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प्रथम प्रतिश्रुति

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :456
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2546
आईएसबीएन :81-214-0101-1

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बंगाल के ग्राम्य जीवन और परंपराओं तथा संस्कारों के मर्मस्पर्शी चित्रों से भरपूर उपन्यास

Pratham Pratishruti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रथम प्रतिश्रुति घर की चहारदीवारी में बंदिनी भारतीय नारी के अभिशप्त जीवन की व्यथा-कथा ! एक सार्थक संघर्ष का दस्तावेज़। संघर्ष, जिसे आठ बरस की उम्र में ही ब्याह दी गयी सत्यवती ने पति से, परिवार से, समाज से लड़ा ताकि आने वाली पीढ़ियां उसकी भोगी गयी यातना से मुक्त रहें। बंगाल के ग्राम्य जीवन और परंपराओं तथा संस्कारों के मर्मस्पर्शी चित्रों से भरपूर यह उपन्यास पहले टैगोर पुरस्कार और फिर 1977 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।

1

सत्यवती की यह कहानी मेरी लिखी हुई नहीं है। यह कहानी वकुल की कॉपी से ली गयी है। वकुल ने कहा था, इसे कहानी कहना चाहो तो कहानी है, वास्तव कहना चाहो तो वास्तव।
वकुल को मैं बचपन से देखती आयी हूं। सदा कहा किया है, ‘वकुल, तुम पर कहानी लिखी जा सकती है।’ वकुल हंसती है। कौतुक और अविश्वास की हंसी। उहूं, वह खुद भी नहीं सोचती कि उस पर कहानी लिखी जा सकती है। अपने बारे में उसे कोई मूल्यबोध नहीं, कोई चेतना ही नहीं।
वकुल भी इस दुनिया के लोगों में से एक है, यह बात मानो वह मान ही नहीं पाती। वह महज यही समझती है कि वह कुछ भी नहीं, ‘कोई भी नहीं। निहायत मामूली लोगों में एक, बिलकुल साधारण। जिन पर कहानी लिखना चाहो तो लिखने को कुछ भी नहीं मिलता।

वकुल की ऐसी धारणा जो बनी, शायद हो कि इसके पीछे उसकी ज़िंदगी की बुनियाद की तुच्छता हो। शायद हो कि आज बहुत कुछ पाने के बावजूद छुटपन में बहुत कुछ न पाने का झोभ रह गया हो उसके मन में। उसी क्षोभ ने उसके मन को बुझा-बुझा-सा कर रखा हो, कुंठित कर रखा हो उसकी सत्ता को।
वकुल सुवर्णलता के बहुत-से बाल-बच्चों में से एक है। उसके अंतिम ओर की लड़की।
सुवर्णलता के घर में वकुल की भूमिका अपराधी की थी। जैसे विधाता का यह निर्देश हो कि उसे अजाने अपराध से हर समय संत्रस्त रहना पड़ेगा।

इसलिए वकुल का शिशु मन एक अजीब धूप-छांही परिमंडल में तैयार हुआ था, जिसका कुछ हिस्सा तो सिर्फ़ भय, संदेह, आतंक और घृणा का था और कुछ ज्योतिर्मय रहस्यपुरी की चमकती चेतना से दीपित। फिर भी मनुष्य को प्यार किये बिना नहीं रह सकती वकुल। मनुष्य को प्यार करती है, तभी तो...
लेकिन छोड़िए भी, यह तो वकुल की कहानी है नहीं। वकुल ने कहा है, मेरी कहानी यदि लिखनी ही है तो आज नहीं, और कभी। जीवन की लंबी राह तय कर आने के बाद वकुल ने समझना सीखा है, दादी-परदादी का ऋण चुकाये बिना अपनी बात नहीं कहनी चाहिए।

सूने गांव की छाया ढकी तलैया ही भरी बरसात में छलक कर नदी में जा मिलती है और प्रवाह बन कर दौड़ पड़ती है। दौड़ती हुई वही धारा एक दिन जा कर समुंदर में जा पहुंचती है। उस छाया ढकी पहली धारा को तो मानना ही पड़ेगा।
आज के बंगाल की अनगिनत वकुल-पारुलों के पीछे है वर्षों के संग्राम का इतिहास। वकुल-पारुलों की मां-नानी, दादी-परदादियों का संघर्ष का इतिहास। गिनती में वे असंख्य नहीं थीं, बहुतों में वे एक-एक थीं। वे अकेली आगे बढ़ीं। आगे बढ़ीं खाई-खंदक पार करके, चट्टानें तोड़-तोड़ कर, कंटीली झाड़ियों को उखाड़ती हुई। रास्ता बनाते हुए शायद हो कि दिशा खो बैठीं, अपनी ही बनायी हुई राह को छेंक कर बैठ पड़ीं। उसके बाद दूसरी आयी, उसने उनके किये काम को अपने हाथ में ले लिया। और राह इसी तरह तो बनी, जिससे हो कर ये वकुल-पारुल आगे बढ़ती जा रही हैं। और ये वकुल-पारुल भी खट रही हैं बेशक। बिना खटे काम कैसे चले ? पांव-प्यादे चलने का रास्ता बना जाने से ही तो नहीं हो गया।
रथ चलने का रास्ता चाहिए न।

वह रास्ता कौन बनायेगा, कौन जाने ? वह रथ कौन चलायेगा, कौन जाने ?
जो लोग चलाएंगे, अलस कौतूहल से इतिहास के पन्ने पलटते-पलटते वे शायद सत्यवती को देख कर हंस उठें।
नाक में बुलाकी और पैरों में झांझर पहने आठ बरस की सत्यवती को।
कभी वकुल भी हंसती थी।

अब नहीं हंसती। काफ़ी दूरी पार कर आने के बाद वह पथ की वास्तविकता को समझना सीख गयी है। इसीलिए जिस सत्यवती को वकुल ने कभी आँखों देखा तक नहीं, उसे उसने स्वप्न और कल्पना, ममता और श्रद्धा में देखा।
तभी तो वकुल की बही में सत्यवती की ऐसी साफ़ शकल आंकी हुई है।
नाक में बुलाकी, कान में करनफूल, पैरों मे झांझर, वृन्दावनी छाप की आठ हाथ वाली साड़ी पहने आठ साल की सत्यवती। कोई साल भर पहले ब्याह हो चुका है, ससुराल अभी नहीं गयी। अपने रोब दाब से मुहल्ले के सारे लड़के-लड़कियों की अगुआ बनी जी चाहे जहां खेलती फिरती है। सत्यवती की मां, दादी, बड़ी चाची, फुआ कोई भी उसे दबा नहीं पाती।
दबा नहीं पाती, शायद इसलिए कि उसकी मनमानी को बाप का कुछ सहारा है।
सत्यवती के पिता रामकाली चटर्जी हैं तो ब्राह्मण ही, पर पेशा उनका ब्राह्मणोचित्त नहीं हैं। वेद शास्त्र के बजाय उन्होंने आयुर्वेद की शरण ली। ब्राह्मण परिवार का होते हुए भी वे कविराजी करते हैं। गांव में इसीलिए लोग उन्हें ‘नब्ज़टटोल’ ब्राह्मण कहते हैं। उनका घर ‘नब्ज़टटोल’ का घर है।

रामकाली का आरंभिक जीवन उनके अपने भाइयों और दूसरे नाते गोतों से अलग—सा रहा। कुछ अजीब-सा भी शायद। नहीं तो उस अधेड़ आदमी को इतनी छोटी-सी लड़की क्यों ? सत्यवती तो रामकाली की पहली संतान है। उस ज़माने के लिहाज़ से ब्याह की उम्र बिता देने के बाद रामकाली ने शादी की थी। सत्यवती उनकी उस पार हो चुकी उम्र की संतति है।

कहते हैं, निरा किशोरावस्था में बाप से रूठ कर रामकाली घर से भाग गये थे। वजह जोकि वैसी कुछ ख़ास नहीं थी, लेकिन किशोर रामकाली के मन में उसी ने शायद गहरी छाप छोड़ी थी।
पता नहीं, ऐसी कौन-सी असुविधा हुई कि रामकाली के पिता जयकाली ने अभी-अभी जनेऊ हुए अपने बेटे पर गृहदेवता जनार्दन की पूजा आरती का भार उस दिन के लिए दिया। रामकाली ने बड़े उत्साह से वह जिम्मेदारी ली। उसकी आरती की घंटी के मारे घर भर के लोग ‘त्राहि जनार्दन’ कर उठे, लेकिन उत्साह की उस झोंक में एक बड़ी भारी भूल हो गयी। बड़ी भारी भूल।
रामकाली की दादी जब ठाकुरघर धोने-पोंछने गयीं तो वह भूल पकड़ में आयी। उनके घुटे सिर के छोटे-छोटे बाल साही के कांटे-से खड़े हो गये। वह भाग कर गयी और अपनी भतीजे यानी रामकाली के बाप जयकाली के पास पछाड़ खा कर गिर ही-सी पड़ीं।

‘‘ग़ज़ब हो गया, जय।’’
जयकाली चौंक उठे, ‘‘हुआ क्या है फुआ ?’’
‘‘छोटे छोकरों पर ठाकुर सेवा का भार देने से जो होता है, वही हुआ है। रामा ने ठाकुर को फूल बताशे दिये, पानी नहीं दिया।’’
जयकाली के सारे शरीर का ख़ून सिर पर सवार हो गया। ‘ऐं’, आर्त्तनाद-सा कर उठे थे वे।
एक ठंडा निःश्वास छोड़ती हुई फुआ उसी सुर में सुर मिलाती हुई बोलीं, ‘‘हां। पता नहीं किसके भाग्य में अब क्या बदा है ? फूल तुलसी की भूल नहीं हुई, भूल हुई एकबारगी प्यास के पानी की।’’
पांव का खड़ाऊं खोल कर हाथ में लेते हुए जयकाली ने आवाज़ दी, ‘‘रामू, अरे रामू !’’
इस चीख़ से रामकाली को पहले तो कोई शंका नहीं हुई, क्योंकि पुत्र-परिजनों से स्नेह संभाषण भी उनका इससे नीचे परदे पर नहीं होता। इसलिए हाथ में लगे बेल के लट्ठे को सिर में पोंछते हुए वह पिता के सामने आ खड़ा हुआ।
लेकिन यह क्या ! जयकाली के हाथ में खड़ाऊं !

रामकाली की आंखों के सामने कुछ पीले फूलों ने भीड़ लगा दी।
‘‘अबे, ईश्वर की याद कर, रामू !’’ ख़ूख़्वार-से हो कर जयकाली बोले, ‘‘तेरे नसीब में आज मरना लिखा है।’’
रामकाली की नज़रों के सामने से उन पीले फूलों की भीड़ ग़ायब हो गयी। रह गया सिर्फ़ गाढ़ा अंधेरा। उसी अंधेरे में टटोल कर उसने एक बार खोजने की कोशिश की कि आख़िर किस कसूर से विधाता ने आज उसकी क़िस्मत में मौत की सज़ा लिखी है। लेकिन नहीं खोज़ पाया, खोजने का सामर्थ्य भी नही रहा। वह अंधकार धीरे-धीरे रामकाली की चेतना पर छा गया।
‘‘आज तूने ही जनार्दन की पूजा की थी न ?’’
रामकाली चुप।

यानी कि ठाकुरघर में ही कोई अपराध बन पड़ा है। लेकिन कहां ? कौन-सा अपराध ? हाथ-पांव धो कर, जनेऊ के वक़्त जो मिला था, वही कपड़ा पहन कर तो वह पूजाघर गया था। फिर ? आसन। फिर ? आचमन। फिर ? आरती। फिर...कि सिर पर ठांय से एक चोट पड़ी।
‘‘भोग के समय पानी दिया था ?’’ खड़ाऊं की मार के साथ जयकाली ने बेटे से पूछा।
और खड़ाऊं न पड़े, इस डर से रामकाली बोल पड़ा, ‘‘दिया तो था।’’
‘‘दिया था ? पानी दिया था ?’’ जयकाली की फुआ यशोदा अपने नाम के विपरीत ढंग से बोल उठीं, ‘‘दिया था तो वह पानी आख़िर गया कहां रे, अभागे ? गिलास तो बिलकुल सूखा पड़ा है।’’
पूछने वाली थीं दादी।

सो छाती की धड़कन कुछ हलकी-सी हुई। धीमे से रामकाली ने कह दिया, ‘‘ठाकुर ने पी लिया होगा।’’
‘‘क्या ? क्या कहा ?’’ एक बार फिर ठक् की आवाज़ और आंखों में अंधेरा छा जाने की और गहरी अनुभूति।
‘‘अभागा, सुअर ! ठाकुर ने पी लिया होगा ! तुम भूत ही नहीं, शैतान भी हो गये हो। जान का डर नहीं है ? ठाकुर के नाम से झूठ ?’’
गर्ज़ कि झूठ यों उतना बड़ा अपराध न हो, ठाकुर के नाम के साथ जुड़ कर वह बहुत भयंकर अपराध हो गया है। मारे डर के रामकाली फिर झूठ बोल बैठा, ‘‘जी, सच कह रहा हूं। ठाकुर क़सम। दिया था पानी।’’
‘‘हरामज़ादे ! ब्राह्मण घर का चांडाल ! ठाकुर के नाम से क़सम ? पानी दिया था तूने ? ठाकुर पी गये पानी ? ठाकुर पानी पीते हैं ?’’

सिर में जलन हो रही थी।
सिर की उस जलन से छटपटा कर, डर-भय भूल रामकाली बोल पड़ा, ‘‘जब जानते हैं कि ठाकुर पानी नहीं पीते, तो देते क्यों हैं ?’’
‘‘ओ, मुझसे यह ढिठाई !’’ जयकाली ने फिर खड़ाऊं का सदुपयोग किया। कड़क कर बोले, ‘‘जा, ब्राह्मण के घर के बैल, दूर हो जा। मेरी नज़रों के सामने से दूर हो जा।’’
बस।
जयकाली ने इससे ज़्यादा कुछ नहीं किया। और ऐसा व्यवहार तो वे सदा ही सबसे किया करते हैं। मगर कब जो किस बात से क्या हो जाता है ?
रामकाली की आंखों के सामने से मानो एक परदा खिसक गया।
वह सदा से जानता आया था, जनार्दन एक दयालू व्यक्ति हैं, क्योंकि जब-तब घर के लोग कहा करते, ‘जनार्दन, दया करो।’ मगर उस दया का एक कण भी कहां है ?
मन ही मन रामकाली ने ज़ोरों से प्रार्थना जो की, ‘हे ठाकुर, इन अविश्वासियों के सामने एक बार प्रकट तो हो, छिप कर दैववाणी ही करो कि रे जयकाली, नाहक ही बेचारे लड़के को सता रहे हो। मैंने सच ही पानी पी लिया है। मुट्ठी भर बताशे खा लेने से मुझे बड़ी प्यास लग गयी थी।’
नः। दैववाणी का नाम नहीं।
उसने उसी क्षण यह ईज़ाद कर लिया, ठाकुर झूठ है, देवता झूठ है, पूजा-पाठ सब कुछ झूठ है। अमोद्य सत्य है बस खड़ाऊं।
जनेऊ के समय उसे भी एक जोड़ा खड़ाऊं मिला था। पता नहीं उसका उपयुक्त उपयोग वह कब कर पायेगा ?
गोकि इस वक़्त सारे संसार पर उसके उपयोग की इच्छा हो रही थी।
‘अब मैं दुनिया में नहीं रहूंगा,’ रामकाली ने यह संकल्प किया।
उसके बाद दुनिया छोड़ कर चले जाने का कोई उपाय न निकाल सकने के कारण उसने मन से समझौता किया।
बहरहाल दुनिया तो हाथ में रहे। इसे तो जब जी चाहे छोड़ा जा सकता है। छोड़ने लायक़ और भी एक चीज़ है, वह भी दुनिया का ही प्रतीक है।

घर।
रामकाली घर ही छोड़ देगा।
जीवन में फिर कभी जिसमें जनार्दन की पूजा की नौबत न आये।
उस समय तक ‘नब्ज़टटोल का घर’ नाम नहीं पड़ा था। आदि और अकृत्रिम ‘चटर्जी बाड़ी’ ही था। सब की श्रद्धा सम्मान का भी आधार था। सो कुछ दिनों तक हलचल-सी रही चटर्जी बाड़ी का लड़का खो गया।

गांव के सभी तालाबों में जाल डाला गया। गांव के सभी देवी-देवताओं की मन्नतें मानी गयीं। रामकाली की मां बेटे के नाम से नित्य नियमित रूप से घाट में प्रदीप बहाने लगी, जयकाली, नियम से जनार्दन को तुलसी चढ़ाने लगे। लेकिन कुछ न हुआ।

धीरे-धीरे जब सब लोग भूल-से गये कि चटर्जी के रामकाली का एक लड़का था तो गांव के किसी नौजवान ने एक दिन यह घोषणा की कि रामकाली है। वह मक़सुदाबाद गया था। वहां उसने अपनी आंखों से देखा कि वह नवाब के कविराज गोबिन्द गुप्त के यहां है, उससे कविराजी सीख रहा है।
सुन कर जयकाली टुकुर-टुकुर ताकते रह गये। लड़के के सही सलामत रहने की ख़बर और लड़के के जात गंवाने की ख़बर, इन दो उलटी-पुलटी ख़बरों से वे यह भूल गये कि ख़ुशी के मारे उछलें कि शोर से हाहाकार करें।
लड़का वैद्य के घर की रसोई खा रहा है, उसी की शरण में है, यह तो उसके मरने के समाचार के ही बराबर है।
लेकिन रामकाली अभी तक मरा नहीं है, यह सुन कर जी के भीतर से क्या तो उमगा-उमगा आ रहा था। क्या ? ख़ुशी ? आवेग ? अनुताप की पीड़ा से छुटकारे का सुख ?

बस्ती के लोगों से राय-सलाह करने लगे जयकाली। अंत तक यह तय पाया कि जयकाली को ख़ुद एक बार जाना चाहिए। वहां जाकर अपनी आंखों से देख आयें कि बात क्या है ? वास्तव में रामकाली ही है या नहीं, यही कौन जानता है ? जिसने देखा है वह कुछ निकट के नाते का तो है नहीं, आंखों का भ्रम होने में क्या लगता है ?
लेकिन इस राय से जयकाली आसमान से गिर पड़े, मैं जाऊं ? मैं कैसे जाऊं ? जनार्दन की सेवा छोड़कर मेरे हिलने की गुंजाइश भी है भला ?
रामकाली की मां, जयकाली की दूसरी स्त्री रोनी-पीटने लगी। उसकी ज़बान पर आ गया था, ‘‘जनार्दन ही तुम्हारे लिए इतने बड़े हुए  ?’’

कहने की हिम्मत न पड़ी, सिर्फ़ आंसू बहाने लगी।
आख़िर बहुत सोच-विचार के बाद यह तय हुआ कि जयकाली का एक भानजा जायेगा। वयस्क भानजा। जिसके साथ जयकाली के पहले घर का लड़का कुंजकाली जायेगा।
लेकिन इस गंवई गांव से मक़सूदाबाद जाना कुछ आसान तो नहीं। बैलगाड़ी से पहले गंज जाना होगा। वहां जाकर पता करना होगा, नाव कब मकसूदाबाद जायेगी। उसके बाद चावल चूड़ा बांध कर बैलगाड़ी से तीन कोस चल कर घाट पर धरना देना।

ख़र्च भी कम नहीं है।
जयकाली ने सोचा, ख़र्च-ख़ाते बैठाये आंकड़े को फिर जमाख़ाने ले जाने में कम झमेला नहीं है। इतने टंटे की ज़रूरत भी क्या थी ? उस बदमाश छोकरे पर गुस्सा आया जो यह ख़बर ले आया था। इतना झमेला खड़ा करने वाला नायक वही है।
यों रामकाली तो ख़र्च हो ही चुका था। यह शैतान ख़बर नहीं लाता तो....
लेकिन रामकाली की मां के लिए इसकी ज़रूरत थी, सो सारी झंझटें झेल कर भानजे और लड़के को जयकाली ने भेजा। और कई दिनों बाद आकर उन लोगों ने बताया, ख़बर सच्ची है। रामकाली निपूते गोबिन्द कविराज का दत्तक हो कर राजा जैसे आराम से है। अब शायद पटना जायेगा। उसने इन लोगों से कहा, ‘‘राजवैद्य बन कर, रुपयों की गांठ लेकर ही गांव लौटूंगा, उसके पहले नहीं।’

सुन कर जिन लोगों को ज़्यादा ईर्ष्या हुई, उन लोगों ने कहा, ‘‘ऐसे कुलांगार की तो शकल नहीं देखनी चाहिए। और फिर वह तो जात से भी गया।
जिन्हें ज़रा कम ईर्ष्या हुई, वे बोले, ‘मगर फिर भी मध्यवसायी कहना चाहिए। और जात से क्यों जायेगा ? कुंज ने तो यह बताया कि गोबिन्द गुप्त ने रामकाली के लिए किसी ब्राह्मण के यहां खाने का इंतजाम कर दिया है।’
गांव में कुछ दिनों तक फिर इसी की आलोचना होती रही। और जब ये आलोचनाएं बुझ आयीं, लोग फिर से रामकाली का नाम भूल चले तो एक दिन रामकाली रुपयों की गठरी लिये ख़ुद हाज़िर हो गया।

गोबिन्द गुप्त ने राय दी, ‘अब तुम्हें राजवैद होने की ज़रूरत नहीं, राज्य में अंदर-ही-अंदर घुन लग गया है, नवाब की नवाबी तो छींके पर जा रही। मेरे इतने दिनों की कमायी हुई दौलत लेकर अपने घर जाओ और ख़ुद ही नवाबी करो। हमने तय किया है, पति पत्नी चले जायेंगे।’
सो रामकाली चला आया।
गंज के घाट से अपनी ही पालकी पर आया।
उसे गोबिन्द गुप्त वाली पालकी भी मिल गयी। नाव से ले आया।
लेकिन यही बहुत बड़ा अफ़सोस रहा कि तब तक जयकाली गुज़र चुके थे।
रामकाली अपने बाप को दिखा नहीं पाया कि वही घर से भगाया हुआ लड़का आदमी बन कर लौटा है।


2



गंज के मेले में जैरो लोग पांच पांवों वाली गाय को देखने के लिए लपकते हैं, वैसे ही इलाक़े के तमाम लोग रामकाली को देखने के लिए आने लगे। मन-ही-मन खीजते हुए भी रामकाली ने जिसे जैसा चाहिए, सम्मान दिया। और अपने से उम्र में बड़े को एक जोड़ा धोती, नक़द दो रुपये देकर प्रणाम किया।
घर-घर में चर्चा होने लगी, ‘उफ़, कैसी ऊंची निगाह हो गयी है ?’ बहुतों ने अपने सदा बेकार बैठे बेटों की ओर ताक कर निःश्वास फेंका।
फिर भी कुछ दिनों तक जात गये कि नाईं रामकाली को रहना तो पड़ा। घर के बाहर ही सोना पड़ता था, घर का कोई छोटा लड़का उसे छू लेता तो उसे कपड़ा बदलना पड़ता। लेकिन रामकाली ने ही एक दिन गांव के मुखिया को पंच मान कर बुलाया, ‘‘आख़िर ऐसा क्यों ? मैंने तो एक दिन के लिए भी उस वैद का अन्न नहीं छुआ। नाहक़ ही मुझे अजात हो कर क्यों रहना पड़ेगा ?’’

गांव के मुखिया सिर खुजाते हुए हें-हें करने लगे, साफ़ कुछ नहीं कह सके, क्योंकि यह छोरा तो राजवैद गोबिन्द गुप्त की सारी की सारी विद्या और सारे रुपये हथिया ले आया है।
इसके सिवाय छोरे का हाथ भी ख़ूब खुला है।
सुनने में आया है, जल्द ही जलाशय प्रतिष्ठा करेगा।

गांव के मुखिया जब हें-हें करने लगे तो रामकाली ने ख़ुद ही अपना वक्तव्य पेश किया, ‘‘देखिए, मेरे गुरु की दवा बोलती है। मैंने उनका छोड़ा-बहुत आशीर्वाद भी तो पाया है। वह विद्या मेरी जन्मभूमि, मेरे पड़ोसी, मेरे जात गोतों के काम आये, मैं यही चाहता हूं। हां, आप लोग यदि ऐसा न चाहते हों तो मुझे यहां से और कहीं चला जाना होगा।’
अब की लोग हां-हां कर उठे। सच तो, बात तो यों ही उड़ा देने की नहीं है। सब को कभी न कभी संकट तो पड़ ही सकता है।
वे लोग जब हां-हां कर रहे थे तो रामकाली ने कहा, ‘‘मैंने जो अभी एक तालाब खुदवाने की सोची है, उसके उपलक्ष्य में एक दिन ग्राम भोजन कराने की उम्मीद लिये बैठा हूं, तो मेरी वह उम्मीद पूरी न होगी ?’’
अब की लोग द्विधाशून्य हो कर बोल उठे, ‘अरे, सो क्या ? सो क्या ?’ इतने में फेलू बनर्जी ने एक चाल चल दी। एक कोई संस्कृत का श्लोक झाड़ कर हंसते-हंसते कहा, ‘‘जानते हो न, ठीक उमर में विवाह न होने से लड़की जैसे अरक्षणीया होती है, वैसे ही पुरुष भी पतित होता है।’’

रामकाली ने सिर झुकाकर कर कहा, ‘‘मेरी उमर तो तीस से ज़्यादा हो चली, उस उमर में मुझे कौन लड़की देगा ?’’
फेलू बनर्जी ने वीर की नाईं कहा, ‘‘मैं दूंगा। इसके लिए भाई लोग मुझे जात से अलग करें तो करें।’’
फेलू बनर्जी को जात से अलग करना !
जात के जो सिरमौर हैं !
सभा में हां-हां का प्रवाह बह चला।
और फेलू की चालाकी की इस चाल पर सब अपने-अपने गाल पर आप ही थप्पड़ मारने लगे। लड़की भला किसके घर नहीं है ?

कुछ ही दिनों में फेलू बनर्जी की नौ साल की लड़की भुवि या भुवनेश्वरी से रामकाली का ब्याह हो गया।
बड़े दिनों से गांव में इतनी धूमधाम से शादी नहीं हुई थी। इसलिए कि रामकाली ने शायद पांच सौ रुपये धूमधाम के लिए मां दीनतारिणी को चुपके से दे दिये थे।
यह बेहयाई बेशक निंदा योग्य थी, उस धूमधाम के खानपान निंदनीय नहीं थे।
सो रामकाली फिर से समाज में प्रतिष्ठित हो गया। घर में खाने-सोने की अनुमति मिल गयी।
खैर, उसके बाद भी तो कितने दिन बीते।
वही ‘भुवि’ बड़ी हुई। गिरस्ती बसी। पंद्रह-सोलह साल की उमड़ती नदी बनी। उसके बाद तो सत्यवती।

   

 

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