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अँधेरा

अखिलेश तत्भव

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :179
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2482
आईएसबीएन :8126711299

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प्रस्तुत है चार लम्बी कहानियों का संग्रह

Andhera a hindi book by Akhilesh - अँधेरा - अखिलेश

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वजूद, यक्षगान, ग्रहण और अँधेरा महज चार लम्बी कहानियाँ नहीं हैं-ये हमारे कथा-साहित्य की विरल उपलब्धियाँ हैं। इन्हीं चारों कहानियों से तैयार हुआ है अत्यन्त महत्वपूर्ण और बहुचर्चित कथाकार अखिलेश का नया कहानी-संग्रह अँधेरा। अखिलेश हिन्दी की ऐसी विशिष्ट प्रतिभा हैं जिनके लेखन को लेकर साहित्य-जगत उत्सुक और प्रतीक्षारत रहता है।

अखिलेश की रचनात्मकता के प्रति गहरे भरोसे का ही नतीजा है कि उनकी रचनाएँ साहित्य की दुनिया में खास मुकाम हासिल करती हैं। निश्चय ही इस अनोखे विश्वास के निर्माण में अँधेरा की कहानियों की अहम भूमिका है।

अँधेरा में शामिल चारों कहानियाँ लगातार चर्चा के केन्द्र में रही हैं। इन्हें जो ध्यानाकर्षण-जो शोहरत मिली है, वह कम रचनाओं को नसीब होती है। इनके बारे में अनेक प्रकार की व्याख्याएँ, आलेख, टिप्पणियाँ और विवाद समय-समय पर प्रकट हुए हैं। पर इन सबसे ज्यादा जरूरी है कि चारो कहानियों पर पाठकों ने भी मुहर लगाई है।

हमारे युग की मनुष्य विरोधी शक्तियों से आख्यान की भिड़ंत, भाषा की शक्ति, शिल्प का वैविध्य तथा उत्कर्ष, प्रतिभा की विस्फोटक सामर्थ्य-ये सभी कुछ कोई एक जगह देखाना चाहता है तो उसे अखलेश की कहानी संग्रह अँधेरा अवश्य पढ़ना चाहिए।

अँधेरा की कहानियों की ताकत है कि वे अपने कई-कई पाठ के लिए वेचैन रहती हैं। यही नहीं, वे प्रत्येक अगले पाठ में नई व्यंजना, नये अर्थ, नये सौन्दर्य से जगमगाने लगती हैं। इसी बिन्दु पर अँधेरा की कहानियाँ न केवल पढ़े जाने और एकाधिक बार पढ़े जाने की इच्छा जगाती है, बल्कि सहेजकर रखे जाने की जरूरत भी पैदा करती हैं।

 

वज़ूद

 

वह एक विशाल जंगल था-अनगिनत वृक्षों, पौधों, फलों और पत्तों से भरा हुआ। जंगल के सामने जयप्रकाश अकेला खड़ा था।
आसमान में सुबह का सूर्य था और धरती पर केवल जंगल था और जयप्रकाश था। जयप्रकाश सूर्य को भूल गया था और अपने को भी, उसके लिए केवल जंगल का अस्तित्व था। जब वह जंगल में खोया हुआ था अथवा जंगल उसमें खो गया था, उसी समय बेटे कोमल की उसे पुकारती हुई आवाज़ ने विशालकाय जंगल के अस्तित्व को छिन्न-भिन्न कर दिया। कोमल की आवाज़ इसलिए इतनी ताक़तवर थी क्योंकि उसमें बहुत अधिक ख़ुशी थी। जयप्रकाश ने देखा कि कोमल बहुत तेज़ चला आ रहा है।
दोनों आमने-सामने हुए तो जयप्रकाश ने कहा, ‘‘इतना तेज़ क्यों चल रहे हो ?’’
कोमल ने कहा, ‘‘बाबू बड़ी खुशी की बात है।’’ उसकी साँस फूल गई थी। हाँफ़ते हुए बोला, ‘‘अख़बार में तुम्हारा फ़ोटो छपा है।’’
कोमल ने अख़बार काँख से निकालकर पिता के सामने फैलाया। उसमें वाकई उसकी तस्वीर थी। पर मुश्किल यह थी कि जयप्रकाश को स्वयं अपना चेहरा अच्छी तरह याद न था। यूँ तो हर कोई जिचना दूसरों का चेहरा पहिचानता है उतना अपना नहीं, मगर जयप्रकाश अपने चेहरे से और भी कम परिचित था। हालाँकि उसने नाई और पान की दुकान के आईने में कई बार अपने को भली-भाँति देखा था लेकिन ज़ाहिर है कि केवल कुछेक बार। रोज़-रोज़ बड़े से आईने में अपना चेहरा देखता तो शायद अपने चेहरे से अधिक परिचित हो जाता पर लम्बे अरसे तक उसके घर में क्या कोई भी आईना नहीं था। न उसे और न उसकी घरवाली को कभी आईने की तीव्र इच्छा हुई थी। उसके घर में आईने के प्रवेश की कहानी आईने के एक टुकड़े से शुरू होती है...
जान (जयप्रकाश की पत्नी ‘जान’ का पूरा नाम जानकी था पर चूँकि जयप्रकाश की माँ का नाम भी ‘जानकी’ था, इसलिए उसने पत्नी का नाम ‘जान’ रख दिया।) जिस घर में काम करती, कुछ वर्ष पहले एक दिन वहाँ झाडूबुहारी कर रही थी तो मालकिन ने कहा, ‘‘शीशे के टुकड़े पड़े हुए हैं, ज़रा सँभाल के उठाना धँसने न पाएँ।’’
‘‘कैसा टूटा मालकिन ?’’
‘‘कुछ नहीं बस ऐसे ही।’‘ मालकिन बोलीं। दरअसल असली वजह बयान करने में वह लाज का अनुभव कर रही थीं। हुआ यह था कि मालकिन के दाएँ नितम्ब पर एक फुन्सी निकल आई थी, जिसके दर्द से वह बेहाल थीं। फुन्सी ऐसी अजीब जगह थी कि वह ठीक से बैठ पाएँ न खड़ी हो पाएँ। बाईं करवट लेटतीं तो गनीमत वरना लेटना भी मुहाल था। इसी परेशानी के बीच उनमें उस फुन्सी को देखने की इच्छा पैदा हुई। वह काफ़ी कोशिश के बावजूद उसे देख नहीं पा रही थीं। अतः रात को बन्द कमरे में बल्ब के उजाले में वह नितम्ब के सामने 4'8'' इंच का आईना रखकर उसमें फुन्सी का प्रतिबिम्ब देखने का प्रयत्न करने लगीं। पर तब भी देख नहीं पा रही थीं। उन्होंने गर्दन कई कोणों पर मोड़ी, नितम्ब को इधर-उधर हिलाया, कमर की मांसपेशियों को अलग-अलग तरह से लोच दिया लेकिन वह फुन्सी को देख नहीं पाईं। अन्ततः आईने को आड़े तिरछे घुमाने लगीं। इसी उलट-पुलट में आईने उनके हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिरा और टूट गया था। उन्हीं टूटे हुए टुकड़ों को जान उठाने जा रही थी। उनमें एक बड़ा टुकड़ा था।
शीशे के उस बड़े टुकड़े ने जान की आखों में झाँका, जान सनसनी, घबराहट और उल्लास से लबालब भर उठी। क्योंकि जयप्रकाश ने हज्जाम और पान की दुकान के आईनों में अपने को देखा था। लेकिन जान न कभी हज्जाम के यहाँ गई थी न पान की दुकान पर। अब जब इस समय आईने ने ही शरारत से उसकी आँखों में झाँक लिया था तो वह क्या कर सकती थी...। उसने हिम्मत बटोरी और आईने को हाथ में लेकर आईने की आँखों में ख़ुद भी झाँका और इस बार जान नहीं, आईना सनसनी, घबराहट और उल्लास से भर गया था। जान ने उसी हालत में आईने के उस टुकड़े को जो जान को देखकर आईना बन गया था, अपने आँचल में बाँधा और काम-धाम निपटा कर घर ले आई।
उस रोज़ जान ने आईने में बार-बार देखा। जयप्रकाश ने भी देखा। वह आईने में देखती फिर आईना जयप्रकाश को दे देती। जयप्रकाश आईने में देखता फिर आईना जान को दे देता। उन दोनों ने अपने को एक साथ आईने में देखने का यत्न किया पर वे एक साथ नहीं दिखे। क्योंकि आईने में तो एक का भी चेहरा पूरा नहीं दिख पा रहा था। कभी मत्था कट जाता, कभी कान, कभी ठोढ़ी।
सुबह उठने के बाद जान ने सबसे पहले देखा कि आईना अपनी जगह पर है कि नहीं। घबरा गई, आईना वहाँ नहीं था। पूरी कोठरी में नहीं था। वह बदहवास बाहर निकली कि जयप्रकाश से पूछे आईना कहाँ ग़ायब हो गया। बाहर निकलकर देखा कि जयप्रकाश दातून कर रहा था और आईने में देख-देखकर अपने दाँत चमका रहा था। जान ने उसके हाथ से आईना छीन लिया, ‘‘पगला गए हो क्या जो इस तरह दतुअन करते हुए टहल-टहलकर इसमें दाँत देख रहे हो। मैं कहती हूँ कि ऐसे यह चार दिन नहीं चल पाएगा।’’
वह आईने को लेकर भीतर कोठरी में आई और अपने पल्लू से पोंछकर उसे ताख पर रख दिया। फिर कुछ झुककर उसमें अपना चेहरा देखते हुए फुसफुसाई, ‘पगला गए हो क्या जो इस तरह दतुअन करते हुए टहल-टहलकर इसमें दाँत देख रहे हो। मैं कहती हूँ कि ऐसे यह चार दिन नहीं चल पाएगा।’’ वह मुस्कराने लगी, ‘‘चार दिन की बात छोड़ो, मैं कहती हूँ तुम कभी नहीं टूटोगे।’’ उसने जैसे आईने को यह वरदान दिया था जो बाद में सच साबित हुआ। क्योंकि बाद में उनके घर में एक नया आईना आया जो आते ही टूट गया। फिर उन्होंने नया ख़रीदने का उपक्रम छोड़ दिया था और इसी आईने के टुकड़े से काम चलता रहा। उसके वरदान के फलस्वरूप यह आईना जो कभी आईने का एक टुकड़ा था और जो जान को देखकर आईने के टुकड़े से बदलकर आईना बन गया था, कभी नहीं टूटा। इसी में दिखे अपने आधे-अधूरे, टूटे-फूटे प्रतिबिम्ब की याद जयप्रकाश के पास थी, जिसके आधार पर वह अख़बार में छपी अपनी फोंटों को देख रहा था...।
‘‘इसमें मेरा फ़ोटू क्यों छपा है ?’’ उसने बेटे से पूछा।
‘‘तुम्हारी तारीफ़ है।’’
‘‘क्या तारीफ़ है, बता न।’’
‘‘बाबू इ अंग्रेज़ी में लिखा है।’’
‘‘तो का ? इंगरेजी में पढ़कर हमको मतलब बता दे।’’
‘‘बाबू यही तो बात है, मुझको अंग्रेजी नहीं आती है।’’
‘‘तो स्कूल क्यों जाते हो, घुइयाँ निकालने ?’’ जयप्रकाश उखड़ गया, ‘‘अरे अपने मास्टर से पूछ लिए होते।’’
‘‘मास्टर ससुरऊ अंग्रेज़ी का जानें। इस अंग्रेज़ी लिखे का पूरा मतलब तो वकील साहेब भी नहीं बता पाए। पर कुछ-कुछ कामचलाऊ बात वही बता सके। इ अख़बार भी वही लेकर गाँव में आए हैं।’’
‘‘का बताए वकील साहेब ?’’ जयप्रकाश खीझ गया।
‘‘बताए कि गाँव में जो रवि कुमार आए थे, जिनकी बिटिया का दमा तुम ठीक कर दिए थे न, वही इस अख़बार में पत्रकार हैं। अपने गाँव के बारे में एक लेख लिखे हैं, उसी में तुम्हारे बारे में भी कहा है कि तुम बहुत गुनी हो।’’
‘‘बस यही बात है न, कौनो पुलिस कचेहरी के चक्करवाली बात तो नहीं है न ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तब ठीक है।’’ कहक़र जयप्रकाश आगे बढ़ गया।
अख़बार में छपी फ़ोटो और तारीफ़ पर पिता की यह उदासीनता देखकर कोमल निराशा और हताशा से घिर गया। वह जयप्रकाश को जंगल में जाते हुए देखता रहा। जब वह ओझल हो गया तो उसने अख़बार को मोड़कर पुनः काँख में दबाया और गाँव की दिशा में चल पड़ा। चलते हुए उसने सोचा, ‘‘मेरा बाप कितना बड़ा झक्की है।’’ दरअसल उसका पिता आज तक उसकी समझ में नहीं आया था। अख़बार पर जयप्रकाश की उत्साहविहीन प्रतिक्रिया को जाने भी दें तो अन्य अनेक ऐसे दृष्टान्त थे जो उसकी निगाह में पिता को अजीबोग़रीब सिद्ध करते थे। जैसे कि उसके पिता ने जब इसी पत्रकार रवि कुमार की बिटिया का दमा एक फल के बीजों की चार खुराक से ठीक कर दिया था तो रवि कुमार बोला था, ‘‘क्या तुम मेरा गठिया भी ठीक कर सकते हो ?’’
जयप्रकाश ने कहा, ‘‘नहीं हुजूर बिल्कुल नहीं। बिटिया रानी का दमा भी मैंने कहाँ ठीक किया, वह ऊपरवाले ने ठीक किया और आपका गठिया भी ऊपरवाला ठीक करेगा।’’ जयप्रकाश अगले दिन किसी पौधे की नरम हरी पत्तियाँ लाया, उन्हें निचोड़कर रस निकाला और रवि कुमार को निर्दोश दिया, ‘‘पी जाइए।’’ फिर उसने फिर अज्ञात तेल से भरी एक शीशी दी, ‘‘रोज़ाना दो बार इस तेल से बदन की मालिश करें। भगवान ने चाहा तो फ़ायदा होगा।’’ रवि कुमार गाँव की सम्पत्ति बेचने आए थे और पन्द्रह दिन रहे थे। इस अवधि में उनके गठिया में पूरी तरह भले फ़ायदा न हुआ हो लेकिन जोड़ों में तकलीफ़ काफ़ी कम हो गई थी। अतः जिस दिन वह गाँव से सपरिवार विदा होनेवाले थे, उन्होंने जयप्रकाश को अपने यहाँ बुलाया था। पिता के साथ कोमल भी चला आया।
‘‘काहे को बुलाया साहेब ?’’ जयप्रकाश था।
‘‘कुछ नहीं जयप्रकाश, बस धन्यवाद देने के लिए। तुम्हारे इलाज से मुझको, मेरी बेटी को फ़ायदा हुआ है।’’
‘‘अच्छी बात है साहेब, पर धन्यवाद ऊपरवाले को दें।’’
रवि कुमार ने पर्स से सौ-सौ रुपए के दस नोट निकाले, ‘‘लो रख लो।’ पर वाह रे ख़ब्ती बाप, जवाब दिया, ‘‘साहेब हम दवाई का पैसा नहीं लेते हैं। दोख होता है। बेचने पर हुनर ख़त्म हो जाता है।’’
पिता की बात सुनकर वह कुढ़ गया था। चिड़चिड़ाकर उस समय उसने सोचा था, ‘‘कितना अभागा है उसका बाप। सामने रखी हज़ार रुपए की दौलत को ठुकरा रहा है। कह रहा है कि दोख होता है, हुनर ख़त्म हो जाता है। अरे लक्ष्मी मइया की सरासर बेइज़्ज़ती कर रहे हो, इससे दोख नहीं हो रहा है। वह भी देवी हैं, उनके ग़ुस्साने से नहीं तुम्हारा हुनर चला जाएगा। मैं तो कहता हूँ कि यह दोख-ओख कुछ नहीं होता है। सरासर फालतू बातें हैं। पर ये हमारे बाबू महाराज हैं कि इनको अभी भी दोख पाप की पड़ी है।’’ इस वक़्त भी जंगल से गाँव लौटते हुए उसने सोचा,‘‘जब कुछ लेना नहीं, कमाना नहीं तो क्यों जंगल में भटकते रहते हैं ? अगर किसी दिन किसी जानवर कीड़े ने काट लिया तो...।’’
सचमुच उसी समय जयप्रकाश के बगल से एक बड़ा सा साँप रेंगता हुआ गुज़र गया था। जयप्रकाश थोड़ी देर उसे जाता देखता रहा। इसके बाद एक झंखाड़ से निकलकर जयप्रकाश दूसरे झंखाड़ में घुस गया।
यह झाड़ इतना घना था कि कोई बाहर से देखता तो जयप्रकाश दिखाई न देता। उसने झाड़ के भीतर किसी पौधे को साँस रोककर देखा, फिर उसकी एक पत्ती को तोड़कर चुटकी से मसला और सूँघा। मायूस हुआ। वह उसी झाड़ में एक स्थान से दूसरे स्थान की तरफ़ बढ़ा। वहाँ कोई पेड़ था जिसमें पीले रंग के फूल उगे हुए थे। वह फूल तोड़ने के लिए उछला...। बाहर से कोई देखता तो उसे लगता कि भीतर कोई ख़ँख़ार जानवर घुसा है। इसी तरह वह जब कभी अपनी ज़ेब से चाक़ू निकालकर किसी पेड़ की छाल काटता या किसी पौधे का तना छीलता तो लगता था कि जैसे कोई जानवर अपने शिकार को खा रहा है। और जब वह उस झाड़ को छोड़कर चला जाता था तो कहना मुश्किल हो जाता था कि जानवर खाने के बाद आराम फरमा रहा है या उसकी भूख अभी ख़त्म नहीं हुई है और वह अगले आखेट के लिए घात लगाए बैठा है।
जब वह झाड़ से निकलकर बाहर आया तो उसके बाल बिखरे हुए थे। नंगे बदन पर जगह-जगह पत्तियाँ चिपकी हुई थीं। उस समय उसे देखकर कहना कठिन था कि अभी कुछ देर पहले वह प्रकृति से युद्ध कर रहा था अथवा प्रकृति और उसके मध्य प्रेमालाप हुआ था।
उसने डोरी निकाली और एक पेड़ की कमर पर बाँध दी। पीछे के न जाने कितने वृक्ष जयप्रकाश की डोरी की करधनी पहने हुए थे। जंगल प्रदेश के एक बीमार मुख्यमंत्री का स्वप्न था। उसने एक विशाल चिकित्सा संस्थान की योजना बनाई थी। सोचा था कि अधुनातन उपकरणों और योग्यतम डॉक्टरों से सुसज्जित होगा यह अस्पताल। और इसी में वह अपनी और अपने लोगों की बीमारियों का ईलाज कराया करेगा। अस्पताल की आधारशिला का उद्घाटन भी उसी ने किया था और उस अवसर पर उसने घोषणा की थी कि अस्पताल से सटे हुए विशाल भूभाग पर चिकित्सा सम्बन्धी औषधियों के पेड़-पौधे लगाए जाएँगे। बहुत कम समय में विस्तृत भूगोल छोटे-छोटे पौधों से भर गया था। अस्पताल नहीं बना क्योंकि मुख्यमन्त्री को पद से हटा दिया गया था। नए मुख्यमन्त्री की आँखों में आधारशिला का पत्थर चुभता था, उसमें पिछले मुख्यमन्त्री का नाम था। इसलिए उसने अस्पताल के काम को रोक दिया। पर पौधों वनस्पतियों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। फ़ाइलों के कागज़ वृक्षों के विनाश से ही तैयार होते हैं, और वह फाइलों का कीड़ा था। अधिक से अधिक यही उसका वृक्षों से प्रतिशोध था। फ़िलहाल बर्ख़ास्त अस्पताल के बगल का वह भूभाग एक दिन सघन जंगल में बदल गया।
जंगल से जयप्रकाश के रिश्ते का इतिहास प्रेम, भय और जुनून के अध्यायों में विभक्त किया जा सकता है। जब वह बच्चा था, क़रीब दस साल का, तो अपने पिता रामबदल के साथ जंगल में अक्सर आया करता था। शुरू-शुरू में वह यहाँ आने में हिचकता था लेकिन रामबदल उसे ज़बरदस्ती ले आता। यहाँ आ जाने पर रामबदल पेड़ से कोई फल तोड़कर उसे खाने के लिए दे देता था। जयप्रकाश बड़े चाव से उसे खाता। ये वे फल नहीं थे जो गाँव में दिखते थे। ये सर्वथा नए, देता और कहता, ‘‘चबाओ।’’ उस फूल को जयप्रकाश चबाता तो उसका मुँह रस से भर जाता। इसी तरह रामबदल कभी किसी फल के बीज उसे खाने के लिए देता था, कभी किसी पौधे की पत्ती देकर कहता, ‘‘इसे चूसो बहुत बढ़िया लगेगा।’’ जयप्रकाश को धीरे-धीरे जंगल की तल लगने लगी और वह पिता के साथ ख़ुदबख़ुद यहाँ आने लगा था। वैसे अब भी वह यहाँ स्वादिष्ट फलों, फूलों, पत्तियों तथा बीजों के खट्टे-मीठ संसार में ही भ्रमण करता था लेकिन फ़र्क़ यह आया कि इन सबके लिए पिता पर अपनी निर्भरता कम करने लगा था। धीरे-धीरे वह स्वयं अनेकानेक फलों, बीजों, फूलों, पत्तियों के रूप, रस, गन्ध को पहिचानने लगा था। बल्कि एक दिन उसने पिता रामबदल को इस कदर चमत्कृत कर दिया कि रामबदल उसे ठगा सा देखता रह गया था। उसने पिता से कहा, ‘‘काका एक पेड़ के फल का सुआद मिर्चा जैसा तीता है पर उसकी छाल को छीलो तो दूध निकलेगा और वह दूध बड़ा मीठा है।’’ रामबदल रोमांचित हो गया और व्यग्रता से बोला, ‘‘चलो हमको वो पेड़ दिखाओ।’’
जयप्रकाश ने अथाह भीड़ भरे मेले में अपना खिलौना खो चुके बच्चे की सी मायूसी और दुख के साथ जंगल को देखा। चारों तरफ़ पेड़ ही पेड़। अपनी छाल के नीचे दूध का सोता छिपाए रखने वाला पेड़ जंगल में कहीं खो गया था। उस पर नीमअँधेरा, जिसे कोई चाहे जो नीमउजाला कह सकता है, जो भी हो पर इतने मामूली उजाले में बच्चे जयप्रकाश का वह पेड़ और अधिक गुम हो गया। रामबदल हँसा, ‘‘कहाँ है वह कलपदुम ?’’
पिता का प्रश्न और प्रश्न से बहुत ज़्यादा पिता की हँसी बच्चे जयप्रकाश को बेध गई। उसे अपने भीतर अपनाम सरीखी किसी चीज़ की आँधी और आँसुओं की बारिश का अन्देशा हुआ। वह रोने ही वाला था कि उसनें कुछ कौंधा और उसने पिता से कहा, ‘‘थोड़ा सब्र करो,अभी ले चलूँगा उसके पास।’’ वह ख़ामोश होकर चौकन्नेपन के साथ खड़ा हो गया। थोड़ी देर वह वैसे ही खड़ा रहा, तब हवा चली और पेड़ हिले। जयप्रकाश का भाग्य था कि हवा ज़ोर से चली थी और पेड़ ज़ोर से हिले थे। जयप्रकाश ने अनगिनत वृक्षों के पत्तों की आवाज़ों के समुद्र में अपने वृक्ष के पत्तों की आवाज़ को जैसे ढूँढ़ा हो, वह पिता के साथ उस आवाज़ के पास पहुँचा। अब दोनों के सामने वह आवाज़ थी और उस आवाज़ का पेड़ था। उस पेड़ के सामने जयप्रकाश उस पेड़ के पत्तों की तरह ख़ुशी से काँप रहा था।
रामबदल ख़ुशी से चमक उठा था। वह पेड़ के तने को छील रहा था, तभी पेड़ से दूध छलक आया। रामबदल ने चखा और पागल हो गया। वह बन्दर की तरह उछला और एक फल तोड़कर उसे कुतरा। कड़वाहट उसके मुँह में भर गई और आनन्द से उसने बेटे को बाँहों में भर लिया। जयप्रकाश पिता में ख़ुशी, वात्सल्य के साथ सफलता की नियामत पाकर फफक पड़ा। वह रो रहा था...रोते हुए बोलता जा रहा था, ‘‘काका काका....हमारी बात सही निकली न...काका हमारी बात सही निकली न...।’’
इस वाकये के बाद दोनों जंगल में साथ आते थे, जंगल से साथ जाते थे मगर जंगल के भीतर वे अलग-अलग हो जाते थे। जब वे जंगल से निकलते तो रामबदल के झोले में कुछ जड़ी-बूटियाण, पत्ते इत्यादि होते थे और जयप्रकाश की ज़ेबें उन फलों, बीजों आदि से भरी होतीं जिनमें खट्टे, मीठे, खटमिट्ठे स्वाद भरे रहते थे।
जयप्रकाश सोचता कि जंगल, गाँव सभी जगहों में इतने सारे फल, फूल, बीज, अन्न है पर किसी के स्वाद में नमक क्यों नहीं है। खट्टा, मीठा, कसैला, फ़ीका सारे स्वाद हैं पर नमकीन कहाँ अदृश्य हो गया। इन्हें पैदा करनेवाली मिट्टी ने इन्हें नमक क्यों नहीं दिया ? वह सोचता, और इच्छा करता कि जंगल में उसे किसी रोज़ नमकीन फल मिल जाए तो कितना मज़ा आता। वह गाँववालों को नमकीन फल चख़ाकर हैरान कर देता। उस फल को देख-चख़कर सबसे ज़्यादा हैरान तो काका होता।
फ़िलहाल नमकीन फल उसे नहीं मिला था किन्तु, नमकीन स्वाद के प्रति उसमें अद्भुत श्रद्धा भर गई थी। कभी-कभी नमक की डली को इस निगाह से देखता गोया दुनिया का कोई अनमोल रत्न देख रहा है। एक बार घास छीलते वक़्त हँसुए से उसकी अँगुली कट गई। उसने निकल आए ख़ून को चूसा, उसमें उसे नमकीन मिला। यह नमकीन की महिमा का अनोखआ चमत्कार था। आदमी कितना मीठा, कड़वा, नमकीन, खट्टा खाता है पर खाने-पीने से जो रक्त बनता है वह केवल नमकीन होता है। इसी तरह मत्थे से चूकर ओंठों पर गिरे पसीने में भी उसे नमक मिला। उसने ठान लिया कि स्वादों के महाराजा नमक के स्वादवाले फल को वह ज़रूर तलाश करेगा। लेकिन जब अन्ततः उसे वह नहीं मिला तो उसने स्वीकार कर लिया कि भगवान ने खाने के लिए कितने सारे फल बनाए, अन्न बनाए लेकिन भगवान नमकीन न बना सका। नमकीन आदमी ने बनाया। फिर भी उसे उम्मीद थी कि इतनी बड़ी दुनिया में कोई न कोई ऐसी क़दरती पैदावार होगी जिसके स्वाद में नमक होगा।
मगर एक अन्य कौतूहल ने उसकी नमकीन फल में दिलचस्पी को क्षीण कर दिया था...। हुआ यह था कि यह अपने पिता रामबदल के साथ जंगल से लौट रहा था। रामबदल का झोला भरा हुआ था और जयप्रकाश की ज़ेबें फूँली हुई थीं। रामबदल ने झोला बेटे को पकड़ाया और ट्यूबहेल पर जाकर हाथ-मुँह धोकर पानी पीने लगा। इसी बीच जयप्रकाश ने बाप के झोले में झाँक लिया था। झोला कुछ फलों पत्तियों और जड़ी बूटियों से भरा हुआ था।
जब रामबदल लौटा तो जयप्रकाश ने उससे पूछा, ‘‘काका, झोले में ये जो सब अगड़म-बगड़म भरे हो, इसका क्यो करोगे ?’’
‘‘ये सब दवाई हैं।’’ रामबदल ने उकड़ूँ बैठकर झोले का मुँह खोलकर जड़ी निकाली, ‘‘इसको रात में पानी में डाल दो, सुबह उसी पानी को पियो तो बवासीर ठीक हो जाता है।’’
‘‘काका ये बवासीर कौन बीमारी है ?’’
‘‘चुप बे, पहले सुन।’’ रामबदल ने झोले से कुछ फूल निकाले, ‘‘इसका रस सिर में लगाने से पुराना से पुराना अधकपारी ठीक हो जाएगा।’’ उसने इस बार नरम हरी पत्तियाँ निकालीं, ‘‘इनका रस गठिया की बीमारी में फ़ायदा पहुँचाता है। और ये जो...’’ वह उस झोले से कुछ बीज बाहर लाया। सफ़ेद उजले बीज, ‘‘इसे सुखाकर पीस लो फिर खुराक बनाकर शहद के साथ दो, कैसा भी दमा हो ठीक हो जाएगा।’’
‘‘और काका वह जो बड़ा सा लाल फूल है...और वह..जो...वह नहीं...वह जो कुछ-कुछ जामुन की तरह है...।’’
‘‘उनके बारे में हमको पता नहीं...इसके बारे में बैद महाराज ही जानते होंगे।’’
‘‘अच्छा काका ये सब जिस-जिस पेड़-पौछे के हैं उन सबके नाम क्या हैं ?’’
यह भी हमको नहीं पता...। इसके बारे में भी बैद महराज ही जानते हैं।’’
‘‘तुमको क्यों नहीं पता है ?’’
‘‘हमका बैद महाराज बताए ही नहीं..।’’
बैद महराज यानी कि पंडित केसरीनाथ। दोनों बैद जी की हवेली पर पहुँचे। जयप्रकाश की इच्छा हुई कि बैद जी से मिलने पर पूछ ले कि बड़ा-सा लाल फूल किस बीमारी को ठीक करता है। और जो जामुन की तरह का फल है वह किस बीमारी की दवाई है...।
लेकिन जब बैद जी आए तो उससे पूछा न गया। उनके आने पर पहले उसने पिता की तरह ही जैसे दीवार पर छिपकली चिपकती है उस तरह ज़मीन से चिपककर दण्डवत प्रणाम किया फिर उन्हें अपलक देखने लगा-बड़ा-सा गोरा भभूका मुँह, सिर पर पगड़ी, सिल्क का कुर्ता और बढिया धोती। कलाई में लाल धागा बँधा था और मस्तक पर त्रिपुंड। एकदम चमक रहे थे।
रामबदल ने झोला चरणों में रखा। बैद जी ने पास तख़्त पर रखे लोचे से पानी निराला और छिड़करकर झोले को पवित्र किया। भीतर किसी को आवाज़ दी, ‘‘ये औषधियाँ हैं, इन्हें औषधिलाय में रखवा दो।’’
जयप्रकाश बहुत प्रभावित हुआ-कैसी गूँजती हुई आवाज़, जैसे रामलीला में वशिष्ठ मुनि बोले थे।
लौटते हुए उसने रामबदल से कहा, ‘‘तुम भी दवाई के बारे में जानते हो तो तुम क्यों बैद महाराज की तरह बन जाते। वैसा ही कुर्ता पहनो, वैसी ही धोती। त्रिपुंड लगाकर वैसी ही मूँछ रख लो।’’
रामबदल हँसा, ‘‘और तुमको भी बैद महराज का लरिका बना दें-दिन भर रबड़ी मलाई चाभो।’’ वह पुनः हँसा, ‘‘अरे बचवा बैद महाराज बैद महाराज हैं और रामबदल रामबदल। बस क़िस्सा ख़त्म। बैद महराज के अस्सी बिगहा खेत हैं और बाग-बग़ीचा। यहाँ तुम्हारे बाप के पास दुई बित्ता भुईं नहीं है। वे मालिक हैं और हम उनके हरवाह-उनके नौकर। हरवाह कभी ज़मींदार बना हैं औज तक कि तुम्हारे बाप ही बन जाएँ।’’
‘‘अच्छा काका ! बैद जी के पास इतना रुपया आया कहाँ से-इतनी खेतीबाड़ी, और बाग़-बग़ीता ?’’
‘‘बैदकी से...।’’
‘‘बैद महाराज बैद कैसे बने ?’’
‘‘उनके बाप बैद थे, उनके बाबा बैदस थे...।’’
जयप्रकाश चहका, ‘‘काका तुम बैद बन जाते तो तुम्हार लरिका हम, हमहु बैद महाराज बनते एक दिन।’’ तभी उसने तकलीफ़ महसूस की। देखा कि रामबदल रास्ते में रुककर उसका कान उमेठ रहा था, ‘‘सरऊ आज कहा तो कहा फिर कभी ऐसी बात जीभ पर न लाना, वरना बैद महराज पता पाएँगे तो हमका तुमका दोनों का सूली पर टाँग देंगे। बैद जी जब सूली पर टाँगते, देखा जाता, अभी तो कान ऐंठकर उसके बाप ने ही सूली पर टाँगा था।
सूली पर से वह उतरा। रामबदल ने उसका कान छोड़ते हुए कहा, ‘‘वाह-वाह, बाप पदहू न जाने बेटा शंख बजावे।’’
जयप्रकाश को लगा कि अपने पिता से बात करना बेकार है। वह चुपचाप पिता के साथ चलने लगा। पर उसके मन में कुछ था जिसे रामबदल नहीं समझ सका था।

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