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सुन्नर पांडे की पतोह

अमरकान्त

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2477
आईएसबीएन :8126710349

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यह उपन्यास पति द्वारा परिव्यक्त राजलक्ष्मी नाम की उस स्त्री की कहानी है जो न केवल नर-भेड़ियों से भरे समाज में अपनी अस्मत बचा के रती बल्कि कुछ लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत भी है।

Sunnar Pandey Ki Patoh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वरिष्ठ उपन्यासकार अमरकान्त का यह उपन्यास पति द्वारा परिव्यक्त राजलक्ष्मी नाम की उस स्त्री की कहानी है जो न केवल नर-भेड़ियों से भरे समाज में अपनी अस्मत बचा के रती बल्कि कुछ लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत भी है।
विवाह होते ही उसका निजत्व तिरोहित हो जाता है और नया नाम मिलता है-सुन्नर पांडे की पतोह। सुन्नर पांडे की पतोह का पति झुल्लन पांडे एक दिन उसे छोड़कर कहीं चला जाता है और फिर लौटकर नहीं आता। अन्तहीन प्रतीक्षा के धुंधलके में जीती राजलक्ष्मी के पास पति की निशानी सिन्दूर बचा रहता है। औरत की इच्छाओं, हौसलों और अधिकारों से वंचित होने पर भी उसे सिन्दूर ही औरत होने का गर्व और गरिमा देता है। वस्तुतः पहले सिन्दूर का मतलब था पति, बाद में पति का मतलब सिन्दूर हो गया। लेकिन एक रात जब उसने अपनी सास-ससुर की बातें सुनी तो जैसे पावों तले जमीन ही खिसक गयी। जब घर में ही स्त्री का अस्मत असुरक्षित हो तो कोई स्त्री क्या करे ! वह अन्ततः गाँव-घर, देवी-देवता, चिरई-चुरंग, नदी-पोखर सबको अन्तिम प्रणाम कर अनजानी राह पर चल पड़ी...।

निम्न मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बनाओं और एक परित्यक्त स्त्री की जिजीविषाओं का बेहद प्रभावशाली और अन्तरंग चित्रण से लबरेज यह उपन्यास अपने जीवन्त मानवीय संस्पर्श के कारण एक उदत्त भाव पाठकों के मन में भरता चलता है। लोक जीवन के मुहावरों और देशज शब्दों के प्रयोग से भाषा से माटी का सहज स्पर्श और ऐसी सोंधी गंध महसूस होती है जो पाठकों को निजी लोक के उदात्त क्षेत्रों में ले आती है। निश्चय ही यह कृति पाठकों के मन में देर तक और दूर तक रची-बसी रहेगी।

 

सुन्नर पांडे की पतोह

एक इस छोटे से कस्बें में सुन्नड़ पाड़े की पतोह के नाम से जानी जाती हैं। वह करीब सत्तर वर्ष की थी। एक लम्बी बीमारी के बाद फागुन के आरम्भ में वह पहली बार सड़क से जाती हुई दिखाई दे रही थी। अब सर्दी उस बिन्दु पर उतर गई थी, जब हवा के स्पर्श से सुख-ही-सुख मिलने लगता है। निर्मल आकाश किसी बालक की बड़ी-बड़ी आँखों की तरह नीला, चमकीला और खुशनुमा था।
 
वह सड़क की धूप-भरी बाईं पटरी से जा रही थी। डगमग और टेड़ी-तिरछी चाल से वह झुकती हुई चल रही थी। उसका लम्बा, छरहरा और टाँठ शरीर अब कमजोर होकर आगे झुक गया था और उसके कूल्हे पीछे को निकल आए थे। उसका दप-दप गोरा चेहरा झँवराकर और झुर्रियों तथा लकीरों के एक जाल में बदलकर अब ऐसी हँसी आने लगती है। मटमैली साड़ी पहने और चादर ओढ़े तथा दाहिने हाथ में एक छेटा सा डंडा पकड़े, दाना चुगते कबूतरों का तरह वह दो-चार कदम चलने पर सिर उठाकर आगे देखती, फिर सिर झुका लेती थी।
 अब आगे आह-उह, बुदबुदाहट में ही सिमटकर रह गई थी। उसके अन्दर उसकी स्मृतियाँ दूर आकाश से उस धुँधले तारे थीं, जो कुछ देर तक टिमटिमाता है और बुझ जाता है। इस समय वह कुछ तेज से चलती फागुनी हवा पर बड़बड़ा रही थी।

‘‘अरे, धीरे-धीरे चलों न ! बड़ी जवानी छाई है ? आग लगे ऐसी जवानी में...।’’ दशहर तक तो वह अच्छी भली थी। बरसात के दिनों में कीट-पाँक हेल-लाँघकर बनाया था। मुरली मनोहर सिंह के बीमार पड़ने पर वह घर में भारी आर्थिक संकट पड़ गया था, उस सयम वकील साहब की स्त्री का एक गुप्त सन्देश लेकर उनके मायके चिटबड़ागाँव गई थी, जिसका परिणाम अच्छा निकला था। हरिहरप्रसाद पेशेकार की बूढ़ी माँ को रोज आठ बजे सवेरे पुराने रोहे और फुल्की की दवा कराने के लिए गुदड़ी बाजार के पास जंगली मियाँ के घर ले गईं थी। लेकिन दीवाली आते-आते उसने बिस्तर पकड़ लिया। वह दोमितलाल की रखैल सुनरी के साथ एक दिन सबेरे-सबेरे नदी नहाने गई थी। वहां से लौटकर आई तो बाएं पैर के पंजे में दर्द होने लगा। शाम तक वह पाँव सीज गया और चलना-फिरना बंद हो गया। इसके बाद उसे बुखार रहने लगा। उसका पाँव काला पड़ गया औ उसका हिलना-डुलना भी मुश्किल हो गया वह दिन-रात चिल्लाती रहती और रो रोकर यमराज से प्रार्थना-विनती करती। जाड़े भर उसकी ऐसी स्थिति रही कि कई बार उसके मुँह में गंगाजल और तुलसी दल डाला गया दवाँए खाकर वह उठ खड़ी हुई।

सुन्नर पांडे की पतोह और दोमितलाल की परस्पर निकटता और घनिष्ठता एक संयोग ही है। दस-बारह वर्ष पहले की बात है। वह जापलिनगंजवाली कोठरी को छोड़कर स्टेशन के पास पचकौड़ी पंसारी के खंजड़ मकान के बाहरी बरामदे की अन्धी-अँधेरी कोठरी में रहने लगी थी। उस समय उसका शरीर टाँठ था। सफेद चादर ओढे और उसी बड़ी फुर्ती से चलती थी कितनी बार वह अपनी कोठरी में आती और कितनी बार बाहर जाती, इसकी गणना नहीं की जा सकती।
उन्हीं दिनों दोमितलाल अपने बड़े भाई कंवलबासलाल के साथ गाँव से शहर में आकर उसी मोहल्ले में 50 गज की दूरी पर, नगरपालिका द्वारा निर्मित एक मकान की एक कोठरी में रहता था। कस्बें में आते ही वे दोनों भाई ऐसे नालायक कायस्थ बाप की सन्तान के रूप में विख्यात हो गए जिसकी माँ निम्म वर्ग की थी।

वे निरक्षर और  गंवार थे और एक सेठ के यहाँ मोटियागिरी करते थे। जाति पूछने पर वे अपने-आप को कायस्थ बताते थे, गेहुअन साँप की तरह देह को लहराकर चलते, सबसे ऐंठकर बोलते, खैसियत की बात थी कि खाँटी कायस्थ समुदाय के लोग उनसे बाल-बाल बचे रहते थे और मौका आते ही झटसे कह देते ‘साले दोगले हैं’ संबलबासलाल जबर, फुर्तीला, मेहनती, अहंकारी और काइयाँ था, जबकि दोमितलाल अपने बडे भाई की तरह लम्बा होते हुए भी दुबला-पतला, मरियल, बुद्ध लापरवाह  और धुमक्कड़य। कंबलबासलाल ने बार-बार उससे कहा कि वह घुमक्कड़ी न करे और मेहरारुओं के चक्कर में न रहे बल्कि मेहनत करे लेकिन दोमतिलाल ने उस पर ध्यान न दिया। और एक दिन दोनों भाइयों में खुलेआम वह उठापटक हुई की तगड़े और दुर्बल दो साड़ों के एक भयानक युद्ध का दृष्यनउपस्थित हो गया, जिसमें मोतियालाल को अन्नतः पिछाड़ दिखाकर भागना पड़ा।

कंबलबासलाल ने जब दोमितलाल को घर से निकाल दिया तो वह  पचकौड़ी पंसारी की उस कोठरी में आ गया, जिसमें गोजर नामक मोटिया बहुत दिनों तक रहने के बाद अचानक हैजा से मर गया था। कच्ची फर्शवाले बरामदे में पूरब-पश्चिम दो कोठरियाँ थीं और पूरबवाली कोठरी में सुन्नर पांडे की पतोह पहले से ही रहती थी। बिना किसी खिड़की की इन कोठरियों को बिल-सूराख ही कहना चाहिए जिसमें चूहें, खटमल, झीगुर और तेलचट्टे स्वतन्त्रता पूर्वक चहलकदमी करते रहते थे और सीलन से दीवारें भीगी रहती थीं, यद्यपि दोमितलाल की कोठरी अपेक्षाकृत बड़ी थी।

दोमितलाल सदा अपने बड़े भाई पर भुनभुनाया करता। वह हमेशा तले सूखे मिर्च की तरह जला, ऐंठा और कड़वा बना रहता। सुन्नर पांडे की पतोह से भी वह मुँह बिगाड़ कर बोलता। वह उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था, जब कंवलबासलाल से अपने अपमान का बदला पाई-पाई चुका सकेगा। इसीलिए वह अपनी शक्ति से अधिक दंड-बैठक करने लगा, लेकिन गिजा न मिलने के कारण उसका शरीर और झुराकर ऐंठ गया था और गाल चिपक गए थे। वह कसरत करके लंगोट की पूंछ लटकाए बाहर निकल आता और 50 गज दूर कंवलबासलाल की कोठरी की ओर मुँह करके देर तक बड़बड़ाया करता। जब वह कंवसबासलाल को बाहर देखता तो उधर गर्दन थोड़ा-सा घुमाकर धीरे-धीरे मूँछों पर ताव देने लगता अथवा बाईं बाँह को मरोड़कर, उसके पुट्ठे को चौड़ा करके, उस दाहिने हाथ को कटोरी से इस प्रकार प्रहार करता, जैसे कोई पहलवान अखाड़े में दूसरे पहलवान को पकड़ के लिए ललकारता है। कभी वह कंवलबासलाल को अपनी ओर देखता पाता तो वह बाईं ओर मुँह करके जमीन पर जोर से थूकता-थू।

‘‘बताऊँगा साले जमामार को एक दिन। कौन कहता है यह भाई है ? बाप का रुपया कहाँ गया ? सब दबा लिया है साले ने। पाई-पाई वसूल लूँगा, खून पी जाऊँगा .....।’’ वह बड़बड़ाते हुए कहता।
उन दिनों ऐसा करीब-करीब रोज ही होता था, एक बार सुन्नर पांडे की पतोह मुरली मनोहर सिंह वकील की लड़की के यहाँ चौथार लेकर गई थी, वहाँ से लौटकर आई तो दोमितलाल की कोठरी में कराहने की आवाज आई। वह जब उस कोठरी के अन्दर गई तो जमीन पर  बिछे गुदड़ीमुना बिस्तर पर उसे गरई मछली की तरह छटपटाते हुए देखा। उसका मुँह इस तरह लाल हो गया था, गोया वह जेठ की दोपहरी की तेज धूप से चलकर आया हो। बीच-बीच में वह छटपटाना तथा कराहना बन्द करके आँखें फाड़-फाड़ चारों ओर सनकी की तरह देखने लगता था।
सुन्नर पांडे की पतोह उसके पास बैठ गई। जब उसने उसके कपार पर हाथ रखा तो उसके मुँह से चीख़ निकल आई, ‘‘हाय राम ! अरे तुम्हारा शरीर भट्टी की तरह जल रहा है ए बचवा। क्या हो गया तुम्हें, भइया ? घबराओ नहीं....कृष्णमुरारी सब दुःख हरेंगे...।’’

‘‘ए मैया, मैं अब नहीं बचूँगा।’’ सर्दी में एकदम ठंडे पानी से नहाने के बाद दाँत किटकिटाने से रुक-रुककर जैसे आवाज निकलती है, उसी तरह काँपते हुए स्वर में वह बोला, ‘‘मेरा कोई नहीं है, ए मैया। तुम हमारी मतहारी हो। ए मैया, कपार फट रहा है। देह में दर्द है। कपार चाँप दो...अब नहीं बचूँगा ए दादा, ऊहँ-ऊहँ।’’ उसका सिर एक ओर लटक गया और वह कुछ क्षणों के लिए सुन्न-सा पड़ गया।
‘‘ए बच्चा, घबड़ाओ नहीं, कृष्णकुमारी पर भरोसा रखो...सब दुख दूर होगा...’’ सुन्नर पांडे की पतोह रोती हुई उसके सिरहाने खिसक गई और उसके सिर को दबाती हुई बोली, ‘‘तुम जल्दी ही अच्छे हो जाओगे। मैं अभी दवाई दूँगी, आराम हो जाएगा।’’

सिर दबाने से उसको सचमुच आराम मिला। पर शरीर उसका गर्म तवे की तरह जल रहा था। वह कुछ देर तक चुपचाप पड़ा रहा। फिर वह इतने जोर-जोर से चिल्लाने और प्रलाप करने लगा, गोया उसने यमदूतों के दर्शन कर लिए हों। सुन्नर पांडे की पतोह पास की गली में एक वैद्य से कुछ गोलियाँ चार आने में ले आई थी। उसने उसके कपार पर लौंग पीस कर छापी थी। वह रात भर उसके पास बैठी रही। वह उसको छोडने को तैयार भी नहीं था। वह बार-बार उसका हाथ अथवा पैर पकड़कर जाड़े से काँपते रोगी के स्वर में कहता :
‘‘तुम मेरी महतारी हो...ए महतारी, मुझे छोड़कर न जाना...।’’

दूसरे दिन उसका बुखार कम हो गया और तीन-चार दिन में उठकर वह काम-धाम पर जाने लगा था।
सुन्नर पांडे की पतोह के प्रति अवश्य दोमितलाल अत्यन्त कोमल हो गया, पर कंबलबासलाल को देखकर अब भी उसका खून जला करता। उसकी दंड-बैठक और भी बढ़ गई थी और बाहर जाकर बड़बड़ाना भी उसका जारी था। अपना गुस्सा वह कई प्रकार से प्रकट करता। एक दिन कंवलबासलाल दोपहर में सत्तू खाने के बाद पीतल की थाली बाहर माँज रहा था, उसी समय दोमितलाल कहीं से अपने घर आया। दोमितलाल के पास थाली-वाली नहीं था। वह अक्सर सत्तू अँगौछे में सानकर बड़ा सा पिंड बना लेता था और और गट-गट खाकर पानी पी जाता था। पीतल की थाली देखकर उसका खून खौलने लगा था। कुछ ही क्षणों में उसका गुस्सा इतना बढ़ गया कि उसने आव देखा न ताव, बरामदे में दौड़ता हुआ गया और वहाँ से बाँस का एक फट्टा उठाकर ले आया और अचानक पास में बैठे एक निश्चन्त, वफादार देशी कुत्ते को जोर से मारते हुए बोला :

‘‘भाग साले यहाँ से ! जब देखो, इसकी मनहूस सूरत दिखाई देने लगती है। साले, तू सड़-सड़कर मरेगा : यह मौज-मस्ती भूल जाएगी। हरामी, जानता है, दूसरा का जमा मारने से कुकुर का जन्म मिलता है...तूने जरूर पिछले जन्म में अपने भाई का हक मारा होगा। भाग साले, भाग साले...।’’
कंवलबासलाल ने उसको कुछ देर तक घूरा। उसकी आँखें लाल हो गईं। वह एक ऊँचे, मजबूत किले की तरह खड़ा हो गया छाती निकाकर बोला :
‘‘क्यों रे, देख रहा हूँ, तेरा जोर फटने लगा है आजकल। उस दिन का भूल गया ? चुपचाप चला जा, नहीं तो सारा भूत अभी झाड़कर रख दूँगा।’’

दोमितलाल की समझदारी की प्रशंसा करनी पड़ेगी कि उसने ऐसा चेहरा बनाया गोया उसके कानों में कोई बात गई ही न हो और समचुम वह कुत्ते पर ही गुस्सा हो। इसके बाद वह फौरन बरामदे में लौट भी आया, जैसे बांस का फट्टा रखने के उद्देश्य से ही आया हो। सुन्नर पांडे की पतोह उस समय अपनी कोठरी के चौखट पर बैठी थी। वह बोली :
‘‘ए बचवा, मैं तो एक बात जानती हूँ, जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा। तुम गुस्सा करके खून क्यों जलाते हो ? कृष्णमुरारी सब देख रहे हैं। तुम कोई काम-धन्धा क्यों नहीं करते ? देनेवाला वह है। सब वही देगा।’’
‘‘कौन धन्धा करूँ ए मैया ? पैसा-कौड़ी भी तो सब पचा गया हरामी.....।’’

‘‘ए बचवा अपना जी तोड़ा न करो। उस पैसे की बात ध्यान में न लाओ। तुम घबड़ाते क्यों हो ? मैं दिलवा दूँगी। मैं सेठजी के घर आती-जाती हूँ, कहकर कुछ दिला दूँगी। उनका बियोहार चलता है। चीनिया बादामवाले, रिक्शावाले, घुघनी-फुलौड़ीवाले, मोटिया-मजूर, सभी उनसे दस-पाँच ले जाते हैं, दूसरे दिन, तीसरे दिन एक-दो रुपया अधिक लौटा देते हैं। कहकर दिलवा दूँगी, सेठजी का मूल-सूद धीरे-धीरे लौटा देना...।’’
रुपये-पैसे की बात सुनकर दोमितलाल का मन बहुत मुलायम पड़ गया। उसकी खीसें निकल आईं। वह डींगें मारने लगा, ‘‘ए मैया, मैं उस हरामी की तरह जमामार नहीं हूँ। जान देकर पैसा चुकानेवाला मर्द हूँ। इस शहर में कोई साला कह न दे कि दोमितलाल ने हमारा पैसा मार लिया है ! मूँछ मुड़वाकर गदहे पर शहर भर में घूमूँगा....।’’ वह कुछ देर तक रुका, फिर गम्भीर होकर बोला, ‘‘ए मैया, दौरी-दुकान मुझसे न चलेगी।’’

‘‘ए बचवा, करने से सब कुछ होता है। तुम परौठा-तरकारी, चाय की दुकान खोल सकते हो। मकुनी-चोखा की दुकान खूब चलेगी। टीसन पास है न ! मोटिया-मजूरों का ठिकाना हो जाएगा....।’’
‘‘मेरा बनाया परौठा-मकुनी कौन खाएगा, ए मैया ?’’ वह हँसने लगा था।
सुन्नर पांडे की पतोह ने फुसफुसाए स्वर में कहा था, गोया भारी रहस्य की बात हो, ‘‘चलो, मैं सिखा दूँगी। खुश ? बनाकर दिखा दूँगी। मौका मिलने पर बना दिया करूँगी। मन में हिम्मत लाओ, ए बच्चा। ए भइया, बड़ा भाई है, गाली मत दो, तुम्हें फलेगा नहीं। दो दिन की जिन्दगी है कौन किसका है ? सबको तो आख़िर में सीताराम, कृष्णमुरारी के यहाँ जाना ही है। अपना काम सबसे अच्छा होता है, किसी का सहारा अच्छा नहीं। हाँ तो, तुम दौरी-दुकान कर लो, तुम जो कहोगे, कर दिया करूँगी...।’’

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