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हल्दीघाटी का योद्धा

सुशील कुमार

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2563
आईएसबीएन :9788193295625

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महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित उपन्यास.....

Haldighati Ka Yoddha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अदम्य साहस, स्वतंत्रता के प्रति गहन अनुराग व निष्ठा, त्याग-बलिदान तथा स्वाभिमान के प्रतीक थे महाराणा प्रताप। घोर संकट के समय भी उन्होंने साहस व दृढ़ता का दामन कभी नहीं छोड़ा। अप्रतिम योद्धा तथा नीति-कुल शासक के रूप में उन्होंने ऐसा गौरव अर्जित किया जो मुगल शहंशाह सहित उनके समकालीन अनगिनत नरेशों के लिए सर्वथा दुर्लभ रहा।


दो शब्द

 


अदम्य मनोबल, अप्रतिहत शौर्य, स्वतंत्रता के प्रति प्रखर चेतना, अनुराग एवं गहन निष्ठा, त्याग-बलिदान तथा स्वाभिमान के साकार प्रतीक थे महाराणा प्रताप। अपने अटूट मनोबल के कारण ही वह अपने युग के श्रेष्ठ योद्धा सिद्ध हुए। घोर संकट के समय भी अपनी दृढ़ता, वीरता तथा धीरता का सदुपयोग वह अडिग रहकर करते रहे। उस युग के अप्रतिम क्षमतावान् योद्धा तथा नीति-कुशल शासक के रूप में उन्होंने ऐसा गौरव अर्जित किया जो मुगल सम्राट् सहित उनके समकालीन अनगिनत नरेशों के लिए सर्वथा दुर्लभ रहा।

उनके सुदृढ़ साहस तथा शौर्य-वीर्य के लिए विख्यात हलदीघाटी का युद्ध एक ऐसी घटना रही, जो स्वाधीनता के लिए किए जानेवाले संघर्ष का विलक्षण प्रतीक बन गई। विलक्षण इस कारण कि उस युद्ध में महाराणा विजयी नहीं रहे। विजय की आशा भी संभवतः उनको अथवा उनके योद्धाओं को नहीं रही होगी; किंतु वह ऐसे ही पराजय स्वीकार कर लेने के लिए तो संघर्ष नहीं कर रहे थे। वह तो अपनी धरती और अपने अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे थे। एक ओर शक्तिशाली मुगल सम्राट् अकबर की हीन मनोवृत्ति से उफनती ‘महत्त्वाकांक्षा’ थी-हर किसी को रौंद-कुचलकर स्वयं महत्ता प्राप्त करने की गर्हित आकांक्षा। उसकी विशाल सेना थी, जिसका सेनापति मानसिंह था, जो पहले ही अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुका था और स्वतंत्रता के योद्धा महाराणा प्रताप के प्रति द्रोह की भावना से प्रेरित वह उन्हें भी पराजित करके अपने स्तर पर उतार लाने को व्यग्र था, और दूसरी उच्च मनोवृत्तियों का वाहक योद्धा प्रताप था-उच्चाकांक्षा का प्रतीक, स्वतंत्रता एवं देशभक्ति के नाम पर मर मिटने को तत्पर रणबाँकुरा और उनके साथ अपनी धरती और अपनी माटी के दीवाने मुट्ठी भर राजपूत तथा भील योद्धाओं का समुदाय।

उस युद्ध में तो पशुबल ही जीता; किंतु क्या, उच्च मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत ‘उच्चाकांक्षा’ मर गई ? नहीं। इसके विपरीत, हलदीघाटी की वह पराजय भी उस महान् योद्धा की विजयगाथा की भाँति ही युग -युग तक गाई जानेवाली अमर कीर्तिगाथा बन गई। यही तो उसकी विलक्षणता है।

कुछ संशयग्रस्त इतिहासविदों का मत है कि हलदीघाटी के उस विकराल युद्ध में महाराणा को वीरगति प्राप्त हो गई थी और मात्र मुगलों को त्रस्त रखने की सोचकर उसका नाम चलाया जाता रहा। यह सर्वथा काल्पनिक है और ऐतिहासिक तथ्यों से परे। अविश्वसनीय।

सत्य तो यह है कि उनके जीवन के अंतिम बारह वर्षों में मुगल अन्य स्थानों पर व्यस्त रहे और परिस्थितिवश महाराणा को जो संक्षिप्त सा अवकाश मिल गया था, उसे उन्होंने मुगलों के आक्रमणों से लगभग ध्वस्त मेवाड़ के पुनरोद्धार में लगाया। उस छोटी सी अवधि में ही महाराणा द्वारा अपनी नई राजधानी के रूप में चांवड के निर्माण तथा जर्जर मेवाड़ में फिर से जनजीवन को सामान्य करने के महत् प्रयास और वहाँ स्थापित किए जानेवाले सुशासन पर दृष्टि डालने से यही सिद्ध होता है कि यदि महाराणा प्रताप को महाकाल ने इतनी जल्दी न उठा लिया होता तो वह निश्चय ही महाराणा कुंभा की परंपरा में न जाने कितने भव्य निर्माण कराने के लिए ही मेवाड़ को और भी दिशाओं में व्यापक विस्तार दे जाते।

महाराणा प्रताप का स्वर्गवास हुए चार सौ वर्ष से अधिक समय बीत गया है। और अभी वह आनेवाले हजारों वर्षों तक मानवमात्र को स्वतंत्रता के प्रति गहन अनुराग, निष्ठा, उच्च चरित्र, साहस, दृढ़ता एवं आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा देते रहेंगे। वह उन महान पुरुषों में से थे जिनके विषय में संभवतः इतिहास की वाणी पर्याप्त नहीं हो पाती। इसी कारण किसी भी प्रकार के भेदभाव तथा वर्ग अथवा संप्रदायगत भावनाओं से मुक्त रहकर जनमानस उनकी कीर्तिगाथा को अपने स्नेह का स्पर्श देकर रचे गए अनगिनत आख्यानों, दंतकथाओं, किंवदंतियों आदि के माध्यम से युगों तक अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता रहता है।


बी-193, अशोक नगर
दिल्ली 110093


सुशील कुमार

 

हल्दीघाटी का योद्धा

एक


उन दिनों महाराणा उदयसिंह गोगुंदा के विशाल राजप्रसाद में विश्राम कर रहे थे। लगभग चार वर्ष पूर्व मेड़तिया राठौर जयमल तथा पत्ता को चित्तौड़गढ़ दुर्ग की रक्षा के लिए नियुक्त करके मेवाड़ की राजपरिषद् के प्रमुख मंत्रियों तथा सामंतों ने गहन विचार-विमर्श के बाद महाराणा उदयसिंह के लिए यही निर्णय किया था कि वह रनिवास तथा राजकोष के साथ अरावली की पहाड़ियों में किसी गुप्त स्थान पर निवास करें। उनका उद्देश्य यही था कि ऐसी स्थिति में कुछ समय के लिए उनको मुगलों के आक्रमण से बचने का अवसर मिल जाएगा और वे मेवाड़ के गाँवों में विचरण करते हुए बल-संग्रह करके दिल्ली से होनेवाले आक्रमण का सामना करने की तैयारी करेंगे। इस बीच महाराणा और राजकोष के साथ रनिवास को भी सुरक्षित स्थान पर रखना आवश्यक था।

लेकिन बादशाह अकबर इस तथ्य से अनजान ही था कि चित्तौड़ का दुर्ग इस समय एक प्रकार से खाली ही पड़ा है और राजपूतों ने अपने राणा को मुगलों की पहुँच से दूर किसी सुरक्षित स्थान पर छिपा दिया है। वह तो यही सोचकर सहसा चित्तौड़ पर आ धमका था कि इस बार महाराणा को उसके रनिवास की विख्यात सुंदरियों सहित अपने अधीन कर लेगा।

23 अक्तूबर, 1567 को मुगल सेना ने आकर चित्तौड़ का दुर्ग घेर लिया। यह घेरा कई महीनों तक चलता रहा। इस बीच अकबर तथा उसके सिपहसालारों को मालूम हो गया कि महाराणा चित्तौड़गढ़ से पहले ही निकलकर मुगलों की पहुँच से दूर जा चुके हैं। किंतु फिर भी उन्होंने घेरा नहीं उठाया; क्योंकि उनका खयाल था कि महाराणा की अनुपस्थिति में चित्तौड़ का महत्त्वपूर्ण दुर्ग चुटकी बजाते उनके अधिकार में आ जाएगा। इससे राजपूतों का मनोबल टूटते देर नहीं लगेगी।

मुगलों को उस दुर्ग का घेरा डाले महीनों बीत गए, लेकिन गढ़ की रक्षा के लिए तैनात राजपूत सैनिकों ने न तो आत्मसमर्पण किया, न ही दुर्ग के द्वार खोलकर सामने आए। मुगलों को यह पता था कि राजपूत ऐसी परिस्थिति में जब देखते हैं, कि अब उनके बचने का कोई रास्ता नहीं है, तो वे प्रायः दुर्ग के द्वार खोलकर उत्सर्ग की भावना से भयानक युद्ध करते हैं और वीरगति पाने को धर्म मानते हैं। उनके ऐसा करने पर भी अकबर की सेना के लिए कोई परेशानी नहीं थी। उसकी विशाल सेना दुर्ग में स्थित राजपूतों के छोटे से दल को समाप्त करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली थी। लेकिन न जाने इन राजपूतों ने चित्तौड़गढ़ में कितना अन्न और जल भरकर युद्ध के लिए तैयारी कर रखी थी कि महीनों बाद भी वे मुगलों को दुर्ग के अंदर बैठे चिढ़ा रहे थे।
किंतु अंततः मुगल सिपहसालार इस स्थिति से उकता उठे। तब उन्होंने हमले की कार्यवाही शुरू कर दी। उन्होंने विशाल आकार के शक्तिशाली हाथियों द्वारा गढ़ के फाटक को तोड़ देने का प्रयास किया; लेकिन सफल नहीं हुए। फिर चारों ओर से कमजोर स्थानों की खोज करके दुर्ग की दीवारों को तोड़ने की भी कोशिश की जाने लगी; लेकिन दुर्ग में प्रवेश करने की उनकी हर कोशिश बेकार गई।

युद्ध आरंभ हो गया था और मुगल लगातार दुर्ग में प्रवेश करने का प्रयास कर रहे थे। अतः यह सोचकर कि उनका इरादा पूरा न होने पाए, राजपूतों के अनेक दल रह रहकर किसी न किसी उपाय से उनपर हमला भी करने लगे। उनका आक्रमण होने पर राजपूत सेना जवाब तो देती ही थी, मौका खोजकर उनपर चोट करने से भी नहीं चूकती थी। वीर जयमल और पत्ता के नेतृत्व में राजपूत सेना लगातार मुगलों को मुँह तोड़ जवाब देती रही; किंतु मुगल मानों किसी भी कीमत पर चित्तौड़ को फतह करने की कसम खाकर आए थे। वे भी डिगे नहीं।

किंतु इतनी लंबी घेराबंदी की कल्पना मुगलों को नहीं थी। थकान, उकताहट और बँध-से जाने की विकलता से मुगल सेना का उत्साह क्षीण होने लगा। अकबर खुद भी परेशान हो उठा था; लेकिन चित्तौड़गढ़ को जीतना अब उसके लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन चुका था। इतनी लंबी घेराबंदी के बाद वह सोच भी नहीं सकता था कि फिर कभी चित्तौड़ जीतने की सोचकर, घेराबंदी उठाकर लौट जाए।

वास्तव में चित्तौड़ ही मेवाड़ का प्रतीक था। वही मेवाड़ की राजाधानी थी और एक प्रकार से इसी दुर्ग में मेवाड़ की सारी शक्ति संघटित थी। वहीं मेवाड़ का राजकोष भी था और साथ ही मेवाड़ की प्रतिष्ठा कथा विलक्षण सौंदर्य का प्रतीक महाराणा का पूरा रनिवास भी। उनपर अधिकार होने का अर्थ था मेवाड़ की इज्जत पर अधिकार। इस पराजय के बाद मेवाड़ कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाएगा। यही कारण था कि अकबर इस अवसर को किसी भी कीमत पर गँवाना नहीं चाहता था।

मुगल सेनाओं की टुकड़ियों ने चारों ओर फैलकर चित्तौड़ की ओर आने वाले सभी रास्ते बंद कर दिए थे, ताकि दुर्ग के अंदर स्थित राजपूतों को किसी भी प्रकार की बाह्य सहायता न प्राप्त हो सके। इसका मतलब तो यही है कि अब गढ़ के भीतर बैठी राजपूत सेना को विवश होकर एक न एक दिन बाहर निकलना ही होगा। अकबर उसी क्षण की प्रतीक्षा में बैठा अपना और अपनी सेना का अमूल्य समय तथा शक्ति बरबाद करने का जोखिम उठा रहा था। चित्तौड़ जीतने का अर्थ मेवाड़ पर आधी जीत थी।

बहुत सोच विचार के बाद अकबर ने एक अजीब युक्ति अपनाई। उसने सेना के कारीगरों के अलावा बाहर से और भी कारीगरों को बुलवाकर उनसे चमड़े के मोटे-मोटे छावन तैयार करने को कहा। कहा जाता है कि चमड़ा प्राप्त करने के लिए आस-पास के कितने ही मवेशियों को लूटकर मार दिया गया। चमड़े के कई परतों वाले मोटे-मोटे कवच जैसे छावन तैयार हो जाने के बाद अकबर ने अपने सिपाहियों को आदेश दिया और उन मजबूत छावनों की ओट लेकर सिपाहियों ने दुर्ग की दीवार के नीचे सुरंगें बनानी शुरू कर दीं।

बुर्जियों पर खड़े चित्तौड़ के सैनिकों को वहाँ से नीचे कुछ भी नहीं दिखता था। वे जान नहीं पा रहे थे कि चमड़े के छावन ओढ़कर ये सिवाही दुर्ग की दीवार की नींव के पास क्या कर रहे हैं। अकबर की यह तरकीब उनके लिए अकल्पनीय थी। लेकिन राजपूतों के जासूस भी कम नहीं थे। उन्होंने रहस्यमय ढंग से मुगल सिपाहियों को नींव के पास काम करते देखा तो अनेक रूप बनाकर सेना के ही लोगों से पता करने में सफल हो गए कि दुर्ग की दीवारों के नीचे-नीचे सुरंग बनाकर मुगल सेना गढ़ के भीतर प्रवेश करना चाहती है।


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