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विविध उपन्यास >> बिस्रामपुर का सन्त

बिस्रामपुर का सन्त

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2492
आईएसबीएन :9788126707225

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‘बिस्रामपुर का सन्त’ समकालीन जीवन की ऐसी महागाथा है जिसका फलक बड़ा विस्तीर्ण है और जो एक साथ कई स्तरों पर चलती है।

Bisrampur Ka Sant a hindi book by Sri Lal Shukla - बिस्रामपुर का सन्त - श्रीलाल शुक्ल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘बिस्रामपुर का सन्त’ समकालीन जीवन की ऐसी महागाथा है जिसका फलक बड़ा विस्तीर्ण है और जो एक साथ कई स्तरों पर चलती है।
एक ओर यह भूदान आंदोलन की पृष्ठभूमि में स्वातंत्र्योत्तर भारत में सत्ता के व्याकरण और उसी क्रम में हमारी लोकतांत्रिक त्रासदी की सूक्ष्म पड़ताल करती है, वहीं दूसरी ओर एक भूतपूर्व ताल्लुकेदार और राज्यपाल कुँवर जयंतीप्रसाद सिंह की अंतर्कथा के रूप में महत्त्वाकांक्षा आत्मछल, अतृप्ति, कुंठा आदि की जकड़ में उलझी हुई जिंदगी को पर्त-दर-पर्त खोलती है। फिर भी इसमें सामंती प्रवृत्तियों की ह्रासोन्मुखी कथा भर नही है, उसी के बहाने जीवन में सार्थकता के तंतुओं की खोज के सशक्त संकेत भी हैं। यह और बात है कि कथा में एक अप्रत्याशित मोड़ के कारण, जैसा कि प्रायः होता है, यह खोज अधूरी रह जाती है।
‘राग-दरबारी’ के सुप्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल की यह नवीनतम कृति, कई आलोचकों की निगाह में, उनका सर्वोत्तम उपन्यास है।

 

(1)

 

जिस समय राजभवन के दीवानखाने में राज्य के मुख्यमंत्री महामहिम से मिलने का इंतज़ार कर रहे थे, खुद महामहिम अपने शयनकक्ष में एक सपना देख रहे थे। यह हलके बुख़ार में हलके नाश्ते के बाद की नींद का सपना था।
महामहिम लगभग अस्सी साल के थे। जो सपना वे इस समय देख रहे थे, उसके कई रूप वे पहले भी देख चुके थे। पर यह पुरानी बात है। लगभग आठ साल हुए उन्हें इससे छुटकारा मिल चुका था। पर न जाने किस अतल से उभर कर आज यह सपना एक बार फिर उनकी नींद पर छा गया था।

सपने में वे यकी़नन् अस्सी साल के नहीं थे। उम्र के बारे में कुछ भी तय नहीं था; पर वे पच्चीस-छब्बीस साल के पहलेवाले कुँवर जयंतीप्रकाश सिंह थे। आज सपने में वह उनकी बाँहों में नहीं थी; वे खुद उसकी बाँहों में थे। पर तय नहीं था कि वह कौन थी। वह शायद सुन्दरी थी; पर जयश्री भी हो सकती थी। जो भी हो, उसकी सुडौल चिकनी देह सिर से पाँव तक उसके अंग-अंग को पिघला रही थी। उसके पथरीले वर्तुल स्तन उसकी छाती में विस्फोटक उष्मा के साथ गड़ रहे थे। जागते में उनकी ढीली-ढाली पस्त काया इस समय अचानक धधकते हुए कोयलों में बदल गई थी। एक अनूठी उत्तेजना उन्हें सुन्न करती जा रही थी।

बहुत साल हुए उन्होंने सुंदरी के स्तनों को एक बार सिर्फ़ एक बार छुआ था। वे कड़े थे, साथ ही बहुत मुलायम भी। पर आज उन्हें सिर्फ़ कड़ेपन का अहसास हुआ, उन्हें लगा कि उनको सुनहरे शिलाखंडों से काटकर बनाया गया है। यहीं से वह सपना एक जकड़न-भरे कुस्वप्न में बदलने लगा।
एक झिलमिल उजास में उन्हें वे दो स्तूप धुंध में घुलते से दीख पड़े। सब कुछ बदल रहा था। वे उसकी छाती में पत्थर की तरह चुभने लगे थे। पर अब वे स्लेटी रंग के हो रहे थे। उन्हें शायद मटमैले पत्थरों से गढ़ा गया था और वे शताब्दियों पुराने थे। शायद उन पर सीमेंट-कंक्रीट के घोल की हलकी पिचकारी चलाई गई थी और वह घोल गिरते ही जमने लगा था। धीरे-धीरे उन्हें लगा, सुंदरी (या राजश्री?) का सारा शरीर, लचीलेपन के बावजूद, कोणार्क और खजुराहो की नारी-मूर्तियों का है। वह पत्थर बन चुका है।

सिर्फ़ चेहरा और ओंठ असली सुंदरी के हैं।
हाँ, यहाँ आकर तय हो चुका था वह जयश्री नहीं, सुंदरी ही है। अब ओठों की मुस्कान अस्वाभाविक हो गई थी, एक छायाचित्र की तरह वह जम गई थी, जड़ हो गई थी।
उन्होंने उन ओठों को चूमना चाहा, पर उस स्पर्श में एक आतंक-भरा पथरीलापन था। शुरू में यह सपना एक निर्वसन देह से गुँथने का सीधा-सादा श्रृंगारिक सपना था। अब वहाँ बीच में पत्थर आ गये थे, वज़नी एकान्त का आतंक था। उन्हें लगा कि उनकी छाती भी पत्थर होती जा रही है। शायद पूरा जिस्म एक स्पंनहीन पत्थर में तब्दील होने जा रहा है।
टेलीफ़ोन का बज़र रुक-रुककर उनके कानों में बज रहा था। पता नहीं कि उनकी नींद उसने तोड़ी या सपने के अपारिभाषित आतंक ने फिर भी सोने और जागने के बीच के निलंबित क्षणों का सिलसिला कुछ लंबा चला। उन्होंने बिस्तर पर हाथों से दोनों ओर को ज़ोर लगाया, धीरे-धीरे उठकर पलंग के सिरहाने दो तकियों के सहारे अपने को टिका दिया।
एक मुलायम मख़मली कंबल से वे अपनी छाती ढके हुए थे। बज़र का बज़ना बंद हो चुका था। उन्होंने सिर उठाकर सामने देखा। वहाँ दीवार से सटे आदमक़द शीशे में उन्हें एक शक्ल दिखी। उन्होंने उसे ख़ारिज करना चाहा पर मानना पड़ा कि वह उन्हीं की है।


(2)

 

 

इस छले हुए, पर रोबीले चेहरे पर आँखों के नीचे पपोटे फूले हुए थे। ओठों के कोने झूलकर ठुड्डी को छूने की तैयारी में थे। गले की झुर्रियाँ अर्धसामानांतर रेखाओं में बेतरतीब बिखरी हुई थीं। सिर के बचे-खुचे बाल मटमैले सफ़ेद थे। रेशमी स्लीपिंग सूट और मख़मली कंबल से ढके हुए सीने का माँस-उन्हें लगा-कुछ ज्यादा ही नीचे हिलग आया है।
सुंदरी अब बावन बरस की हो रही होगीः उन्होंने सोचा। यह सोचते ही आईने में उनका अक्स उन्हें घुड़कता-सा जान पड़ा। शायद उसे बरदाश्त नहीं कि सपने का कोई भी रेशा उनके जाग्रत जीवन में हस्तक्षेप करे।
बाथरूम जाने के लिए उन्होंने पलँग से नीचे उतरना चाहा। एक पैर स्लीपर पर डाला; दूसरी पलँग के नीचे थी- शायद पाँव की पहुँच से बाहर। उन्होंने पलँग में लगी हुई घंटी का बटन दबाया। धीरजसिंह के आने पर उन्होंने उसे नीचे से स्लीपर निकालने का इशारा किया। घुटनों के बल बैठते हुए उसने नीचे झुककर स्लीपर खींची, कहा, ‘‘सेक्रेटरी साहब इंतज़ार कर रहे हैं।’’

सपने का खुमार वर्तमान के साम्राज्य में विलीन हो गया। मौजूदा क्षण अब उनका था। वे महामहिम की आवाज़ में बोले, ‘‘इसलिए तुम टेलीफ़ोन का बज़र दबाय़े हुए थे ?’’
धीरजसिंह ने स्वीकार में सिर झुकाया। ‘‘गधे हो।’’ उन्होंने खीझकर कहा, ‘‘फिर खड़े क्यों हो ?’’
‘‘सेक्रेटरी साहब...।’’
‘‘इस बेवकूफ़ को पता नहीं कि मुझे बुखा़र है ?’’ वज़नी आवाज़ में गुर्राहट। धीरजसिंह चुपचाप खड़ा रहा। इस कक्ष में वही बिना इजाज़त आ सकता था मध्यकालीन अंतः पुरों, के गूँगे खवासों का आधुनिक संस्करण-ज़बान होते हुए भी वह गूँगा बन सकता था। तिकोना चेहरा, उसमें पतली लकीरों जैसी आँखें। अट्ठाईस साल का मुलायम-सा नौजवान, अपनी उम्र से चार-पाँच साल कम दीखता हुआ। सारे राजभवन में अकेला वही था जिस पर राज्यपाल की कड़ी ज़बान के कोड़े नहीं पड़ते थे। ‘गधे हो’ का अवसाद छोड़कर पर उसमें अब चोट पहुँचाने की ताकत नहीं बची थी। उस पर ज़बानी कोड़े नहीं पड़ते शायद इसलिए कि वह बहुत पहले, मध्यकाल खवासों की विश्वसनीयता हासिल कर चुका था।
‘‘अब क्यों खड़े हो ?’’

मशीन की तरह उसने दोहराया, ‘‘सेक्रेटरी साहब...।’’
राज्यपाल के नथनों पर जैसे किसी अवांछित बू का हमला हुआ। उन्होंने नाक सिकोड़ी हाथ के अलसाये इशारे से मक्खी जैसी उड़ायी। धीरजसिंह को अपनी बात का जवाब मिल गया जिधर मक्खी उड़ाने का इशारा किया गया था।
कमरे का फर्श किसी डिज़ाइन के सादे नीले क़ालीन से ढका था। एक पलंग जिस पर सुनहरे काम का कत्थई पलंगपोश बिछा था। एक पुराने ढंग का हलका सोफ़ा, जिसकी लकड़ी ताजी वार्निश से दमक रही थी। दीवार पर सत्य साईं बाबा का एक चित्र-उनके विख्यात बालों की काकुलें अनुपात से कुछ ज़्यादा उभरी हुई। दीवार में जड़ी हुई लिखने की फ़ोल्डिंग डेस्क, जो इस वक्त खुली थी। उस पर रखा एक नीला टेलीफ़ोन। सेक्रेटरी से धीरजसिंह ने बाअदब फ़ोन के इस्तेमाल का इशारा किया। सचिव ने फोन पर ‘गुड मार्निंग, योर एक्सिलेंसी’ कहा, बताया कि मुख्यमंत्री मिलने आये हैं।
‘‘अपनी अक्ल से उन्हें निपटा नहीं सकते थे ? आपको मेरी तंदुरुस्ती का कुछ पता है ? आप पहले ही से आज के मेरे सभी इंगेजमेंट कैंसिल कर सकते थे ?’’

‘‘वह कर दिया है महामहिम, पर मुख्यमंत्री अचानक ही मिलने आ गये हैं।’’
‘‘ऐसा ... ?’’ में सचिव की अक्ल का माख़ौल था, मुख्यमंत्री के व्यवहार पर अचंभा भी।
‘‘उन्हें महामहिम के टेंपरेचर की ख़बर ऑफ़िस आते वक़्त मिली। वे महामहिम का दर्शन करने सीधे ही चले आए।’’
आवाज़ की गुर्राहट कम पड़ी पर मख़ौल क़ायम रहा। ‘‘मेरे लिए बिस्तर पर दर्शनीय बनने की हालत शायद अभी नहीं आई है।’’ फिर भी हाकिमाना अंदाज़ में: ‘‘नीचे जाकर उन्हें धन्यवाद कहिए-कुछ भले, खूबसूरत जुम्ले भी, जिसमें आप माहिर हैं।’’ फिर टेलीफोन पर ही....अर्धस्वगत भुनुनाहटः पता नहीं नीचे उसे किसी ने कॉफी के लिए भी पूछा या नहीं। सब नामाकूल हैं।


(3)

 

 

नीचे दीवानख़ाने में मुख्यमंत्री को बैठे हुए लगभग पाँच मिनट हो चुके थे। बेशक बहुत पहले उन्हें नेताओं से मिलने के लिए कई बार प्रतीक्षा करनी पड़ी थी। वह उनकी राजनीति यात्रा का शुरुआती दौर था। वे अनुभव अब धुल पुँछ गये थे। तभी उन्हें आज का अनुभव नया-नया सा लग रहा था। यह सही है इस बीच दिल्ली में एक शहंशाहाना रिवाज चल पड़ा था मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री से मिलने के लिए अब घंटों और कभी-कभी कई दिनों तक हिलगे रहना पड़ता था। पर इस तरह बिताया गया समय प्रतीक्षा के ख़ाने में नहीं, राष्ट्र-सेवा के नाम लिखा जाता था। यहाँ जो हो रहा था वह सीधी-सादी, छद्मरहित प्रतीक्षा थी जिस पर मुख्मंत्री कुछ हैरत, कुछ खीझ के साथ मुस्करा रहे थे।

राज्यपाल का परिसहायक यानी ए.डी.सी उनके अस्वस्थ होने के बारे में उन्हें कुछ बता रहा था। वह सेना का नौजवान कप्तान था और उसकी आवाज़ अपनी तराश के बावजूद विनम्र और सहलानेवाली थी। जिस पर संजीदगी से वह राज्यपाल न कहकर अपने आक़ा को ‘हिज़ एक्सिलेंसी’ कह रहा था, उनके मुख्यमंत्री की मुस्कान कुछ और चौड़ी हो गयी। उसी के साथ इधर-उधर ठिठकती हुई उनकी प्रत्यक्षतः निरुद्देश्य निगाह सामने की दीवार पर टिक गई।
वहाँ दो-तीन तस्वीरें साधारण कोटि के योरोपियन चित्रकारों की थीं। आज़ादी के पहले की निशानियाँ। बाकी देसी कलाकारों की थीं- ज्यादातर छोटे और नये कलाकारों की, स्थानीय कलाप्रदर्शनियों से खरीदी हुईं। अखबार बता रहे थे कि राज्यपाल युवा कलाकारों को खूब प्रोत्साहन देते हैं। दीवारें भी यही कुछ और ठोस तरीके से बता रही हैं।

इस साल राजभवन के ख़र्च में कई लाख रुपये की बढ़ोत्तरी होती जा रही थी। मुख्यमंत्री ने दो दिन पहले ही मसले को मंत्रि-परिषद् के सामने लाने का हुक्म दिया था। दीवानखाने की नई भव्यता पर-तस्वीरों, पर्दों, कालीनों, कलाकृतियों की आसामान्य संपन्नता पर उनकी निगाह धीरे-धीरे फिसलती रही। कोई दोस्त आपके उधार ली गई रक़म के सहारे आपको ही किसी पंच-सितारा होटल में खाना खिलाने जा रहा हो, उन्हें यह कुछ कुछ ऐसा ही दिलचस्प जान पड़ा। परिसहायक से कहा,‘‘हिज़ एक्सिलेंसी को कल दोपहर महिला कल्याण परिषद् का लंच नहीं लेना चाहिए था। उन्हें अपनी इच्छा का खाना ज़रूर मिला होगा देवियों का भरोसा नहीं। उनकी बातें जितनी मीठी हैं, उनका खाना उतना ही ज़हरीला हो सकता है।’’
इस मज़ाक पर कप्तान निष्ठापूर्वक हँसा।

उन्होंने दुबारा दाईं से बाईं ओर की तरतीब के साथ देखा। उस निगाह में कुछ तस्वीरें समायीं, खास तौर से कुछ मख़मली पर्दे, पीतल के चमचमाते गमले फूटता मौसमी फूलों का सैलाब। बाहर की ओर पर्दे सिमटे थे और दो विशाल दरवाज़े खुले हुए थे। उनकी दमकती पॉलिश में पीतल की जगमग मूठों और लंबी सिटकनियों के धुँधले प्रतिबिंब अपने ही प्रभावृत्त में तैरते से जान पड़ते पड़े।...दरवाज़ों के पार राजभवन का विस्तीर्ण बरामदा था, अंतःपुर न होते हुए भी किसी अंतपुरः के विस्तार जैसा उसके बाद हरी-भरी लॉन- जिसमें बीतते जनवरी की धूप सुनहरी पानी-सी भरी थी। कुछ तोते एक पेड़ से उड़े, अपनी मीठी-कर्कश आवाज से उन्होंने हवा को गुँजाया फिर बरामदे के दूसरे छोर पर दूसरे पेड़ों में खो गए।
कौन कहता है कि भारत ग़रीब है, ? मुख्यमंत्री ने कप्तान से मज़ाक में कुछ ऐसा ही कहना चाहा, कुछ नहीं और टहलते हुए बरामदे की ओर क़दम बढाये। कप्तान बाअदब चाल से उनके साथ लगभग दो क़दम का फ़ासला देकर चलता रहा।
‘‘सोफों का यह कपड़ा, ये पर्दे....नये पर्दे हैं ?’’ मुख्यमंत्री ने पूछा, ऊपर उठे हुए तिरछे चेहरे पर मुस्कराती आँखें !
‘‘जी हाँ, श्रीमान्।’’

मुख्यमंत्री ने उसके चेहरे को गौर से देखा। विनम्र औपचारिकता के सिवाय वहाँ कुछ नहीं था। मुख्यमंत्री ने ओंठ दबाये और, भौंहें सिकोड़ीं, कुछ और मुस्कान बिखेरी। कप्तान पर इस, देह-भाषा का कोई असर नहीं हुआ।

 

(4)

 

 

तब तक लिफ्ट सामान्य मंजिलों की ऊँचाईवाली एक मंजिल नीचे उतरकर राज्यपाल का सचिव मुख्यमंत्री के पास आया। वे अब कोई और बात नहीं कर रहे होंगे क्योंकि सचिव ने उन्हें कहते सुना, ‘‘ग़नीमत है कि यहाँ का मुख्यमंत्री हरिजन नहीं है।’’
बात हलके ढंग से कही गई थी। जो भी हो, जैसे उसने कुछ सुना ही न हो, नियंत्रित विनम्रता के साथ सचिव ने उनका अभिवादन किया और कहा, ‘‘महामहिम आपके आने के लिए कृतज्ञ हैं। उन्होंने हार्दिक धन्यवाद कहा है। इस समय वे बिस्तर में हैं। आप चाहें तो फ़ोन से...।’’

‘‘नहीं, उन्हें आराम करने दीजिए’’, फिरः ‘‘बुख़ार कैसा है ? कोई उलझन तो नहीं ?’’ ‘‘डॉक्टर ने देखा ?’’
‘‘राजभवन के ही डॉक्टर ने देखा है। उनकी सलाह में मेडिकल कॉलेज से डॉ. साहा को बुला लिया है।’’
ए. डी. सी. ने अंग्रेज़ी में कहा, ‘‘डॉ. साहा आपके ऑफ़िस के कमरे में प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’
मुख्यमंत्री दीवानख़ाने के मुख्य द्वार की ओर बढ़ते हुए बोले, ‘‘तब डॉक्टर साहब को तुरंत ऊपर ले जाइए। और देखिए...।’’ उन्होंने रुककर बड़ी गंभीरता के साथ सचिव से कहा, ‘‘बजट अधिवेशन में कुछ ही दिन रह गये हैं। संयुक्त विधान-मंडल को संबोधित करते समय महामहिम को बिल्कुल स्वस्थ्य होना चाहिए। सड़े टमाटर और अंडों का डर नहीं है पर विपक्ष के पास काग़ज़ों का पुलिंदा भी काफ़ी वज़नी होगा।....आप समझ रहे हैं न ?’’

उनके मुँह से ‘महामहिम’ निकलते ही लगा जैसे किसी नुक्कड़ नाटक में वे दर्शकों की क़तार तोड़कर अभिनेताओं में शामिल हुए जा रहे हों। केंद्र सरकार अब राज्यपालों को महामहिम कहे जाने की परंपरा खत्म कर चुकी है। पर आते ही इन राज्यपाल ने इस संबोधन का प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया था। मुख्यमंत्री शायद इसी का मख़ौल उड़ा रहे थे पर सचिव ने उसे अनदेखा कर दिया। मुख्यमंत्री के मिज़ाज में शामिल होते हुए उसने कहा, ‘‘उसकी कोई चिंता नहीं है सर। अपनी सुरक्षा के मामले में महामहिम को राज्य सरकार की कुशलता पर पूरा भरोसा है।’’
बाहर आते-आते मुख्यमंत्री ने एक पर्दे को छूकर उसकी खूबियों को परखा, ए.डी.सी. से कहा, ‘‘महामहिम की सुरुचि का जवाब नहीं है।’’

 

(5)

 

 

ए.डी.सी. ने ऑफ़िस में आते ही सिर के झटके से डॉक्टर का कामचलाऊ अभिवादन किया और टेलीफोन पकड़ लिया। उससे गर्मजोशी से बात करने का काम सचिव ने किया और टेलीफ़ोन का रिसीवर हाथ में लिए हुए ए.डी.सी ने कहा, ‘‘धीरजसिंह बोलता है, हिज़ एक्सिलेंसी फिर सो गये हैं।’’
सचिव ने सिर उठाकर छत को देखते हुए आँखों के दीदे घुमाये। डॉक्टर बोला ‘‘तब मैं शायद जा सकता हूँ।’’
‘‘प्लीज डॉक्टर, वे इस वक्त सोते नहीं, ऊँघ गये होंगे। दस-पद्रन्ह मिनट हम लोग...कॉफी क्यों न पी जाए ?’’
कॉफ़ी पीते हुए सचिव ने ए.डी.सी से पूछा, ‘‘पुनीत, यह हरिजनवाला क्या मामला है ?’’ इशारा मुख्यमंत्री की बात की ओर था।
डॉक्टर के सामने यह बात छेड़ी गई थी; उसकी झल्लाहट कुछ कम हुई; उसे तसल्ली मिली कि वह भी ऐसी बातों के लिए अंदरूनी दायरे में है।

सचिव भारतीय प्रशासनिक सेवा का पुराना अधिकारी था- उसकी वरिष्ठता उसे भारतीय सेना के मेजर जनरल के कुछ ऊपर ही पहुँचाती थी। शाम के वक्त मेस में जैसे कोई वरिष्ठ अफ़सर किसी होनहार ‘जूनियर से दूरी भरे निजत्व से बात कर रहा हो, सचिव कप्तान से वैसे बोल रहा था। ए.डी.सी ने कहा, ‘‘वही पर्दोंवाली बात सर। मुख्यमंत्री मज़ाक के मूड में थे।’’
डॉक्टर ने पूछा, ‘‘हुआ क्या था ?’’
‘‘वही पर्दोंवाली बात !’’ सचिव ने मुस्कराते हुए ए.डी.सी. की बात दोहरायी डॉक्टर ने कमरे में चारों ओर निगाह दौड़ायी, कहा, ‘‘पर्दे तो वाकई बहुत खूबसूरत हैं।’’
सचिव और ए.डी.सी ने एक साथ एक दूसरे की ओर देखा, सचिव ने डॉक्टर से कहा, ‘‘यानी कॉफ़ी हाउस की अफ़वाहें सुनने का आपको भी वक़्त मिल जाता है....।’’
कौन सी अफ़वाहें ?’’
तभी फोन बजा। उसे सुनकर ए.डी.सी. ने कहा, ‘‘धीरजसिंह है। हिज़ एक्सिलेंसी जाग गये हैं। आइए डॉक्टर साहब, ऊपर चलें।’’

डॉक्टर साहा को लेकर वह लिफ्ट से ऊपर गया और दो-ढाई मिनट में ही उनके साथ नीचे आ गया। ऑफिस के कमरे से लगे हुए बाथरूम का दरवाजा़ खोलकर वह डॉक्टर से बोला, ‘‘इस तरफ सर।’’
डॉक्टर का चेहरा कसा हुआ था बोला मैं वापस जा रहा हूँ आप किसी और को बुला लें।
‘‘प्लीज डॉक्टर...’’ ए.डी.सी ने कहा।
सचिव ने डॉक्टर की ओर देखा, देखता रहा।
‘‘आपका यह हिज़ एक्सिलेंसी बिस्तर पर दर्जनों तकियों के सहारे आराम फरमा रहा है। मुझे देखते ही कहता है, ‘‘यही डॉक्टर है ?’’ फिर मुझसे बोलता है, ‘‘तुमने अपने हाथ अभी साफ किए हैं या नहीं ?’’ उसके बाद कहता है, ‘‘तुम कैसे डॉक्टर हो जी ? हाईजीन का क ख ग भी नहीं जानते ? ए. डी.सी....., नीचे जाकर पहले इनके हाथ धुलाओ।’’
‘‘कहता है नीचे जाकर....!’’

डॉक्टर विलायत में सीखी कुछ चुनिंदा गालियाँ निकालने लगा था।
‘‘आपका यह महामहिम ! क्या समझता है ? कि बिना हाथ साफ किये उसे वहीं पलटकर उसके फिश्चुला का आपरेशन कर दूगाँ।’’
सचिव के डॉक्टर से निजी संबंध रहे होंगे, उसने नर्मी से कहा, ‘‘कैसी बचकानी बातें करते हो साहा ? वे बुजुर्ग हैं इस उम्र में उन्हें थोड़ी-सी सनक दिखाने का हक़ है। उनकी बातों का कोई बुरा नहीं मानता।’’
‘‘आप न मानते होंगे। पर इसके लिए आपको तनख़्वाह मिलती है !’’
ए.डी.सी. ने झटके से डाक्टर की ओर देखा, फिर सचिव की ओर। सचिव ने ठंडे सुर में कहा तब ठीक है। आप जाना चाहते हों तो हम आपको कैसे रोक सकते हैं ?’’
डॉक्टर एक क्षण के लिए अचकचाया-सा खड़ा रहा। फिर बाथरूम में जाकर हाथ धोने लगा।

 

(6)

 

 

मुख्यमंत्री ने अपने हरिजन न होने का ज़िक्र करके स्थानीय क़हवाघरों की एक अफ़वाह की ओर इशारा किया था। वहाँ कुछ दिन पहले राज्यपाल-विरोधियों ने ख़बर फैलायी कि अगर कोई हरिजन राजभवन के सोफ़े पर बैठ जाए या कोई पर्दा छू ले तो राज्यपाल उसका कपड़ा बदलवा डालते हैं। जो भी हो, अफ़वाह इतनी ठेठ थी कि इसे फैलाने वाले तक इसे मज़ाक की तरह पेश करते थे।
राजभवन के बाहर उन्हें अभिजात-वर्ग का एक ऐसा सुसभ्य राज्यपाल माना जाता था जो गंभीर और मितभाषी था, और प्रशासकीय मामलों में सख़्त। पर राजभवन के कर्मचारियों में उनकी शोहरत सिर्फ़ गुर्राहट और बदमिजाजी की थी। कर्मचारियों के बीच इसे लेकर कई कहनियाँ प्रचलित थीं और दिनों दिन इसमें इजाफ़ा होता जाता था। इन्हीं में नये पर्दों और अपहॉल्स्ट्री की कहानी भी शामिल थी।

यह सिर्फ़ अफ़वाह है कि राज्यपाल कुँवर जयंतीप्रसाद सिंह ने अपने से पहलेवाले राज्यपाल को ‘‘वह चमार’’ कहकर संबोधित किया था। सही बात यह है कि उन्होंने अपने पहले के इस राज्यपाल के बारे में कभी कोई बात ही नहीं की। वास्तव में उन्होंने स्वतंत्रता के बाद के अपने किसी पूर्ववर्ती राज्यपाल के अस्तित्व को पहचाना ही नहीं; कभी कुछ कहा भी तो स्वतंत्रता के पहले के अंग्रेज़ गवर्नरों के बारे में।
‘‘जिस हैलेट को तुम इतना बड़ा अत्याचारी समझते हो वह दरअसल बड़ा कुशल और अनुशासनप्रिय शासक था,’’ ....‘‘म्यूडी में और जो भी खराबी रही हो, वह ब्रिटिश न्यायप्रियता की अनूठी मिसाल था’’ उसके मुँह से निकलने वाली ऐसी बातें भले ही किसी पुरातात्विक रिपोर्ट का उदाहरण भर जान पड़ें, समझवाले समझ सकते थे कि इनमें अपने पुराने सहकर्मियों के बारे में प्रचलित ग़लतफ़हमियाँ दूर करने की कोशिश भर नहीं है, पुराने प्रभुतासंपन्न गवर्नरों के वर्ग में अपने को बैठा हुआ देखने का छिपा उल्लास भी है।

उनसे पहले यहाँ के राज्यपाल एक पुराने गाँधीवादी नेता थे। भाग्य के न जाने किस कुंडलीचक्र में सरकते हुए जेलों, दंगाग्रस्त इलाक़ों, कुष्ठाश्रमों और हथकरघा केंद्रों की धूल अपनी पुरानी चप्पलों में समेटे हुए कुछ वर्षों के लिए इस राजभवन में भटक आए थे। वे हरिजन थे और पिछड़े वर्गों के विकास में उनकी रुचि बेहिचक प्रकट होती रहती थी। तब ‘दलित’ का प्रयोग इतना व्यापक नहीं हुआ था और गाँधीवादी परंपरा में अपने को हरिजन या हरिजन-सेवक मानना असमंजस की बात न थी ! जो भी हो सवर्ण नेता और अफ़सरशाही इन कारणों से उन्हें जातिवादी कहा करती थी। पर राजभवन के अहाते में सारे कर्मचारी समुदाय से उन्हें एक निस्संग संत का-सा आदर मिलता था। राजभवन के वैभव को वे एक ओर से लेते थे जैसे उन्हें शुरू से ही इस जीवनशैली की आदत रही हो, दूसरी ओर वे अपने कामों और विचारों में इतना डूबे रहते कि लगता राजभवन के ऐश्वर्य और वहाँ के रहन-सहन के अस्तित्व का उन्हें कोई आभास नहीं है। अपनी विदाई के पूरे तामझाम और फौजफाटेवाले के बीच से जब वे बाहर निकले और अपने पुराने टीन के ट्रंकों और होल्डाल के साथ रात की गाड़ी से बिदा हो गये तो बहुतों को लगा कि वहाँ एक आश्रम था जो उजड़ चुका है। पर कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने छुटकारे की साँस ली और उम्मीद की कि उनकी जगह अब एक असली राज्यपाल को आना चाहिए।

असली राज्यपाल कुँवर जयंतीप्रसाद सिंह थे। अपने पद की शपथ ले चुकने के बाद गिने चुने अभ्यागतों को उनके साथ चाय पीनी थी। तभी उनके सचिव ने पाया कि वे दुचित्ते होकर बार-बार उसी ओर देख रहे हैं। बाद में, थोड़ा एकांत होते ही, उन्होंने क्रॉकरी की ओर इशारा करके कहा, ‘‘निहायत भौंडी है।’’ उनकी धीमी और गंभीर आवाज़ से सचिव को लगा जैसे देश की स्थिति पर कोई स्थायी फ़ैसला सुनाया गया हो।
उसी दिन राजभवन के कई पर्दों, सोफ़ों और गलीचों की शामत आयी। उस पर निगाह डालते ही उन्होंने नाक सिकोड़ी और उनके सचिव और ए.डी.सी. आँखें चुराकर भाँपने की कोशिश करने लगे कि कहीं से कोई बदबू तो नहीं आ रही है। ऐसा नहीं था, पर कुँवर जयंतीप्रसाद सिंह की नाक और भौंहों की हलकी सिकुड़न ने बहुत देर तक अफ़सरों के अपराध-बोध को जगाये रखा। बाद में उन्होंने कहा कि वे उन सोफ़ों को बरदाश्त नहीं कर सकते जिन पर ऐसा ‘हॉरर’ चढ़ा हो; न उन पर्दों को, न क़ालीनों को....।

हो सकता है कि ग़लतफ़हमी में किसी ने ‘हॉरर’ की जगह ‘हरिजन’ सुन लिया हो। ऊपर के फर्नीचर की सफ़ाई, नई पालिश और वार्निश पहले ही हो चुकी थी। सोचा गया था, नीचे के कमरों में हाथ लगाना ज़रूरी न होगा। पर नये राज्यपाल के इस वक्तव्य के बाद राजभवन की पूरी साजसज्जा का कायारूप शुरू हो गया।
‘‘केतकी..केतकी से मशविरा करके ही...’’ कहते हुए वे लिफ्ट की ओर आए। इतना तो उनके सचिव ने तत्काल समझ लिया कि आंतरिक साजसज्जा में केतकी को परामर्शदाता बनाया जाना है पर केतकी कौन है, यह जानने में कुछ घंटे लगे।
पर्दे आदि बदल गये। पर अफवाहों की हवा विधानसभा के वातानुकूलित सभागार तक को आंदोलित कर गई क्योंकि तभी राजभवन के कर्मचारियों में, और बाहर उन्हीं से, यह खबर जोरों से फैली कि नये राज्यपाल वे सारे पर्दे और अपहॉल्स्ट्री आदि बदल देना चाहते हैं जिन्हें ‘‘वह चमार ’’ कल तक छूता रहा था।


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