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आगामी अतीत (सजिल्द)

कमलेश्वर

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2469
आईएसबीएन :8126708883

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पूँजीवादी समाज के स्पर्द्धामूलक परिवेश की विडम्बना और अन्तर्विरोध ही इस उपन्यास का मुख्य कथ्य हैं

Aagami Atit a hindi book by Kamleshwar - आगामी अतीत - कमलेश्वर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आगामी अतीत का कथ्य रोमांटिक जरूर लग सकता है, परन्तु इसमें निहित रोमांटिकता के भीतर भी जो गहरी टीस व्याप्त है उसके सन्दर्भ खासतौर से सामाजिक-आर्थिक निर्भरताओं से जुड़े हुए हैं। यानी रिश्ते भी किस तरह मूर्छित हो जाते हैं या किस तरह का रूप मानसिक मजबूरियों की वजह से ले जाते हैं, इसीलिए इस उपन्यास में रोमांटिकता को रोमांटिकता से ही काटने का प्रयास दिखाई देता है। जब इस उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन हुआ था, तब इसके उद्देश्य को लेकर गहरी बहस भी सामने आयी थी और अन्ततः पाठकों ने यह पाया था कि परम्परावादी रोमांटिक कहानियों से अलग यह उपन्यास एक नये कथ्य को सामने लाता है।

पूँजीवादी समाज के स्पर्द्धामूलक परिवेश की विडम्बना और अन्तर्विरोध ही इस उपन्यास का मुख्य कथ्य हैं। सन् 73-74 के आस पास लिखे गये इस उपन्यास की सार्थकता आज के भूमंडलीकरण के दौर में सामने आ चुकी है। आर्थिक आपाधापी के कारण टूट रहे स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को इस उपन्यास में पहले ही हमारे सामने रख दिया था। और, उस नारी की पीड़ा को भी जो इस दौर की विकृतियों को सह रही है।

 

यह उपन्यास

 

यह उपन्यास ‘धर्मयुग’ में कुछ संशोधनों के साथ धारावाही छपा था। यहाँ पर मैं अपने सहृदय पाठकों  से मिले पत्रों में सिर्फ़ चार ख़तों के अंशों को पेश कर रहा हूँ। उनमें से दो यहाँ लेखक के उत्तर सहित यहाँ पेश हैं-

1.‘‘...‘आगामी अतीत’ पढ़कर काफ़ी निराशा हुई। एक बात मैं जानना चाहूँगा कि आपके सामने वह कौन-सी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक या कोई अन्य परिस्थिति थी जिससे प्रेरित होकर, आपने इस घटिया टाइप के उपन्यास की रचना कर डाली ?’’

 

-अवतार काम्बौ, देहरादून

 

2. ‘‘...और यह जो आपका नया उपन्यास (आगामी अतीत) है, इसे ‘किसी’ से लिखवाया था ? बिल्कुल किसी चालू हिन्दी फ़िल्म की कहानी लगती है। तुम्हें क्या हो गया है ’’

 

-शमा ज़ैदी, बम्बई

 

 श्रीमती शमा ज़ैदी तथा काम्बौ को जो मैंने जवाब भेजे थे, उनके अंश यहाँ दे रहा हूँ, चूँकि दोनों जवाबों में बात एक ही थी, इसलिए इस मिले-जुले अंश को सामने रख देना ज़रूरी हैः

‘‘...अफ़सोस सिर्फ़ इस बात का है कि तुम जैसी जागरूक दोस्त ने भी बात को नहीं पकड़ा। मैंने निहायत फूहड़ ढंग से रोमांटिकता को रोमांटिकता से ही तोड़ने की कोशिश इस उपन्यास में की है, और मैं जानता था कि इसे पढ़कर अच्छे-अच्छे ग़च्चा खाएंगे। तुम यह तो देखो कि उपन्यास की ‘थीम’ क्या है ? पूँजीवादी समाज के स्पर्धा मूलक परिवेश में पड़कर जब आदमी अपने ‘वर्ग’ को भूलकर दूसरी तरफ़ (यानी सफलता की तरफ़) लाँघ जाता है और उस स्पर्धा से ऊबकर (और आदमियत खोकर) जब  वह अपनों (या अपने वर्ग) के लिए लौटता है तब उसकी क्या हालत हो चुकी होती है ! पूरे उपन्यास में ग़लत जगहों और ग़लत नामों से काम लिया गया है, क्योंकि आज सूड़ो और तथाकथित यथार्थवादी सतही यथार्थ को देखते ही ‘वाह-वाह’ करते हैं-जहाँ पर ‘थीम’ या ‘कथ्य’ के यथार्थ को उठाया जाता है, वे वहाँ तक पहुँचने की ज़हमत नहीं उठाते। यह उपन्यास रोमांसवादियों और सूड़ो-यथार्थवादियों (या प्रकृतिवादियों) के लिए एक जाल है जो लेखक ने फेंका था...यह तो लेखक को भी बखूबी मालूम है कि दार्जिलिंग में ‘दार्जिलिंग होटल’ नाम की कोई जगह नहीं है और यह भी कि ‘नीली घाटी’ और ‘धौलपुर’ नाम की कोई बस्तियाँ उस इलाक़े में नहीं हैं, और यह भी पता है कि रोमांसवादी स्टॉक संवाद क्या होते हैं,

फिर भी लेखक उन्हें देता है और भूगोल की भी परवाह किये बग़ैर ग़लत नामों का जान-बूझकर इस्तेमाल करता है ...तुमने यह भी नहीं सोचा कि आख़िर यह सब क्यों किया गया है ? सोचती कैसे ? क्योंकि ‘कथ्य’ तक जाने की आदत छूट चुकी है।

‘‘...इस उपन्यास की ऊपरी रोमेंटिक ख़ोल के भीतर जो कथ्य है, वह है-इस पूँजीवादी व्यवस्था में स्पर्धा की (पैदा कर दी गयी) मजबूरी। एक नौजवान और अपने वर्ग से जुड़ा हुआ आदमी जिस दिन यह सबूत दे देता है कि अब वह ‘इस स्पर्धा के लायक़ है, तो यह व्यवस्था तत्काल उसे हाथों-हाथ लेती है और उसके वर्ग से निकालकर अपने वर्ग में ले जाने की साज़िश करती है। और अन्ततः उसे उसके स्रोतों से काटकर (अपने मूल्यों का समर्थक बनाकर) अपने में शामिल कर लेती है। उस चकाचौंध और स्पर्धा में आदमी बेतहाशा जीता चला जाता है और जब उसे होश आता है तो वह पश्चाताप से भरकर अपने स्रोतों को याद करता है-लेकिन तब तक सब कुछ बदल-बिगड़ चुका होता है...जो वर्ग-विभाजन उसके बीच आ जाता है, वह तब पाटा नहीं जा सकता !
सस्नेह,

 

-कमलेश्वर’’

 

दो पत्रों के अंश और पेश हैं-
1.    ‘‘चाँदनी का चरित्र ! शायद हिन्दी में ऐसे चरित्रों की श्रेणी में प्रेमचन्द के ‘सेवा-सदन’ की ‘सुमन’ को ही दोहराया जाता रहा है...चाँदनी वह दोहराव नहीं है !’’

-    एक लेखक-मित्र, कलकत्ता

2.    आख़िरकार कमल बोस ख़ाली हाथ लौटता है। निराश होकर या आहत होकर (या दोनों), यह बात और है पर चाँदनी सही बात कह देती है-‘अब...इसमें रखा क्या है !’

       मल्लिका के घर से कालिदास शायद इसी तरह का कुछ अनुमान लगाकर लौट गया होगा, अन्त में (बक़ौल मोहन राकेश-‘आषाढ़ का एक दिन’) राकेश की मल्लिका मौन थी, पर चाँदनी ने उत्तर दिया। कालिदास सृजनात्मक शक्तियों का प्रतीक है, चरितार्थता का नहीं।’’

 

-एक लेखक-मित्र, बलांगीर (उड़ीसा)

 

इन दोनों लेखक मित्रों के नाम मैं जान-बूझकर नहीं दे रहा हूँ, वे मुझे कृपाकर क्षमा कर देंगे...क्योंकि आज के साहित्यिक माहौल में सही तत्त्व तक पहुँचाने वाले और रचना की गहरी खोजबीन करने वालों को पक्षधर कहकर लाँछित करने की रस्म निभाई जा रही है।

बम्बई 20.12.75

 

कमलेश्वर

 

 

आगामी अतीत

 

 

दार्जलिंग होटल !
थक हुए मुसाफ़िर की तरह एक बड़ी-सी कार पोर्टिको में आकर रुक गई। कमल ने इस बात का इन्तज़ार नहीं किया कि ड्राइवर आकर दरवाजा खोले। वे ख़ुद ही उसे खोल कर उतर आये थे, और बाहर क़दम रखते ही उन्होंने निश्चिंतता की गहरी सांस ली।
ड्राइवर सामान निकालने में मशगूल हो गया।
शीशों के दरवाज़ों के पार से रिज़र्वेशन मैनेजर ने उन्हें गिद्ध की तरह ताका, कुछ पहचाना और लपकर बाहर आ गया। तब तक कमल बोस लॉन की किनारी तक पहुँच गये थे, जिसके नीचे एक उथली-सी घाटी थी। उन्होंने कोट के बटन खोल दिए और फ़ैल्ट हैट उतारकर छड़ी के साथ ही पकड़ लिया था।
उनका भव्य व्यक्तित्व और भी निखर आया था। लगभग सफ़ेद हो गये खूबसूरत घने बाल, छरहरा लम्बा शरीर...चेहरे पर पड़ी रेश्मी झुर्रियाँ और चश्में के भीतर से झाँकती गहरी आँखें ।

सामने फैली खूबसूरती को देखकर जैसे ही उन्होंने बाईं ओर देखा तो बहुत अदब से मैनेजर ने नमस्ते की और बोला, ‘‘आई होप, एम. डी. मिस्टर कमल बोस ऑफ़ मानसी कैमिकल्स...वेलकम सर !’’
‘‘यह, दैट्स राइट ! ताज्जुब है, कैसे जानते हैं मुझे ?’’ चलते हुए कमल बोस ने कहा।
‘‘सात साल पहले मैं आपकी कम्पनी का सेल्समैन था तब आपको इतने नजदीक से देखने का मौक़ा नहीं मिला, लेकिन पहचानने में दिक़्क़त नहीं हुई,’’ मैनेजर ने कहा, ‘‘अब यहाँ रिज़र्वेशन मैनेजर हूँ।’’

‘‘ओह ! अच्छा किया कि आपने हमारी कम्पनी छोड़ दी।’’कमल बोस ने मुसकुराते हुए कहा।
‘‘जी, ऐसी कोई बात नहीं थी...’’ मैनेजर अचकचाया, ‘‘आपकी कम्पनी की दवाइयों का ज़बर्दस्त मार्केट था। हमें कभी कैमिस्ट या डॉक्टरों को ज़्यादा कन्विंस नहीं करना पड़ता था। मानसी कैमिकल्स की दवाइयों की साख थी-अब तो ख़ैर, और भी भी ज़्यादा है...हें...हें...’’ मैनेजर ने कहा।

‘‘छोड़िए दवाइयों और मार्केट की बातें ! दवाइयों की दुनिया से दूर चले जाने के लिए ही मैं यहाँ आया हूँ, ताकि कुछ और सोच सकूँ- क्लोरीन और तेज़ाब की महक से निकलकर यहाँ की ताजा हवा में कुछ सांस ले सकूँ। मैंने ठीक किया है न ?’’ कमल बोस ने अपनी आदत के मुताबिक शालीनता से दूसरे को सम्मान देते हुए कहा।

‘‘जी ! यहाँ आप सबकुछ भूलकर रिलेक्स कर लेते हैं।’’ मैनेजर ने कमरे का रास्ता बताते हुए कहा।
‘‘सब कुछ भूला जा सकता है क्या ? आप ऐसा सोचते हैं ?’’ कमल बोस ने फिर मैनेजर को महत्त्व देते हुए कहा।
‘‘मेरे ख़याल से कुछ तो भूला जा सकता है।’’ मैनेजर ने कमरे का ताला खोलते हुए अदब से कहा, ‘‘योर रूम प्लीज़-रूम का नम्बर ट्वेंटी-फ़ाइव।’’

‘‘ट्वेंटी-फ़ाइव !’’ कमल बोस ने फिर गहरी सांस ली, ‘‘ट्वेंटी-फ़ाइव ! पच्चीस...’’ फिर कमरे पर नज़र डालकर बोले, ‘‘गुड अच्छा कमरा है, थैंक्स !’’
  ‘‘फ़िलहाल आपके लिए चाय भिजवा दूँ ?’’
   ‘‘ज़रूर, एक प्याला खूब गरम चाय।’’
मैनेजर चला गया। जब तक उन्होंने कपड़े बदले, ड्राइवर आ गया था। वह आकर खड़ा हो गया तो श्रीयुत कमल बोस ने कहा, ‘‘ध्यानसिंह, तुम कलकत्ता लौट जाओ।’’
  ‘‘आपको तकलीफ़ होगी, साब।’’

   ‘‘तकलीफ़ नहीं होगी।’’ उन्होंने पर्स से सौ-सौ रुपए के दो नोट ध्यानसिंह को देते हुए कहा, ‘‘यह रख लो, यहाँ से सिलीगुड़ी के लिए ट्रेन मिलेगी और सिलीगुड़ी से सीधे कलकत्ता के लिए ! गाड़ी पार्क कर दो और चाबी मुझे देते जाना।’’  
‘‘गाड़ी पार्क कर दी है...’’ध्यानसिंह ने चाबी मेज़ पर रखते हुए कहा, ‘‘कलकत्ते के लिए और कोई हुक्म ?’’
‘‘ऊँ...कुछ नहीं !’’

‘‘अगर आप कहें, तो वापसी के लिए दस-पन्द्रह दिनों बाद मैं हाज़िर हो जाऊँ ?’’
 ‘‘कुछ कह नहीं सकता, ध्यानसिंह ! इतने वर्षों के बाद अब आराम करने आया हूँ, तो कुछ दिन रुकूँगा-और वहाँ भी कौन बैठा है जो इन्तज़ार करेगा ? तुम आराम से जाओ। ज़रुरत होगी तब ख़बर देकर तुम्हें बुला लूँगा।’’ कमल बोस ने आँखें बन्द करते हुए कहा।
  ‘‘जी, सलाम !’’  

हाथ ज़रा-सा उठाकर उन्होंने ड्राइवर को आज्ञा दे दी कि वह चला जाए। ध्यानसिंह धीरे से दरवाज़ा बन्द करके चला गया। उन्होंने ब्रीफ़केस खोला और खुद ही व्यंग्य से मुस्करा-मुस्कराकर अपने काग़ज़ों को देखते रहे-‘‘टु, चेयरमैन मेडिकल एसोसिएशन, इंडिया बाम्बे। रिफ़रेंस...ए न्यू फ़ॉर्मूला फ़ॉर एक्यूट एस्थमा...’’ कहते हुए उन्होंने काग़ज़ फाड़ा और वेस्ट पेस्टर बास्केट में डाल दिया-‘‘दमा ! तपेदिक ! ब्रोंकाइटिस ! टायफ़ाइड ! सिरदर्द, खाँसी, जुकाम...कीटाणु...जर्म्स’’ कहते-कहते वे एक-एक काग़ज़ फाड़ते जाते और बास्केट में डालते जाते-‘‘फ़ार्मूला बारह...हिन्दुस्तानी जड़ी-बूटियों से तैयार किया गया है, हुँ...ए न्यू डिस्कवरी...इन अवर लैब ! अवर लैब...हुँ...’’

‘‘झुँझलाते हुए उन्होंने दवाइयों की फ़ाइल्स, पन्ने और काग़ज़ उसी बास्केट में डाल दिए और खुली हवा के लिए जाकर खिड़की खोली तो सामने चमक रहा था उन्हीं के मानसी कैमिकल्स का होर्डिंग, बड़े-बड़े अक्षरों में चीख़ता हुआ-खाँसी और सर्दी के लिए तुलवसाका। मानसी कैमिकल्स ! देश भर में सबसे विश्वसनीय दवाइयाँ बनाने वाले !
 उन्होंने सूखते होंठों पर जीभ फेरी, गिलास से एक घूँट पानी पिया और मैनेजर को फ़ोन किया, ‘‘देखिए, आप मेरा कमरा बदल सकते हैं ? कोई कमरा दे सकते हैं ?’’

एक क्षण बाद ही मैनेजर खुद ही कमरे में हाज़िर हो गया, ‘‘जी, कोई तकलीफ़ ?’’
‘‘कुछ नहीं, मैनेजर साहब ! मैं जिस चीज़ से पीछा छुड़ाना चाहता हूँ, वही मेरे पीछे पड़ी है। ऐसा कमरा दे दीजिए, जहाँ से यह मानसी कैमिकल्स का विज्ञापन न दिखाई दे...मैंने आपको बताया था, अब बहुत ऊब गया हूँ इन दवाइयों की दुनिया से...इससे बिल्कुल दूर रहना चाहता हूँ। इफ यू कैन हेल्प मी...’’  
कमरा तो बदल गया, लेकिन कमल बोस को राहत फिर भी नहीं मिली। आख़िर राहत का यह ज़रिया भी नहीं था। शायद वह कुछ और ही था, जो बराबर उन्हें साल रहा था, चुभ रहा था। एक मटमैली याद, एक तकलीफ़देह दंश...! रातभर वे सो नहीं पाए स्लीपिंग टेबलेट्स निकालीं, पर उन्हें गिलास में डालकर घुलते हुए देखते रहे कि देखें, पानी सोता है या नहीं। पानी नहीं सोया।

सुबह उठे तो मन भारी था, सिर भारी था। चाय का एक प्याला पीकर उन्होंने कपड़े बदले और अपनी छड़ी लेकर लोअर बाज़ार की तरफ़ निकल गए।

वही पुराना लोअर बाज़ार। पर अब तो कुछ भी वैसा नहीं था। रास्ते बदल गए थे। सीड़ियाँ बदल गईं थी। पेड़-पौधे और दुकाने बदल गयीं थी। चेहरे बदल गए थे।

अब तो राहत ही राहत थी। जब तक कोई न पहचाने, अच्छा ही है। इसलिए वे कैमिस्टों की दुकान से कतराकर निकल कर रहे थे, ऐसा नहीं था कि उन्हें कैमिस्ट पहचान लेते, पर ऐसी कोई भी दुकान नहीं थी जिस पर मानसी कैमिकल्स की दवाइयाँ न हों...।

अच्छा यही है कि आदमी सब कुछ भूल जाए...पर ऐसा हो ही कहाँ पाता है ! शमशाद के उस पेड़ के पास से गुज़रे, तो कुछ विद्यार्थी भी जा रहे थे। पाँच-सात लड़कियाँ भी देखती शर्माती गुज़र गयीं।
इनमें ऐसा क्या था, जो कौंध गया था ? उन लड़कों में ऐसा क्या था, जो उन्हें अपनी याद आ गयी थी ? हल्की-सी एक याद लहराकर रह गयी थी। लेकिन उसे लेकर या उसे याद करके कोई क्या करेगा ? और सब यूँ ही चलता है...कहाँ क्या रह जाता है...बहुत कुछ छूट जाता है !

छड़ियों की दुकान देखकर कुछ याद आया था। फिर वह याद भी मन से उतर गयी।

होटल लौट आने के आलावा उनके लिए कुछ शेष नहीं रह गया था। टहलना भी तो राहत नहीं देता ! वो लौट रहे थे, तो फिर कुछ लड़के गुज़रे-किताबें और बस्ते दबाए हुए। उसी तरह के घरों के लड़के, जिस तरह के घर से वे खुद आए थे। कच्चे मकानों और ठिठुरती सिदरियों वाले घरों के लड़के...वे इनसे अलग तो नहीं थे। इसी तरह स्कूल जाना, जैसे-तैसे पढ़ना और घर का काम देखना। माँ का हाथ बँटाना। सब्ज़ी लाना। दाल बीनना। चावल धोना। मछली काटना और माँ को मंदिर ले जाना।

माँ को ज़्यादा दूर तक भविष्य नहीं दिखाई पड़ता था। भविष्य का पता ही किसे था। माँ जैसे-तैसे कमल बोस को पढ़ा रही थीं। वे कहाँ से उसकी पढ़ाई के लिए पैसे लाती थीं, यह भी उसे नहीं मालूम था। पिता की तो याद भी नहीं थी। वे आर्टिलरी में थे और युद्ध में मारे गए थे। तब माँ ने छोटे-से मकान का एक हिस्सा किराए पर उठाकर गुज़र बसर करने का वसीला पैदा कर लिया था। यह तो कमल बोस को माँ के मरने के बाद पता चला था कि वह मकान भी उनका नहीं था। वह तो मामा ने मेहरबानी करके उसकी माँ को दिया हुआ था, ताकि गुज़र-बसर हो सके। कमल बोस का कुछ भविष्य बन सके।
लेकिन क्या यही भविष्य था ? प्रतियोगिता की दौड़ में दौड़ते-दौड़ते दुनिया-भर को जीतकर अपनी आत्मा को हार जाना !

मन नहीं लगा, तो श्रीयुत कमल बोस होटल लौट गए। वही लॉन और फूल। वही पहड़ियाँ और कमरा। कुछ लोगों को पता लग गया था कि वे आये हुए हैं, इसलिए मिलने वालों की कमी नहीं रही। तरह-तरह के निमंत्रण और इसरार। लेकिन इनमें दोस्त कहाँ थे।

इन पच्चीस वर्षों में कोई दोस्त भी तो नहीं बना। इकलौता दोस्त था प्रशान्त। वही अकेला बचपन का दोस्त था, जो कमल बोस के साथ-साथ पढ़ा था। उनके मुक़ाबले तो वह घर का बहुत अच्छा था। माँ ने कभी उन्हें मालूम ही नहीं होने दिया कि वे कब क्या इन्तज़ाम कहाँ से कर लाती हैं ! उन दिनों घर की जो हालत थी उसमें कमल बोस बी. एस-सी., एम. एस-सी. तक पहुँचने की बात नहीं सोच सकते थे और माँ की ग़रीबी और मज़बूरी के कारण कभी मुँह खोल के माँ से कह भी नहीं पाते थे, पर डॉक्टरी पढ़ने की उनकी बहुत इच्छा थी।

तब एक दिन प्रशान्त ही ने उनकी माँ से कहा था कि ‘कमल प्री-मेडिकल टेस्ट में तो पास हो गया है, पर उसकी हिम्मत आपसे कुछ भी कहने की नहीं हो रही है। उसे लगता है ति कलकत्ता जाकर डॉक्टरी पढ़ने का ख़र्च माँ कहाँ से लाएँगी !’ माँ ने सबकुछ चुपचाप सुना था और दूसरे ही दिन कमल बोस ने उन्हें ‘मारवाणी चेरिटेबल ट्रस्ट’ के दफ़्तर में देखा था। भाग-दौड़ करके माँ उसकी डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए दान का इन्तज़ाम करवा आयी थीं। यह वज़ीफ़ा अगर माँ ने न बँधवाया होता तो वे कहाँ से डॉक्टरी पढ़ते ? कमल बोस को तो पता भी नहीं चला था कि यह सब कैसे मुमकिन हुआ था। सचमुच बेटे के लिए माँ बड़ी चमत्कारी होती है...वे और प्रशान्त तब साथ-साथ मेडिसीन पढ़ने कलकत्ता गए थे। मेडिसीन पढ़कर प्रशान्त आर्मी में चला गया था।

उन्हें याद आया कि उन्हीं दिनों जब प्रशान्त आर्मी में चला गया था और कमल बोस की ज़िन्दगी का रास्ता एकाएक बदला था तो प्रशान्त का एक ख़त मिला था, जिसमें उसने पूछा था कि दवाइयों की फ़ैक्ट्री का मालिक होकर कैसा लगता है ? हाँ, तब कमल बोस दवाइयों की एक फ़ैक्टरी के मालिक बन गए थे...उसका व्यंग्य तो उनकी समझ में आ गया था। शायद तब प्रशान्त दुखी या नाराज था कि वे एकाएक बड़े आदमी हो गए हैं ! और आगे प्रशान्त ने उपदेशक की तरह यह भी लिखा था कि ज़िन्दगी में जो कुछ अपने आप हासिल नहीं किया जाता दोस्त, वह बहुत काम नहीं आता।

उन्होंने सामने रखा चाय का प्याला सरका दिया और फ़र्श की और देखते हुए गहरी साँस ली। फ़ोन की तरफ़ हाथ भी बढ़ा कि प्रशान्त होगा तो यहीं माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट में, उससे इतने बरसों बाद मिल लें...पर फिर मन नहीं हुआ। अख़बारों में एक बार इतना ही मालूम हुआ था कि नन्दादेवी तक पहुँचने में जिस पर्वत दल ने सफलता पाई थी, उनमें प्रशान्त भी था। वह आर्मी कि माउंटेन डिवीज़न में चला गया था, फिर पर्वत रोहियों के दल में डॉक्टर की हैसियत से शामिल हो गया था और दार्जिलिंग में ही माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट में इंस्ट्रक्टर-डॉक्टर है शायद...।

यों प्रशान्त भी बहुत बड़ा आदमी हो गया है, पर फिर उन्हें उसके ख़त की वही लाइन याद आ जाती है-जो कुछ अपने आप नहीं हासिल किया जाता दोस्त...।
 उन्हें लगा कि न मालूम प्रशान्त कैसे मिले ? कहीं उसकी आँखों में कुछ और न हो ?
फिर उन्होंने मन को समझा लिया या फ़ोन न करने का बहाना ढूँढ़ लिया कि शायद वह यहाँ होगा ही नहीं। आर्मी में वापस चला गया होगा...।

शाम को बेमन से एक पार्टी पर जाना पड़ा। पार्टी से लौटकर नींद अच्छी आ गयी थी। दिमाग़ बेतरह थक गया था।
फिर कुछ दिन यों ही निकल गए सोते-ऊँघते और दूरबीन से इधर-उधर ताकते-फूलों को, तितलियों को, घास की नरम उँगलियों को, बर्फ़ीली चोटियों को !

दूरबीन से चीज़ें कितने पास आ जाती हैं...वे सब कुछ जो बहुत दूर-दूर होती हैं।
और यह मन की दूरबीन कितनी दूर अतीत में ले जाती है-अतीत की यात्रा पर ! एक ऐसी यात्रा पर, जो अधूरी छूट गयी थी। पच्चीस बरस पहले जो रुकी रह गयी थी...।

पता नहीं, अब कैसी होगी चन्दा ! होगी भी या नहीं, उसी घर में होगी या और कहीं ? उसके बूढ़े बाप का क्या हाल होगा ? वे जीवित होंगे या नहीं ? वह मकान उसी जगह होगा या नहीं ? चन्दा ने उनके जाने के बाद कब तक प्रतीक्षा की होगी ? की भी होगी या नहीं ? शायद शादी करके वह घर-गृहस्थी बसाकर अपने में खुश हो और अब उसका इस तरह पहुँचना ठीक न हो ! वह पहचाने या न पहचाने ! पहचानकर भी पहचानने से इन्कार कर दे या घृणा से मुँह फेर ले या सीधे-सीधे पूछे अब क्यों आये हो ? जो कुछ कह गये थे, उसका ध्यान अब पच्चीस बरस बाद आया है ? क्या तुमने चन्दा को भी और लड़कियों की तरह समझ रखा था ? मैंने तो तुमसे माँगा नहीं था...तुम्हीं अपने आप कह गये थे। आदमी के वादों पर भरोसा करना कितनी बड़ी गलती होती है, यह अब समझ पायी हूँ।

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