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मैथिलीशरण गुप्त के नाटक

मैथिलीशरण गुप्त

प्रकाशक : साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :460
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2531
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत हैं मैथिलीशरण गुप्त के नाटक...

Shri Maithili Sharan Gupt Ke Natak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैथिलीशरण गुप्त के नाटकों का यह संग्रह एक साथ प्रकाशित होने के कारण ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इस अर्थ में और भी महत्त्वपूर्ण है कि अभी तक अप्रकाशित, निष्क्रिय-प्रतिरोध और विसर्जन, नाटकों के पहली बार प्रकाशन के कारण अधिक मूल्यवान भी है।

इसमें पाँच मौलिक और चार अनूदित कुल नौ नाटक सम्मिलित हैं। अनघ नाटक अहिंसा, करुणा, लोक सेवा आदि पर आधारित है। विसर्जन में पहली बार बेगार प्रथा की खिलाफत की गई है। निष्क्रिय प्रतिरोध दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहान्सबर्ग पर केन्द्रित हैं जो महात्मा गाँधी द्वारा कुलियों पर किये गये अत्याचार के विरोध की याद दिलाता है।

भूमिका

श्रीमैथिलीशरण गुप्त जी ने 5 मौलिक- ‘अनघ’, ‘चन्द्रहास’, ‘तिलोत्तमा’, ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ और ‘विसर्जन’ नाटक लिखे हैं और भास के चार नाटकों- ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘प्रतिमा’, ‘अभिषेक’, ‘अविमारक’ का अनुवाद किया है। इन नाटकों में ‘अनघ’ जातक कथा से सम्बद्ध बोधिसत्व की कथा पर आधारित पद्य में लिखा गया नाटक है। नितांत तकनीकी दृष्टि से इसे ‘काव्य नाटक’ नहीं कहा जा सकता है। ‘चन्द्रहास’ इतिहास का आभास उत्पन्न करने वाला नाटक है। जिसमें नियति और सत्कर्म का महत्त्व संप्रेषित है। तिलोत्तमा पौराणिक नाटक है। ये नाटक पहले प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ और ‘विसर्जन’ पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं, इस अर्थ में नये हैं। भास के अनुदित नाटकों के चयन में भी गुप्त जी ने वैविध्य का ध्यान रखा है।

इन नाटकों का मुख्य उद्देश्य अपने समय के यक्ष प्रश्नों का उत्तर देना और उन प्रश्नों को मानस प्रकृति और समाज के प्रतिबिंब मानकर प्रस्तुत करना भी रहा है। नाटक गुलामी और दास्ता से मुक्ति तथा मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर लिखा गया लगता है। जैसे अनघ अहिंसा, करुणा, लोक सेवा, लोक कल्याण आदि मूल्यों की प्रतिष्ठा पर केन्द्रित है। इसमें ऊँच-नीच, छूत-अछूत आदि के भेदों को उखाड़कर समता, सेवा और मनुष्यता के मूल्यों की प्रतिष्ठा की गई है। अनघ के नायक ‘मघ’ अपने ऊपर आक्रमण करने वाले चार चोर, सुरा सेवक सुर, गाय चुराने वाले और फूँकने वाले ‘ग्राम भाजक’ और ‘मुखिया’ आदि को गौतम बुद्ध की तरह क्षमा कर देता है। गाँव सुधार के लिए कुँओं, घाटों की मरम्मत करता है। जन सेवा के लिए सुरभि से विवाह नहीं करना चाहता है। निर्बलों और असहायों को भक्ष्य मानने वालों को दया और सदाचार का मार्ग बताता है। नाटक में नवीनता पर बल है, परन्तु नव्यता मात्र के लिए नहीं। एक पात्र कहता है-

लीक पीटने से क्या लाभ
अन्ध नहीं केवल अमिताभ

स्वतन्त्रता आन्दोलन के गांधीवादी वैष्णवी मूल्यों का मैथिलीशरण जी पर सर्वत्र प्रभाव है। लोक सेवा या जन-सेवा साकेत और यशोधरा का भी विषय है। इस नाटक में उन मूल्यों को बौद्ध धर्म भावित करके प्रस्तुत किया गया है। सुरभि एकमात्र ऐसी चरित्र है जो राजसभा में साक्षात् शक्ति के रूप में प्रस्तुत होकर अत्याचारियों और पापियों को चुनौती देती है। ‘अनघ’ का नायक मघ जहाँ एक ओर शान्त और धीर है वहीं सुरभि अपने एकात्मक प्रेम के कारण मघ पर लगाये गये दुरभि सन्धिमूलक आरोपों को देखकर, सुनकर सात्त्विक क्रोध से सभा में राजा को भी ललकारती है, परन्तु रानी की मूल्यानुगामी दृष्टि और प्रजाहित की कामना से ‘मघ’ विद्रोह सिद्ध हो जाता है। चोर, सुर आदि उसके पक्ष को प्रमाणित करते हैं और अन्त में ‘सुरभि’ का मघ से विवाह हो जाता है। पारिवारिकता और गृहस्थ धर्म गुप्त जी की रचनाओं में मानवीय मूल्यों के आधार हैं। इसमें भी मघ के पिता अमोघ उन्हीं मूल्यों को स्थापित करते हैं।

नाटक अत्याचार और अन्याय के प्रतिकार का नाटक नहीं है, बल्कि ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ के सिद्धान्त का सम्प्रेषक है। भोजन की भार्य्या शराब को गरीबों का खून कहती है और शराबखोरी को विवेकभ्रष्टता का एक कारण मानती है। रानी-राजा के स्वागत के लिए किये गये दिखावटी प्रयत्नों का वर्णन आजकल के नेताओं के लिए किये जाने वाले के आभ्यन्तरण  लगते हैं।

चन्द्रहास नियति और सतकर्म को केन्द्र में रखकर लिखा गया नाटक है। कुन्तलपुर के नरेश कौन्तलप के मन्त्री धृष्टबुद्धि अपने निष्कंटक राज्य के राज पुरोहति गालव के यह कहने पर कि इसमें नरेश बनने की संभावना है, चन्द्रहास को मरवाना चाहता है। उसके सभी प्रयत्न नियति के कारण बेकार हो जाते हैं और अन्तत: धृष्टबुद्धि की पुत्री विषया और चन्द्रहास का विवाह हो जाता है। चन्द्रहार को मारने का प्रयत्न करने वाला अपने ही पुत्र मदन की हत्या करना चाहता है, परन्तु भाग्य के कारण चन्द्रहास बच जाता है। कुंतल नरेश जन सम्मान को देखते हुए उसे राज पाट देकर वानप्रस्थी हो जाते हैं। धृष्टबुद्धि पाश्चात्ताप करता है और राजा का अनुगामी बन जाता है। यह नाटक प्रकारान्तर से राजधर्म का उपदेश देता है। इसमें अनघ की तरह की नाटकीयता नहीं है। विषया और चन्द्रहास के मिलन का प्रसंग फुलवारी प्रसंग जैसा है, परन्तु इसमें भी गुप्तजी ने भारतीय़ परिवारों के अत्यन्त मधुर रिश्तों को भाभी, ननद, भाई और मित्र आदि के माध्यम से एक दल मूल्य के रूप प्रस्तुत किया गया है। राजा को कैसा होना चाहिए और उसका धर्म क्या है ?

यह भी इस नाटक का विषय है, परन्तु इसमें वह उद्धाटनप्रियता नहीं है जो अनघ में है। ‘अनघ’ तो एक प्रकार से बहुस्तरीय भष्टाचार और अन्याय के उद्धाटन और प्रतिरोध का नाटक है। गांधी जी अन्तरात्मा की आवाज को मूल्य मानते रहे हैं, अनघ में वह मूल्य या आवाज अधिक है।

‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ दक्षिण अफ्रीका में कुलियों पर किये गये अमानुषिक अत्याचार और महात्मा गांधी के नेतृत्व में इसका प्रतिरोध करने वाले भारतीय मजदूरों की कथा पर आधारित है। नाटक का पहला दृश्य दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहान्सवर्ग पर केन्द्रित है। रामकृष्ण बार-बार हिन्दुओं की तेजस्विता को चुनौती देता है और कहता है, ‘‘अब हम वे हिन्दू नहीं हैं जो आँख दिखाने वाले की आँख निकाल लें। रामकृष्ण एक स्थान पर अपनी जाति की हीन और निर्वीर्य्य अवस्था को देखकर कहता है कि हम लोगों जैसी निस्तेजता और मृतक जाति और हम लोगों जैसा स्वार्थी कोई नहीं है। उसके बार-बार उद्धबोधन का एक निश्चित उद्देश्य है और वह उद्देश्य है संघबद्ध होकर इस प्रकार के अपमान का प्रतिकार। उसके इस प्रकार वचनों का अन्तत: एक लाभ तो होता ही है कि दो हजार से अधिक मजदूरों का अफ्रीका का पहला ऐतिहासिक मार्च महात्मागाँधी के नेतृत्व में प्रारंभ होता है और गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों को झुकना पड़ता है। रामकृष्ण की तरह यह वाणी मैथिलीशरण गुप्त की अनेक रचनाओं की ही नहीं हिन्दू पुनर्जागरण की भी वाणी है। रामकृष्ण का कथन भारत भारती के कथन की ही प्रतिध्वनि है’’-

यदि हम हिन्दू होते
होता धरा पै वह कौन व्यक्ति
जो यों दिखाता हमको स्वशक्ति
जो आँख कोई हम पै उठाता
किये हुए का फल शीघ्र पाता

पूरे नाटक में महात्मा गाँधी नहीं हैं उनके प्रभाव, नेतृत्व और क्षमता का उल्लेख है। यह पहली बार प्रकाशित हो रहा है।
‘विसर्जन’ भी पहली बार प्रकाशित हो रहा है। यद्यपि इससे पहले प्रकाशित होना चाहिए था। यह नाटक बेगार प्रथा के खिलाफ है और महात्मागांधी के ‘हृदय परिवर्तन’ पर आधरित है, परन्तु अपने मूल स्वरूप और वर्णन की दृष्टि से बेगार प्रथा और शोषण के खिलाफ लिखा हुआ सशक्त नाटक है। नाटक के सातवें दृश्य में सामान्य स्त्री, पुरुष बुंदेलखण्डी में बात करते हैं। नाटकों में बोली का प्रयोग सरलता और शिक्षा दोनों दृष्टियों से संभवत: पहली बार किया गया है। सेठ हरदीन के हवेली में बेगार पकड़ा हुआ रामदीन कहता है, ‘‘कि गरीबों का क्या दुख देते हो। सेठ साहूकार हाकिम हुक्काम भूखे थोड़े ही हैं जो गरीबों के मुँह की रोटी खींचकर उनके सामने डालते हो।’’

 इस प्रकार के अनेक वाक्य इस नाटक में नाटककार की हमदर्दी को व्यक्त करते हैं। विश्वम्भरनाथ का राष्ट्रीय शिक्षा के लिए प्रयत्न आन्दोलन की तैयारी की पहली भूमिका गुप्त जी की राजनैतिक सूझ-बूझ का प्रमाण है। रामदीन को हरदीन के द्वारा झूठे आरोप में फँसाना, जेल भिजवाना, उसकी बेटी की हत्या, स्त्री की मृत्यु, और अन्तत: बदले की भावना से डाकुओं के दल में शामिल होना, हरदीन को पकड़ना और मरने को तैयार होना, विश्वम्भर द्वारा उसका बचाया जाना, विश्वम्भर के उपदेश से डाकुओं का हृदय परिवर्तन आदि घटनाओं के माध्यम से गुप्त जी ने अन्याय और अत्याचार का गांधावादी हल प्रस्तुत किया है। यह उनकी दृष्टि का प्रमाण है। बेगार प्रथा का यह उत्तर नहीं है, परन्तु गांधी जी का यही उत्तर था। नाटक का नाम डाकुओं के द्वारा डाकाजनी के विसर्जन के आधार पर रखा गया है न कि समर्पण के आधार पर राष्ट्रीय प्रश्नों का उत्तर खोजने के प्रयत्न में ही लिखा गया है।

भास द्वारा लिखे गये नाटक सरल संस्कृत में लिखे गये प्रसिद्ध नाटक हैं जिनका अधिकांशत: गद्य में और कविताओं का पद्य में अनुवाद किया गया है। अनुवाद में नाटक की मूल प्रकृति और भाषा की सहज प्रवृत्ति का ध्यान रखा गया है। वे परम वैष्णव मैथिलीशरण जी के नाटकों में रामभक्ति, व्यापक मानवीयता, पारिवारिकता, उदारता और गांधावादी सत्याग्रह, लोक सेवा, जनकल्याण अन्तरात्मा की प्रतिध्वनि, ह्रदय परिवर्तन तथा अहिंसा का न केवल प्रभाव है, बल्कि रचनाओं में इन मूल्यों की मार्मिक अभिव्यक्ति भी है। अत्याचार और अन्याय का विरोध, मनुष्य के स्वभाव को बदलने की कोशिश उनकी अन्य रचनाओं का भी विषय है।

स्त्रियाँ गुप्त जी के यहाँ अधिक जाग्रत, कर्मठ, सशक्त और तेजस्वी रूप में आती हैं। प्राय: सभी नाटकों में स्त्री पात्र सत्य को न केवल पहचानते हैं बल्कि निष्कपट रूप से अपनी अभिव्यक्ति भी करते हैं। साकेत की सीता, उर्मिला और कैकयी ही नहीं अनघ में मघ की माँ, चन्द्रहास में सुरभि, तिलोत्तमा में तिलोत्तमा, निष्क्रिय प्रतिरोध में दयाराम की पत्नी और विसर्जन में पार्वती के अधिक निकट और निष्कवच नारियाँ हैं जो अन्याय का प्रतिरोध पुरुषों की तुलना में अधिक सशक्त ढंग से करती हैं।

मैथिलीशरण गुप्त का यह संग्रह उनके नाटककार व्यक्तित्व को ही नहीं समय के प्रश्नों को समझाने और उनका उत्तर खोजने के उनके प्रयत्नों को भी अग्रगामिता प्रदान करता है।

हिन्दी-विभाग -सत्यप्रकाश मिश्र
इलाहाबाद विश्विविद्यालय
इलाहाबाद

अनघ


न तन-सेवा, न मन-सेवा,
न जीवन और धन-सेवा,
मुझे है इष्ट जन-सेवा;
सदा सच्ची भुवन-सेवा।


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