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आकाश पक्षी

अमरकान्त

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2419
आईएसबीएन :8126707771

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एक निर्दोष और संवेदनशील लडकी पर आधारित उपन्यास जो सामन्तवाद के अवशेषों के तले दबी हुई है.....

Aakash Pankshi a hindi book by Amarkant - आकाश पक्षी - अमरकांत

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

वरिष्ठ कथाकार अमरकान्त का यह उपन्यास एक निर्दोष और संवेदनशील लड़की की कथा है, जिसके इर्द-गिर्द भारतीय सामन्तवाद के अवशेषों की नागफनियाँ फैली हुई हैं। उनका कुंठाजनित अहंकार, हठधर्मिता और सर्वोच्चता का मिथ्या भाव उसकी सहज मानवीय इच्छाओं और आकांक्षाओं को बाधित करता है।

भारतीय समाज से सामन्तवाद के समाप्त होने के बावजूद अपने स्वर्णिम युगों का खुमार एक वर्ग विशेष में लम्बे समय तक बचा रहा, और आज भी जहाँ-तहाँ यह दिखाई पड़ जाता है। गुजरे जमानों की स्मृतियों के सहारे जीते हुए ये लोग नए समाज के मूल्यों-मान्यताओं को जहाँ तक सम्भव हो,नकारते हैं और उनकी शिकार होती है वे नई नस्लें जो जिन्दगी और समाज को नये नजरिये से देखना,जानना और जीना चाहती है।

इस उपन्यास की पंक्तियों में बिंधी व्यथा उन लोगों के लिए एक चेतावनी की तरह है जो आज भी उन बीते युगों को जीने की कोशिश करते हैं।

दो शब्द

हिन्दी के सशक्त एवं सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकार अमरकान्त का यह उपन्यास हिन्दी में अपने ढंग की अकेली कृति है।
आकाश पक्षी सामन्ती परम्पराओं में उलझी एक निर्दोष लड़की की कहानी है। भारत से सामन्तवाद भले ही लुप्त हो गया हो, लेकिन उसकी मान्यताओं के अवशेष, यहाँ चाहे जिस अवस्था में हो, अत्यधिक प्रबल हैं और उनसे हमारे राष्ट्रीय जीवन में कभी-कभी गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। बड़े सरकार और रानी साहब उसी अवशेष के प्रतीक हैं। सारे अधिकार छिन जाने पर भी उनका अहंकार सर्वोच्चता की भावना, भोग-विलास की प्रवृत्ति, उनके पुरातन पतनोन्मुख विचार उन पर छाए रहते हैं ऐसे ही कीचड़ में राजकुमारी कमल की तरह खिली हुई है। परन्तु उसका खिलना भी कितना करुण और कुंठित है।
-प्रकाशक

 

हर वर्ष ऐसा ही होता है। जब मार्च का महीना शुरू होता है और सर्दी में डंक नहीं रह जाता तब मेरा हृदय पीड़ा से भर उठता है। मेरी आँखों से स्वत: ही आंसू गिरने लगते हैं। मैं चुपचाप कमरे में आकर सोफे पर बैठ गयी हूँ। मेरे सामने बड़ी खिड़की से नीले आकाश का एक टुकड़ा दिखाई दे रहा है। कमरे के अन्दर ताजी बासन्ती हवा के झोंके मेरी रेशमी साड़ी के पल्ले को फड़फड़ा जाते हैं। मैं आज फिर रो रही हूँ।
आज मेरी उम्र चालीस से कम नहीं। मैं एक दिन ऐसी हवा में आजाद चिड़िया की तरह पंख फैलाकर आकाश में उड़ जाना चाहती थी। लेकिन हुआ क्या ? मैं एक पिजड़ें से दूसरे पिजड़े में आ गयी। मैं अब तक अन्धी खोहों और खाइयों में भटकती रही हूँ। मुझे अपने पति से क्या शिकायत हो सकती है ? उनकी उम्र साठ से कम न होगी। उनके चेहरे पर झुर्रिया सिमट आयी हैं और चमड़े ढीले पड़कर झूलने लगे हैं। पर उन्होंने मुझे सुख-सुविधाओं से पाट दिया। जब मुझे जुकाम हो जाता है तो वह अनेकानेक चिन्ताओं से भर उठते हैं और शहर के सभी प्रसिद्ध डाक्टर मेरे सामने लाकर खड़े कर दिए जाते हैं। कितनी बनावटी गम्भीरता से वे मेरी परीक्षा करते हैं। रुपया ऐसी चीज है कि उसकी मार बड़े-से-बड़े आदमी को तुच्छ एवं निस्सहाय बना देती है। मैंने धन एवं गरीबी के सभी पक्षों को देखा है। लेकिन एक बात मैं विश्वासपूर्वक कह सकती हूँ कि रुपए से मन को नहीं खरीदा जा सकता।
कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि मैं पैदा ही क्यों हुई ? मेरे जीवन का इस पृथ्वी पर क्या उपयोग है ? मैं दिन-रात शान-शौकत का प्रदर्शन करने तथा खाकर मोटाने के अलावा और क्या करती हूँ ? सभा-सोसाइटी में एक-से-एक महँगी भड़कदार साड़ियों तथा बहुमूल्य हीरे-जवाहरात के गहने पहनकर चारों ओर अपने व्यक्तित्व एवं उच्चता की खुशबू उड़ाते हुए मैं पहुँच जाती हूँ तो अन्य औरतों का अहंकार स्वत: ही चूर-चूर हो जाता है और वे मेरी ओर हसरत से इस तरह देखने लगती हैं, जैसे कोई किसी निचली चोटी पर खड़ा होकर धूप में चमकती हिमालय की सबसे ऊंची बर्फीली एवं सुनहरी चोटियों को निहारे। लेकिन मैं खूब अच्छी तरह जानती हूँ कि वे मुझसे लाख दरजा अधिक सुखी है, क्योंकि उनका मन रिक्त नहीं है, उनका जीवन शून्य नहीं है।

बीस वर्ष पहले मैं कैसी थी ? मैं यह नहीं बता सकती है कि मैं कब जवान हो गयी। यदि मेरा बस चलता तो मैं कभी जवान होती भी नहीं, बल्कि सदा एक छोटी-सी बच्ची की तरह चहकती रहती। मेरे बचपन के आरम्भिक वर्ष बड़ी ही खुशी और शान-शौकत में बीते। न मालूम कितने नौकर और नौकरानियाँ थी। मेरी माँ सदा रेशमी गलीचे की पलँग पर बैठकर पान कचरती रहतीं। कभी-कभी बड़े सरकार घर के अन्दर आते और गम्भीर आवाज में कुछ कहकर चले जाते। वह सिर्फ माँ से ही बात करते थे। बीच बीच में वह हँसते भी जाते थे। माँ और बड़े सरकार कपड़े बहुत ही अच्छे पहनते थे और उनके शरीर से खुशबू उड़ा करती थी। परन्तु उन्होंने कभी मुझे गोद में लेकर खेलाया हो, यह मुझे याद नहीं आता। राजा और रानी के लिए जरूरी भी क्या है कि वे अपने बच्चों को प्यार करें ? उनके बच्चों को न खाने-पीने की कमी, न पहनने-ओढ़ने की कमी। उनके जीवन में खेल-कूद और मनोरंजन का भी कोई अभाव नहीं रहता। नौकर-चाकर उनको हाथों हाथ लिये रहते हैं।
लेकिन मैं राजा की लड़की नहीं हूँ। असली राजा तो मेरे ताऊ जी थे। लेकिन बड़े सरकार (मेरे पिताजी) को भी राजा साहब ही कहा जाता था। वह भी अपने भाई की तरह ही शान-घमंड से रहते थे। ताऊ जी और पिताजी को शराब और जुआ खेलने की लत थी। दशहरा और होली के दिनों में जब वे शराब पी लेते थे तो उनको कुछ भी होश नहीं रहता था। और वे मुंह में जो कुछ आ जाए वही बक-बक करते रहते थे। मैं तो डरकर छिप जाया करती थी। मेरे मन को इससे बड़ी चोट पहुँचती थी। एक और बात से मुझे बहुत दुख होता है। मेरे ताऊ जी या बड़े सरकार कोई भी बात मन के खिलाफ होने पर वास्तविक अपराधी को (जिसको वे अपराधी कहते थे) बुलाकर बुरी तरह पीटते थे।

एक दिन की बात तो मुझे इस तरह याद है, जैसे कल की घटना हो। एक गरीब दुखिया किसान अपनी जमीन की लगान दे न पाया था। उसके घर में खाने को भी नहीं था, क्योंकि उस साल सूखा पड़ गया था और लोग भूख से मर रहे थे। उसको बड़े सरकार ने बुला भेजा। मैं उस बूढ़े किसान को अब भी देख सकती हूँ। उसका शरीर काँटा की तरह झुका था। काला भुजंग। उसकी छाती के बाल सफेद हो रहे थे। गिद्ध की तरह उसकी टाँगे मुड़ी हुई थी। वह हाथ जोड़कर खड़ा था और माई-बाप कहकर गिड़गिड़ा रहा था। लेकिन बड़े सरकार उसको गन्दी-गन्दी गालियाँ दे रहे थे। फिर उनकी आँखें गुस्से से लाल हो गयीं और वह कारिन्दे को आदेश देने के बजाय स्वयं ही उस पर टूट पड़े और उसको बुरी तरह मारने लगे। वह किसान इस तरह चिल्लाने लगा, जैसे बकरे को हलाल किया जा रहा हो। मैं यह दृश्य देख न सकी थी। मैं भागकर घर के अन्दर मां के पास चली गयी थी और सिसककर रोने लगी थी।
‘‘क्या हुआ राजकुमारी ?’’ मेरी मां ने पूछा।
मैं सिसकती रही मेरे मुंह से कोई आवाज नहीं निकली।
‘‘क्या हुआ रे ? किसी ने मारा ?’’
‘‘नहीं, उस बूढ़े को बड़े सरकार मार रहे हैं।’’
‘‘अरे हट। यह भी कोई रोने की बात हुई ? वे इसी लायक हैं। प्रजा लोग तो मार खाते ही रहते हैं। मार न खाए तो सिर पर सवार हो जाएँ।’’
माँ के स्वर में झुँझलाहट होती थी, जैसे ऐसी मामूली-सी बात न समझ में आने के कारण वह नाराज हो। इसके बाद मुझे याद नहीं कि मैं वहीं सिसकती हुई खड़ी रही या वहाँ से चली गयी थी। किसी को जब मैं दु:ख में देखती तो मेरी ऐसी ही हालत होती थी। अपने दुख के बारे में भी मैं यही कह सकती हूँ। जब मैं स्वयं बीमार हो जाती तो काफी चीखती चिल्लाती। बहरहाल हमारी रियासत में बड़े लोगों द्वारा गरीब लोगों को मारने-पीटने और सताने की घटनाएँ सदा होती रहती थीं। हम लोग तो राज-परिवार के थे ही। कुछ अन्य लोगों को छोड़कर शेष जनता भयंकर निर्धनता में जीवन व्यतीत करती थी। दोनों जून रोटी का प्रबन्ध करना उनके लिए कठिन हो जाता था। उसका कोई नहीं था-न ईश्वर और न खुदा। जो कुछ था, वह राजा ही था।

सबसे अधिक खुशी होती थी मुझे विजयादशमी के दिन, जब मैं राम जी के जुलूस के साथ हाथी पर सवार होकर चलती थी। कितना मजा आता था। एक हाथी पर राजा साहब आगे-आगे चलते थे। उसके बाद बड़े सरकार के साथ हम लोग। रास्ते में दोनों ओर लोग हाथ जोड़कर खड़े रहते थे। यह कहना गलत होगा कि रामभक्ति की वजह से वे ऐसा करते थे। राम से बड़ा तो राजा था। हम लोग भी यही समझते थे। चारों ओर जय-जयकार होती रहती थी। फूल फेंके जाते थे। बाजा और नगाड़े बजते थे। बीच-बीच में हाथी चिघाड़ उठते थे। घोड़े हिनहिनाते थे। मुझ पर एक नशा-सा छा जाता। मैं बार-बार चौकी पर बैठी सीता जी को देखा करती थी। सीता जी के लिए मेरे मन में अपार श्रद्धा थी। मैं स्वयं को सीताजी के रूप में देखती थी। मेरे अन्दर सीता की तरह गुणवती, सुन्दर त्यागी और साहसी होने की एक अस्पष्ट कल्पना जागृत हो जाती थी। विजयादशमी समाप्त होने के बहुत दिनों बाद तक मैं सीताजी के बारे में ही सोचती रहती थी।
इसके बाद सर्वाधिक खुशी शिकार-पार्टी में जाने के समय होती। जब बाघ-शेर के शिकार की बात होती तो बच्चों को न ले जाया जाता, लेकिन जब चिड़िया या मामूली जानवरों का शिकार करना होता तो हम लोग भी चलते। कभी-कभी हम शाम को ही नाव पर चढ़कर दूर निकल जाते। रात में नौका-यात्रा मुझे बहुत अच्छी लगती। सभी बच्चे जल्दी सो जाते थे, पर मैं देर तक जागती रहती थी, चारों ओर घोर अन्धकार। आकाश में तारों की टिमटिमाहट। पतवार की छप-छप रात्रि के सन्नाटे को भंग करती थी। मुझे ऐसा लगता कि इस अन्धकार के खत्म होने पर मैं किसी सुनहरे लोक में पहुँच जाऊँगी, जहाँ मैं खूब खेलूँगी, खूब कूदूँगी, खूब खाऊँगी और खूब दौड़ूँगी।
फिर पता नहीं कब मुझे नींद आ जाती। जब सवेरे मेरी नींद खुलती तो चारों ओर चौंककर देखती थी। चूँकि मैं देर तक सोयी रहती इसलिए मेरी नींद देर से खुलती। उस समय तक सूरज निकल गया होता। सभी बच्चे जग गए होते। रात में सो जाने के कारण मुझे बहुत अफसोस होता और इसके कारण मैं अपने को बहुत तुच्छ समझती। रात की यात्रा के अनुभव मैं अन्य बच्चों को सुनाती। वे मुझको मान्यता प्रदान तो अवश्य करते थे, लेकिन वे अपनी हार नहीं मानते थे। उनके अनुभव कम दिलचस्प नहीं थे। किसी ने स्टीमर देखा था और किसी ने पहाड़। किसी की नजर से बहती हुई लाश गुजरी थी। मैं पराजय का अनुभव करने लगती। मैं क्यों नहीं जगी रही ? स्टीमर बगल से गुजरने पर कितना सनसनीखेज मजा आता है। नाव लहरों पर झूमने लगती है। नाव अगर उलट जाए तो क्या हो ? मैं कभी-कभी उस समय नाव पलटने की कल्पना करती जब मैं जगी होती और अन्य बच्चे सोये होते। मुझे आज सोचकर हँसी आती है। जैसे यह भी कोई अनुभव करने की चीज हो। जैसे नाव डूबने के बाद हम फिर इकट्ठे होकर अपनी हार-जीत का फैसला करेंगे।

हम सभी वहाँ उतर जाते थे, जहां एक बड़ा-सा जंगल शुरू होता था। इस जंगल में बाघ वगैरह नहीं थे, परन्तु भेड़िये वगैरह तो मौजूद ही थे। वे भी शिकार पार्टी को पहचान जाते थे और कहीं छिप बैठते थे। परन्तु जंगल में चिड़ियाएँ बहुत थीं। राजा साहब बड़े सरकार बन्दूक लेकर आगे बढ़ते थे। कभी-कभी रियासत के अन्य अधिकारी भी होते थे। सारा वन चिड़ियों के विभिन्न स्वरों से गूँजता रहता। कभी-कभी हिरन छलाँगें लगाते हुए सामने से गुजर जाते। सभी बच्चे आश्चर्य एवं कौतुक की मूर्ति बन जाते। तीतर, बटेर, हारिल, कबूतर और न मालूम क्या क्या ! दोपहर को उन चिड़ियों का गोश्त बनता था। मैं गोश्त नहीं खाती थी। मुझे उन खूबसूरत चिड़ियों को मारना बहुत बुरा लगता था। मैं उनको प्यार करती थी। जब चिड़ियों को छीला जाता तो मैं दूर भाग जाती।
‘‘क्यों रे, तू राज परिवार में पैदा होकर भगतिन कैसे हो गयी ?’’ राजा साहब चटखारे लेकर पूछते थे।
‘‘मैं अपनी बेटी के लिए एक मन्दिर बनवा दूँगा। ’’बड़े सरकार कहते थे।
‘‘हाँ, यह बात तो बहुत अच्छी है। उसमें कोई पुजारी नहीं रहेगा। बस, यही पुजारिन रहेगी; या इसकी शादी किसी पुजारी से ही कर देंगे।’’
राजा साहब हो-हो करके जोर से हँस पड़ते थे। और लोग भी हँस पड़ते थे। मैं शरमा जाती थी। एक और बात थी जिससे मैं गोश्त नहीं खाती थी। मैं सीता जी की तरह होना चाहती थी। मैं सोचती कि जो भगवान की पत्नी थीं, वह गोश्त किस तरह खाती होंगी ? वह अवश्य ही मांस-मदिरा से दूर रहती होंगी। मैंने माँ से भी एक बार पूछा था।
‘‘सीताजी कैसे गोश्त खाती रे ?’’ माँ ने नाराजी से कहा था।
पर पुजारी की बात से मुझे परेशानी होती थी। न मैं पुजारिन होना चाहती थी और न मैं पुजारी से शादी करना चाहती थी। मैं तो चाहती थी कि मुझे रामचन्द्र जी जैसा दूल्हा मिले। वैसा ही जवान, वैसा ही सुन्दर, वैसा ही बहादुर। यह मैं उन लोगों को कैसे बताती ? मेरी उम्र उस समय दस वर्ष की भी न हुई होगी, लेकिन मुझमें शर्म की भावना बहुत अधिक थी। मुझे यह सोचकर डर लगता कि कहीं राजा साहब मेरी शादी किसी पुजारी से न कर दें।

घर में हँसी-खुशी और शान-शौकत के दिन बहुत दिनों तक न रहे और एक दिन सारे परिवार पर जैसे वज्रपात हो गया। मेरी माँ और बड़े सरकार देर तक मुँह लटकाये न मालूम क्या बतियाते रहते। उनकी बातें मेरी समझ में नहीं आती थीं। पर वे बार-बार यही कहते थे कि रियासत खत्म होने वाली है। रियासत खत्म होने का मतलब मैं नहीं समझती थी। आखिर रियासत खत्म होने से इतना उदास होने की क्या जरूरत है ?
एक दिन मैंने माँ और बड़े सरकार की बातें साफ-साफ सुन लीं। मेरी नींद रात में खुल गयी थी। बड़े सरकार के सिर में माँ तेल लगा रही थी। साथ ही वे बातें भी करते जा रहे थे।
‘‘अब पता नहीं क्या होगा। अँग्रेज तो देश छोड़कर जा रहे हैं। काँग्रेस की सरकार बन रही है। अब राजा-राजाओं की पूछ नहीं होगी।’’
‘‘क्या अब नीच लोगों का राज्य होगा ?’’ माँ ने पूछा।
‘‘काँग्रेस का राज्य होगा। अब काँग्रेस जिसको चाहेगी, रखेगी और जिसको चाहे निकालेगी।’’
‘‘हम लोग कहाँ जाएँगे ?’’
‘‘देखो कहाँ चलते हैं। भाई साहब कह रहे हैं कि वह दिल्ली जाकर बसेंगे। उनको तो मुआवजा मिल जाएगा। मुझसे कह रहे हैं कि मैं लखनऊ की कोठी में जाकर रहूँ। वह दिल्ली से खर्चा भेजा करेंगे। मुआवजा की रकम में से वह कुछ देंगे...।’’
‘‘हाय राम ! यह क्या होने जा रहा है ? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता...।’’
वे देर रात बातें करते रहे। वे कमरे में थे और मैं अपनी बहनों के साथ बरामदे में सोती थी, फिर उनके कमरे की बत्ती बुझ गयी। अँधेरे में मेरी आँखों के सामने अजीब-अजीब छायाएँ नाचने लगीं। मेरे समक्ष भिखमंगों का एक लम्बा जुलूस नजर आया जिसमें हम लोग भी थे। आखिर यह काँग्रेस कौन है ? यह हम लोगों को क्यों निकालनी चाहती है ? हम लोगों ने क्या गलती की है ? क्या राजा लोगों को भी कोई निकाल सकता है ? और तब मुझे ऐसा लगा कि अब तक राजा साहब और बड़े सरकार गरीबों पर जो अन्याय करते रहे थे तथा शिकार में जो चिड़ियों को जो मारते रहे, इसी की वजह से उनको यह भुगतना पड़ रहा है। पता नहीं मुझे क्यों खुशी सी होने लगी।

चिन्ताएँ बढ़ने लगीं। हम लोग हमेशा डरते रहे। सब कुछ कितना बदल गया था ! राजा साहब अब हमेशा चिड़चिड़ाया करते। प्रजाजन अब हम लोगों से नजरें मिलाकर बात करते। बाद में हम लोगों के खिलाफ कई जुलूस भी निकले थे। बड़े सरकार का सिर झुका रहता, जैसे वे किसी चिन्ता में हों। मैं अच्छी तरह समझ गयी कि काँग्रेस का राज आ गया है और अँग्रेज हमको बेसहारा छोड़कर अपने देश लौट गए थे।
एक दिन हम लोगों को अपनी रियासत छोड़कर लखनऊ जाना पड़ा। राजा साहब और उनका परिवार भी हम लोगों के साथ था। इतना कार्यक्रम था कि वह कुछ दिनों तक लखनऊ में रहेंगे। फिर वे दिल्ली चले जाएंगे। न मालूम कितनी गाड़ियां सामान तो हम लोगों के पास थे। राजा साहब के सामानों की तो गणना नहीं। रियासत खत्म हो चुकी थी और हम लोग एक साधारण नागरिक बन गये थे।
राजा साहब और रानी साहब तो अब भी शान एवं घमंड से गर्दन टेढ़ी करके बैठे थे, लेकिन मेरी माँ की आँखों में आँसू थे। ऐसी शान-शौकत की जिन्दगी छोड़कर वे जा रही थीं और इन सामानों तथा कुछ हजार रुपयों के अलावा हम लोगों का कोई ठिकाना नहीं था। अब पता नहीं क्या हो। हमारे आगे एक अंधकारमय दुर्गम घाटी थी, जिसको पार करने का रास्ता हम लोग नहीं जानते थे।
मेरी आँखों में भी आँसू भर आए। रियासत छोड़कर जाते हुए मुझे बहुत बुरा लग रहा था, जबकि बाहर घूमने-फिरने या कहीं यात्रा पर जाने से मैं बहुत ही उत्साहित हो जाती थी। लेकिन पहले की यात्राओं तथा इस यात्रा में अन्तर था। मैं जहाँ पैदा हुई और जहाँ खा-पीकर तथा खेल-कूदकर इतनी बड़ी हुई थी, वह अब सदा-सदा के लिए छूट गया था। मेरे आँगन में आम और जामुन के पेड़ थे। उन पेड़ों को मैं कितना प्यार करती थी। उनके फल बड़े ही मीठे होते थे और उनकी मिठास अब भी मेरे मुँह में बनी हुई है। मैं उन पेड़ों पर चढ़ जाती थी और अपने हाथ से फलों को तोड़कर खाती थी।
सहसा मैं सिसकने लगी। सबके मन में दु:ख एवं पराजय की भावना थी। मेरे इस रोने पर राजा साहब बिगड़ गए। वह अब भी शान और घमंड में ही वहाँ से निकल जाना चाहते थे, लेकिन मेरी रुलाई से वास्तविकता की ओर सबका ध्यान खींचा और यही बात उनको बहुत बुरी लगी। क्यों रो रही है रे ? चुप रह, नहीं तो मारते-मारते खाल उधेड़ लेंगे। उन्होंने डपट कर कहा।
मेरी सिसकी और बढ़ गयी।
अच्छा, लाओ भाई डंडा, मैं आज इसकी पिटाई ऐसी करूँगा कि इसको फरिश्ते याद आने लगेंगे। राजा साहब गरज पड़े।
बड़े सरकार ने अंगुली का इशारा करते हुए कहा चुप।

मुझे याद है कि मैं बहुत ही कठिनाई से चुप हुई थी। राजा साहब देर तक लाल-लाल आँखों से मुझे घूरते रहे थे। लेकिन इतना डॉक्टर के बाद एकदम चुप हो गए और सिर झुकाकर कुछ सोचने लगे। मैं अब भी उनकी बड़-बड़ी मूँछों और उनके सिकुड़े हुए मुँह को देख सकती हूँ।

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