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आदमखोरों के बीच

रामेश बेदी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :243
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2498
आईएसबीएन :9788126701322

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आदमखोर जानवरों के विषय में विस्तृत परंतु रोचक विवेचन....

Aadamkhoron Ke Beech a hindi book by Ramesh Bedi - आदमखोरों के बीच - रामेश बेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1

दिन-दहाड़े मार लेती थी

भीरा क़स्बे के पास साठ एकड़ में अजीत सिंह ढिल्लो का कृषि फ़ार्म है। फ़ार्म के ढोरों को चराने के लिए ढिल्लो ने एक नौकर रखा था। उसका नाम प्रेम था। उम्र होगी सोलह साल। उम्र के लिहाज़ से वह अच्छे डीलडौल वाला और तगड़ा लड़का था। बारह एप्रिल 1981 की सुबह, रोज़ की तरह, धार निकाल कर वह ढोरों को चराने के लिए ले गया। दिनभर चराता रहा। फ़ार्म के पश्चिम में दूर, भीरा के वनों में, सूरज उतरने लगा। कीकर की फीकी छाया मैं बैठे प्रेम ने ढोरों को वापिस ले जाने की सोची।

शेर चक्कर लगाते रहते हैं

फ़ार्म के दक्षिण में मरहय्या नाला बहता है। इसमें बारह महीने थोड़ा-बहुत पानी रहता है। नाले में नरकुल और पटेर उगे हैं। कई जगह इतने घने हैं कि उसके अन्दर घुसा हुआ जानवर दिखाई नहीं देता। मरहय्या नाला शारदा नदी से बरुआ की तरफ़ से निकला है और जमनाहा गांव के पास फिर शारदा में मिल जाता है। अपने उद्गम और संगम तक यह कुल मिलाकर लगभग छब्बीस किलोमीटर का रास्ता तय करता है।
मरहय्या में शीशम और खैर का नया जंगल लगाया गया है। पेड़ चार मीटर से अधिक ऊँचे चले गए हैं। नये जंगल को वन-विभाग के लोग प्लाण्टेशन और देहाती लोग टौंगिया कहते हैं। जमनाहा प्लाण्टेशन में अधिकतर खैर के पेड़ लगे हैं जो ख़ासे बड़े हो गए हैं और घना जंगल बन गया है। अजीत सिंह ढिल्लो के फ़ार्म से चार किलोमीटर दूर भीरा के जंगल फैले हैं जिनमें साल, सागौन, युकलिप्टस और रोहिणी के पेड़ उगे हैं।
मरहय्या, भीरा और जमनाहा के जंगलों में तथा इनके बीच में बहनेवाले मरहय्या नाले में चीतल, गोंद, पाढ़ा और जंगली सुअर जैसे जंगली जानवरों को पर्याप्त भोजन, पानी और छिपने की जगह मिल जाती है। वन्य जीवों के ये स्थायी निवास बन गए हैं। इनका शिकार करने के लिए शेर यहां चक्कर लगाते रहते हैं।

भैंस को मार दिया

प्रेम उस दिन ग्यारह ढोरों को चरा रहा था। इनमें तीन बड़े झोटे थे, पाँच भैंसे थीं, तीन साल की एक झोटी थी और एक-एक साल के दो पड्डे थे। नाले के किनारे चरते हुए ढोर अचानक सिर उठाकर नरकुलों के अन्दर देखने लगे। उनकी आंखें और कान चौकस थे। प्रेम ने समझा उधर कोई सांप होगा जिसे देखकर ये चौंक गये हैं। प्रेम फिर क्षितिज में डूबते हुए सूरज के लाल गोले की तरफ़ देखने लगा। उसे पता ही नहीं चला कि उसकी झोटी को कब शेरों ने मार लिया है। वे उसे नरकुलों के अन्दर घसीटकर ले जा रहे थे, तभी उसने देखा। प्रेम ने बाकी ढोरों को पीछे हांक लिया। झोटी को छुड़ाने एक भैंस नरकुलों के अन्दर जा चुकी थी। वह झोटी की माँ थी। दायें-बायें छिपे हुए शेर और शेरनी एक साथ उस पर लपके। वह नरकुलों के बाहर लौट आई। उसकी गरदन पर बड़ा घाव था। एक एकड़ दूर जाकर वह गिर पड़ी। उसने वहीं दम तोड़ दिया।

मुआवज़ा नहीं मिला

यह खंगड़ भैंस थी। सुबह उसने डेढ़ लिटर दूध दिया था। उसका यह पहला सुआ था। एक समय में चार लिटर दूध देती थी और दिन-भर में आठ लिटर। बाज़ार में बेचा जाता तो इतने दूध के हर रोज़ ढिल्लो को अच्छे रुपये मिलते रहते। वह खाता-पीता ज़मींदार था। दूध और पूत को बेचना पाप समझता था। सारा दूध परिवार में खप जाता था। दो महीने बाद यह फिर सूने वाली थी। दूसरे ब्यात में इसके दूध का परिमाण बढ़ जाता। बाज़ार में ऐसी भैंस चार हज़ार रुपये में न मिलती।
अजीतसिंह ने थाने में रिपोर्ट लिखाई। लखीमपुर खीरी में ज़िला मैजिस्ट्रेट से शिकायत की। दुधवा नेशनल पार्क के डायरेक्टर को रजिस्ट्री द्वारा मुआवज़े के लिए प्रार्थना पत्र भेजा। मौक़े का मुआयना करने औफ़िसर तो आ गये पर भैंस के मालिक को मुआवज़ा नहीं मिला। औफ़िसर ने सरकारी ख़जाने से अपने भत्ते की रक़में वसूल कर लीं। शेरों

चार का गिरोह सक्रिय

चारों हत्यारे शेर एक ही परिवार के सदस्य थे। एप्रिल की गरमी और आंखों को चौंधिया देने वाली सूरज की तेज़ रोशनी से बचने के लिए वे मरहय्या नाले की गीली धरती पर नरकुलों के संघनों के अन्दर सुस्ताते रहते थे। गोधूलि वेला में वे शिकार की तलाश में निकलते थे।
इस परिवार में माता-पिता और उनके दो बच्चे थे। बच्चे एक साल से ऊपर के होंगे। मां-बाप के लगभग बराबर हो गये थे। मैंने ऐसे जवान बच्चों को अपनी मां के साथ देखा है। वह उन्हें अब तक अपने साथ लिये घूमती जब तक वे शिकार करने में पूरे दक्ष न हो जांय। बच्चों का पिता अलग रहा करता है। इस इलाक़े में शेरों के अन्दर पारिवारिक भावना विकसित हो गयी है। पिता भी परिवार के साथ रहने लगा है। इससे शिकार करने में सुविधा रहती है। इस उदाहरण में मां-बाप तो नरकुलों के अन्दर छिपे रहे और अपने शूरों की कार्यवाही पर ग़ौर करते रहे। बिना आहट के नरकुलों से बाहर निकल कर जिस सफ़ाई तथा फुर्ती से उन्होंने कार्यवाही की उससे मां-बाप को सन्तोष हुआ होगा।

बाईस लोगों की हत्यारी तारा

अजीत सिंह पंजाब से आकर यहाँ 1966 में बस गये थे। उनके अनुभव में पन्द्रह साल पहले यहां शेरों का आतंक नहीं था। कोई चार साल पहले से, 1978 से, शेरों का अधिक शोर हो गया था। उनके ख़याल में ये वे शेर थे जो बाहर के मुल्कों से लाकर दुधवा के जंगलों में छोड़े गये थे। उन्हें ये जंगल रास नहीं आये। वहां से बाहर निकलकर वे फ़ार्मों में भटकते फिर रहे थे।
अजीत सिंह के फ़ार्म पर अख़बार नहीं आता था। अपनी ज़रूरतें पूरी करने वह भीरा के बाज़ार में जाया करता था। वहां के दुकानदार उसके ज्ञान का श्रोत थे। दुधवा नेशनल पार्क की परिसीमा में एक विस्तृत फ़ार्म के मालिक बिली अर्जुन सिंह ने लण्डन के ट्री क्रौस चिड़ियाघर से 1976 में शेर का एक बच्चा लेकर पाला था। इसका नाम तारा था। जवान हो जाने पर यह जोड़ीदार की तलाश में जंगल चली गई थी। तारे के बारे में अख़बार में ख़ूब चर्चा हो रही थी और दुधवा नेशनल पार्क के डायरेक्टर तथा कर्मचारी उसे बाईस लोगों की हत्या करने का अपराधी मानते थे।

आदमख़ोर घोषित कर दिया

अजीत सिंह को बिली अर्जुन सिंह की परीक्षणों का सही ज्ञान नहीं था। अख़बारों में उसकी पालतू शेरनी की जो प्रतिकूल आलोचनाएँ छपा करती थीं, अजीत सिंह की बात में मुझे उसी का एहसास होता था।
अजीत सिंह उस नयी पीढ़ी की बिरादरी के व्यक्ति थे जो पुरानी धार्मिक मान्यताओं की जकड़ से बाहर निकल रहे हैं। तेरह एप्रिल को बैसाखी का पवित्र पर्व था। उनके कृषि फ़ार्म के उदासी भरे माहौल में उसे मनाने का उत्साह नहीं था।
यह शेरनी मरहय्या टौंगिया और जमनाहा टौंगिया के अन्दर रहती थी। गन्ने के खेतों में, नालों में, भीरा के जंगल में और किशनपुर अभयवन के अन्दर चली जाती थी। इलाक़े के लोग इसी मरहय्या को शेरनी कहते थे। पाँच-सात दिन बाद इस गिरोह ने रेशम सिंह के फ़ार्म से शाम को दो गायें मार लीं। अजीत सिंह के फ़ार्म से यह जगह पश्चिम से आधा किलोमीटर दूर होगी।
पिछले तीन साल के अन्दर भीरा शेरनी ग्यारह आदमी, सत्तर पशुओं और बहुत-से कुत्ते मार चुकी थी। उसे नरभक्षी घोषित किया जा चुका था। उसे ख़त्म करके इलाक़े के लोगों को और उनके पशुधन को सुरक्षा प्रदान करने की ज़िम्मेदारी दुधवा नेशनल पार्क के डायरेक्टर अशोक सिंह को सौंपी गई थी।

बूढ़े सुन्दर का लहू पड़ा था

अजीत सिंह की जानकारी में मरहय्या की शेरनी ने इन्सान को मारने की पहली वारदात ताज़िया जुलूस निकलने से दो दिन पहले तीस अगस्त 1981 को की थी। उसके फ़ार्म से पश्चिम में दो किलोमीटर दूर गन्ने के खेत के अन्दर मुन्नालाल का बेटा सुन्दर घास घास काट रहा था। गन्ने के पौधे जब बड़े हो जाते हैं तब खेत की निराई-गुड़ाई तो की नहीं जाती, उसके अन्दर दूब घास बढ़ जाती है। दूब पालतू पशुओं का पौष्टिक आहार है। भीरा गांव के ग़रीब लोग अपने पशुओं के लिए घास काटने दूर गन्ने के खेतों में निकल जाते हैं।
तीस अगस्त 1981 की सुबह सुन्दर और पण्डित दयाराम भीरा से घास लेने चले। दो किलोमीटर खेतों में आकर दो खेतों में अलग-अलग घुस गये। एक-दूसरे से वे दो-ढाई सौ मीटर दूर होंगे। पण्डित तीस-पैंतीस बरस का जवान था और सुन्दर पचपन बरस का बूढ़ा था। पण्डित की घास की गठरी जल्दी पूरी हो गई तो उसने सुन्दर का आवाज़ दी। जवाब न आने पर वह उसकी तरफ़ चला। सोचता था कि उसकी मदद करा दूंगा। बूढ़े के सिर पर घास की गठरी रखवा दूंगा।
पण्डित को सुन्दर की काटी हुई घास की ढेरी तो दिखाई दी पर सुन्दर नहीं दिखाई दिया। उसे वहां ख़ून के क़तरे नजर आये। उसने सोचा उसे शेर ने मार दिया है। वह सीधा भीरा गांव की तरफ़ भागा। उसने अपनी गठरी भी नहीं उठायी।

टांग और बांह खा गई थी।

गांव वाले राइफ़लें और बन्दूकें लेकर चले। क़रीब एक बजे खेत पर पहुंच गये। हवाई फ़ायर करते हुए ख़ून की लाइन के साथ-साथ बढ़ते गये। गन्ने के खेत के अन्दर पड़ी सुन्दर की लाश तक पहुंच गये। फ़ायर की आवाज़ सुनकर शेरनी लाश को छोड़ गई थी। शेरनी दिखाई नहीं दी। सुन्दर को उसने ग्यारह बजे पकड़ा था। लाश को खाने के लिए उसे दो-ढाई घण्टे मिल गये थे जिसमें उसने दायीं टांग और एक बांह दोनों को पूरा खा लिया था।
अधखाई लाश को गन्ने के खेतों से बाहर निकालकर भीरा थाने में ले गये। वहां पंचायतनामा भरा गया। पण्डित दयाराम और दूसरे लोगों के बयान लिखाकर पांच-छह प्रतिष्ठित आदमियों के हस्ताक्षर करा लिये गये। उसके बाद पोस्टमार्टम के लिए लाश को छप्पन किलोमीटर दूर लखीमपुर ले गये। दूसरे दिन लाश वापिस मिल गई। उसका अन्तिम संस्कार कर दिया गया।
सुन्दर अविवाहित था। उसके छोटे भाई ने भीरा के वन-विभाग के कर्मचारियों को क्षतिपूर्ति देने के लिए प्रार्थना पत्र दिया। उसे वाइल्ड लाइफ़ वार्डन को फ़ौरवर्ड कर दिया गया।

चार ढोर मार दिये

नाले में उगे पटेर और नरकुल के गहनों में शेरों के इस परिवार को जंगली जानवर नहीं मिल रहे थे। फिर भी वे आहार की तलाश में अभयवनों के अन्दर नहीं गये। वे सुलभ आहार की घात में थे। सुन्दर की टांग और बांह के पांच-छः किलोग्राम गोश्त से तो एक शेर का पेट भी नहीं भरा था। भूख से व्याकुल इस गिरोह ने अगले दिन चार ढोर मार लिये। भीरा के बिखारी की गायें ढिल्लों के फ़ार्म से एक किलोमीटर दक्खिन में नाले के किनारे एक टापर में चर रही थीं। चारों शेरों ने अचानक एक साथ हमला कर दिया। दो गायें और दो बछड़े मार गिराये। ढोर-डंगरों के बैठने और चरने के लिए खेतों और नालों के बीच में खुली जगहें छोड़ रखी हैं, उन्हें टापर कहते हैं।

कुत्तों का शिकार करने लगे

पड़ोसी फ़ार्मों के ज़मींदार जमा हो गये। हो-हल्ला से शेरों को गायें छोड़नी पड़ीं, वे भरपेट नहीं खा पाये। उन्होंने कुत्तों का ही शिकार करना शुरू कर दिया। अजीत सिंह के लड़के सुमेल और सुखमिन्दर बैलों से हल जोत रहे थे। उनका बाज़ नामक एल्सेशियन कुत्ता डेरे से उनके साथ आ गया था। घूमता हुआ गन्ने की फ़सल के किनारे चला गया। वहीं शेर ने दिन में सात बजे उसे पकड़ लिया। ढिल्लों के डेरे से दक्खिन में पौन किलोमीटर दूर शर्मा के फ़ार्म के दो कुत्ते उन्होंने मार लिये।

दिन में ही कन्हई को उठा ले गये

भीरा से चौदह किलोमीटर दूर किशनपुर गांव है। पचास साल का एक हरिजन कन्हई अपनी पत्नी और एक लड़के के साथ छप्पर के लिए फूस काटने किशनपुर अभयवन के अन्दर गये। गांव से तीन किलोमीटर का फ़ासला तय करके कन्हई ने बैलगाड़ी खड़ी कर दी। तीनों जने थोड़ी-थोड़ी दूरी पर छप्पर-घास काटने लगे। दोपहर बारह बजे भीरा की शेरनी चुपके से कन्हई को उठा ले गई। पास में चरते हुए बैलों को उसने कुछ नहीं कहा। पहली अक्तूबर 1981 की इस घटना की रिपोर्ट में अख़बारों ने उसे दिन-दहाड़े की हत्या लिखा। इस इलाक़े में शेरों द्वारा मनुष्यों को मारने की कई घटनाएं दुपहर के चकाचौंध करने वाले प्रकाश में हुई हैं। उनमें कभी-भी हमलावर शेर ने दहाड़ नहीं मारी। इसलिए मैं समझता हूँ कि ऐसी घटनाओं के साथ दिन-दहाड़े विशेषण की बजाय बिन-दहाड़े विशेषण लगाना अधिक उपयुक्त होगा।
भीरा के वनजन्तुरक्षक हरि बाबू कन्हई की विधवा को मुआवज़ा की पांच हज़ार रुपये की रक़म का चेक देने गये तो उसे कुछ सान्त्वना मिली। पैंतालीस साल की उस औरत ने इतना रुपया कभी नहीं देखा था। उसके चार बच्चों के तन पर कपड़े नहीं थे। उनके लिए उसने कपड़े सिलवाये। लड़की के हाथ पीले किये और बाक़ी रुपया बैंक़ में जमा कर दिया।

काली-सी ढेरी शेरनी बन गई

पच्चीस मार्च से छह एप्रिल 1982 के बीच शेरनी ने गन्ने के खेत में दो शिकार किये थे। एक जंगली सूअर का और एक नीलगाय का। पास के जंगल से ये जानवर फ़सल खाने आ गये थे।
अट्ठाइस मार्च 1982, रविवार की रात को अजीत सिंह के बड़े बेटे सुमेल ट्रैक्टर से खेत में सुहागा फेर रहे थे। खेत तैयार करके अगले दिन गन्ना बोना था। सुहागा फेरे हुए सपाट खेत में सुमेल को काली-सी ढेरी नज़र आई। साफ़ आकाश में झिलमिलाते तारों की रोशनी में अस्पष्ट दिखाई दे रहा था। उसने ट्रैक्टर घुमाकर हेड लाईट उधर फेंकी। वह काली ढेरी शेरनी बन गई थी जिसकी काली धारियां चमक रही थीं। दो सौ कदम के फ़ासले पर शेरनी को बेझिझक बैठे देखकर सुमेल को अचरज हुआ। उसने शेरनी की तरफ़ ट्रैक्टर बढाया। उसकी आवाज और प्रकाश की परवाह किये बगैर वह बैठी रही। सुमेल के शोर मचाने पर वह गन्ने के खेत में घुस गई।

चालाकी से पड्डा ले जाती थी

अशोक सिंह ने छात्र जीवन में शौक़िया बन्दूक चलाना सीख़ा था। 1967 से पहले के बरसों में उन्होंने भालू, तेंदुआ और शेर का शिकार किया था। उसके बाद आहार के लिए जंगली सूअर और तीतर मारते रहे। जंगली सूअर टांगिया में घुसकर छोटे पौधों को नुकसान पहुंचाते थे।
मई 1977 से फ़रवरी 1982 तक अशोक सिंह लखनऊ चिड़ियाघर में डायरेक्टर के पद पर कार्य करते रहे। जनवरी 1982 में अभी वे लखनऊ में ही थे, उन्हें भीरा की आदमख़ोरनी को मारने का आदेश मिला। फ़रवरी में व्यस्त होने के कारण उसे मारने का मौक़ा नहीं मिला। मार्च के दूसरे पखवाड़े में तेईस, चौबीस और पच्चीस को शिकार के लिए मचान पर बैठे। शीशम के पतले सीधे पेड़ के ऊपर ज़मीन से क़रीब आठ मीटर की ऊंचाई पर मचान बांधा था। उसके सामने चारे के लिए पड्डा बांधा जाता था। मचान से उतरकर जब अशोक सिंह चले जाते थे तब शेरनी आती थी और पड्डे को मार लेती थी। गन्ने के खेत में लाश को घसीट ले जाती थी और पेटभर खाती थी। अधखाई लाश को खेत से निकाल कर फिर मचान के पास खूंटे से बांधा जाता था। चालाक शेरनी मारण पर तभी आती थी जब सिंह चले जाते थे। अगले दिन सिंह अपने दल के साथ आते थे तो उसके साथ पद-चिह्न दिखाई देते थे। उन्हें ग़ौर करने से यह तो निश्चित हो गया था कि वह शेरनी थी, शेर नहीं।

गाड़ी में जुते बैल मारकर ले गई

पच्चीस मार्च 1982 की शाम चार बजे मैं ढिल्लो के फ़ार्म पर पहुंच गया था। अशोक सिंह के साथ मैंने सूरज डूबने से पहले, आदमख़ोर शेरनी के इलाके में चक्कर लगाया। शेरनी को मारने की उनकी योजनाओं को समझा। वे मचान पर चढ़ा गये तो मैं डेरे पर शिकारियों के साथ झोपड़ी में बैठ गया। हर शिकारी की ज़ुबान पर आदमख़ोर की कहानी थी। उनकी कहानियों के कुछ शेर बहुत दिलेर थे। भीरा के मरहय्या नाले के ऊपर बैलगाड़ी जा रही थी। गाड़ी को खींचते हुए बैल को एक शेर ने मार लिया था और उसे नाले में खींच ले गया था। फ़ौरेस्ट गार्ड जगदम्बा प्रसाद, उम्र चालीस साल, दुधवा राजि में दुपहर बाद मज़दूरों से काम करा रहे थे। शेर ने पंजे से उनका मुँह ज़ख़्मी कर दिया था। यह घटना 1964-65 की है। लखीमपुर में उनका इलाज कराया गया था। 1970 के आस-पास उत्तर खीरी डिविज़न के सोनारिपुर रेंज में जुगेड़ा की सरस्वती ने आरा मशीन के हरियाणवी मुनीम को पकड़कर फेंक दिया था। मरहय्या गांव से पूरब में, दो किलोमीटर दूर, दस-बारह साल का एक लड़का, रामरत्न, भैंस पर सवार जा रहा था। जनवरी 1980 का कोई दिन था। शेर ने उस पर हमला किया। पंजों की चोट से उसकी जांघ ज़ख़्मी हो गई थी।

हरीकेन लैम्प—सुरक्षा का तावीज़

इस इलाक़े में आदमियों को मारने की जितनी भी घटनाएँ हुई हैं उनमें शेर ने बैठे हुए या झुके हुए आदमी पर हमला किया था, चाहे वह बैठा हुआ घास काट रहा हो, लकड़ी बीन रहा हो या गन्ना छील रहा हो। प्रायः सभी उदाहरणों में शेर दबे पांव पीछे से लपका था, आदमी को उसका भान तक न हुआ था।
भीरा के लोगों की जीवन पद्धति का शेर अंग बन चुका था। आये दिन शेरों के हमले उनके लिए सामान्य बात हो गई थी। रात को मैं ढिल्लों के फ़ार्म पर डेरे में एक झोपड़ी में सोया था। उसके दो तरफ़ तो फूस की चार अंगुल मोटी दीवार थी और दो बाज़ू खुले थे। डेरे में कुल मिलाकर पांच-छह फूस की झोपड़ियां थीं। अन्तःपुर में ज़नानख़ाना, रसोई और अनाज-भण्डार था। चारों ओर से घिरा हुआ अन्तःपुर शेरनी के हमले से अपेक्षाकृत सुरक्षित था। डेरे की तीन औरतों के साथ मेरी पत्नी शीला और पोती रंजना अन्तःपुर में सो गये। मैं, राजेश और ढिल्लो बाहर सो गये। सामने आड़ू के पेड़ पर हरीकैन लैम्प टांग दी। मानो आदमख़ोरनी के आतंक से संपृक्त वातावरण में यह सुरक्षा का तावीज़ था।

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