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झीनी झीनी बीनी चदरिया

अब्दुल बिस्मिल्लाह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2457
आईएसबीएन :9788126707959

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यह उपन्यास बनारस के साड़ी-बुनकरों पर आधारित है...

Jhini Jhini Bini Chadariya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बुनकरों की इस अभावग्रस्त और रोग-जर्जर दुनिया में हम मतीन, अलीमुन और नन्हें इकबाल के सहारे प्रवेश करते हैं जहाँ मौजूद हैं रऊफ चचा, नजबुनिया, नसीबुन बुआ, रेहाना, कमरुन, लतीफ,बशीर और अल्ताफ जैसे अनेक लोग, जो टूटते हुए भी साबुत हैं-हालात से समझौता नहीं करते, बल्कि उनसे लड़ना और उन्हें बदलना चाहते हैं और अन्ततः अपनी इस चाहत को जनाधिकारों के प्रति जागरूक अगली पीढ़ी के प्रतिनिधि इकबाल को सौंप देते हैं। इस प्रक्रिया में लेखक ने शोषण के उस पूरे तन्त्र को भी बड़ी बारीकी से बेनकाब किया है जिसमें एक छोर पर हैं गिरस्ता और कोठीवाल, तो दूसरे छोर पर भ्रष्ट राजनीतिक हथकण्डे और सरकार की तथाकथित कल्याणकारी योजनाएँ। साथ ही उसने बुनकर-बिरादरी के आर्थिक शोषण में सहायक उसी की अस्वस्थ परम्पराओं सामाजिक कुरीतियों मजहबी जड़वाद और साम्प्रदायिक नजरिये को भी अनदेखा नहीं किया है।

वस्तुतः इस उपन्यास के माध्यम से हम जिस लोकोन्मुख सामाजिक यथार्थ के रू-ब-रू होते हैं, जिस परिवेश की जीवन्त उपस्थिति से गुजरते हैं, उसका रचनात्मक महत्व होने के साथ ही ऐतिहासिक महत्व भी है। छित्तनपुर से मदनपुरा तक ठौर-ठौर फैली अनेक बुनकर-बस्तियों के लोगों की विशिष्ट जीवनशैली-उनका रहन-सहन, आचार-व्यवहार, धर्म-संस्कृति, आशा-आकांक्षा और विचार-संघर्ष हमें देर तक अपनी गिरफ्त में लिये रहते हैं और दूर तक अपने साथ रहने को बाध्य करते हैं।

 


सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार तथा केडिया पुरस्कार से सम्मानित यह उपन्यास बनारस के साड़ी-बुनकरों पर केन्द्रित है। नयी पीढ़ी के सुपरिचित कवि, कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने दस वर्षों तक बुनकरों के बीच रहने के बाद बीनी अपनी इस शब्द-चदरिया में बुनकर-जीवन के अनगिन चित्र उन्हीं की भाषा-बोली में उकेरे हैं। अपने कथा-चरित्रों से लेखक की जो गहरी जान-पहचान है उससे वह उन्हीं के बीच का हो गया है और आश्चर्य नहीं होगा यदि पाठक भी लेखकीय हिस्सेदारी का अनुभव करने लगे।

बुनकरों की इस अभावग्रस्त और रोग-जर्जर दुनिया में हम मतीन, अलीमुन और नन्हें इकबाल के सहारे प्रवेश करते हैं जहाँ मौजूद हैं रऊफ चचा, नजबुनिया, नसीबुन बुआ, रेहाना, कमरुन, लतीफ, बशीर और अल्ताफ जैसे अनेक लोग, जो टूटते हुए भी साबुत हैं-हालात से समझौता नहीं करते, बल्कि उनसे लड़ना और उन्हें बदलना चाहते हैं और अन्ततः अपनी इस चाहत को जनाधिकारों के प्रति जागरुक अगली पीढ़ी के प्रतिनिधि इकबाल को सौंप देते हैं। इस प्रक्रिया में लेखक ने शोषण के उस पूरे तन्त्र को भी बड़ी बारीकी से बेनकाब किया है जिसमें एक छोर पर हैं गिरस्ता और कोठीवाल, तो दूसरे छोर पर भ्रष्ट राजनीतिक हथकण्डे और सरकार की तथाकथित कल्याणकारी योजनाएँ। साथ ही उसने बुनकर-बिरादरी के आर्थिक शोषण में सहायक उसी की अस्वस्थ परम्पराओं सामाजिक कुरीतियों मजहबी जड़वाद और साम्प्रदायिक नज़रिये को भी अनदेखा नहीं किया है।

वस्तुतः इस उपन्यास के माध्यम से हम जिस लोकोन्मुख सामाजिक यथार्थ के रू-ब-रू होते हैं, जिस परिवेश की जीवन्त उपस्थिति से गुजरते हैं, उसका रचनात्मक महत्व होने के साथ ही ऐतिहासिक महत्व भी है। छित्तनपुरा से मदनपुरा तक ठौर-ठौर फैली अनेक बुनकर-बस्तियों के लोगों की विशिष्ट जीवनशैली-उनका रहन-सहन, आचार-व्यवहार, धर्म-संस्कृति, आशा-आकांक्षा और विचार-संघर्ष हमें देर तक अपनी गिरफ्त में लिये रहते हैं और दूर तक अपने साथ रहने को बाध्य करते हैं।
‘‘दरअसल हाजी साहब, मैं एक नावेल लिखना चाहता हूँ बनारस के साड़ी-बुनकरों पर। मैं उसी सिलसिले में कुछ जानकारी लेने के लिए आपके पास आया हूं।’’
अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब ने जब अपना उद्देश्य हाजी साहब को बताया तो वे खिल उठे। बोले, ‘‘बहुतै बढ़िया मट्टर साहब ! बहुतै बढ़िया ! लिक्खौ ! का का लिखियो ओम्में ?’’
इस पर बिस्मिल्लाह साहब ने हाजी साहब को विस्तार से बताया कि वे उनकी पूरी ज़िन्दगी को अपनी किताब में उतार देना चाहते हैं। बनारसी साड़ी बनानेवाले साधारण मजदूरों की जो दुर्दशा है, उनके शोषण का जो भयानक चक्र बड़े गिरस्ता लोगों और गोलघर से सेठों के बीच फैला हुई है, अपने उपन्यास में वे इन सब चीजों को दर्शाना चाहते हैं ‘‘कि एक आम बुनकर खुद कैसी ज़िन्दगी जी रहा है ?’’
‘‘गलत ! बिल्कुल गलत !’’ हाजी साहब भड़क उठे।...उन्होंने चिल्ला-चिल्लाकर बताया कि यहाँ का बुनकर मज़े में गोश्त-रोटी खाता है और ठाठ से रहता है ! गिरस तो खुद इनका क़र्ज़दार होता है ! एक कारीगर जै इंच की साड़ी रोज़ बुनता है तै इंच की मज़दूरी का कर्ज़ गिरस पर चढ़ जाता है।..तूँ मट्टर साब इन....

-इसी उपन्यास के ‘क्षेपक’ से

झीनी झीनी बीनी चदरिया
1

 


जाड़े की धूप इस छत से उस छत तक पीले कतान1 की तरह फैली हुई है। इस छत पर अलीमुन एक ओर बने हुए बावर्चीखाने में आग सुलगाने जा रही है और उस छत पर कमरुन कतान फेरने की तैयारी में व्यक्त है। अचानक दोनों छतें बोल उठती हैं, ‘‘का हो अलीमुन अभइन तक आग नाँहीं बारेव का ?’’
‘‘नाँहीं हो देखो अब जाइला बारे। एतना-सा काम रहा करे के एही से इतनी अबेर हो गयी हो। तूँ का करेतू ?’’
‘‘हम जाइला कतान फेरे, बड़ी जल्दी की है।’’
और तभी हब्बुन खट-खट सीढ़ियाँ चढ़कर इस छत पर पहुँचती है और अलीमुन के पास बैठ जाती है।
‘‘चलो हो हमरे साथ तइसा हुआँ जाये के है, हमरी खाला कियें !’’ बैठते ही वह अपने आने का मक़सद बताती है तो अलीमुन जल उठती है। इ अल्ताफ़ की बीवी को और कोई काम तो है नहीं, की खाला कियें तो कभी भउजी कियें...घूमने में ही इसका दिन बीतता है। वह इनकार कर देती है, ‘‘भक हो हम नाँहीं जइबा, तूँ जातू काहे ने।’’
‘‘बा हो तइसा हम कहीला जाये खातिर तो सफा इनकार कर दीयेन।’’
‘‘देखो अइसा ने है कि हम्मे तनिक्को मोका नहिंने, नाँहीं तो हम जरूर जाते।’’

और अल्ताफ़ की बीवी अपनी चादर उठाकर मुँह बनाती हुई चल देती है। अलीमुन फुँकनी उठाकर चूल्हा फूँकने लगती है। और जब अच्छी तरह आग जल जाती है तो वह पतीली में बड़के का गोस चढ़ा देती है। भीतर कमरे में बैठा-बैठा इकबाल न जाने क्या-क्या बना-बिगाड़ रहा है और पूरे घर को गन्दा किये दे रहा है। उसकी खटर-पटर से जैसे ही अलीमुन की निगाह उधर घूमती है, वह अपने शरारती बेटे पर चीखने लगती है, ‘‘अरे माटी-मिले तैं का बनावेते रे ! हट ओज्जन से..ई हरमिया बड़ा कोपाये रहेते, कउनो दिना तोरी नटइये दबा देब हो हरामी...’’ और चीखते-चीखते अलीमुन को खाँसी आ जाती है। खाँसते-खाँसते खून !
अलीमुन को टी.बी. हो गयी है। मतीन को मालूम है। लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता। घर का जो काम है वह बीवी को करना ही होगा। फेराई-भराई, नरी-ढोटा, हाँड़ी-चूली...सभी कुछ करना होगा। बिन किये काम चलेगा नहीं। और रहना भी होगा पर्दे में। खुली हवा में घूमने का सवाल नहीं। समाज के नियम सत्य है उन्हें तोड़ना गुनाह हैं, मतीन जानता है।
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1.रेशम

छित्तनपुरा से लेकर मदनपुरा तक, कहीं भी इस नियम में अन्तर नहीं है। सब रसूले-पाक की जम्मत हैं। सब अंसारी हैं, जिन्होंने हुजूर को शरण दी थी। हज़रत अय्यूब अंसारी के वंशज...मतीन को यही बताया गया है। सच क्या है, वह नहीं जानता। पर समाज का जो नियम है, उसे मानता है। जैसे सब मानते हैं।
कहते है कि बनारस में बिनकारी का काम छित्तन बाबा ने शुरू किया था। वे इजारबन्द (पैजामा का नाड़ा) बुना करते थे। उन दिनों मफलर की तरह के इजारबन्द होते थे। एक बार उनका बिना हुआ इजारबन्द लखनऊ के किसी नवाब की नजर से गुजरा तो उन्होंने उस सेठ को तलब किया जिसके माध्यम से वह इजारबन्द उन्हें मिला था। सेठ डर गया कि कहीं कोई सजा न मिले और वह नहीं गया। उसने छित्तन बाबा की पिटाई की और उन्हें नवाब के पास भेज दिया। वे डरते-डरते वहाँ पहुँचे तो नवाब साहब ने उनकी बड़ी खातिर की और बनारस में पाँच मुहल्ले आबाद करने की इजाज़त की। तब छित्तन बाबा ने मऊ से कुछ लोगों को लाकर तथा बनारस के कुछ लोगों को मिलाकर पाँच मुहल्ले बसाये और इस प्रकार वे ‘पाँचों’ के सरदार बने।

एक समाज दुनिया का है। एक समाज भारत का है। एक समाज हिन्दुओं का है। एक समाज मुसलमानों का है। और एक समाज बनारस के जुलाहों का है। यह समाज कई अर्थों में दुनिया के हर समाज से अलग है। इस समाज के कई खण्ड हैं। पाँचों हैं, चौदहों हैं, बाइसी और बावनों हैं। अब एक नयी बाइसी भी बन गयी है। हर खण्ड का अपना सरदार है, अपना महतो है। लेकिन पाँचों का सरदार सबसे बड़ा माना जाता है। चौदहो, बाइसी या बावनो का जब सरदार चुना जाता है तो उसके सिर पर पगड़ी पाँचो का सरदार ही रखता है। लेकिन पाँचों का सरदार प्राय: वंशगत होता है और वह खुद अपने सिर पर पगड़ी रखता है। यही स्थिति महतो की भी है। फिर यहाँ कुछ लोग बनरसिया हैं, कुछ लोग मऊवाले हैं। मऊवाले वे हैं जो आजमगढ़ जिले के मऊनाथ भंजन से आकर बस गये हैं। पढ़े-लिखे लड़के उन्हें ‘एम ग्रुप’ कहते हैं। जवाब में उधर के पढ़े-लिखे लड़के इन्हें ‘बी ग्रुप’ कहते हैं। ‘एम ग्रुप’ और ‘बी ग्रुप’ में नोंक-झोंक चलती रहती है।
फिर अलईपुरिया अलग हैं और मदनपुरिया अलग। खण्ड में से खण्ड। जैसे रेशम की अधरंगी पिण्डी में से कई-कई धागे निकले आ रहे हों। हर धागा दूसरे धागे से थोड़ा अलग दिखता है, पर ऐसा है नहीं। चाहे बनरसिया हों या मऊवारे, अलईपुरिया हों या मदनपुरिया, हैं सब एक।

यह बिरादरी छित्तनपुरा से लेकर इधर पठानी टोला, असाराबाद, ओंकारलेश्वर, सुग्गा गड़ही, मोलबीजी का बाड़ा, नरकटिया की गड़ही, चन्दूपुरा, आलमपुरा, हसनपुरा, कुतुबन शहीद, बहेलिया टोला, सलेमपुरा, मेहनिया तले, कोयला बाजार और चौहट्टा तक तथा उधर दुल्ली गड़ही, मोहम्मद शहीद, नीम तले, ऊधोपुरा, बाकराबाद, रसूलपुरा, जैतपुरा, कमालपुरा, लद्दनपुरा, छोहरा, कच्ची बाग, ओरीपुरा, फुलवरिया, तेलियाना, बड़ी बाजार, जलालीपुरा, बकरिया कुण्ड, दोसीपुरा और काजी सादुल्लापुरा तक फैली हुई है। गोदौलिया से आगे मदनपुरा, पित्तरकुण्डा और बजरडीहा की ओर भी इनका फैलाव है, पर उनकी रीति-नीति कुछ अलग है। बोली-भाषा भी थोड़ी भिन्न है। लेकिन हैं सब एक। मर्दों के पाँव करघे में और स्त्रियों के हाथ चरखे में।
अलीमुन का खून टी.बी. के रूप में बह रहा है। इकबाल खून देखकर घबरा जाता है। वह पास आकार अम्माँ को देखना चाहता है, पर अलीमुन उसे झिड़क देती हैं, ‘‘भागेते कि बतावें हम तुवें !’’
और इकबाल सहम जाता है। वह धीरे-धीरे वहाँ से चलकर अपने टूटे-फूटे खिलौनों के पास पहुंचता है और उन्हें एक पुराने-पुराने झोले में भरकर खटिया के नीचे सरका देता है। फिर दबे पाँव बाहर निकलता है और आहिस्ता-आहिस्ता सीढ़ियाँ उतर जाता है।

मतीन सुबह से ही निकला है। कतान घट गयी है। हाजी साहब के यहाँ से लाना है। जब से होश सँभाला है, मतीन बानी पर ही बिन रहा है। उसके बाप भी बानी पर बिनते थे। लतीफ अपना कतान खरीदकर लाता है और बिनता है। फिर अपनी साड़ी गोलघर ले जाकर अच्छे दामों में बेच देता है। यहाँ तो ये हाल है कि हाजी अमीरुल्ला साहब दें तो खाओ वरना भूखे रहो। करघा अपना, जाँगर अपनी, सिर्फ कतान हाजी साहब का, लेकिन हाजी साहब की कोठियाँ तन गयीं और मतीन उसी ईंट की कच्ची दीवीरों वाले दरबे में गुजर कर रहा है। पेट को ही नहीं अँटता, क्या करें ? कितनी भी सफ़ाई से बिनो, नब्बे रुपया से ज्यादा मजदूरी नहीं मिलने की। हफ्ते-भर में सिर्फ नब्बे रुपया ! उसमें से भी कभी पाँच रुपया ‘दाग’ का तो कभी तीन रुपया ‘मत्ती’ का और कभी ‘रफू’ का तो कभी ‘तीरो’ का कट जाता है। महँगाई की हालत यह है कि दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती ही जा रही है। वह रे अल्ला मियाँ वाह, खूब इन्साफ है तेरा भी !

मतीन सूरज की ओर ताककर छींकता है और फिर अपने खयालों में गुम हो जाता है।
अब्बा उसके बचपन में ही मर गये थे। अम्माँ को टी.बी. थी। उसका इलाज भी करना था और जिन्दा भी रहना था। अत: अंसारी स्कूल को गोली मार दी। नवाब मास्टर साहब थे वहाँ प्राइमरी सेक्शन में ! बिरादरी के थे। उन्होंने बहुत समझाया कि पढ़ लो बेटा, पर कैसे पढ़ता ? ज़िन्दगी की गाड़ी अंसारी स्कूल के बल पर नहीं चल सकती थी। वह लतीफ के अब्बा के पास बिनकारी सीखने जाने लगा। लतीफ भी बिनता था, लेकिन लतीफ उनका लड़का था और वह ‘जोड़िया’। वह काम सीख रहा था और बदले में पेट भरने-भर को कमा भी रहा था। पचास रुपया महीना। जब कभी माँ की बीमारी की वजह से वह न पहुँच पाता काम पर, उसका पैसा काट लिया जाता था। देर से पहुँचने पर ‘सकाडे’ से पिटाई होती थी और अगर कभी कोई गलती हो जाती तो जिस हाथ से गलती होती उसी हाथ पर ‘ढरकी’2 से मारा जाता। गाली ऊपर से, ‘साले ! भोसड़ियावाले..’
मतीन को याद है कि लतीफ का बाप बहुत क्रोधी था। और काइयाँ भी। जैसे ही वह पहुँचता, उसकी डपटती हुई आवाज सुनायी पड़ती, ‘चल बे चल, काम में चल।’ और जैसे

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1.बाँस की छड़ी। इसका इस्तेमाल बिनकारी में भी होता है।
2.ढरकी बिनकारी का मूल यन्त्र है। यह दो तरह की होती है : तीरीदार और माकोदार। तीरीदार में से कलाबत्तू पास होता है और माकोदार में से धागा।
ही ‘फल्ली’1 तैयार होती, खड़ा हो जाता। बोलता, ‘चल बे, फल्ली छोड़ दे अउर ताग भराव, अउर, ‘फू’2 दे। हम आइते। और चला जाता सड़क पर पान खाने।
वह खटता रहता।

अपने विचारों में खोया हुआ मतीन कब पहुँच गया हाजी साहब के यहाँ, उसे मालूम नहीं। वह चौंका, जब उसे देखते ही हाजी साहब ऊपर चले गये और अपने लड़के को जोर-जोर से जगाने लगे, ‘‘कबे कमरुवा, अभइन नाँही उट्ठे ? अभइन तक काहे सूत्ते है ? उठ जल्दी।’’
मतीन सुनता है। उसे लगता है कि कमरुद्दीन शायद देरी कर रहा है। हाजी साहब की आवाज फिर गूँजने लगती है, ‘‘कबे अभइन तक का करेते बे ? अभइन तक काम-धन्दा में हाथ काहे नाँहीं लगा ? देख कारीगर कब्बे से आके तोरी आस में बइठा है। ओकी कतान घट गयी है। ओके पास एद्दम कतान नइने कि ऊ रेजा3 पुजावे। कतनिया केतनी ओके दिये रहे कि घट गयी। चल ओके काम-भर कतान दे दे, अउर तइसा तार4 भी ओके दे देबे।’’
और मतीन देखता है कि कमरुद्दीन सीढ़ियाँ उतरकर आँगन में आ गया है। वह एक किनारे खिसक जाता है। कमरुद्दीन गद्दी पर जम जाता है।
‘‘का म्याँ कब आएव ?’’

‘‘हम्में तो आये देरी भोवा, कब्बे से तोरी आस में बइठे हैं।’’
‘‘अरे तो तुवहूँ तो एतना सबरवे आके बइठ गएव। जनतो नाँहीं कि आजकल केतना जल्दी आठ बज जाते ?’’ फिर वह रेशम तौलकर मतीन को देता है और साथ ही हिदायत भी-
‘‘अच्छा लो, कतान ले जाओ। देखो रेजा मजे का बिनियो। अच्छा उतरे। तनिक्को कोई बात का उन्नईस न रहे।’’
‘‘नाई नाई उन्नईस काहें के होइए। अल्ला चइये तो रेजा बहुत बढ़ियाँ उतरिये।’’ मतीन अपना रटा हुआ वाक्य बोलता है और कतान लेकर बाहर आ जाता है।

घर आकर अलीमुन को वह लस्त-पस्त हालत में देखता है तो दहल जाता है। उसे अपनी अम्माँ की याद आ जाती है कि किस तरह वह भी खून की उल्टियाँ करती हुई चल बसी थी और वह घबरा उठता है।
मतीन दौड़कर डाक्टर अंसारी के यहाँ पहुंचता है और दवाई ले आता है।
बिरादरी में अब डाक्टर-वकील सब हो गये हैं। कालेज अलग, अस्पताल अलग। बैंक अलग, अखबार अलग। पुराने जमाने में कोई कबीर नाम का कवि हुआ था इस बिरादरी में तो इस ज़माने में नज़ीर बनारसी नाम के शायर भी हैं, जो अब हज भी कर आये हैं। बुनकर मार्केट अलग है और बुनकर कालोनी अलग। बुनकरों के लिए एक स्पेशल सिनेमा हाल भी है, यमुना टाकीज। बी.ए., एम.ए. तो न जाने कितने हो गये बिरादरी में।
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1. थोड़ा-सा बिना हुआ भाग। 2. मुँह में पानी भरकर बिने हुए वस्त्र पर फुहार मारने की क्रिया ‘फू’ कहलाती है। 3. निर्माणधारी साड़ी। 4. सुनहरा धागा, जिसे कलाबत्तू भी कहते हैं।

लेकिन मतीन अभी तक बानी पर ही बिन रहा है।
मतीन चाहता है कि वह भी एक छोटा-मोटा गिरस्ता1 बन जाए। कम-से-कम इतनी हैसियत तो हो ही जाए कि अपना रेशम-धागा खरीदकर केवल अपनी मेहनत के बल पर कमाये खाये। तब बड़े गिरस्तों का मुँह तो नहीं जोहना पड़ेगा।
मतीन खास पढ़ा-लिखा नहीं है तो क्या हुआ, समझदार है। युवा है। तरक्की करने का जज्बा है उसमें। इसीलिए वह निडर है। एक दिन वह शहर उत्तरी के एम. एल. ए. अल्ताफुर्रहमान अंसारी साहब के यहां गया था। वहाँ उसे मालूम हुआ कि सरकार ने तो बुनकरों के लिए काफी सहूलियतें दे रखी हैं। उनके लिए शेयर कैपिटल, आर.बी.आई है। लोन लेकर वे अपना काम ज्यादा बढ़िया ढंग से कर सकते हैं। कई लोग मिलकर एक कोआपरेटिव सोसाइटी बना सकते हैं जिसके जरिये लोन भी ले सकते हैं और अपना माल सरकार को तथा बाहर के मुल्कों को अच्छे दामों में बेच सकते हैं। तब से वह इसी फिराक में है कि किसी दिन रथयात्रा2 जाकर बैंक में पता लगावे कि किस तरह उसे लोन का रुपया मिल सकता है। मगर फुर्सत ही नहीं मिलती।

मतीन अपनी बीवी के पास बैठा है और सोच रहा है। इकबाल कहीं खेलने चला गया है। अचानक अलीमुन को फिर खाँसी आती है और खून का एक छोटा-सा थक्का फर्श पर गिर पड़ता है। मतीन उसे कपड़े से पोंछकर नीचे गली में गिरा देता है। ‘वाह रे अल्ला मियाँ’...वह बुदबुदाता है और सिर थामकर बैठ जाता है।

2

 


सरइया के आगे, बरना पुल के उस पार ताड़ के बागों में शाम कुछ जल्दी ही पहुंच जाती है। और उन बागों में जो बुनकर जल्दी पहुँचता है उसे सबसे अच्छी ताड़ी मिलती है। हालाँकि बढ़िया ताड़ी तो सुबह ही मिल सकती है। एकदम पेवर नीरा, पर वह  जवानों के लिए होती है, जिनके लिए गुनाह करना कोई गुनाह नहीं है। लेकिन जो लोग गुनाह को गुनाह की तरह नहीं करना चाहते वे शाम के झुटपुटे में इन बागीचों की ओर आते हैं। लुंगी पहने, एक हाथ से उसका टोंका उठाये, टोपी लगाये, अल्ला रसूल की बातों में मशगूल, पाकिस्तान की तारीफ़ करते हुए और हिन्दुस्तान को गालियाँ बकते हुए ऐसे शाम होते ही सारसों की तरह इस क्षेत्र में मँडराने लगते हैं।
लतीफ ने थोड़ी ज्यादा ही पी है आज, पर नशा का कहीं पता नहीं है। ‘बुरचोदी के पानी बहुत ज्यादा मिलाइसे बे।’ वह बुदबुदाता है और आरा मशीन की बगल से निकलकर अंसाराबादवाली मस्जिद के सामने पहुंच जाता है। मस्जिद अभी निर्माणधीन है। वहाँ
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1.बड़े सेठों को ‘गिरस्ता’ या ‘कोठीवाल’ कहा जाता है। ‘गिरस्ता’ लोग बुनकर ही होते हैं, पर ‘कोठीवाल’ प्रायः हिन्दू सेठ होते हैं। 2. बनारस का एक मुहल्ला।

चन्दा उतर आया है और लाउडस्पीकर पर एलान हो रहा है:
‘हाजी मतिउल्ला गिरस ग्यारा सौ रुपिया !’
‘हाजी वलिउल्ला पान सौ एक रुपिया !’
‘हाजी अमीरुल्ला यक्कइस सौ रुपिया ! ’
‘‘हाजी अमीरुल्ला केतना दियेन म्याँ ?’’ लाउडस्पीकर से छनकर यह सवाल बाहर आता है।
‘‘यक्कइस सौ, तोरा केतना लिक्खैं हाजी साहब ?’’
‘‘हमरा पाँच हजार रइये। लिक्खौ।’’
लतीफ उदास हो जाता है। उदास इसलिए हो जाता है कि वह अपना चन्दा और आगे बढ़कर नहीं लिखवा सकता। यहाँ तो होड़ है। इस होड़ में वह नहीं शामिल हो सकता।
कमरुन कल शाम को जाकर अपना छागल दे आयी थी। बता रही थी कि रात में बहुत सारी औरतों ने ताँबें-पीतल के बर्तन से लेकर अपने सोने के जेवर भी दे दिये हैं। मस्जिद के लिए। आखिर अल्ला-ताला का घर बना रहा है, क्यों न कोई सवाब ले ?
पर उसके पास क्या है कि बढ़-चढ़कर चन्दा लिखवाये और उस जहान में जन्नत और इस जहान में नाम कमाये ?
नहीं ! वह चाहे तो कमा सकता है जन्नत। आज रात रेजा अगर उतर जाता है तो साड़ी कल बिक ही जाएगी। वह मतीन की तरह बानी पर थोड़े बिनता है कि गिरस्त का मुँह जोहेगा। अपना कतान है, अपना करघा है। मेहनत भी अपनी है।
और वह जल्दी-जल्दी घर की ओर बढ़ने लगाता है। आज रेजा पूरा ही करना है, चाहे जैसे हो ताकि कल वह भी मस्जिद में कुछ दे सके। कल आखिरी दिन है। कल असिर1 बाद में चन्दा-वसूली बन्द हो जाएगी।

लतीफ घर पहुंचकर सीधे करघे पर बैठ जाता है और शुरू हो जाता है-खटा-खुट ! खटा खुट !

लतीफ रात-भर बिनता रहता है। भोर होते-होते रेजा पूरा हो जाता है।
बस, चार सौ का काम हो गया। रेजा अब की बढ़िया उतरा है। चार सौ में बिक जाएगी साड़ी। तीन सौ के करीब निकल जायेंगे कतान-वतान के। सौं बचेंगे।  काम चल जायेगा। इक्यावन दे देंगे मस्जिद में, बाकी से घर का खर्च निकल जाता है।
गोरघर में बड़ी रौनक है। अन्दर दिन में भी रात-जैसा समा है। दूकानों में बिजली के
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1.लगभग चार बजे शाम की नमाज़।

कई कई लट्टू जल रहे हैं और दूकानदार अपनी-अपनी गद्दी पर बैठे गाहकों को ताड़ रहे हैं गद्दियों पर तरह-तरह की जरीदार साड़ियाँ बिखरी हुई हैं और लग रहा है जैसे पूरा-का-पूरा बाजार किसी अनन्त विवाह के लग्न के लिए सुहाग-वेश सजाये बैठा हुआ है।
अलईपुर इलाके में अनेकानेक बुनकर लुंगी पहने, टोपी लगाये, ‘रीको’ और ‘सीको’ घड़ियाँ बांधे, बगल में साड़ी की पेटी दबाये पूरे गोलघर में घूम रहे हैं। वहीं, सामान्य वेश में भी असामान्य से नजर आनेवाले भांति-भांति के दलाल भी घूम रहे हैं, जो एक  ओर तो बुनकरों पर अपना ध्यान लगाये हुए हैं और दूसरी ओर बनारसी साड़ी के खरीददारों पर अपनी बगुला नजर जमाये हुए हैं।
 
लतीफ एक दूकान के सामने खड़ा हो जाता है। वह चाहता है कि अपने माल का सौदा करे, लेकिन वहां कोई बड़ा खरीददार पहुंचा हुआ है। साथ में रामभजन दलाल भी है। लतीफ दलाली की भाषा समझता है, इसलिए रुचि लेकर सुन रहा है। दलाल दुकानदार से पूछता है, ‘‘कहिए, मंगलदास जी हैं या नहीं ?’’
लतीफ समझ जाता है कि यह रुपया पीछे दो आने दलाली पर माल दिखाने के लिए कह रहा है।
दूकानदार कहता है, ‘‘बइठो भइ, मंगलदास जी तो नहीं है, लेकिन हमारा-तुम्हारा व्यवहार तो चलता है।’’
अर्थात् दूकानदार छ: पैसे रुपये की दलाली पर माल बेचना चाहता है।
दलाल निराश हो जाता है, लेकिन हिम्मत नहीं हारता। कहता है, ‘‘माप कांगड़ा। ठीक ढलचिए तो गिलौड़ी हो। बाड़ा पलना अभी। गाउली फिर। सलाय जोलाय चाहिए।’’
अर्थात् ग्राहक धनी है। ठीक से बेचिए तो बात हो। भुगतान अभी हो जायेगा। दलाली फिर दे दीजियेगा। दस-बारह साड़ियाँ चाहिए !
दूकानदार कहता, ‘‘दूसरा होता तो खरे की बात होती, पर आपसे व्यवहार चलता है, इसीलिए।’’
अर्थात् दूसरा होता तो एक आना प्रति रुपया ही देता, आपको छ: पैसे दे रहे हैं। खैर..दलाल मान जाता है और माल दिखाने के लिए कहता है। दूकानदार नौकर को आदेश देता है, ‘‘दमोड़ा लल् में उक्तो।’’
अर्थात् दाम गुप्त भाषा में बोलो।
और व्यापार शुरू हो जाता है। लतीफ बगल में अपनी पेटी दबाये खड़ा रहता है। अचानक वह अपने कन्धे पर दवाब महसूस करता है और घूमकर देखता है तो हाजी अमीरुल्ला साहब के लड़के कमरुद्दीन को देखकर सहम जाता है। कमरुद्दीन से वह हमेशा सहमता है। हाजी अमीरुल्ला अगर दाढ़ीवाला बड़ा जोंक लगता है तो कमरुद्दीन बिना दाढ़ीवाला जोंक मालूम पड़ता है। वह घबराने लगता है।
‘‘बेचिहो ?’’ कमरुद्दीन पूछता है तो लतीफ थर्रा उठता है। लगता है आज वह फिर उसकी साड़ी ले लेगा। इस गोलघर में तो छोटे-मोटे कारीगरों की कोई गिनती ही नहीं है। सेठ-महाजन ध्यान ही नहीं देते। जहाँ लाट-का-लाट माल आ रहा हो वहाँ एक-दो साड़ियाँ की क्या बिसात ? और अगर मेहरबानी करे ले भी ले तो पैसा देंगे हफ्ता-भर बाद। तब तक तो कतानवाले गोश्त नोच डालेंगे। अत: नकद पैसे के लोभ में लतीफ जैसे टुटपुँजिए कारीगर कमरुद्दीन जैसे जोंकों के हाथ कम पैसे में ही अपना माल बेच देते हैं।
लतीफ साढ़े तीन सौ में अपनी साड़ी कमरुद्दीन के हाथ बेच देता है।
तीन सौ निकल जाते हैं कर्ज के। बाकी बचते हैं पचास। इसी में चाहिए कम-से-कम दस दिनों के लिए आटा, चावल, गोश (भैंस का) और दूसरी चीजें। उनमें से एक चीज मस्जिद भी है। अल्ला मियाँ का घर।
उसका क्या होगा ?
लतीफ मस्जिद के सामने पहुंचता है और लिखवाता है : अब्दुल लतीफ ग्यारा रुपिया। लिखने वाले सज्जन उसे घूरकर देखते हैं और लाउडस्पीकर पर बगैर एलान किये ही उसके हाथ से दस का नोट और एक का सिक्का लेकर सामने रखे बॉक्स में डाल लेते हैं !
वह अंसाराबाद की सड़क पर आता है तो लगता है, रास्ता यक-ब-यक काफी लम्बा हो गया है।










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