध भारत की प्राचीन ‘आध्यात्मिक-रहस्यवादी’ परम्पराओं से जोड़कर दिखाते हैं। पश्चिम में इन परम्परा को धार्मिक प्रधानतावाले युग में ‘आत्मिक स्वास्थ्य’ (Soul health) कहा जाता था। इसका उद्देश्य था नैतिक एवं आध्यात्मिक धरातल पर कल्याण-भावना उत्पन्न करना और उसे स्थायी बनाना।
 
उपरोक्त चिकित्सा-पद्धति यह मानकर चलती है कि उसका कार्यक्षेत्र तीन भिन्न धरातलों में बँटा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक की अवधि में व्यक्ति अपने शरीर, मन तथा ‘नगर-राज्य’ का निवासी होता है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति शरीर भी है, आत्मा भी तथा इसके साथ-साथ सामाजिक प्राणी भी। यह बात जरूर है कि  व्यक्ति के शरीर, मन-आत्मा और नगर-राज्य का अर्थ अलग-अलग संस्कृतियों में अलग-अलग है। आगे चलकर यह बात भी स्पष्ट की जाएगी कि पश्चिमी चिकित्सा पद्धति में शरीर उसकी संचालन-प्रक्रिया को जिस धारणा के तहत समझा गया है वह धारणा आयुर्वेद-चिकित्सा-पद्धति से अलग है। वैदिक–परम्परा में ‘आत्ममन्’ अथवा ‘सूक्ष्म-शरीर’ को मनोवैज्ञानिक कोटि का तत्त्व नहीं माना जाता। हाँलाकि इसमें वह तत्त्व अवश्य है जिसे पश्चिम में ‘मनस्’ की संज्ञा दी जाती है। हिन्दू-विचारणा के अनुसार मनोभावना के स्तर पर उत्पन्न गड़बड़ी का सम्बन्ध व्यक्ति के परिवार अथवा उसके लालन-पालन से नहीं है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति के कर्मो से है। कर्म के अन्तर्गत इसी जीवन के नहीं अपितु विगत कई जन्मों के कर्म और उनके फल शामिल माने जाते हैं।

 जब कहा जाता है कि ओझा-गुनिया तथा लोकपरम्परा के अन्य मनोचिकित्सक व्यक्ति के सामाजिक कार्य-व्यापार की असंगति को दूर कर देते हैं तो यहाँ हमें यह बात अवश्य याद रखनी चाहिए कि अधिकांश भारतीयों के लिए ‘नगर-राज्य’ अथवा मोटे अर्थों में ‘समाज’ का मतलब एक परिवार अथवा समुदाय के जीवित  सदस्यों से ही नहीं होता बल्कि उसमें ‘पितर’ और ‘पुरखे’ भी शामिल है। पुरखों की वे आत्माएँ भी समाजवासी समझी जाती हैं जिनमें हिन्दुओं की अटूट आस्था है। पूर्वजों की आत्माओं के भी हिन्दू मानस अपने ‘नगर-राज्य’ का निवासी ही मानता है। भारत में मनोचिकित्सा की प्राचीन पद्धतियों औरइनके आधार पर उपचार करन्वाले ओझा-गुनिया, वैद्य-हकीमों के बीच बहुत सी विभिन्नताओं के बावजूद एक बात को लेकर सहमति है। पश्चिमी मनोचिकित्सा की तुलना में यहाँ ‘दैवी’ तत्त्वों’ पर ज्यादा जोर दिया जाता है। ‘देवी तत्व’ कहने का तात्पर्य साधु-संन्यासियों के ब्रह्य, भक्तों-उपासकों के कृष्ण अथवा अन्य देवी-देवताओं भर से नहीं है बल्कि इसमें पुरखों की आत्माएं, वनदेवियाँ, ब्रह्मराक्षस, बह्मपिशाच और सूने में अथवा श्मशान में घात लगाकर बैठे रहनेवाले भूत-प्रेत, चुड़ैलें और डाकिनियाँ भी शामिल हैं। इसी ‘दैवी-तत्त्व’ को मनाने के कारण मन की विषय-वासना का उपचार बनानेवाले गुरुओं को हम प्रेतात्माओं से जूझनेवाले ओझा-गुनिया से जोड़कर देख सकते हैं।

व्यावहारिक धरातल पर आत्मा, मन और शरीर-इन तीनों की व्याधियों के उपचार में लगे लोगों की पद्धति में अन्तर हो सकता है किन्तु उपचार करनेवाले, मरीज का अपने पुरखों, प्रेतों आदि से जुड़ा हुआ मानसिक अस्तित्व ‘दैवी-तत्त्व’ को एक सच्चाई मानकर स्वीकार करता है। इसी कारण आधुनिक वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न व्यक्ति को इस तरह का इलाज विचित्र लगता है भले ही वह पश्चिम का हो अथवा पूरब का, दक्षिण का हो अथवा उत्तर का। ‘पश्चिम’ आज आधुनिकता की जन्मस्थली माना जाता है। ‘पश्चिम’ कहने से अब किसी भौगोलिक क्षेत्र का उतना बोध नहीं होता जितना बौद्धिकता की एक खास अभिवृत्ति-आधुनिकता का। पश्चिमी में अब इस बात को स्वीकार नहीं किया जा जाता कि बीमारी का कारण मानसिक गड़बड़ी के अलावा भी कुछ हो सकता है। वहाँ आमतौर पर अब यह बात भुला दी जाती है कि मरीज के पास डाक्टर का होना और मृत्यु-शैया पर पड़े व्यक्ति के लिए पादरी का आना दोनों ही कुछ दिनों पहले तक चिकित्सा के अंग समझे जाते थे। पिछले एक सौ वर्ष में विज्ञान की प्रगति के कारण चिकित्सा का क्षेत्र केवल ‘डाक्टर’ का रह गया हैं। पादरी का कोई संबंध नहीं रहा।
 
आज पश्चिम में बहुत से व्यक्ति इस बात से दुखी हैं कि चिकित्सा-विज्ञान ने ‘दैवी-तत्त्वों’ का पूर्णरूपेण बहिष्कार कर दिया है। जहाँ तक मनोचिकित्सा का संबंध है- ऐसे लोगों का मानना है कि दैवी-तत्त्वों’ के स्वीकार से मनोचिकित्सक को अपने मरीज के उपचार में बहुत मदद मिलती थी। जब कोई मनोचिकित्सक मरीज की आन्तरिक तथा बाह्य मनःशक्तियों पर ध्यान केन्द्रित करके उसकी चिकित्सा का प्रयत्न करता है तो उसके समाज का धर्म, पुराण, मिथक तथा इतिहास सभी ‘दैवी-उपाचार-पद्धति’ में स्थान पाते है कि इन विचारों में कहाँ तक वास्तविकता है और अगर ऐसे विचार पश्चिम में कुछ लोग व्यक्त कर रहे हैं तो कहाँ तक इन विचारों को ‘दैवी तत्त्वों’ की अनुपस्थिति का पश्चिमी स्यापा माना जाए ? ‘दैवी-तत्वों की सहायता से चिकित्सा-व्यापार किस प्रकार चलता है? ‘दैवी-तत्त्वों’ की स्वीकृति पर आधारित तथा उससे रहित मनोनिदान की पद्धत्ति में क्या-क्या अन्तर है ? इन प्रश्नों का भी उत्तर भारतीय-चिकित्सा-पद्धति के अध्येता को देना होगा। इसलिए इस पुस्तक का दूसरा उद्देश्य है भारत की इस देहाती चिकित्सा-पद्धति के रूप और उसकी विषय-वस्तु की तुलना पश्चिमी धारणाओं तथा उपचार-प्रक्रियाओं से करना।

आजकल इस बात को आमतौर पर स्वीकार कर लिया गया है कि समाज और मनोरोग के बीच एक गहरा सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध की पद्धति कैसी है तथा इस सम्बन्ध का विस्तार कितना है-इस बात को लेकर पास्परिक मतभेद बहुत ज्यादा है उदाहरण के लिए फूको (Foucault) का कहना कि प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक प्रत्येक युग में पागलपन की अवधारणाएं अलग-अलग रही हैं। इससे उस युग के सामाजिक दर्शन तथा तर्क-पद्धति का पता चलता है। मनोचिकित्सा सामाजिक-दर्शन से स्वतन्त्र नहीं है। प्रत्येक युग में पागलन तथा ‘बुद्धिगम्यता’ के बीच अलग-अलग बिन्दुओं पर विभेद किया गया है। बहुत से नृतत्वशास्त्रियों ने फूकों की मनोरोग विषयक ऐतिहासिक-सापेक्षातावाद की इस धारणा का उपयोग यह बताने में किया जाता है कि अलग-अलग सांस्कृतियों में मनोरोग के सम्बन्ध में अलग-अलग धारणाएँ रही हैं। मनोचिकित्सक भी अन्नतः सामाजिक-प्रणाली ही का अंग है।

 इसमें समाज की बहुत सी मान्यताओं-मूल्यों का समावेश है। मनोरोगों संबंधी चिकित्सा किसी समाज में किस प्रकार कार्य करती है तथा कैसे प्रभावी होती है इसको जानने के लिए यह पता लगाना पड़ेगा कि उस समाज-विशेष के सांस्कृतिक-परिवेश में मनोचिकित्सा का क्या स्थान है। संस्कृति-विशेष का ‘मनोचिकित्सा’ से एक विशिष्ट सम्बन्ध होता है और इस सम्बन्ध की व्याख्या द्वारा ही उस समाज में ‘मनोचिकत्सा’ के स्वरूप को जाना जा सकता है। दूसरे शब्दों में, भारत की मनोचिकित्सा-विषयक परम्पराओं के अध्ययन से न केवल यह पता चलता है कि भारतीय समाज के कुछ विशिष्ट मान-मूल्य हैं जो समाज को संचालित करते हैं बल्कि भारतीय-संस्कृति के ढांचे ताने-बाने में ही ‘मनोचिकित्सा’ की भारतीय परंम्पराएं बँधी हुई हैं। इस वर्णानात्मक एवं तुल्नात्मक अध्ययन के अलावा इस ग्रन्थ का तीसरा मुख्य उद्देश्य इस बात पर प्रकाश डालना है कि व्यक्ति और समाज-संस्कृति के रिश्ते किस तरह अन्तःक्रिया करते हैं। मैं इस आपसी रिश्ते को ‘सांस्कृतिक मनोविज्ञान’ कहना ज्यादा अच्छा समझता हूँ। मेरे इस अध्ययन का एक उद्देश्य ‘सांस्कृतिक मनोविज्ञान’ का भी अन्वेषण है। मैंने  मनोचिकित्सकों के भारतीय प्रतिरूपों हकीम-वैद्य, ओझा-गुनिया, साधु-सयानों को समझने की कोशिश की है और उसकी चिकित्सा-प्रणालियों को भी जानने का प्रयास किया है जिसके अन्तर्गत वे अपनी शर्तों और मान्यताओं के आधार पर उपचार करते है लेकिन इस प्रयोजन से इनको जान पाना आसान काम नहीं है। समझने बूझने का यह काम थोड़ा-बहुत ‘मनोचिकित्सकों के व्यक्तित्व के साक्षात्कार से जुड़ा हुआ है।

 और इस पर निर्भर करता है कि इन ‘मनोचिकित्सकों’ का व्यक्तित्व कितना आकर्षण अथवा अनाकर्षण है। उनके व्यक्तित्व के ‘आकर्षण’ अथवा ‘विकर्षण’ के प्रति सामान्य रूप से खुलापन बनाए रखना जरा मुश्किल होता है। मुश्किल इसलिए की हम चारों तरफ से भारतीय-संस्कृति’ के प्रतीक-संसार से बँधे हुए हैं–आच्छादित हैं यहाँ ‘संस्कृति’ शब्द का प्रयोग मैं उसी अर्थ में कर रहा हूँ जिस अर्थ में क्लीफोर्ड गीजू (clifford Geertg ) ने किया है। क्लीफोर्ड गीर्ज् ने संस्कृति के बारे में कहा है- ‘‘यह अर्थ और प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति अपने संसार को एक परिभाषा में बाँध लेता है और इसी के तहत अपने अनुभव-संसार की व्याख्या करता हैं, अपने भावों को अभिव्यक्ति कर देता है तथा अपने  निर्णय लेता है।’’ मैने बहुधा यह अनुभव किया है मेरे और इन चिकित्सकों के, ओझों पीरों-फकीरों के बीच-एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दूरी है।

 इस दूरी के कारण मुझे बार-बार यह अनुभव हुआ है कि जिन  संक्लपानाओं के तहत मैं उनकी उपचार-विधियों और प्रयासों को समझने की कोशिश कर रहा हूँ उससे  विधियों और प्रयासों की भाँति-भाँति समझा भी जा सकता है या नहीं। जब भी मन में इस तरह की शंका जन्म लेती थी मैं सोचकर सन्तोष कर लेता था कि किसी बात को पूर्णरूपेण समझना इंसान के बस की बात नहीं। यह काम तो केवल ईश्वर ही कर सकता है।
भारतीय चिकित्सा-परम्पराओं के ऐसे ओझे-गुनिया, वैधों-हकीमों तथा टोना-टोटका जानने वाले लोगों से मिलकर मुझे कई बार अपने अध्ययन के सिलसिले में दुविधा का अनुभव हुआ।

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