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नाटक-एकाँकी >> माधवी

माधवी

भीष्म साहनी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2488
आईएसबीएन :9788171784585

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प्रख्यात लेखक भीष्म साहनी का यह तीसरा नाटक ‘माधवी’ महाभारत की एक कथा पर आधारित है

दृश्य-1

[ढोल-मजीरे के साथ एक धुन, जो शीघ्र ही समाप्त हो जाती है]

कथावाचक : धर्मग्रन्थों में मनुष्य के बहुत से गुण गिनाये हैं, पर कहा है, कर्तव्यपालन सबसे बड़ा गुण है। जो मनुष्य कर्तव्यपरायण है, वही सच्चा साधक है। अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्य, अपने गुरु के प्रति कर्तव्य, अपने धर्म के प्रति कर्तव्य, इसी को सच्ची साधना कहते हैं। और कर्तव्यपालन क्या, कि जो वचन दे दिया उसे पूरा किया । मुंह से जो बात कह दी, वह पत्थर पर लकीर बन गयी, तुलसीदासजी ने भी कहा है : ।

रघुकुल रीति सदा चली आयी
प्राण जायें पर वचन न जायी

तो देवियो और भद्रपुरुषो, आज हम आपको इसी कर्तव्य परायणता की एक और कथा सुनाते हैं।

महाभारत में एक प्रसंग आता है कि एक बार देवलोक में विष्णु भगवान ध्यानमग्न बैठे थे कि सहसा उनका ध्यान भंग हो गया। वह बड़े विचलित हुए। उन्होंने मन को स्थिर कर, एकाग्र मन से विचार किया कि इसका क्या कारण है। तभी अपने दिव्यचक्षु से उन्होंने देखा कि नीचे पृथ्वी पर उनका एक भक्त, गंगा के तट पर खड़ा, दोनों हाथ जोड़े, नतमस्तक, उन्हें स्मरण कर रहा है।

इस पर विष्णु भगवान् ने तत्काल अपने वाहन गरुड़ को बुलाया और बोले, 'हे गरुड़, तुम तत्काल पृथ्वी पर जाओ, हमारा एक भक्त संकट में है। वह गंगा में कूदकर आत्महत्या करने जा रहा है, और उसने हमें याद किया है।' 'जो आज्ञा, महाराज, गरुड़देव बोले और उसी समय, पर फैलाये, धरती की ओर उतरने लगे, और शीघ्र ही उन्होंने पाया कि एक वनस्थली के निकट, गंगातट पर एक युवक जलधारा की ओर मुंह किये खड़ा है। गरुड़ देवता ने धरती पर उतरते ही ब्राह्मण का रूप धारण किया और युवक के सामने जा उपस्थित हुए। 'आपको क्या कष्ट है, मुनिकुमार? मैं आपकी सहायता करना चाहता हूँ।' इस पर युवक बोला, 'मेरे जीवन की कोई सार्थकता नहीं। मैंने अपने गुरु को एक वचन दिया था, उसे मैं पूरा नहीं कर पाया। मैं अपने गुरु महाराज के लिए गुरु-दक्षिणा नहीं जुटा पाया हूँ। मुझ जैसे पातकी के लिए मर जाना ही उचित है।'

इस पर गरुड़देव बोले, 'मुनिकुमार, विस्तार से बताओ कि तुम्हें कौन-सी गुरु-दक्षिणा जुटानी थी और तुम उसे क्योंकर नहीं जुटा पाये, तो मुनिकुमार ने अपनी सारी व्यथा-गाथा कह सुनायी। इस पर गरुड़देव कहने लगे, 'मुनिकुमार, इधर निकट ही महाराज ययाति का आश्रम है, वह बड़े दानवीर हैं। उनकी ख्याति देश-देशान्तर में फैली है। उनके द्वार से कभी कोई अभ्यर्थी खाली हाथ नहीं लौटा। तुम उनके पास जाओ, निश्चय ही वह तुम्हारी मनोकामना पूरी करेंगे।'

यहीं से, 'महाभारत' में मुनिकुमार गालव की कथा आरम्भ होती है।

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