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चर्चित व्यंग्य लघुकथाएँ

योगेन्द्र मौदगिल

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2587
आईएसबीएन :81-88139-53-x

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इसमें समाज में परिलक्षित,विद्रूपताओं तथा राजनीतिक व सामाजिक आडंबरों को निशाना बनाया गया है....

Charchit Laghu Vyang Kathayan

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य सृजन के आरंभ से ही लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। अनेक लघुकथाकारों ने अपनी श्रेष्ठ रचनाओं के माध्यम से साहित्य जगत को समृद्ध किया है। चर्चित लघुव्यंग्य कथाओं के इस संग्रह में योगेन्द्र मौदगिल ने देश भर प्रसिद्ध लघुकाथाकारों की रचनाओं में संकलित किया है; जिनमें अशोक भटिया, अशोक विश्नोई, भगवत दुबे, आभा पूर्वें, इकबाल सिंह, कमल चोपड़ा, कमलकांत सक्सेना, कालीचरण प्रेमी, किशोर श्रीवास्तव, चंद्रशेखर दुबे, जगदीशचन्द्र ठाकुर, दर्शन मितवा, निरंजन बोहा, पुष्कर द्विवेदी, मीरा जैन, राजा चौरसिया, राजेन्द्र वर्मा, सरला अग्रवाल, सिद्धेश्वर सूर्यकांत नागर, शंकर पुबातांबेकर आदि प्रमुख हैं।

इन व्यंग्य लघुकथाओं में समाज में परिलक्षित विषमताओं, विद्रूपताओं तथा राजनीतिक व सामाजिक आडंबरों को निशाना बनाया गया है। कम शब्दों में अपनी बात कह देने के गुण के कारण ये लघुकथाएँ अत्यंत पठनीय बन पड़ती हैं। इनमें दिए गए संदेश हमारे मानस को संवेदित ही नहीं करते, संस्कारित भी करते हैं।

संपादकीय


सुधी आलोचकों के अनुसार साहित्य-सृजन की शुरुआत से ही लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। समय-दर-समय शिल्पगत कसाव और विधागत संप्रेषणीयता से लघुकथा का महत्त्व उभरकर सामने आया है। संभवतः यही कारण था कि अपने-अपने समय के प्रबुद्ध रचनाकारों ने लघुकथा पर कलम चलाई। यह बात अलग है कि वे कितने समय और कितनी गंभीरता से इस विद्या से जुड़े, परंतु जुड़े अवश्य।

इधर पिछले दशकों में लघुकथा की लोकप्रियता चरम पर थी। कमोबेश प्रत्येक उभरता रचनाकार लघुकथा लिखकर लघुकथाकार कहलाना चाहता था। उसी भीड़ में लघुकथा के नाम पर कचरे के ढेर भी सामने आए। फिर भी अनेक लघुकथाकारों ने अपनी श्रेष्ठ लघुकथाओं के माध्यम से लघुकथा जगत् को समृद्ध किया।
इस कड़ी में समकालीन लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ यह संकलन आप सुधी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है। देश भर के लघुकथाकार इन दिनों लघुकथाओं के माध्यम से क्या संदेश आप तक पहुँचाना चाह रहे हैं, इसे आप भी महसूसें और अपनी महत्त्वपूर्ण राय से हमें अवगत कराएँ।

-योगेंद्र मौदगिल

अशोक भाटिया
सच्चा प्यार


जब दोस्तों ने उसे संगीता के साथ मिलते-घुलते देखा तो उससे इसका कारण पूछा। उसने बताया कि उसे संगीता से प्यार हो गया है।

कुछ हफ्तों बाद दोस्तों ने देखा—वह संगीता को छोड़कर अब गीता के साथ घूमने लगा है। वजह पूछने पर उसने बताया कि संगीता में सिर्फ भावना थी, इसलिए वह प्रेम फ्लॉप हो गया। दोस्तों ने सोचा, चलो, अब तो ठीक हो गया।
कुछ हफ्तों बाद वह एक तीसरी लड़की के साथ घूमने-फिरने लगा। दोस्तों ने सोचा कि इससे गीता के बारे में पूछेंगे तो कहेगा कि गीता में सिर्फ देह थी, इसलिए मामला फ्लॉप हो गया।

दोस्तों ने समझाया, ‘‘यार, ऐसे मत बदलो। तुम किसी से सच्चा प्यार करो और उसे आखिर तक निभाओ।’’
वह तपाक सो बोला, ‘‘सच्चा प्यार ! वह भी एक लड़की से चल रहा है।

व्यथा-कथा


नगर निगम का स्कूल रोज की तरह चल रहा था। एक दिन एक इंस्पेक्टर ने आकर कक्षाओं का मुआयना किया।
चौथी कक्षा में आकर उसने पूछा, ‘‘सर्दियों में हमें कौन से कपड़े पहनने चाहिए ?’’
इसपर कुछ हाथ खड़े हुए, कुछ बुझ रही आँखें चमकीं। इंस्पेक्टर ने एक खड़े हुए हाथ को इशारा किया।
‘‘गरम कपड़े जी !’’
जवाब सुनकर बाकी के हाथ नीचे हो गए।
‘‘मैं बताऊँ जी ?’’ एक हाथ अभी भी उठा हुआ था।
‘‘हाँ, बताओ।’’
‘‘जी, सर्दियों में फटे हुए कपड़े पहनते हैं।’’
‘‘ऐसा तुम्हें किसने बताया ?’’
‘‘बताया नहीं जी, मेरी माँ ऐसा करती हैं। यह देखिए।’’ उसने गिनाना शुरू किया, ‘‘ये एक, ये दो, ये तीन फटी कमीजें और इन सबके ऊपर ये सूटर। माँ कहती हैं कि सर्दियों में फटे हुए कपड़े सूटर के नीचे छिप जाते हैं।

बैताल की एक नई कहानी


राजा विक्रम फिर बैताल को बाँधकर ले चला।
तभी बैताल ने कहा, ‘‘हे राजा, आज मैं तुम्हें एक नया किस्सा सुनाता हूँ। भारत देश के किसी शहर की एक कॉलोनी में एक कुमार बाबू रहता था। एक बार ऐसी स्थिति बनी कि तीन अलग-अलग किराएदार उसके घर के नजदीक आ बसे।
‘‘तीनों उसकी नजरों में अलग कैसे थे, सो सुन—सबसे पहले रामानुजम् आकर बस गए। कॉलोनी के लोगों के साथ उसने अच्छे संबंध बना लिये। पर कुमार बाबू सोचते रहे, यह रामानुजम् अच्छे स्वभाव का है, मेहनती भी है; पर हमारे इलाके का नहीं है।

‘‘कुछ ही दिनों बाद रामपाल भी वहीं आ बसा। वह पड़ोसियों से घुल मिल गया। पर कुमार बाबू उससे भी दूरी रखता था। सोचता, यह अपनी जाति का नहीं, शायद छोटी जाति का है, ताकतवर है; पर उठने-बैठने का ढंग नहीं आता।
‘‘इन दोनों के साथ तो कुमार बाबू की बातचीत फिर भी होती रहती थी, पर कुमार के बिलकुल सामनेवाले मकान में जहूरबख्श के आ बसने से वह परेशान हो गया। नाक-भौं सिकोड़ता हुआ सोचता—दूसरे धरम का है; ठीक है, साफ-सुथरा रहता है, पर जनम से भी नीच है, करम से भी।’ उसकी नफरत की बू तीनों किराएदारों तक भी पहुँच गई थी।

‘‘हे राजा, आगे ध्यान से सुन—
‘‘एक दिन अचानक कुमार बाबू के घर आ लग गई। घबराया हुआ वह कहता रहा, ‘बचाओ, लुट गया।’ दूसरे पड़ोसियों के साथ मिलकर इन किराएदारों ने उसका मकान जलने से बचा लिया। कुमार बाबू की आँखें झुक गईं।’’
इतनी कथा कहकर बैताल ने पूछा, ‘‘हे राजा ! यह बता कि आदमी की आँखें घर में आग लगने के बाद ही क्यों झुकती हैं ?’’
राजा विक्रम इसका उत्तर न दे सका। तब से वह बेताल को पीठ पर ढो रहा है।

राज


म्यूनिसिपल कमेटी के चुनावों में किशन लाल चार बरस से खड़े हो रहे थे। हर बार हारते, क्योंकि मुट्ठी भर लोगों पर ही उनका असर था। लेकिन पैसा लगानेवाले उनके पीछे थे, इसलिए वह पाँचवीं बार लड़े और जीत गए।
उनकी जीत की कहानी इस तरह है। इलाके के बाहर एक दलित बस्ती बस चुकी थी। दलितों को पड़ोस में न बसने देने की लोगों ने बड़ी कोशिश की। समझाने-धमकाने के बाद पुलिस भी भेजी, लेकिन सब बेकार।

लोगों के मन को भाँप कर किशन लाल ने कदम बढ़ाया, ‘‘जीतने के बाद इस बस्ती को यहाँ से उठा दूँगा।’’ बस इसी घोषणा से वे भारी बहुमत से जीत गए।
फिर हुई किशनलाल और दलित बस्ती में कशमकश। लाठी चार्ज व धरनों को देखकर लोग खुश होते, अपने शेर को शाबाशी देते। उधर इलाके की सड़कें टूटने लगीं, नालियां गंदगी से भर गईं, लेकिन लोग असली लड़ाई पहले जीतना चाहते थे।

इसी कशमकश में नए चुनाव आ गए। अब किशन लाल सभाओं में सीधी काररवाई करने की बात करने लगे। भीड़ फिर उनके साथ होने लगी।
एक युवा उम्मीदवार शांतिप्रसाद ने अपनी सभा में कहा, ‘‘दलित बस्ती में पाँच सौ घर हैं, उनका बाकायदा सरपंच है। वह बस्ती पहले ही शहर से बाहर की तरफ बनी है। इसलिए उसे कहीं नहीं ले जाया जा सकता।’’
यह सुनकर लोगों के चेहरों पर क्रोध और असंतोष छा गया था।
शांतिप्रसाद आगे बोले, ‘‘वैसे किशन लाल जी भी नहीं चाहते कि बस्ती यहाँ से चली जाए।’’
‘‘यह झूठ है !’’ कुछ लोग चिल्लाए।
शांतिप्रसाद उन्हें शांत करते हुए बोले, ‘‘यह सच है क्योंकि यह बस्ती अगर यहाँ से उजड़ गई तो किशन लालजी लोगों में नफरत किसके खिलाफ पैदा करेंगे।’’
लोग हैरानी से एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे थे।

अशोक विश्नोई

स्वार्थ की हद


‘‘अरी हो बहू ! लो, यह जेवरों का डिब्बा अपने पास रख लो। जब तक दीपक में तेल है तभी तक जल रहा है। आज उजाला है, पता नहीं कब अँधेरा हो जाए। जीवन का क्या भरोसा !’’ ये शब्द कमरे में लेटे-लेटे ससुर ने कहे।
अगली सुबह ससुर ने बहू को आवाज दी, ‘‘बहू, अरी बहू ! सुबह के दस बज गए हैं और चाय अभी तक नहीं बनी। क्या बात है ?’’
लेकिन बहू बिना कुछ कहे तीन-चार चक्कर सुसर के सामने से लगाकर चली गई। उत्तर कुछ नहीं दिया।

वृद्ध ससुर ने एक लंबी साँस ली, फिर दीवार की ओर देखा, जहाँ घड़ी टिक्-टिक् करती आगे बढ़ रही थी।

कथनी-करनी


नेताजी सभा को संबोधित करते हुए कह रहे थे, ‘‘हमें बहुत कुछ करना है। अब समय आ गया है कि हम सब एक जुट होकर देश की सेवा में लगें और राष्ट्रीय अखंडता को सदैव बनाए रख हमें गरीबी हटानी है, गरीब नहीं।’’
भाषण समाप्त होते ही जीप तेजी से एक गली के मोड़ पर आ बैठे दो गरीबों को रौंदती हुई आगे बढ़ गई। उधर वातावरण में अब भी किसी के बोलने की आवाज गूँज रही थी—‘‘हमें गरीबी हटानी है, भाइयों ! देश को आगे बढ़ाना है। गरीबों को उनका हक दिलाना है।

अपनों की गुलामी


सड़क के दोनों ओर खड़े गरीब लोगों के ठेले लाठियाँ मार-मारकर हटाए जा रहे थे। किसी को बंद किया जा रहा था। कारण ज्ञात हुआ, बात बस इतनी सी थी कि अगले दिन 15 अगस्त है—अर्थात् स्वतन्त्रता दिवस।

आभा पूर्वे
लड़की


दोपहर का सन्नाटा था। वह अपनी माँ के साथ इस अजनबी शहर में आई थी। माँ को इसी शहर में नौकरी मिल गई थी। पिता दिल्ली से नहीं आ सके थे, क्योंकि वह वहाँ छोटी सी दुकान के मालिक थे।

लड़की दोपहर के सन्नाटे में माँ को स्कूल से लाने चली जा रही थी, तभी बीस, लड़कों ने उसे सड़क से खींचकर एक कमरे में बंद कर दिया था। लड़की बीसों नवयुवकों की हवस का शिकार होती रही। शाम को लड़की बेहोशी की हालत में खून से लथपथ मिली। बात को समझते ही शहर में तनाव फैल गया। दंगे की हालत बन गई। शहर में तनावपूर्ण स्थिति को शांत करने के लिए सांप्रदायिक सौहार्द के जत्थे निकल आए। पुलिस चौकस हो गई, कहीं कोई दुर्घटना न घट जाए। शहर शांत है। जत्थेवालों के चेहरे पर खुशी है।
और लड़की को होश में लाने की क्रिया जारी है, सलाइन चढ़ाई जा रही है। लड़की होश में नहीं आती। शायद लड़की अब होश में नहीं आएगी।

सभ्य लोग


नगर का वह मुख्य मार्ग था। बड़े-बड़े मकान सड़क के दोनों ओर खड़े थे, पर सड़क के किनारे की नाली को छोड़कर किसी सवारी या खतरे से बचने के लिए थोड़ी सी भी जगह कहीं नहीं थी। मकान से फेंका गया कूड़ा सड़क के किनारे जमा था। आम की गुठलियाँ और छिलके सड़क के किनारे रखे कूड़ेदान से सड़क पर फैल गए थे। पॉलीथिन में रखकर फेंका गया कूड़ा पूरी सड़क को गंदा कर रहा था। कुत्ते ने कुछ अन्न की आशा से उसे नोच-चोथकर इधर-उधर बिखेर दिया था और बगल के मकान में ही शादी की रस्म पूरी हुई थी, भोग की जूठी पत्तलें नाली के ऊपर इधर-उधर फैल गई थीं।

गाँव का गणेशी और शनिचरा उसी सड़क से आ रहे थे। कुछ दूर आए तो शनिचरा ने कहा, ‘‘अपना गाँव तो बरसात में भी इतना गंदा नहीं रहता। वे कौन है, जो इतनी सुंदर सड़क को इतना गंदा किए रहते हैं ?’’
साल भर से शहर में ही नौकरी कर रहे गणेशी ने कहा, ‘‘चुप रहो, ये लोग कोई नहीं, शहर के सभ्य लोग हैं। सुनेंगे तो खाल उतार देंगे।

सपूत


शांति बाबू सरकारी विभाग में बड़े बाबू थे। उनके दो लड़के थे। किसी ने आज तक उनकी खबर नहीं ली। बेकार और बेखबर। जब शांति बाबू क्षय रोग से ग्रसित हुए और डॉक्टर साहब ने किसी भी तरह उनके न बचने की घोषणा कर दी, तो बेटा शांति बाबू की ओर उन्मुख हुआ। दवा नहीं कर रहा था, सिर्फ सेवा करता था। दिन-दिन, रात-रात जाग रहा था। मन में एक आस्था लिये कि पिता की मृत्यु होते ही उसे सरकारी नौकरी मिल जाएगी और यह सोचते ही वह ईश्वर की तरफ अपने दोनों हाथों को जोड़कर सिर झुका लेता। शांति बाबू समझते, उनका बेटा सपूत हो गया है।

अंतर


चारों तरफ घुप अँधेरा था। अंधकार को चीरता हुआ एक रिक्शा चला आ रहा था कि अचानक एक डंडे की आवाज सुनकर उसे रिक्शा रोकना पड़ा। पुलिस वाले ने रिक्शेवाले को आदेश दिया, ‘‘क्यों, बत्ती नहीं जलाई है ? साले, मारकर ठिकाने लगा दूँगा। अँधेरे में गाड़ी चलाता है।’’ यह कहते हुए उसे दनादन अपने डंडे से पीटने लगा।
जब तक वह रोशनी जलाता तब तक बगल से एक अंबेसडर कार बिना बत्ती के तेजी से सरसराती हुई निकल गई।
पुलिस के डंडे से बुरी तरह घायल रिक्शेवाले ने कार की ओर देखा तो पुलिसवाले ने एक डंडा और जमाते हुए कहा, ‘‘साले, कार की तरफ क्या देखता है, कारवाले की बराबरी करेगा !’’

इकबाल सिंह माँ की सीख


उसने माथे पर बिंदिया, नाक में कोका और जूड़े में क्लिप लगाकर शीशे की टुकड़ी में अपना मुँह देखा।

ये सारी चीजें उसने कई दिनों से सँभाल-सँभालकर रखी थीं। माँ कभी भी उसे बिंदिया, कोका व क्लिप जैसी चीजें बरतने नहीं देती थीं। आज उसे माँ का डर नहीं था। उसे अपनी मन-मरजी करने से रोकने वाला कोई नहीं था।
शीशे में मुँह देखते हुए उसे अपने आप पर गर्व सा हो गया। ‘माँ तो पगली थी। सारा दिन मिट्टी के साथ मिट्टी हुई रहती थी। गोबर में हाथ गंदे करके रखती। न खुद कभी अच्छा कपड़ा पहना और न किसी को पहनने दिया। सारे गाँव का गोबर और कूड़ा-करकट सिर पर ढोने का जैसे उसने परमिट ले रखा हो।’ उसे माँ पर रह-रहकर गुस्सा आता।

‘‘हम गरीबों को अपनी सुंदरता छिपाकर रखनी चाहिए।’ माँ उसे चेतावनी देती रहती। माँ की मौत के बाद आज पहले दिन वह अकेली सरदारों का गोबर उठाने आई थी। गोबर में हाथ डालने से पहले वह अपनी इस सुंदरता की परख करना चाहती थी, जिसको माँ छिपा-छिपाकर रखती थी। बिंदिया, कोका, क्लिप और शीशे का टुकड़ा उसे सरदारों की हवेली में कबाड़ में मिल गए थे। पशुओंवाले छप्पर में ही शीशे के टुकड़े में अपना मुँह देखते हुए उसने गोबर की टोकरी भरी। गोबर की टोकरी भरकर उठाने ही वाली थी कि सरदारों का लड़का पशुओं की खुरली में हाथ फेरता हुआ अजीब सी हरकतें करता नजर आया। उसने दोनों हाथों से जोर से गोबर की टोकरी उठा तो ली, परंतु माँ के बिना धरती काँपने लगी। चक्कर-सा आ गया और वह गिरती-गिरती मुश्किल से सँभली थी।

खतरा


पास के शहर में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए थे। इसलिए इस शहर का माहौल भी बिगड़ गया था। यहाँ पर भी दंगा भड़कने का खतरा था। कुछ शहरवासियों ने मौका सँभालते हुए नारे लगाने शुरू कर दिए—
‘‘हिंदू-सिख भाई-भाई।’
‘मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना।’
नारे सुनकर लोग घरों से बाहर निकलकर इकट्ठे होने लगे। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ गई और जुलूस में बदल गई।
अब यह सद्भावना जुलूस शहर के मुख्य बाजारों से गुजरता हुआ गुरुद्वारे तथा मंदिर की तरफ जा रहा था। हिंदू-सिखों में कोई मतभेद नहीं था। सद्भावना संबंधी नारे माहौल को हलका कर रहे थे। अचानक मंदिर व गुरुद्वारे से लाउडस्पीकर के माध्यम से एक साथ आवाज आई—

‘धर्म खतरे में (विच) है।’ एक ही समय बोलने से दोनों पुजारियों की आवाज घुल-मुल गई थी।
‘धर्म खतरे में (विच) है।’ थोड़ी-थोड़ी देर बाद कभी मंदिर व कभी गुरुद्वारे से आवाज आजी, परंतु किसी ने ध्यान न दिया। सद्भावना जुलूस मंदिर व गुरुद्वारे की तरफ जा रहा था।
‘मंदिर में गऊ माता का मांस...गुरुद्वारे में बीड़ियों के बंडल...।’ थोड़ी देर बाद लाउडस्पीकर द्वारा दोनों पुजारियों ने फिर घोषणा की। दोनों की आवाज फिर घुल-मिल गई थी। उन्होंने अभी अपनी घोषणा पूरी नहीं की थी कि जुलूस में हलचल होने लगी। हिंदू मंदिर में इकट्ठे होने लगे और सिख गुरुद्वारे में। माहौल फिर बिगड़ गया। अब फिर दंगा भड़कने का खतरा था।

अमीरी


जिस कच्चे घर में वे रहते थे, उसके साथ ही पक्की कोठी बन गई थी—नई—नकोर और अति सुंदर।
‘‘क्यों न हम नई कोठी में चलें। वहाँ गेहूँ की बोरियाँ भरी होंगी। दोनों समय पेट भरकर खाएँगे। यहाँ पर तो चार-चार रोज भूखे रहना पड़ता है, तब कहीं जाकर एक समय का खाना नसीब होता है।’’
आपसी सलाह-मशविरा कर वे नई कोठी में चले गए। मगर वहाँ तो घर बनाने के लिए कहीं भी कच्ची जगह ही नहीं थी। अनाज को लोहे के ड्रमों में सँभालकर रखा हुआ था, जिन्हें वे दाँतों से काट नहीं सकते थे।
‘‘भगवान् ! यहाँ तो हम भूखे मर जाएँगे।’’ कहते हुए चूहे की आँखों में आँसू भर आए। और वे फिर अपने पहले वाले कच्चे मकान में ही आ गए।

आदमी


सड़क पर आदमी की लाश पड़ी है। आज तीसरा दिन है, परंतु पहचान नहीं हो सकी। लाश किसकी है और मृतक किस धर्म का है ? अंतिम क्रिया करने की समस्या है। इसको जलाया जाए या दफनाया जाए ? लंबी-लंबी दाढ़ी है, पर सिर से कोई पहचान नहीं।

‘‘गलत ढंग से अंतिम क्रिया करके हमें आदमी की तौहीन नहीं करनी चाहिए।’’ कमेटी का चौकीदार लाश ध्यान से देखता हुआ कहता और फिर टाँग पकड़कर जोहड़ की तरफ ले जाता है।
भीड़ में से ‘ठीक है, ठीक है’ की आवाजें उभरती हैं। धीरे-धीरे भीड़ बिखरने लगती है।

   

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