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सुख की राहें

रमेशचन्द्र महरोत्रा

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2584
आईएसबीएन :81-85829-87-x

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इसमें सफल होने के गुणों का वर्णन किया गया है...

Sukh Ki Rahen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मनुष्य इस जगत में सफल होने और सुखी रहने के लिए आता है। सफल तो बहुत सारे हो जातें, परन्तु यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक सफल व्यक्ति सुखी भी हो। स्पष्ट है, सुखी की प्राप्ति जीवन में सफलता हासिल कर लेने से ज्यादा मुश्किल है। विपुल धन भी सुख की गांरटी नहीं दे सकता। आय की वृद्धि के साथ संतुष्टि और सुख की वृद्धि होना आवश्यक नहीं है।
पश्चिम समाज सुख के फारमूले तलाश रहा है। लेकिन सच्चा और स्थायी सुख शायद फॉर्मूलों की बाहों में समाता नहीं है। उसमें असंख्य स्त्रोत हैं। उसके अनगिनत स्वरूप हैं। सुप्रसिद्ध भाषाविद् प्रखर चिंतक और यशस्वी लेखक डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा की यह पुस्तक उन सबके साक्षात्कार की राह बताती है। आप राह स्वयं तलाशिए और उस राह के दीपक भी स्वयं बनिए। हिन्दी के जीवन मूल्य और सुख की प्राप्ति पर केन्द्रित पुस्तकों का जो विराट आभाव है, उसकी पूर्ति में डॉ. महरोत्रा की यह कृति निस्संदेह उपयोगी होगी।

दो शब्द

सुख और सफलता

सनातन प्रश्न है—‘मनुष्य इस जगत में किस लिए आता है ?’
इसका प्रायः सभी के लिए रुचिकर उत्तर हो सकता है—‘सफल होने और सुखी रहने के लिए।’ सफल तो बहुत सारे हो जाते हैं, परंतु जरूरी नहीं कि प्रत्येक सफल व्यक्ति सुखी भी हो। स्पष्ट है, सुख की प्राप्त जीवन में सफलता हासिल कर लेने से ज्यादा मुश्किल है।

अब प्रश्न उठता है कि सुख आता कहाँ से है ? यह आकाश से नहीं टपकता। किसी दिशा से एकाएक प्रकट नहीं हो जाता। किसी कल्पवृक्ष की भाँति धरती के नीचे से फूटकर भी नहीं निकलता। यह तो अपने भीतर से उपजता है। मन में आनंद है तो फिर सर्वत्र आनंद है। मन चंगा तो कठौती में गंगा। मन विश्वजित है तो आप भी विश्वविजयी हैं। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। तो मन के आनंद-पर्व की शुरुआत अपने आज से ही क्यों की जाए ! तय कीजिए आज मैं प्रसन्न रहूँगा। जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करते हुए उसमें आनंद की चमक पैदा करने की कोशिश करूँगा।

हजारों सालों से विश्व के मनीषी, चिंतक, दार्शनिक, समाज-सुधारक, धर्मशास्त्री और अवतार-पैगंबर, गुरु-महात्मा सुख का मार्ग बताते रहे हैं, सुखी रहने के उपाय सुझाते रहे हैं। सुख-सफलता की तलाश पर केंद्रित लगभग बीस किताबों को इन पंक्तियों के लेखक ने भी उत्सुकता भरी निष्ठा के साथ पढ़ा है। उनके निष्कर्ष को तीन-चार वाक्यों में समेटना हो तो कहा जा सकता है कि अपने भीतर अद्मय विश्वास पैदा कीजिए। उतावले मत बनिए। दूसरों से अपेक्षाएँ मत रखिए। लेने की नहीं, देने की चाह पनपाइए। अपनी क्षमता और सामर्थ्य को तौलकर उसी के अनुरूप अपने सामने कोई लक्ष्य अवश्य रखिए। अपनी आवश्यकताएँ यथा संभव सीमित रखिए। यह जीवन और यह विश्व जिस रूप में मिला है, इसे इसी रूप में स्वीकार करते हुए ज्यादा-से-ज्यादा बेहतर बनाने की निरंतर कोशिश करते रहिए। लहर के विपरीत तैरने के बजाए उसे धीरे-धीरे धैर्यपूर्वक काटने का जतन करते हुए। कोई भी निर्णय लेने से पहले उस पर सम्यक् रूप से विचार कीजिए और केवल वर्तमान में जीने का संकल्प कीजिए।

भीतर से सुख तभी तो आएगा जब आपका अपने आप पर विश्वास हो। अप्रतिम अभिनेता चार्ली चैपलिन का कहना था कि सफलता और सुख खा सारा तिलिस्म इस एक बात में छिपा है कि अपने आपपर विश्वास करो। अपना स्वयं का दृष्टांत देते हुए चार्ली चैपलिन ने लिखा है—‘जब मैं अनाथालय में ही था, जब मैं पेट भरने के लिए सड़कों पर भटका करता था तब भी मैं अपने आपको विश्व का सबसे बड़ा अभिनेता मानता था। मुझे उस ओजस्विता का अहसास करना पड़ता था, जो अपने आपमें पूर्ण विश्वास से अद्भुत होती है। इसके अभाव में मनुष्य पराजय के ढलान पर फिसलने लगता है।
वर्तमान में जीने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि न तो अतीत में खोए रहिए और न भविष्य की कल्पनाओं को सहलाते रहिए आपका वश केवल आपके वर्तमान पर चल सकता है। ध्यान रखिए। आज के एक दिन का यह जो क्षण है, वही अपने आप में समूचा ब्रह्मांड है। सँवर सके तो इसको ही सँवारिए। यह जीवन, यह समाज और यह विश्व स्वतः सँवरता जाएगा।
वर्तमान में जीने के अभ्यास के लिए अंग्रेजी के श्रेष्ठ लेखक रुड्यार्ड किपलिंग की निम्नलिखित पंक्तियाँ बड़ी प्रेरक हैं—
‘यदि तुम कभी लौटकर न आने वाले इस एक मिनट के आठ सेकेंड सार्थक कर लेते हो तो यह समूची धरा तुम्हारी है ! इस धरा पर विद्यमान सभी कुछ तुम्हारा है। इससे बढ़कर एक बात यह है कि ऐसा करके तुम मनुष्य कहलाए जाने के हकदार बन जाओगे।’

आज के एक दिन को सार्थक करने के बारे में अंग्रेजी में लिखे एस.एफ. पार्ट्रिज का लेख ‘जस्ट फॉर टुडे’ मुझे अच्छा लगा था। उस लेख के कुछ अंशों का भावानुवाद नीचे दिया जा रहा है। स्मृति के आधार पर उसमें भारतीय चिंतन-परंपरा और जीवन-मूल्यों के कुछ चिरंतन सूत्र वाक्य भी पिरोए गए हैं-
‘कोशिश कीजिए कि आज के दिन आप अपने आपको, आपके सामने जो कुछ है, उसके अनुरूप ढालेंगे, न कि हर चीज को अपनी इच्छाओं के अनुरूप बदलने का हठ करेंगे। इस संदर्भ में ‘गीता’ का यह सार वाक्य मौजूँ बैठता है—जो हुआ वह अच्छा हुआ। जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है। जो होगा वह भी अच्छा होगा।’

श्री पार्ट्रिज द्वारा अपने आज को सँवारने के लिए सुझाए गए ये संकल्प भी उपयोगी हैं—‘आज के दिन मैं अपने शरीर की देखरेख करूँगा। इससे व्यायाम कराऊँगा। इसका पोषण करूँगा। इसका न दुरुपोग करूँगा और न ही इसकी उपेक्षा करूँगा; ताकि मैं अंतिम यात्रा पर निकलूँ तब इसे ठीक-ठीक स्थिति में पाऊँ।
‘आज के दिन मैं अपने मस्तिष्क को पुख्ता करूँगा। मैं कोई उपयोगी बात सीखूँगा। मैं दिमागी आवारागर्दी नहीं करूँगा। मैं कुछ ऐसा भी न पढ़ूँगा जिसमें प्रयास, विचार और एकाग्रता की जरूरत पड़े।
‘आज के दिन मैं अच्छा रहूँगा। यथासंभव अच्छा दिखूँगा। अच्छा पहनूँगा। धीर विनम्र स्वर में बात करूँगा। शालीन व्यवहार करूँगा। दूसरों की प्रशंसा में उदारता बरतूँगा। नुक्ताचीनी नहीं करूँगा और हर एक में कमियाँ तलाश करके उन्हें दुरुस्त करने में नहीं जुटा रहूँगा।

‘आज के दिन मैं केवल अपने आज को जिऊँगा, न कि पूरी जिंदगी की समस्या को पकड़कर बैठ जाऊँगा।
‘आज के दिन का कार्यक्रम मैं सुबह उठते ही तय करुँगा कि हर घंटे के हिसाब से मुझे क्या करना है। हो सकता है, मैं अपने इस कार्यक्रम पर पूरी तरह अमल न कर सकूँ; पर कार्यक्रम मैं बनाऊँगा अवश्य। मैं दो व्याधियों-जल्दबाजी और अनिर्णय को टालूँगा।
‘आज के दिन मैं आधा घंटा बहुत शांतिपूर्वक अपनी एकांत विश्रांति के लिए रखूँगा। मैं ईश्वर का ध्यान करूँगा, ताकि अपने जीवन में कुछ और अर्थ भी दाखिल कर सकूँ।
‘आज के दिन मैं निर्भय रहूँगा। मुझे इस बात की कोई आशंका नहीं रहेगी कि मेरे सुखी रहने में कोई बाधा आ सकती है। सौंदर्य और प्रेम का मैं आनंद लूँगा।’

अकसर हम बाहर की दुनिया देखते हैं। बाहर जो हमें आकृष्ट, मुग्ध और चमत्कृत करता है उसकी तरफ दौड़ते हैं, उसे प्राप्त करने के लिए आतुर हो जाते हैं। यह आतुरता दुख का कारण बनती है। स्वर्ण मृग के लिए सीता की आतुरता दुख का काण बनती है। स्वर्ण मृग के लिए सीता की आतुरता एक दृष्टांत है। इसलिए यदि संभव हो तो हर दिन कुछ देर के लिए बाहर की दुनिया से आँखें मूँदकर अपने भीतर की दुनिया में भी जाना चाहिए। शारारिक स्वास्थ्य के लिए बाहर की लंबी शैर अच्छी है; पर अंदरूनी तंदुरस्ती के लिए भीतर टहलना भी आवश्यक है। कभी-कभी अपने भीतर विराजमान ब्रह्म से भी तो बातचीत कीजिए।

जब आप अपने भीतर विराजमान ब्रह्म से संभाषण करने लगते हैं तो आपको एहसास होता है कि प्रत्येक निर्णय लेने में आप सक्षम हैं। तब आपको इस बात की परवाह नहीं रहती कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं, क्या कहते हैं। अपने काम और अपने इरादों पर दूसरों के फैसलों को लदने मत दीजिए; परंतु इसके साथ एक बात भी ध्यान रखिए कि अपना न्याय दूसरों पर लादने का प्रयास मत कीजिए। ध्यान रखिए, अक्लमंदी की सोल एजेंसी आपके ही पास नहीं है। प्रकृति ने कृपा  सभी पर की है। जब आप अपना निर्णय दूसरों पर लादना चाहेंगे और वह उसको सहज ही स्वीकार नहीं करेगा तो आप निश्चित ही दुःखी होंगे। फिर क्यों दुःख को न्योता दिया जाए।

विश्व के ध्यानी, ज्ञानी, धर्माचार्य, विचारक और मनोविज्ञानी शताब्दियों से मन के विषय में बहुत कुछ लिखते-कहते रहे हैं। चूँकि मन को वायु से भी अधिक चंचल माना गया है, चांकि विज्ञान के तमाम अनुसंधानों और विश्लेषणों के बाद भी मन के तिलिस्म को अभी तक भेदा नहीं जा सका है, इसलिए पश्चिम के मनोविद तथा मनोचिकित्सक भी मनोनिग्रह की प्राच्य भारतीय मान्यता की ओर उन्मुख हो रहे हैं। इसलिए मन को न तो मारिए और न ही उसे आवारा होने दीजिए। भगवान् बुद्ध के मध्यम मार्ग पर चलना ही ठीक है। मन को कामनाओं का चुंबक अपनी तरफ खींचता है। संसारी व्यक्ति कामना से मुक्त नहीं हो सकता। मुक्त रहना भी क्यों चाहिए ? कोई धुन तो इस जिंदगी में बजती रहनी चाहिए, बस, आप अपनी कामानाओं का स्वरूप बदल लीजिए। यह अभ्यास के द्वारा संभव है। सूफी संत बुल्ले शाही ने ध्यान का रोपा लगाते हुए, किसान को आनंद के अक्षय स्रोत (ईश्वर) को पाने का सहज-सरल उपाय बताते हुए कहा था—‘बुल्लेया, रब्ब दा की पाना। इदरौं पुट्टना उद्दर लाणा।’ यानी जिस तरह तुम धान के पौधे को इधर से उखाड़कर उधर लगा रहे हो वैसे ही अपनी कामनाओं को भी इधर से हटाकर उधर लगा दो। काम बन जाएगा।

तो मुद्दे की बात यह हुई कि अपनी कामनाओं का स्वरूप औ रास्ता बदल दो, तुम्हारी किस्मत भी उसी के अनुरूप बदल जाएगी। ‘बृहदारण्य उपनिषद्’ कहता है—‘जैसी तुम्हारी कामना होती है वैसी ही तुम्हारी इच्छा-शक्ति बन जाती है। जैसी तुम्हारी इच्छा होती है वैसे ही तुम्हारे कर्म हो जाते हैं। जैसे तुम्हारे कर्म होते हैं वैसी ही तुम्हारी नियति बन जाती है।’
हो सके तो एक अभ्यास और करना चाहिए। वह है अपने भीतर से निकलकर, अपने से ऊपर उठकर अपने आपको देखना जैसे कि ‘अन्य पुरुष’ को देखा जाता है। यानी खुद को इस तरह से देखना-परखना जैसे कि किसी गैर का मूल्यांकन कर रहे हों।
इधर विकसित देशों में सुख की तलाश पर बहुत लिखा जा रहा है। कुछ दशक पहले तक वहाँ व्यवहार-शास्त्रियों और मनोविज्ञानियों का रुचिकर विषय था—जीवन में सफल कैसे हों ? करोड़पति कैसे बनें ? चिंता मुक्त कैसे हों ? अपनी ऊर्जा का रचनात्मक उपयोग कैसे करें ? इत्यादि। अब ज्यादा जोर इस बात पर दिया जा रहा है कि सुखी कैसे रहें। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रो. माइकॅल आर्गाइल ने ग्यारह वर्षों के लंबे अनुसंधान के निष्कर्ष सामने रखेते हुए कहा है कि यदि मनुष्य चाहे तो सुखी रह सकता है।

प्रो. माइकॅल ने अनेक रिसर्च स्कॉलरों की एक टीम को साथ लेकर ग्यारह वर्षों के दौरान हजारों व्यक्तियों से बातचीत की है। मनोविज्ञानियों और व्यवहार-शास्त्रियों की इस टीम ने बीसवीं सदी के चौथे दशक से अब तक विश्व में किए गए इसी प्रकार के अध्ययनों के निचोड़ भी अपने प्रोजेक्ट में शामिल किए हैं। वे सब इसी नतीजे पर पहुँचे हैं कि पहले की तुलना में आज का मनुष्य यदि अधिक सुखी नहीं हुआ है तो अधिक दुःखी भी नहीं हुआ है। लंदन के टेलीग्राफ ग्रुप द्वारा इस महत्त्वपूर्ण अध्ययन का जो सार प्रकाशित किया गया है, उसके अनुसार आधी सदी पहले मनुष्य को सुखी रखने या सुखी बनाने वाले जो माध्यम सुझाए गए थे, अब बहुत हद तक बदल गए हैं। इस रिपोर्ट की सर्वाधिक विस्मयकारी खोज यह है कि सुखी रहने के लिए मनुष्य को वास्तविक मित्रों के अलावा काल्पनिक मित्र भी बनाने चाहिए। टेलीविजन के अच्छे कार्यक्रम देखते हुए भी व्यक्ति काल्पनिक बनाता है। जो लोग टेलीविजन के हलके-फुलके और रोचक कार्यक्रम देखने तक सीमित रहते हैं वे सुखी तो रहते हैं, परंतु जो बहुत देर तक टेलीविजन देखते हैं वे दुखी होते हैं। इस खोज के अनुसार अपराध, नग्नता एवं क्रूरता के परोसनेवाले टी.वी. कार्यक्रम अंततोगत्वा मनुष्य को क्लांत ही करते हैं।



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