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मुठभेड़

ध्रुव गुप्त

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2465
आईएसबीएन :81-267-0810-7

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समय और समाज का सच तथा संवेदना का नया आख्यान है इन कहानियों में

Muthbher

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सुपरिचित कवि, ग़ज़गलगो तथा ‘संभवा’ जैसी पत्रिका के संपादक ध्रुव गुप्त का कहानी के क्षेत्र में आगमन एक सुखद घटना है। ‘मित्र’ में प्रकाशित उनकी कहानी ‘नाच’ ने विषय के चयन, कथा गठन के कौशल, कथा की जमीनी पकड़ और भाषा की जीवंतता के कारण मुझे आश्चर्यचकित किया था। इस दौरान कुछ अन्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी कहानियाँ भी नई जमीन तोड़ती हुई प्रतीत हुईं।

‘मुठभेड़’ ध्रुव गुप्त का पहला कहानी-संग्रह है। लेकिन हाथ के नएपन का एहसास इन कहानियों में कहीं नहीं। पेशे से पुलिस अधिकारी ध्रुव गुप्त ने अपने अनुभव संसार की प्रखरता को अपने कवि मन की संवेदनशीलता और काव्यात्मक भाषा में ढालकर अपनी कहानियों को निखारा और एक नया स्वाद प्रदान किया है। इन कहानियों में हमारे समय का यथार्थ पूरे तीखेपन के साथ व्यक्त हुआ है। संग्रह की प्रायः सभी कहानियाँ हमारे मन में एक टीस पैदा करती हैं। व्यवस्था की बदतरी और सामाजिक विकृतियों के प्रति हमें सजग बनाती हैं। हमें सोचने को बाध्य करती हैं।

इस संग्रह की पाँच कहानियाँ पुलिस जमीन की कहानियाँ हैं जो कथाकार का अनुभव जगत भी है। ‘मुठभेड़’ में जब माहौल की विसंगतियाँ एक संवेदनशील पुलिस अधिकारी को अमानवीय बनाती हैं तो सचमुच मन कचोट कर रह जाता है। यह बाहरी संघर्ष ही नहीं, आंतरिक संघर्ष की भी कथा है। इसी तरह ‘हत्यारा’ और ‘कांड’ कानूनी दाँव-पेंच के कारण न्याय न दिला पाने की एक संवेदन-शील पुलिस अधिकारी की आंतरिक पीड़ा को बेहद मर्मस्पर्शी तरीके से व्यक्त करती हैं।
‘समय और समाज का सच तथा संवेदना का नया आख्यान’ मेरी समझ से कहानियों की कसौटी है। ध्रुव गुप्त की कहानियाँ निःसन्देह इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। पाठकीयता से लबरेज इन कहानियों का निश्चित रूप से स्वागत होगा।

 

मिथलेश्वर


मुठभेड़

 

 

फैसले की घड़ी आ पहुँची थी।
इंस्पेक्टर तिवारी का कहना है कि जो करना है, अगले एक-दो घंटे में कर लेना है। इन पाँचों को कम से कम एक किलोमिटर जंगल के भीतर ले जाना होगा। मुआफिक और विश्वसनीय घटना-स्थल की खोज करनी होगी। इन्हें गोली मारने से पहले कुछ और भी तैयारियाँ जरूरी हैं ताकि मुठभेड़ की घटना एकदम सच्ची और स्वाभाविक लगे। कहीं से कोई कमी रह गयी तो बाद में मुसीबत खड़ी हो सकती है। उन्हें बस मेरी सहमति का इंतजार था।

रात के ढाई बज रहे थे। अंधेरे में जंगल साँय-साँय कर रहा था। हवा तेज चल रही थी। अंदर तक ठिठुरा देने वाली शीतलहर से बचने के लिए मैंने ओवरकोट में कॉलर खड़े किए और मफलर से नाक के अलावा समूचा चेहरा ढँक लिया। गाँव के सिवान पर जंगल के किनारे स्थिति इस टूटी झोपड़ी में मेरी बगल वाली खाट पर बैठा इंस्पेक्टर तिवारी झपकी ले रहा था। उसके चेहरे पर आज रात की अपनी उपलब्धियों का इत्मीनान था। उसने पाँच कुख्यात नक्सलियों को गिरफ्तार कर अपने एस.पी. की वाहवाही लूटी थी। बाहर से थानेदार महतो, दारोगा रामसिंहासन पाण्डे और सशस्त्र बल के जवानों के बातें करने पर की अस्पष्ट-सी आवाजें आ रही थीं। जवानों ने सूखी लड़कियाँ जमा कर बाहर आग जला ली थी। दो बोरसी आग वे हमारे लिए रख गए खाट पर मैं था उसके बगल में एक खंभे के पास हथकड़ी और रस्से में जकड़े पाँच युवक बैठे थे। पांचों को बाँधने वाले रस्से का एक सिरा खंभे से और दूसरा मेरी खाट से बँधा था।

मुझे लगातार अपनी ओर ताकते देखकर पाँचों ने एक साथ हाथ जोड़ दिए। उनकी आँखों और चेहरों पर इस वक्त ख़ौफ था। उन्होंने हम पुलिसवालों की बातें टुकड़ों-टुकड़ो में सुन ली थीं और अब तक समझ चुके थे कि अगली सुबह देखने के लिए वे जिन्दा नहीं बचेंगे। कड़ाके की ठंड में वे सभी काँप रहे थे। उनमें से दो तो महज पाजामा कमीज में थे। एक के बदन पर लुंगी और फटा हुआ स्वेटर था। बाकी दो गंदी चादरें ओढ़े हुए थे। सभी का रंग गहरा काला था।  बिलकुल इस रात जैसा।
मैं उलझन में था और इस प्रकरण में अपनी भूमिका तय नहीं कर पा रहा था। मुझे यह भी पता नहीं था कि आज सचमुच मेरी कोई भूमिका है भी या नहीं। एस.पी. जाते-जाते आदेश दे गए थे कि सुबह होने के पहले इन पाँचों को मुठभेड़ दिखाकर मार डालना है। सारे पुलिस वाले अब सिर्फ मेरी यानी अपने डी.एस.पी. की गैरजरूरी हामी और रात के आखिरी पहर का इंतज़ार कर रहे थे। मुझे कुछ नहीं सूझा तो मैंने तिवारी को आवाज दी।
वह सँभला और हड़बड़ी में पूछ बैठा, ‘‘चला जाए सर ?’

मैंने कहा, ‘‘तिवारी जी, आपको लगता है कि ये नक्सलाइट हैं ? आप लोग गलती तो नहीं करने जा रहे हैं ?’’
तिवारी ने पाँचों युवकों को सरसरी नज़र से देखते हुए कहा, ‘‘बुरा न मानें, सर ! आप पुलिस सर्विस में अभी नए हैं। लोगों को पहचानने में अभी आपको वक़्त लगेगा। सबको लगता है लोगों को पहचानने की काबिलियत अनुभव के साथ आती है। मैंने सत्रह साल उग्रवाद प्रभावित जिलों में काम किया है। तेरह मुठभेड़ किए हैं। दर्जनों नक्सलियों को मारा है। सैकड़ों अस्लहा बरामद किए  है। अपने लंबे अनुभव के आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि ये पाँचों साले पक्के नक्सलाइट हैं !

‘‘आपका दावा गलत हुआ तो ? पहचानने में गलती भी तो हो सकती है आपसे ?’’
‘‘तब भी इन्हें मारने में क्या पाप हैं ? यह छिपी हुई बात नहीं हैं कि बरेवा घाटी का यह गाँव पिछले दो बरसों से नक्सलियों का गढ़ बना हुआ है। उनका हथियारबंद दस्ता महीने में दस दिन इसी गाँव में पनाह लेता है। अपने हथियार वे लोग इसी गाँव में छिपाते हैं। हम पुलिसवाले यहाँ कम ही आ पाते हैं। कभी भूले-भटके आ गए तो हमारे पहुंचने के पहले उन्हें हमारी खबर मिल जाती है। खबर देते हैं इसी गाँव के चरवाहे और मजदूर। भोसड़ीवाले दामाद की तरह खातिर करते है। अपनी बेटी-बहूँ उसकी खिदमद में हाजिर करते हैं। बड़े किसानों की जमीन-जायदाद पर कब्जा करने के लिए उन्हें इन्वाइट करते हैं। हत्याएँ कराते हैं। ये खुद उग्रवादी न हों तो भी उग्रवादियों को शरण देने, उनके अस्लाहा छुपाने और बड़े लोगों की जमीन पर कब्जा करने के मतलब से उन्हें इन्वाइट कर हत्याएँ कराने के लिए ये दोषी तो हैं ही !’’

मेरी नज़र उन पाँचों के चेहरों से हट नहीं रही थी। मैं उनकी आँखों में उनके अपराधों के चिन्ह तलाश रहा था। बहुत कोशिश के बावजूद वहाँ मुझे मासूमिय़त के अलावा कुछ नज़र नहीं आया। मुझमें अनुभव की कमी थी शायद। वे अब भी हाथ जोड़े जिस नज़र से मुझे देख रहे थे, वह सीधे मेरे भीतर उतरी जा रह थी। मैं शायद भावुक हो रहा था, लेकिन तिवारी की बातें भी मुझे कन्विंस नहीं कर पा रही थीं। जीवन की बहुमूल्य चीज़ का फैसला इतनी छिछली दलीलों के आधार पर और इतनी हड़बड़ी में नहीं किया जा सकता।

मैंने कहा, ‘‘यह संभव है कि इस गाँव के कुछ लोग अपने मतलब के लिए उग्रवादियों की मदद ले रहे हों। मगर यह कैसे साबित होगा कि वैसे लोगों में ये पाँचों भी शामिल हैं ? न तो आपके पास इस बात का कोई सबूत है और न ही इन लोगों ने अपना अपराध कबूल किया है।’’
‘‘इनका अपराध कौन साबित करेगा, सर ? इन हरामजादों के डर से कोई इनके खिलाफ मुँह खोलने की हिम्मत करता है ? आप सर यह क्यों भूल गए कि पिछले बरस कुंदा थाने के दरोगा बिन्देश्वर सिंह और दो जावानों की हत्या इसी गाँव के लोगों ने नक्सलियों की मदद से की थी। हमने इस गाँव के दर्जनों लोगों को पकड़ा था। उन्होंने पुलिस के सामने अपना अपराध कबूल किया था, लेकिन कोर्ट में साले अपने बयान से मुकर गए। साक्ष्य के अभाव में हम उनके खिलाफ कुछ नहीं कर पाए थे।’’

‘‘उस हत्या में ये पाँचों भी शामिल थे ? या आप दूसरे लोगों के अपराध का दंड इन बेकसूरों को देना चाहते हैं ?’’
‘‘इन मादरचोदों का हुलिया बता रहा है कि उस मर्डर में भी ये शामिल थे। इनका थोबड़ा देखिए ! कैसे सकपकाए और डरे हैं साले। जो गलती नहीं करेगा, डरेगा क्यों ? फिर एस पी साहब का आदेश...उसका ऐसेस्मेंट तो गलत नहीं हो सकता।’’
मुझे एस.पी. माथुर का चेहरा याद आ गया। जाते वक्त उन्होंने कितनी नफरत से इन पाँचों के चेहरों पर थूकते हुए कहा था, ‘‘सुबह तक ये साले जिन्दा नहीं बचने चाहिए !’’

कल दिन तक उनींदी घटियों की गोद में बसा बीस-पच्चीस घरों का यह छोटा-सा आदिवासी गाँव शाम चार बजते-बजते गाड़ियों की घर्राहट और पुलिस के जवानों के कोलाहल से भर उठा था। कल दोपहर एक जीप से गुजर रहे दो किसानों, बीड़ी पत्ते के एक बदनाम ठीकेदार और एक फारेस्टर को नक्सलियों ने गोलियों से  छलनी कर डाला था। उनकी लाशों पर वे चार हस्तलिखित पोस्टर गिरा गए थे जिनमें हत्या के शिकार लोगों को सामंत प्रतिक्रियावादी, जालिम और बलात्कारी घोषित करते हुए जनता के हित में उनकी हत्या को ज़ायज और जरूरी बताया गया था। पुलिस के पहुँचने कर लगभग सारा गाँव खाली हो चुका था। गिरफ्तारी के भय से सारे युवा मर्द और औरते फरार हो गए थे। हमने तमाम घरों और आसपास के जंगलों की तलाशी ली, लेकिन दो-चार बूँढी औरतों के अलावा कोई न मिला।

उग्रवादियों के भागने की दशा में एक किलोमीटर दक्षिण की तरफ एक पहाड़ी नदी के किनारे करीब दो दर्जनों लोगों के खाने-पीने का चिन्ह, दारू की कुछ खाली बोतलें और गोलियों के कुछ खोखे मिले थे। वहाँ कागज का एक टुकड़ा भी मिला था जिस पर कुछ फोन नंबर और लोगों से रंगदारी में ली गयी या ली जाने वाली रकम का ब्योरा दर्ज था।
शाम तक डी.एम. और एस.पी. अपने लंबे-चौड़े काफिलों के साथ पहुँचे। एस.पी. माथुर बेहद गुस्से में थे। घटना-स्थल का मुआयाना करने के बाद थानेदार महतों को उन्होंने थाने में उग्रवाद की बढ़ती घटनाओं के लिए जमकर फटकारा और जिला मुख्यालय लौटते ही उसे स्सेपेंड कर देने का ऐलान किया। इंस्पेक्टर तिवारी को डाँटने में थोड़ी नरमी बरती उन्होंने। इस दौरान मैं बगल के जंगल से सब कुछ सुन रहा था। एस.पी. ने डपटकर महतों से पूछा, ‘‘तुम्हारे डी.एस. पी. साहब कहाँ है इस वक्त ?’’

मैं कुछ व्यक्त और थका-थका दिखने की कोशिश करता हुआ पेड़ों के पीछे से निकलकर बाहर आ  गया। कहा ‘‘सर, मै जंगल में चरवाहों से नक्सलियों के बारे में पूछताछ कर रहा था। मुझे कुछ क्लू मिले हैं।’’
‘‘आपके अनुमंडल में पिछले तीन महीनों में नौ लोगों की हत्याएँ हुई हैं। तीन किसानों का अपरहण हुआ है। पांच डकैतियाँ पड़ी हैं। जिला पुलिस की कार्य-क्षमता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। सरकार कटघरे में है। आप अभी तक चरवाहों से पूछताछ कर रहे हैं ? कार्रवाही का समय कब आएगा, बताने की कृपा करेंगे आप ?’’

मैंने पिछले तीन महीनों के दौरान नक्सलियों की गिरफ्तारियों का सिलसिलेवार ब्योरा देने की कोशिश की तो उन्होंने बीच में ही टोक दिया, ‘‘बकवास, बंद कीजिए ! हम जानना चाहते हैं कि आपकी लीडरशिप में पुलिस ने उग्रवादियों के साथ कितनी मुठभेडों कीं और उन मुठभेड़ों में कितने उग्रवादी मारे गये ? जब उग्रवादी डेस्पेरेट होकर लोगों की हत्यायें कर रहे हों  तो उनके खिलाफ गिरफ्तारी को हम कायरतापूर्ण कार्रवाई मानेंगे। ऐसी कार्रवाईयों से उग्रवादियों का मनोबल ही बढ़ता है।’’

मैंने झिझकते हुए कहा, ‘‘सर, हमलोगों ने महीने में बीस-बीस दिन जंगलों की खाक छानी हैं। दर्जनों पहाड़ियों के पीछे रात-रात भर एम्बुश लगाया है। यह हमारा दुर्भाग्य कि दस्ते से हमारी मुठभेड नहीं हुई। संदेह के आधार पर हम किसको पकडकर मार डालते ? ऐसी मुठभेड़ों से समस्या कम होने के बजाय और बढ़ जाएगी।’’
‘‘आपको पता है कि इस जंगल में रहनेवाले सारे जवान लोग उग्रवादी दस्ते के सदस्य हैं ? बाहर से देखने पर वे मजदूरी करते हैं, लेकिन पार्टी का निर्देश मिलने पर हत्याएँ भी करते हैं और डाका भी डालते हैं। करने को कुछ न मिला तो उग्रवादियों के हथियार और झोले ढोते हैं। गाँव की जवान औरतें उनके पास पहुँचाते हैं। आप के साथ प्रॉब्लम दूसरा है। आप चाहते हैं उग्रवादी हथियार लेकर आपके सामने खड़े हो जाएं और कहें कि आइए, सर हमें मार डालिए, हम सचमुच के उग्रवादी है। ’’

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