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अमंगलहारी

विवेकी राय

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2591
आईएसबीएन :81-85829-94-2

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‘अमंगलहारी’ को पढ़कर पाठकों को सहज ही लग सकता है कि यह लघु उपन्यास लेखक के पूर्व प्रकाशित विशाल उपन्यास ‘मंगल भवन’ का दूसरा भाग अथवा उससे जुड़ा उपसंहार अंश है। ‘मंगल भवन अमंगलहारी’ वाली चौपाई की अर्द्धाली पूर्ण हो जाती है।

Amangalhari a hindi book by Viveki Rai - अमंगलहारी - विवेकी राय

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘अमंगलहारी’ को पढ़कर पाठकों को सहज ही लग सकता है कि यह लघु उपन्यास लेखक के पूर्व प्रकाशित विशाल उपन्यास ‘मंगल भवन’ का दूसरा भाग अथवा उससे जुड़ा उपसंहार अंश है। ‘मंगल भवन अमंगलहारी’ वाली चौपाई की अर्द्धाली पूर्ण हो जाती है।
सत्य है कि दोनों कृतियों की कहानी परस्पर जुड़ी हुई है। इस दूसरे भाग की कहानी वहीं से आरंभ होती है जहाँ पहले भाग की समाप्ति होती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होगा कि वह विशाल उपन्यास कुछ अधूरा है अथवा यह लघु उपन्यास कुछ छूट जाने के कारण कहीं से खटकता है। वास्तव में दोनों पूर्ण और स्वतंत्र होकर भी जुड़े हुए हैं।

दोनों कृतियों में सबसे बड़ा आरंभिक भिन्नत्व यह रहा है कि ‘मंगल भवन’ अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी में लिखा गया और ‘अमंगलहारी’ की रचना लोकभाषा भोजपुरी में हुई। ऐसा क्यों किया गया, इसे बताना आवश्यक है।
‘मंगल भवन’ सन् 1994 में प्रकाशित हुआ। इसकी सृजन-यात्रा में खपे पाँच-छह वर्ष मेरे लिए कठिन अग्निपरीक्षावाले सिद्ध हुए। नाना प्रकार की आधि-व्याधि और उपद्रव-आघात के चलते मेरा लेखक ऐसा आहत हुआ कि उक्त कृति के पूर्ण होते-होते इस निर्णय-निष्कर्ष पर पहुँच गया कि अब किसी उपन्यास-रचना में हाथ नहीं डालूँगा। टूटे तन-मन को लेकर उपन्यास का तनावपूर्ण आल-जाल सँभाल में नहीं आ सकेगा।
किंतु उक्त नकारात्मक सोच के बाद भी चैन कहाँ था ! एक ओर पराजय-बोध की खटक बेचैन करने लगी, दूसरी ओर समूचा अवशिष्ट मैटर भीतर खुद-बुदाने लगा। इधर लिखने के लिए अपेक्षित बल नहीं मिल रहा था और उधर न लिखने पर और भी निर्बल हो जाने की आशंका होने लगी थी। इस द्वंद्व में से धीरे-धीरे बीच का रास्ता निकला।
सोच में उभरा कि ‘मंगल भवन’ की कहानी को ‘अमंगलहारी’ के भीतर अवश्य ही आगे बढ़ाऊँ, नया उपन्यास लिखूँ—मगर लंबे-चौड़े तनाव से बचकर। कृति भारी-भरकम नहीं, छोटी हो, बिना शाखा-उपशाखा के; स्वतंत्र, सीधी और सपाट होकर लघु उपन्यास के रूप में निखार ले। पूरे कसाव के साथ अपना कथ्य उसके भीतर समाविष्ट हो जाय।

इस विचार से बहुत बल मिला और इसी के साथ एक अन्य नया विचार भी अचानक सामने आ गया। नई कृति जब लघु उपन्यास के रूप में प्रस्तुत होगी तब वह क्यों न लोकभाषा भोजपुरी में लिखी जाय। इससे भोजपुरी से जुड़े साहित्यकार मित्रों के आग्रह की रक्षा हो जाएगी। यह आग्रह बहुत दिनों से चला आ रहा था और बहुत जबरदस्त था। उनका कहना था, लगभग सभी विधाओं में जब मेरी भोजपुरी पुस्तकें आ गई हैं तब यह एक प्रमुख उपन्यास-विधा क्यों छूट जाय ? इसमें भी रचना आ ही जानी चाहिए।

आग्रह उचित था, साथ ही मनोनुकूल भी। इसलिए लघु उपन्यासवाले निर्णय के साथ भोजपुरी-रचना पर पक्की मुहर लग गई। चटपट ताना-बाना भीतर उभर गया। 14 अक्तूबर, 1994 को गायत्री मंदिर, टाटा नगर में बैठकर उसका श्रीगणेश हो गया और उपन्यास दो वर्षों में पूर्ण हो गया।
मेरे इस नए भोजपुरी उपन्यास को आचार्य पांडेय कपिल, अध्यक्ष—भोजपुरी संस्थान, पटना और संपादक--‘भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका’ ने अपनी पत्रिका में धारावाहिक रूप से जनवरी ’97 से लेकर दिसंबर ’97 तक प्रकाशित किया। इस प्रकार ‘भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका’ (पटना) के बारह अंकों में पहले-पहल प्रकाशित मेरे इस ‘अमंगलहारी’ को पाठकों की ओर से अत्यधिक सम्मान मिला।

अगले वर्ष कपिलजी ने अपने ‘भोजपुरी संस्थान’ से इसे पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया। भाई कपिलजी के प्रति बहुत आभारी हूँ, विशेषकर इसलिए कि ‘एक उपन्यास भी भोजपुरी में’ की टोका-टोकी उनकी ओर से बारंबार होती रही और अन्ततः मुझे लिखना ही पड़ा।
अब आगे इस भोजपुरी उपन्यास के खड़ीबोली हिंदी के रूपान्तर का एक अनिवार्य कार्य सामने था। मैं समझता था कि यह सरल कार्य है और इसे मैं झटपट निपटा दूँगा; मगर इसमें हाथ डालने पर लगा, मामला इतना आसान नहीं है जितना मैं समझता था।

खड़ीबोली हिंदी से भोजपुरी में अनुवाद हो जाना मुझे सरल लगा। अपनी कुछ कहानियों और निबंधों का अनुवाद किया भी है। मगर मूल रूप से भोजपुरी में लिखी अपनी इस रचना से पाला पड़ा तो रूपान्तर की जटिलता सामने आई।
मुझे गहराई से अनुभव हुआ कि भोजपुरी भाषा खड़ीबोली हिंदी से अधिक संश्लिष्ट, जीवंत और वैज्ञानिक है। उसके अपने ध्वनि संकेत, मुहावरे, प्रतीक, बिंब और उसकी शब्दावली इतनी सूक्ष्म और अर्थगर्भित है कि रूपांतर क्रम में विशेष सावधानी अपेक्षित होती है। कभी-कभी एक शब्द के भाव को व्यक्त करने के लिए एक-एक, दो-दो वाक्य प्रयुक्त करने पड़े। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि कुछ संशोधन-परिवर्द्धन भी होता चले—और ऐसा हुआ भी है।

रूपान्तर क्रम में मेरा ध्यान इस ओर भी आकर्षित हुआ कि कृति अपने बाह्य रूप में अनुरंजन-प्रधान हो गई है। पांडुलिपि पढ़नेवाले मेरे एक मित्र को इस पर किंचित् जासूसी उपन्यास का रंग चढ़ा मिला। उन्होंने कहा—यह रंग इतना गाढ़ा है अर्थात् इतना कुतूहलवर्द्धक है कि साँस रोककर पढ़ते जाते हैं और ‘पढ़नेवाला’ काम छूट-छूट जाता है।
संभवतः जीवन की जटिल, विरस स्थितियों की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया में कृति कुतूहलवर्द्धक और अनुरंजक हो गई। सन् 1994 से लेकर 1996 तक (इसकी रचना की अवधि) के भीतर भी मैं आकस्मिक व्याधि और व्यस्तता के दो पाटों के बीच पिसता रहा। एक तो इसके पूर्व ‘मंगल भवन’ के रचनाकाल की विविध अग्निपरीक्षाओं ने तोड़ दिया था, दूसरे इस नई कृति के शुभारंभ से उभरी उक्त विपरीतताओं के अमंगलों का सिलसिला आहत करता रहा।

ऐसी स्थिति में ध्यान बस ‘अमंगलहारी’ पर टिका रहा। वह घट जाय, पूर्ण हो जाय। भारत माता सहित मेजर जगदीश नहीं, संभवतः मैं स्वयं कहीं गुम हो गया था और उनके बहाने स्वयं को ही स्वयं खोज रहा था। और ऐसा भी नहीं कि खोज पूरी हो गई, वह अभी जारी रहेगी।
मुझे प्रसन्नता है कि हलके-फुलके अनुरंजक के सहारे पाठक गंभीर राष्ट्रीय समस्या के बीच पहुँच जाएँगे और उसका साक्षात्कार कर सकेंगे। ‘मंगल भवन’ की ही भाँति प्रस्तुत कृति का मुख्य स्वर भी देशभक्ति और राष्ट्रीयता से जुड़ा है। बहुत सरलता से ‘मंगल भवन’ के रूप में देश भारत और ‘अमंगलहारी’ के रूप में भारतमाता की पहचान हो सकती है।
दैवदुर्विपाक से संप्रति भारत में भारत माता को विवादित कर दिया गया है; परंतु सत्य है कि इस शब्द का रोमांच, इसकी पवित्रता और महत्ता अक्षय है और बनी रहेगी तथा हम इससे अनुप्राणित होते रहेंगे

मेरे इन उपन्यासों में उस ऐतिहासिक राष्ट्रीय सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है, जो भारत और भारत माता से जुड़ी उत्कट देशभक्ति के भावों के रूप में युद्धकाल में उत्पन्न हुआ था। उक्त भावों ने संकटकाल में हमको एक कर दिया था। एकता और समस्वरता का वह परिवेश चिरस्मरणीय है। आज की टूटन विखंडनवाली स्थितियों को देखते उसकी महत्ता और बढ़ जाती है।
जिन देशभक्ति और राष्ट्रीयता के सूत्र से वह अभूतपूर्व एकता उत्पन्न हुई थी, आज उन सूत्रों को पुनः सहेजने-बटोरने और जोड़ने की आवश्यकता है। इसी की पूर्ति का एक प्रयास ‘मंगल भवन’ में किया गया है और उसके इस उपसंहार अंश ‘अमंगलहारी’ में भी वे ही प्रेरणाएँ निहित हैं।

डॉ. अनिल कुमार आंजनेय, डॉ. विजयानंद सिंह और श्री शेषनाथ राय एडवोकेट से प्रस्तुत कृति की तैयारी में समय-समय पर आवश्यक परामर्श मिलते रहे हैं। मैं उक्त तीनों मित्रों के प्रति बहुत आभारी हूँ।
आशा है, ‘मंगल भवन’ की ही भाँति उसकी इस अवशिष्ट कथा को भी मेरे पाठक रुचि के साथ पढ़ेंगे।
-विवेकी राय
डॉ. विवेकी राय
मार्ग बड़ी बाग,
गाजीपुर-233001
(उत्तर प्रदेश)

अमंगलहारी

:एक:

ईश्वर जो करता है, अच्छा करता है। बिना उसकी मरजी के एक पत्ता भी नहीं खड़कता है।.....लेकिन ऐसा लगा कि कोई गड़बड़ी हो गई है। तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि किसी पूर्वजन्म की चूक या अपराध का दंड-भोग मिल गया ? चलो, अच्छा ही हुआ।.....यही सोचकर मेजर जगदीश ने कोर्ट के फैसले को अंगीकार कर लिया। उनके चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं आई। ईश्वर की इच्छा पूरी हो।
लेकिन उस फैसले को गाँव-देहात के लोगों में से जिसने भी सुना, दाँतों तले उँगली दबा ली। क्या ऐसा भी होता है ? खेत खाय गदहा और मारल जाय......!
नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए। मगर, दैवगति या दुर्गति से ऐसा हो गया। दयालपुर गाँव में मेजर जगदीश के संगी-साथी और मददगार एकमात्र उनके विक्रम गुरुजी थे। उन्होंने फैसला सुनकर अपना सिर पीट लिया। उनके मुँह से अनायास तुलसीदास का एक दोहा निकल गया—‘और करै अपराध कोउ और पाव फल भोग। अति बिचित्र भगवंत गति समुझि परै नहिं जोग।।’

नेता रणविजयवाले हत्याकांड के केस में सेना से रिटायर मेजर जगदीश और अध्यापक पद से अवकाश प्राप्त विक्रम मास्टर साहब—दोनों को वास्तविक अपराधी योगेश कुमार के साथ लपेटकर फाँस दिया गया था। गवाही, बयान, सबूत, बहस और मुकदमे की रंगत को देखते सबको आशा थी कि जगदीश और विक्रम दोनों छूट जाएँगे। न्यायालय से दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाएगा। लेकिन मामला कुछ गड़बड़ा गया।
वास्तविक अपराधी योगेश कुमार को आजीवन कारावास की सजा हुई।
विक्रम गुरुजी बेदाग छूट गए; मगर पता नहीं कैसे कानून की नजरों में मेजर जगदीश गड़ गए। उनकी सेनावाली सेवा को देखते हुए अदालत की ओर से सजा को घटाते-घटाते भी वह जाकर दो साल के सादा कैद पर अड़क गई।
दो वर्षों का कारावास दंड।

मेजर जगदीश को यह दंड भोगना नहीं पड़ा; मगर क्या सचमुच वह दंड-मुक्त हुए ?
लोग चर्चा करते, जमानत और हाई कोर्ट में अपील के बाद भी निर्दोष मुक्त होने में लगभग दो साल लग ही जाएँगे। मुकदमे में समय लगता ही है। शीघ्र न्याय इस देश में कहाँ मिल पाता है। कुल मिलाकर मेजर साहब छूटते भी हैं तो किस कीमत पर ?
विजय सत्य की ही होती है। निरपराध जगदीशजी को छूटना ही था, वे छूट गए और सिद्ध हो गया कि वे निर्दोष हैं। फैसले के पीछे प्रश्न यह रह गया कि इस बेदाग व्यक्ति की इतनी दुर्गति क्यों हुई अपने को ऐसा सिद्ध करने में ? प्रश्न का कोई उत्तर नहीं।
मेजर जगदीश को दो साल तक अपील के निर्णय की आतुर-अधीर होकर प्रतीक्षा करनी पड़ी। इस बीच उनके जले-भुने हृदय को आशंकाओं के ज्वार-भाटे किस-किस रूप में तोड़ते रहे, कौन जाने।
फिर इन दो वर्षों की प्रतीक्षा की मार ही क्यों ? पिछले कई वर्षों तक चले हत्याकांडवाले केस की बेपनाह मार पर मार के बीच से भी तो गुजरना पड़ा था।...... फिर कुछ और पीछे चलें तो हत्याकांडवाले केस की भूमिकाएँ कितनी भीषण रहीं ! बेचारे गऊ जैसे सीधे मेजर को अपने एक लाद के अनुज तुलसी के साथ अपने घर-परिवार के बँटवारे-दर-बँटवारे की मार्मिक पीड़ा को झेलना पड़ा था। कितनी भयंकर होती है यह भाई-भाई के बीच के बँटवारे की पीड़ा ! फिर उससे उपजे रगड़े-झगड़े, अनवरत चलते बवाल पर बवाल....अपने ही गाँव दयालपुर ने कितनी निर्दयता के साथ जगदीश के सेनावाले मेजर को दयनीय माइनर बना दिया !

कुल मिलाकर जगदीश इतने टूट गए कि केस से छूट निछुट जाने के बाद भी जैसे अगले दो वर्षों तक उनके मुँह से बकार नहीं कढ़ती थी। दिन-रात मन मारे हरिशंकरी स्थित धर्मशाले पर ढहे रहते। भूख लगती तो घर जाकर भोजन कर लेते। ले-देकर गाँव में मात्र एक ही दिली दोस्त रह गए थे—विक्रम मास्टर साहब।
मास्टर साहब दिन-रात छाया की तरह साथ रहकर मेजर साहब को ढाँढ़स दिलाया करते थे और उनके स्वरूप को स्मरण करा-कराकर उत्साह बढ़ाते हुए पुनः खड़ा करने के लिए जतन किया करते थे। वे अकसर कहा करते—धत्त मरदवा की नाहीं, लड़वइया सूरमा भला कहीं इस प्रकार जी छोटा करता है !
.....अरे, तू सन् 1962 और ’65 के सीमायुद्धों में अपने पराक्रम से शत्रु को पराभूत करनेवाला, उनका कलेजा काढ़ लेनेवाला वीर है। अपने को समझता क्यों नहीं है ?
....तू लद्दाख-नेफा, चुशूल, बालोंग, बोमदिला और जम्मू-कश्मीर, इछोगिल नहर क्षेत्र, कसूर मोरचा वगैरह-वगैरह के ऐतिहासिक सीमायुद्धों में अपनी वीरता की धाक जमानेवाला, शत्रुदल के दाँत खट्टे करनेवाला योद्धा अपने को कैसे भूल गए हो ?

.....तू मेजर शैतानसिंह, सौदागर सिंह, भीमू कामले, दोरजे, गुरुबख्श सिंह, मेजर आशाराम त्यागी, परमवीर चक्र विजेता कर्नल खन्ना, अब्दुल हमीद आदि जैसे देश की आन-बान पुर कुरबान होने वाले अमर शहीद-सूरमाओं के साथ मौत को हथेली पर लेकर, सिर पर कफन बाँधे मोरचे पर डटे रहनेवाला जवाँ मर्द इस प्रकार क्यों मुँह लटकाए और जान चुराए जैसे पड़े हो ?
.......उठो जगदीश, इस दयालपुर गाँव को तुम्हारी आवश्यकता नहीं है तो क्या हुआ, देश को तुम्हारी आवश्यकता है। खड़े हो जाओ और चेत करो। तुम्हीं तो कहा करते थे कि ‘मोरचे पर भिड़े रहें, उत्साह तनिक भी ठंडा न पड़े।’ स्वयं क्यों आज भूल गए ? करते-करते जाकर तो ठीक दिआ-दिआरी के दिन अचानक मेजर साहब का मन बदला। पता नहीं कितने दिनों के बाद, संभवतः कई वर्षों बाद वे उस दीपोत्सव के अवसर पर सज-धजकर, अपनी फौजी पोशाक में पूर्णरूप से मेजर साहब बने तरना कर घर से निकले थे। सर्वप्रथम उन्होंने हरिशंकरी महादेव को प्रणाम किया और उसके बाद सीधे विक्रम मास्टर साहब के यहाँ पहुँचे थे। रास्ते में लोग उन्हें चौंक-चौंककर देखते थे; परंतु ऐसी स्थिति थी कि किसीने कुछ कहा या पूछा नहीं था। मेजर साहब का एक लंबे अंतराल के बाद इस प्रकार चुस्त-चौबंद दिखाई पड़ना एक कुतूहल की बात थी। आज किधर का चाँद किधर उगा ! कौन सा जादू काम कर गया कि ठंडा पड़ा लोहा स्वयमेव गरमा गया ? और इस प्रकार मेजर साहब लपके हुए कहाँ चले जा रहे हैं ?

लेकिन मेजर साहब इस दयालपुरिया लंका नगरी में और कहाँ जाते ? मियाँ की दौड़ मसजिद तक। फौजिया बूट कड़कड़ाते हुए पहुँच गए सवेरे-सवेरे अपने गुरु विक्रम मास्टर साहब के यहाँ।
‘गुरुजी, मन करता है कि आज दीपावली के दिन सीमावाली लड़ाई में देश की आन-बान पर कुरबान होने वाले शहीदों के नाम पर दीये जला दूँ। देवी-देवताओं की अराधना अपना पुनीत कर्तव्य है। आप क्या कह रहे हैं ?’ जगदीश आते-आते एक साँस में बोल गए।
‘उत्तमोत्तम विचार है।’ विक्रम मास्टर साहब ने मेजर साहब की पीठ थपथपाते हुए उत्तर दिया, ‘वाह बेटा ! भला इस शुद्ध भ्रष्टाचारी गिरावटवाले दौर में विशुद्ध श्रद्धावश उन परम पूज्य वीरों को तुमने याद तो किया !’
मेजर साहब तीन-चार घंटे तक अपने गुरुजी के पास बैठे रह गए और माँग-माँगकर चाय पर चाय भीतर उतारते गए। अति सामान्य रूप में पहले की भाँति विविध प्रकार की बतकही चलती रही। बहुत दिनों से शिष्य-मित्र जगदीश की बेहाल हालत देखकर मास्टर साहब का मन जहाँ मुरझाया रहता था वहाँ उस समय के सहज संवादों ने उसे हरा-भरा कर दिया।
उस दिन पिछले दुःखदायी प्रसंग—पारिवारिक कलह, बँटवारा और मुकदमे आदि—की चर्चा नहीं उठी। यह अच्छी बात रही। बीती ताहि बिसार दे !

‘तो यह सीमायुद्ध के हुतात्माओं के प्रति होनेवाला दीपदानोत्सव कहाँ पर सम्पन्न होगा ? तुम्हारे दरवाजे पर या हमारे यहाँ ?’ विक्रम मास्टर साहब ने पूछा।
‘इनमें से कहीं पर नहीं।’ मेजर साहब बोले, ‘इसका स्थान हरिशंकरी का धर्मशाला प्रांगण होगा, समय अँधेरा होते-होते। आप श्रीमान अपने दरवाजे से उठकर कुछ पश्चिम और बढ़ आएँगे और मैं अपने यहाँ से कुछ दूर तक पूर्व दिशा में मार्च करता बढ़ आऊँगा।’ मेजर साहब के शब्दों में, मुखमुद्रा में और कथन-भंगिमा में एक वास्तविक और सात्त्विक उल्लास था, जिसका अनुभव कर मास्टर साहब को प्रसन्नता हुई।

नियत समय पर विक्रम मास्टर साहब धर्मशाला पहुँच गए और पहुँचते ही हठात् उनके मुँह से निकल गया, ‘अरे, यहाँ तो पूरी तैयारी है !’
तो, क्या तैयारी थी वहाँ ?
रंग-बिरंगी झंडियों के बीच गोबर से लीप-पोतकर एक लंबा-चौड़ा पवित्र पूजास्थल बनाया गया था। उसके बीच सफेद आटे से भारतवर्ष का एक नक्शा बना था। नक्शे के भीतर तिरंगे आटे से पूरी चौड़ाई में ‘जय हिंद’ अंकित किया गया था। नक्शे के ऊपर लाल-पीले अक्षत से लिखावट में उगाया गया था—
‘दीपदान याद में शहीदों के’।
आगे की एक तैयारी बहुत रोमांचक थी। देश की सीमावाली आटे की लकीरों पर पूरे नक्शे को घेरते हुए घृतपूर्ण और सहेजी हुई बातियों सहित दीपक सजाकर रखे गए थे। विक्रम ने देखा कि बाएँ हाथ में दियासलाई और दाहिने हाथ पर फूलों भरा थाल लिये सादे धोती-कुरते में नंगे पैर, सिर पर गमछा डाले जगदीश इस प्रकार खड़े थे जैसे वे किसीकी प्रतीक्षा कर रहे हों। बात समझ में आने जैसी थी, प्रतीक्षा उन्हीं की थी।

‘जय हिंद’ वाली लिखावट के नीचे कुछ बड़े पाँच दीपक प्रज्वलित कर मास्टर साहब ने जब पुष्प अर्पित कर दीपदान का शुभारंभ कर दिया तो भारत माता की जय-जयकार के साथ दियासलाई जगदीशजी के हाथों में पहुँच गई। दीपकों को जलाने की सुविधा के लिए उन्होंने पहले एक मोमबत्ती जला ली और ठीक कश्मीर के समीप वाले दीपक को लक्ष्य कर झुकते-झुकते में उन्होंने कहा—
‘यह प्रथम देदीप्यमान दीपक सीमायुद्ध के सर्वाधिक गौरवशाली, त्यागी, साहस मूर्ति और देश-प्रेम में पागल उन वीरों के नाम पर जिनके नाम अनाम ही रह गए। हे अज्ञात योद्धाओं, आप लोगों को शत-शत प्रणाम !’

जला हुआ दीपक रोशनी बिखेरने लगा तो मेजर साहब ने आगे कहा, ‘उन अज्ञात शहीदों में एक तो वही वीर रहा जिसने सीमायुद्ध के चलते सरगोधा के राडार सिस्टम पर अपने को झोंक दिया। एक परान और एक विमान के बलिदान से अनगिनत परानों की रक्षा हुई। मौत के साथ खेलकर उस वीर ने देश की शान की रक्षा की। उस समय लगा था, वीरता जब अपने चरम निखार पर पहुँचती है तो वह कैसी होती है ! समस्त प्रकार के कायदे-कानून राख की तरह झड़ गए थे। सारे बंधन टूट गए थे और परिणामस्वरूप अपने को आग में झोंककर वह बुझ गया था। तब उसका अज्ञात नाम कितना चमक गया था और अब तक क्या वह चमक मद्धिम हुई है ?
‘उस वीर की यादों का दीपक कभी बुझ नहीं सकता। वह तब तक प्रज्वलित रहेगा जब तक यह धरती और आसमान रहेंगे।
‘......अब अगला दीपक जलाएँ सूबेदार मेजर सौदागर सिंह के नाम पर। कैसे थे वे मेजर सौदागर सिंह ?’

जगदीश ने हाथ में जलती हुई मोमबत्ती लेकर एकत्र लोगों पर दृष्टि डालते हुए एक प्रश्न उछाल दिया। सवाल करके वह स्वयं क्षण भर के लिए चुप हो गया। उधर अन्य सभी लोग चुप। उन तमाशाई मूड में खड़े लोगों को भला कौन बताता कि कौन थे वे वीर सिंह साहब !
‘इसका उत्तर श्रीमान के मुँह से ही सुनना चाहते हैं। हम लोग तो आन्हर गाय हैं, गँवई मनई हैं। यह सब क्या जानते हैं ?’ नूरा मियाँ ने कहा।

दर्शकों की आँखें नूरा मियाँ की ओर उठ गईं। विक्रम ने देखा, मियाँ के पास ही मेजर साहब का हँसोड़ एवं अध्यापक बेटा प्रशांत खड़ा है और किसी बात पर मुसकरा रहा है। उन्हें आशंका हुई, यह भड़ुआ कहीं कुछ अटपट बोलकर वातावरण की गंभीरता को नष्ट कर दे। लेकिन नहीं, यह देखकर आश्वस्ति हुई कि पुराने मुखिया वासुदेव पांडेय उसके पास ही खड़े थे। उनके सामने वह वैसी ढिठाई नहीं करता। फिर उसके चाचा तुलसी का बड़ा लड़का दिग्विजय भी वहीं था। उससे भी प्रशांत सहमता था। आयु में वह उससे दो वर्ष बड़ा था। प्रशांत हँसोड़ है तो क्या हुआ, उसके भीतर अध्यापकवाले शिष्टाचार और बड़प्पन की कमी नहीं है।

‘नहीं जानते हैं, तो सुनिए।’ जगदीश ने कहा और कहते-कहते वह अगले दीपक की ओर बढ़ गए। आगे कहते गए, ‘यह वही वीर है जिसने सीमायुद्ध में शत्रुओं के छक्के छुड़ा दिए थे। यह कश्मीर के मोरचे पर कूंब क्षेत्र के एक विस्फोट में वीरगति को प्राप्त हुआ था। यह स्वनामधन्य मेजर सौदागरसिंह अद्भुत देश-प्रेमी था। घर के लोगों ने तार दिया था कि तुम्हारी माँ बहुत बीमार है, जल्दी चले आओ। इधर से इसने उत्तर दिया था कि इस समय शरीर को जनमानेवाली माँ की सेवा के लिए अवकाश नहीं है। यहाँ कोटि-कोटि की जन्मदात्री और धात्री जननी जन्मभूमि की सेवा का पुनीत कर्तव्य सामने उपस्थित है।

‘ऐसा था वह महान् योद्धा मेजर सौदागरसिंह। हे दीपक, जल जाओ, जलते रहो और अनंतकाल तक त्याग-बलिदान की ज्योति बिखेरते रहो।.....गुरुजी, अब आगे शीघ्रतापूर्वक, क्रम से चुपचाप शहीदों के नाम पर समस्त दीपकों को जगमगा दूँ, नहीं तो विलंब होगा।’
‘अरे नहीं, जगदीश।’ विक्रम मास्टर साहब ने कहा, ‘विलंब की क्या बात है ! संक्षेप में सभी का परिचय होता चले। एकत्र जनता-जनार्दन को पता तो चले कि कौन क्या कर रहा !’
‘आज्ञा सिर-आँखों पर। तो, देखिए, मैंने यह एक तेजस्वी दीपक प्रज्वलित किया—अमर शहीद गुरुबख्श सिंह के नाम पर। यह पवित्र नाम उस जवाँ मर्द का है, जिसने अपने विमान की गति को मौत की गति से अधिक तेज कर उसे मात दे दी।

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