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सर्कस

विवेकी राय

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2566
आईएसबीएन :81-88267-38-4

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प्रस्तुत है सर्कस.....

Sarkas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिंदी के कुछ कहानीकार इसलिए चर्चित-अर्चित हुए कि वे किसी आंदोलन विशेष के प्रवक्ता या स्तंभ रहे। लेकिन कुछ कहानीकार बिना किसी वाद या खेमे से जुड़े, बिना किसी चौकाने वाले मुहावरे के, अपने आस-पास के जीवन को सहज और आत्मीय ढंग से अभिव्यक्त करते रहे हैं। ऐसे कहानीकारों के लिए कहानी न तो ‘अंधेरे में चीख’ है, न खुद को प्रतिष्ठित करने के लिए सीढ़ी विशेष। अनुभव की प्रामाणिकता के नाम पर अपनी कुंठाओं और मनोग्रन्थियों को पाठक के सामने परोसने या छद्म क्रांतिकारिक के वशीभूत हो आरोपित आशावाद को ‘हाईलाइट’ करने की असंगति से भी ये कहानीकार मुक्त हैं। विवेक राय इसी कोटि के कहानीकार हैं। अपनी सुदीर्घ साठ वर्षीय कहानी यात्रा में जहाँ श्रीराय ने बराबर कहानी को लेकर अपने समर्पण-भाव और प्रगतिशीलता का परिचय दिया है वहाँ उनकी कहानियों का केन्द्रीय विजन लगभग अपरिवर्तित रहा। इसके साथ उनमें शिल्पगत और कथ्यगत वैविध्य भी भरपूर है।


दो शब्द


‘सर्कस’ मेरा सातवाँ मौलिक कहानी-संग्रह है। इसकी कहानियों की पृष्ठभूमि भी ग्राम-जीवन है। उसके अछूते संदर्भों और नव परिवर्तित स्थितियों से भी पाठकों को परिचित कराने का प्रयास किया गया है। निस्संदेह ग्राम-विकास के तले अंधेरा अकंपित रूप से बढ़ा है, जिसमें मूल्यों और मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ गयी हैं। पुराना आदमी खप रहा है और अप्रत्याशित घटनाओं की बाढ़ में ढूब रहा है। आदर्श और सेवा-भाव बस अपवाद रूप में कुछ गुजरे जमाने के लोगों के स्मरण के साथ कह-सुन लिए जाते हैं। कहानी में चित्रित इस प्रकार की स्थितियाँ वैचारिक-तल पर पाठक को झकझोर कर नए समाधानों के लिए प्रेरित कर सकें, ऐसा प्रयास किया गया है। इसमें कहाँ तक सफलता मिली है, इसका निर्णय स्वयं पाठक करें।


बड़ी बाग, गाजीपुर
उ. प्र.


विवेकी राय


भूमिका


हिन्दी के कुछ कहानीकार इसीलिए चर्चित-अर्चित हुए कि वे किसी आंदोलन-विशेष के प्रवक्ता या स्तंभ रहे; लेकिन कुछ कहानीकार बिना किसी वाद या खेमे से जुड़े, बिना किसी चौंकाने वाले मुहावरे के, अपने आस-पास के जीवन को सहज और आत्मीय ढंग से अभिव्यक्त करते रहे हैं। ऐसे कहानीकार के लिए कहानी न तो ‘अँधेरे में कोई चीख’ है, न खुद को प्रतिष्ठित करने की सीढ़ी-विशेष। अनुभव की प्रमाणिकता के मान पर अपनी कुंठाओं और मनोग्रंथियों को पाठक के सामने परोसने या छद्म क्रांतिकारिक उत्साह के वशीभूत आरोपित आशावाद को ‘हाइलाइट’ करने की असंगति से भी ये कहानीकार बहुत कुछ मुक्त हैं। यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’, रामदरश मिश्र, ललित शुक्ल, धर्मेंद्र गुप्त, मनु शर्मा से लेकर जनकराज पारीक, रंजन जैदी प्रेम कुमार, मृत्युंजय उपाध्याय आदि इधर के कतिपय कहानीकार अपनी जनधर्मी अंतर्वस्तु, जमीन से जुड़ाव और सहज अभिव्यंजना के फलस्वरूप आश्वस्त करते हैं।

 विवेकी राय भी इसी कोटि के कहानीकार हैं। विवेकी राय की पहली कहानी ‘पाकिस्तान’ सन् 1945 ई. में ‘आज’ (वाराणसी) समाचार-पत्र में छपी थी। तब से अब तक उनके कहानी-संग्रह ‘जीवन परिधि’, ‘नई कोयल’, ‘गूँगा जहाज’, ‘बेटे की बिक्री’, ‘कालातीत’, ‘चित्रकूट के घाट पर’ प्रकाशित हो चुके हैं। अपनी पचपन वर्षीय कहानी-यात्रा में जहाँ श्री राय ने बराबर कहानी को लेकर अपने समर्पण-भाव और प्रगतिशीलता के परिचय दिया है, वहाँ उनकी कहानियों का केंद्रीय ‘विजन’ लगभग अपरिवर्तित रहा है। रामदरश मिश्र की कहानियों पर लिखते समय बतौर आलोचक विवेकी राय ने जिस जनवाद के विज्ञापित राजनीति-गंध से रहित देश के शोषित-पीड़ित लोगों के संघर्ष को कहानियों की पृष्ठभूमि में पाकर संतोष व्यक्त किया हैं, वही उनकी कहानियों के इर्द-गिर्द बराबर विद्यमान है। इस जन-संघर्ष में घुली-मिली गँवई रसगंध विवेकी राय की विशिष्ट पहचान बन गयी है।

‘जीवन परिधि’ की कहानियाँ विवेकी राय की कहानी-यात्रा का प्रथम पड़ाव ही नहीं है, उनके परवर्ती जनधर्मी बोध और प्रखर युग चेतना की पहली कौंध भी है। इसकी शीर्षक-विहीन भूमिका में उन्होंने लिखा—‘‘कहानियों में मैंने गरीबों की वकालत की है। भोजन ठीक-ठीक मिलने के पश्चात, सुखमय जीवन के व्यस्त क्षणों के पश्चात जो प्रेम नाम की वस्तु पैदा होती है, वह हमारे गरीबों के पास नहीं है; क्योंकि उनके यहाँ उक्त सुख-सुविधाओं का एकांत अभाव है। उनके पास जो है, मैंने उसे ही देखने की कोशिश की है।’’ अधिसंख्यक वर्ग के अभाव और कष्टों को देखने का जो क्रम ‘जीवन परिधि’ कहानी-संग्रह से शुरू हुआ था, वह बाद के ‘चित्रकूट के घाट पर’ संग्रह की कहानियों में भी यथावत है। ‘चित्रकूट के घाट पर’ (1988) की कहानियों पर तेजपाल चौधरी की यह टिप्पणी प्रमाण-स्वरूप देखी जा सकती है—‘‘अधिकतर कहानियाँ ग्रामीण जीवन के आर्थिक उत्पीड़न को स्वर देती हैं। वस्तुतः वह जीवन का इतना करुण पक्ष है कि इतना लिखा जाने पर भी बहुत कुछ अनकहा रह जाता है, इसलिए इन कहानियों में ‘कथ्य’ की ताजगी है।’’

‘जीवन परिधि’ में संकलित 14 कहानियों में ‘समस्याः एक-दो की नहीं’ ‘ऐसा भी होता है।’ ‘बड़ा आदमी’ ‘बड़ी जेल के अंदर’ ‘भूमिधर’ ‘सेठ की हजामत’, ‘कफन’ आदि सामंती उत्पीड़न के शिकार उस जनसमुदाय की नियति का भाष्य प्रस्तुत करती हैं, जो गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन जीने को अभिशप्त है। ‘समस्याः एक-दो की नहीं’ में कहकर कहानीकार इस नतीजे पर पहुँचा है कि अभाव और गरीबी भयंकर रोग हैं और केवल करुणा-सहानुभूति से इनका निदान और उपचार संभव नहीं है। प्रायः लोग ‘राज्य दोष’, ‘मशीन युग की देन’, ‘भीख माँगने का स्वाँग’ आदि टिप्पणियों से इन फटेहाल श्रमजीवियों की अभावग्रस्तता के मूल कारण तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। लेखक ने इस समस्या को आर्थिक वैषम्य के रूप में देखा है और एक ही व्यवस्था में दो तरह की जीवन-विधियों के प्रति अपने आक्रोश को वह छिपा नहीं पाया है।’’ आखिर हम लोग अपने को ऊँचा, बड़ा शिक्षित और प्रतिष्ठित समझते हैं, क्यों ? क्या इसी बिना पर कीड़े-मकोड़े की तरह जिल्लत की जिंदगी बितानेवाले लोग भी धरती पर हैं ?’’ ये क्यों ऐसे हैं ? क्या इनके अंदर औरों की भाँति रक्त-मज्जा और माँस आदि का प्रबंध नहीं है ?....इन नीचों के बीच हमारी उच्चता का विश्वास क्या लज्जाजनक नहीं है।’’ ऐसा भी होता है’, ‘कफन’ आदि कहानियाँ भी भयानक विपन्नता के प्रमाण लिये हुए हैं।

 ‘ऐसा भी होता हैं’ का समापन बिंदु है- ‘‘मानवता तो एक सेर मछली तक में खरीदी जाती है।’’ ‘‘मछली नियाव’ चर्चा ‘कफन’ कहानी में हुई। भोला किसी और का कपड़ा उठा लाता है, उधर उसकी लगभग वस्त्रहीन और दीन पत्नी दरपनी कुँए में डूब मरती है। भूख मारपीट चोरी और आत्महत्या आदि विभीषिकाएँ इन दीन-हीनों के खाते में ही आई हैं। एक ओर भदई, कोदई, भोला, दरपनी आदि का दुःख-दग्ध जीवन है, दूसरी और सेठ जैसे सुविधा-संपन्न लोगों का जीवन है- ‘‘दुनिया भर की बेईमानी शैतानी करके मालधनी बने, देश—जाति चूल्हे-भाड़ में जाए चोरबाजारी, लूट, मुनाफा माला की तरह जपे, प्रजा भूखों मरे, अपनी तिजोरी भरी रहे, पाँचों उँगलियाँ घी में रहें’’—‘सेठ की हजामत।’ मेहनतकशों की दुनिया और मालधनियों की दुनिया को आमने-सामने रखकर विवेकी राय यह दिखाने में सफल हुए हैं कि संपन्न लोगों में मानवीय मूल्य जहाँ नष्ट प्रायः हैं, वहीं अनेक आघातों के बावजूद मेहनतकशों में मानवीयता किसी-न-किसी रूप में अक्षुण्ण है। अनपढ़ और असंगठित होते हुए भी विवेकी राय की कहीनियों के मेहनतकश परिवर्तन की हवा से अपरिचित नहीं हैं। ‘भूमिधर’ में जमींदार के अत्याचारों की लंबी सूची है।

कोदई और भदई केवल इसलिए यंत्रणा के शिकार होते हैं कि वे अपने को आदमी समझते हैं। इन उत्पीड़ितों को भूमिधर होने की आशा बँधती है, ‘मुल्क में रामराज्य’ आने का अहसास होता है, लेकिन नियति को यह स्वीकार्य नहीं है होता। एक अन्य कहानी ‘बड़ा आदमी’ में जमींदारी टूटने की सूचना से वह आश्वस्त है कि इस उत्पीड़न-तंत्र का समापन होगा, ‘‘धन्यवाद है उस पंत सरकार को, जो जमींदारी तोड़ रही है। वे मानव नहीं दानव हैं। इस अश्वत्थ का विशाल वृक्ष अपना अकूत वैभव लिये द्वारा पर खड़ा है, यह किसी महती पुण्य का प्रतीक नहीं, अहर्निश के पाप का साक्षी है। इसलिए क्षण-क्षण में सिहरा करता है।’’ इस उद्धरण से स्पष्ट है कि स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद ही ग्रामीण मानसिकता अच्छे और लोकहितकारी परिवर्तनों की बाट जोहने लगी थी। यह बात और है कि बाद में गाँवों में शोषण के नए विषवृक्ष उगते गए और जनगण मन की प्रतीक्षा एक विकट हताशा और व्यापक आक्रोश में बदल गई।

श्री राय की पहली कहानी ‘पाकिस्तानी’ भी ‘जीवन परिधि’ में संकलित है। यह कहानी मजहब के नशे पर देशभक्ति की विजय की कहानी है। यह कहानी घटनाशीलता पर आधारित न होकर मानसिक ऊहापोह पर केंद्रित है। इसके अंत में एक निर्णायात्मकता है, जो राष्ट्रीयता और धर्म-निरपेक्षता से जुड़ी हुई है। शेरदिल दादा की चर्चा पूर्व दीप्ति के माध्यम से हुई है। इस कहानी से स्पष्ट है कि विवेकी राय एकदम शुरू से ही कहानी की आधुनिक शिल्प प्रविधि से न केवल अवगत थे, अपितु अपना एक स्वतंत्र मुहावरा गढ़ने के लिए सक्रिय भी। इस संकलन में एक लंबी कहानी ‘लाटरी के रुपए’ भी संकलित है। इस कहानी का भी अधिकांश मानसिक उद्विग्नता पर आधारित है। एक अध्यापक को लाटरी के दस हजार रुपए मिलने की सूचना प्राप्त होती है। और वह मकान बनवाने से लेकर चुनाव लड़ने तक के मनसूबे बाँध लेता है। बाद में पता चलता है कि लाटरी उसकी नहीं निकली। चाहे ‘समस्याः एक-दो की नहीं’ जैसी सीधी कहानियाँ हों या ‘लाटरी के रुपए’ जैसी किंचित वर्तुल कहानियाँ, सर्वत्र भाषा बहुत सहज और स्थतियों के अनुरूप है तथा शैली आत्मीय और संप्रेषणीय। पहले संग्रह में विवेकी राय ने कहानी का जो रचना-विधान निर्मित किया है, परवर्ती संग्रहों में उसी का परिवर्द्धित और विकसित रूप दिखाई देता है।

‘नई कोयल’ (1975) में संगृहित 32 कहानियां सातवें दशक के आस-पास की हैं। इनमें अधिकतर ‘आज’ (वाराणसी) में ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ शीर्षक स्तंभ के अंतर्गत छपी थीं। ‘नई कोयल’ के प्रथम संस्करण के ‘प्रकाशकीय’ में शरद कुमार साधक का यह मंतव्य सारगर्भित है कि विवेकी राय की ग्रामगंधी कथावस्तु और आकर्षक शैली में भाव-बोध की आधुनिकता इस प्रकार खप जाती है कि कहानियों में उतरने पर प्रतिक्षण एक अद्भुत ताजगी की छुअन चमत्कृत करती है।

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