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हास्य-व्यंग्य >> चापलूसी रेखा

चापलूसी रेखा

दीनानाथ मिश्र

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2595
आईएसबीएन :81-88139-27-0

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व्यंग्य लेख...

Chaplusi rekha - A Hindi book on satire by Dinanath Misra - चापलूसी रेखा - दीनानाथ मिश्रा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बुरके से बिकनी तक का फासला उत्तरी ध्रुव तक फासले तक भी ज्यादा है। एक तरफ बुरके में औरतों की आजादी को कैद करने की कोशिश है, दूसरी तरफ बिकनी युग के सुभागमन की तैयारी है। बिकनी युग में सब कुछ आजाद होगा। सबसे ज्यादा आजादी होगी बेहाई। अखबारवालें भी सवाल पूछने को स्वतन्त्र होंगे; बल्कि कह सकते हैं कि वे तो आज भी स्वतन्त्र हैं। आप फिल्म अभिनेत्रियों के साथ उनकी भेंटवार्ताएँ पढ़ लीजिए। पहला सवाल होता है कि आप अंग प्रर्दशन के बारे में क्या सोचती हैं। ज्यादातर तो कहती हैं कि उन्हें परहेज नहीं है। मुबारक हो। आज की सभ्यताएँ एक अतिवाद से दूसरे अतिवाद तक जूझती रहती हैं। समझिए, बुरके से बिकनी तक। तालिबानीकरण से लेकर औरतों के बिकनी करण तक।
प्रस्तुत संग्रह के व्यंग्य-विषयों का चयन व्यापक घटनाचक्र से जुड़कर किया गया है। इस लिए ये व्यंग्य अपने पाठक को विषय की विविधता का सुख देते हैं और अद्यतन से परिचित करते हुए उसकी विद्रूपताओं का समाहार करना भी नहीं भूलतें।

समर्पित


श्री टी.वी. आर. शिनाँय को
जिन पर मेंरा आरोप है---
उन्होंने लेट-लतीफी के व्यापक चलन
के दौर में समय की पाबंदी की लत
लगी दी। काम तो समय से निपटता
है, मगर रोजाना एकाध घंटे का
घाटा भुगतना पड़ता है।

महिमा चापलूसी की


सरल रेखा, वक्र रेखा, फिल्मी रेखा, गरीबी रेखा, चुनाव आयोग की उम्मीदवारी रेखा जैसी रेखाओं की तरह एक रेखा और भी होती हैं, उसे कहते है ‘चापलूसी रेखा’। ईश्वर, राजा और बॉस की चापलूसी का तो सबको जन्म सिद्ध अधिकार है। ‘हनुमान चालीसा’ में हनुमानजी की जैसी चापलूसी की गई है वैसी चापलूसी तो विश्वविधालय के हिंदी प्राध्यापक भी नहीं कर पाते। पूजा के बाद होने वाली आरती में चापलूसी को दैवी और सांस्कृतिक ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया जाता हैं। यह जो ‘लालू चालीसा’ लिखा गया, उसे राजा की चापलूसी ही मानना चाहिए । बॉस की चापलूसी के मामले में आप को छोड़ कर मेंरे तमाम पाठक महारत रखते हैं। लेकिन यह तमाम चापलूसियाँ फीकी पड़ जाती हैं जब उनकी तुलना प्रेमिका की चापलूसी खाते में की जाए।

         भले ही कोई प्रेमिका न हो, कोई सामन्य होः लेकिन खूबसूरत लड़कियों और औरतों को प्रतिनग प्रतिवर्ष सौ टन चापलूसी तो जरूर मिल जाती है। प्रेमिकओं की चापलूसी की तो बात ही छोड़िए, यह तो साहित्य की विधा बन गई है। साहित्य सिनेमा से लेकर विश्वविद्यालय अर्थात तमाम प्रणय विभागों में इसके उत्तरोत्तर विकास की यात्रा अध्ययन और मनन का विषय है। तमाम कवि अपनी प्रेमिका-साधना में चापलूसी को निखारने की कोशिश करते रहते हैं दुनिया के तमाम बड़े कवियों ने नख-शिख वर्णन में अपना-अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। आँख बंद कर अपनी प्रेमिका का आपादमस्तक भूगोल का चित्रण किया है। कई कवि तो किसी एक स्टेशन पर ठहर जाते हैं। वेणी के बालों को सुलझाते रहते हैं। उसकी लंबाई नापते रहते हैं। उसके लहराने की उपमाएँ देते रहते हैं। कइयों को उसमें बादल नजर आते हैं। चलते समय वेणी झूलती है तो मुझे वह भले ही गाय की पूछ नजर आए, मगर कवि महोदय का मन वेणी के साथ झूला-झूलता रहता है। वेणी से नीचे उतरिए, मैं आपको शर्तिया कह सकता हूँ कि इन साहित्यकारों ने साहित्य में अनेक अलकों-पलकों पर पृष्ठ लिख दिए हैं। कई बार मुझे ताज्जुब होता है कि पलकों की हलचल से कवि महोदय को हार्ट अटैक होते-होते क्यों रह गया?

       उसके नीचे उतरिए, आँखों पर आइए । कमलनयनी संपूर्ण नयन साहित्य का एक उदाहरण है। एक भाई ने तो आँखों को गहरी झील की उपमा दी है। कुछ चोट खाए लोग नैनों को कटार के रूप में देखते है। ऐसी ही उपमा कुछ साल पहले सुनी। कटार पुरानी पड़ गई थी। गीत लेखक ने लिखा-‘आखियों से गोली मारे, लड़की कमाल की।’ फिर आइए मुखड़े पर। कवियों ने अपनी प्रेमिकाओं के चक्कर में चांद की जितनी बेइज्जती की है वह काबिले बरदाशत नहीं है। मुझे आश्चर्य है कि किसी चांदराम ने अदालत में मान हानि का मुकदमा क्यों नहीं किया ? अब मैं और नीचे नहीं जाऊँगा। खतरनाक इलाकों से डरता हूँ। कवि लोग कमर पर बड़े मेंहरबान रहे हैं। एक शायर ने कुछ-कुछ इस तरह से लिखा है--‘सुना है, तुम्हारी भी कमर है, कहाँ है, किस तरफ है ?’ खतरों को टालता अब मैं सिर्फ पैर पर आता हूँ। कवि तो फिर भी कवि होते हैं।

    राजनीति और राजकाज में भी चापलूसी कला बेहद कारगर हथियार है। एक बार चापलूसों के दायरे में नेता जी आ भर जाएँ फिर ये अपना करिश्मा दिख देते हैं। धीरे-धीरे ऐसे नेता लोग मानने लग जाते हैं कि यह आदमी जो कुछ कह रहा है उसमें कुछ सच्चाई है, मुझमें वाकई ये सब गुण हैं। दूसरी अवस्था वह होती है जब नेता जी उसकी तमाम बातों पर भरोसा करने लगते हैं। और उनकी नजरों में वही सबसे सच्चा आदमी हो जाता है। गरीबी रेखा और चापलूसी रेखा में एक फर्क है। अकसर गरीबी रेखा से नीचेवाले लोगों की चर्चा होती है। चापलूसी रेखा इसके ऊपर के लोगों पर ध्यान जाता है। मुझे अफसोस है कि प्रस्तुत संग्रह में इस पर एक ही आलेख है, जबकि मैं चापलूसी पर वाकई पूरा ग्रंथ लिख सकता हूं। यह एहसास तब हुआ जब चापलूसी के कुछ अधिकारी विद्वान् मुझ पर अपनी चापलूसी कला का प्रयोग करने लगे। मुझे अचानक लगा कि मैं पदोन्नत हो गया हूँ, चापलूसी का अधिकारी हो गया हूँ। पहले जब कोई चापलूसी करता था तो मैं उदासीन भाव से सुनभर लेता था। जैसे-जैसे बडे कलाकारों से सामना हुआ, वैसे-वैसे मैं उनकी बातों में दिलचस्पी लेने लगा। कुछ भी कहिए, असर तो होता है, विज्ञापन और चापलूसी दोनों का। अंत में एक बात जरूर कहना चाहूँगा कि इस संग्रह की तमाम त्रुटियों का जिम्मेदार अकेला मैं हूँ और अगर कुछ खूबियाँ गलती से इसमें आ गई हैं तो इसकी मौलिकता का दोषी मैं हरगिज नहीं हूँ।

----दीननाथ मिश्र

एक वो भी हैं भिखारी


उन्होंने महानगर चेन्नई को पच्चीस खंडों में बाँट रखा है। इन खंडों के लिए महीने में एक बार बोली लगती है। इन दिनों ये पच्चीस इलाके अगले एक महीने के लिए नीलाम हो जाते हैं। इस धन्धे में लगे सभी लोग महीने में केवल इसी दिन छुट्टी रखते हैं। कोई इलाका पाँच-सात सौ रूपए में बिकता है तो कोई दो-तीन हजार रूपए में। मशहूर मंदिर, मसजिद, और चर्चवाले इलाके की नीलामी की बोली ज्यादा लगती है। जिस गिल्ड की बोली जिस इलाके के लिए मंजूर हो जाती है, उस गिल्ड के सभी भिखारी अगले महीने तक उसी इलाके में भीख माँगते हैं। भिखारियों का यह तंत्र इतना व्यवस्थित है कि बड़े-बड़े प्रबंधक काम के बँटवारे के बारे में इनसे कुछ सीख सकते हैं। रविवार के दिन चर्च के सामने भिखारियों की भीड़ लगती है और शुक्रवार के दिन मसजिद के सामने। मंदिर के सामने तो भीड़ रोजाना लगती है। भिखारियों के गिल्ड के महासंघ का मुख्यालय व्यासनपाड़ी में है। एक गिल्ड के प्रधान ने एक नए साप्ताहिक पत्र को बताया कि भिखारियों की तमाम व्यवस्थाएँ गोपनीय ढंग से होती हैं।

       चेन्नई के एक शिक्षण संस्थान ने सर्वेक्षण किया है। इससे पता चलता हैं कि वहाँ १५ प्रतिशत भिखारी बच्चे हैं। ४0 प्रतिशत भिखारी औरते हैं। ४0 प्रतिशत ही स्वस्थ भिखारी हैं। १५ प्रतिशत ही कोढ़ी हैं। ३0 प्रतिशत अपंग हैं, जिनमें ज्यादा तर लूले-लँगड़े या अंधे हैं। ६ प्रतिशत पागल हैं। अनेक असाध्य रोगों के शिकार हैं। ज्यादातर भिखारी अपने धंधे को अपमान जनक नहीं मानते हैं। वे बताते है कि उनमें काम करने की स्थितियाँ सबसे ज्यादा कठिन हैं। कड़ी धूप और बरसात में भी उन्हें काम करना पड़ता है। सुबह तड़के से लेकर रात देर तक वे काम करते हैं।

        हर एक गिल्ड़ में कुछ ज्यादा सफल भिखारी होते हैं, कुछ कम सफल। उनके भीख माँगने के ढंग भी निराले होते है; जैसे कुछ भिखारी तीर्थयात्रा के लिए चंदा करने के बहाने भीख माँगते हैं। कुछ लड़की की शादी के लिए और कुछ बीमार माँ के इलाज के लिए। कोई भिखारी भीख माँगने के पहले छोटा-मोटा भाषण दे देता है। कोई गाकर भीख माँगता है तो कोई रोकर। इस संगठन के पदाधिकारी ने बताया कि उनकी जिंदगी सिर्फ भीख के सहारे ही नहीं चलती। कुछ धर्मार्थ संस्थानों, समाज-कल्याण संस्थानों, दानी व्यापारियों के अनुदान भी उनको समय-समय पर मिलते रहते है। सर्दी के लिए कपड़े, तीर्थ यात्रा के खर्चे, दवा-दारू वगैरह इसमें से कर लेते होंगे ये भिखारी।

        दक्षिण भारत के इस महानगर के भिखारियों के संगठित आन्दोलन के बारे में जानकर मैं चकित हो गया। इतनी व्यवस्था तो उत्तर भारत के राजनीतिक दलों में भी नहीं है। बनारस, इलाहाबाद, हरिद्वार, ऋषिकेश, वगैरह में भिखारियों की दशा देखिए। इनके मुकाबले चेन्नई के भिखारियों की आमदनी देखिए। चेन्नई के इन भिखारियों के एक संगठन के एक प्रवक्ता के अनुसार वहाँ के भिखारियों की औसत दैनिक आय पैंतीस-चालीस रूपए है। करीब-करीब यही हमारी राष्ट्रीय आय भी है। इसका मतलब यह हुआ कि या तो हमारी राष्ट्रीय आय भिखारी स्तरीय है या चेन्नई के भिखारियों की आय बढ़ते-बढ़ते राष्ट्रीय औसत पर पहुँच गई है।

          जहाँ तक भिक्षाटन की टेक्नोलॉजी का सवाल है, उत्तर भारत के भिखारी कोई कम प्रतिभाशाली  नहीं है। मैं अपना तजुर्बा बताता हूँ। एक बार कनाँट प्लेस में मुझे एक गरीब दिखने वाला आदमी मिला उसने मुझसे रो कर पूछा—बाबू जी नजफगढ़ का रास्ता कौन सा है ? उसका सवाल गलत था। अगर वह नजफगढ़ के लिए बस की जानकारी चाहता तो मैं नहीं चौंकता। मैं उत्सुक हो गया। मैंने पूछा कैसे जाओगे नजफगढ़ ? उसने कहा-पैसे नहीं है, पैदल ही जाना होगा। मैंने अपने आप पाँच रूपए निकाल कर दे दिए और बस स्टाप का रास्ता बता दिया। कोई तीन-चार दिन बाद मुझसे किसी वैसे ही व्यक्ति ने किसी दूसरी जगह का रास्ता पूछा। मेरा शंकित होना स्वाभाविक था। दो-तीन वाक्य में उसने किराया माँगा। और उस दिन मैंने उसे पैसे नहीं दिए। कोई महीने-ड़ेढ महीने के बाद ऐसे ही इलाके में रास्ता पूछने वाला एक तीसरा व्यक्ति मिला। समय बरबाद न करते हुए मैंने ही पूछ लिया—तुम्हे पैसे चाहिए ? उसने कहा-हाँ। अर्थात् भीख माँगने की यह नई तकनीक थी।

पहले अँगुली पकड़ते हैं


इस सदी के शुरू में लोगों को चाय की बीमारी थी। आज जहाँ देखो, चाय। उठते ही बेड टी। किसी के घर जाइए, चाय हाजिर है। दफ्तर में अतिथि सत्कार के लिए अच्छी सी क्रॉकरी में चाय आ जाती है। यहाँ तक की बाजार में जाइए, अगर आप अच्छे खरीदार हैं, आपको चाय पूछी जाएगी। मैं इस चाय की मुसीबत से तंग आ गया हूँ। मैंने जीवन भर में इतनी चाय पी है कि चाय का नाम सुनते ही नाक-भौं अपने आप ही सिकुड़ जाती हैं। जो लोग ज्यादा चाय पीते हैं वे गैस के मरीज हो जाते हैं। बाजारो में हर दस-बीस दुकानों के साथ चाय की ढाबानुमा दुकान जरूरी है। दिन भर छोकरे चाय ढ़ोया करते हैं। किसी-किसी प्रदेश में एक कप चाय मगाई जाती है, दो भागो में बाटी जाती है। एक कप में पीता है, दूसरा तश्तरी में। कहीं-कहीं तो मिनि कप का प्रचलन चालू हो गया है और भी दो लोग बाँटकर पीते हैं।

         भले ही लोग चाय से तंग आ गए हो, मगर चाय का नशा है जो उतरने का नाम ही नहीं लेता। आप भारत के किसी भी स्टेशन पर जाइए। गाड़ी प्लेटफार्म पर लगे, इससे पहले ‘चाय-चाय-चाय’ का कोरस चालू हो जाता है। अरबों-खरबों का उधोग हो गया है चाय। सौ साल में यह चमत्कार हो गया। कहते है शुरू में चाय कंपनी वाले वर्षों तक मुफ्त में चाय पिलाते थे। वही चाय कलमुही ऐसी लगी है कि उतरने का नाम ही नहीं लेती। चाय का ख्याल मुझे यों ही नहीं आया है। आज तीन-चार हजार का पेजर मुफ्त में बाँटा जा रहा है। पेजर की खूबी यह है कि करीब-करीब माचिस के आकार के इस यंत्र को आप जेब में रख लीजिए और चाहे जहाँ घूमिए। अगर आपके पेजर पर कोई संदेश देना चाहे तो उसका संदेश या टेलीफोन नबंर पेजर के स्क्रीन पर एक बीप की आवाज के साथ आ जाएगा। बचपन में जब भी मुझे हिचकी आती थी, तो मां कहती थी कोई याद कर रहा है। अब याद करने वाले को हिचकी के इंतजाम का इंतजार नहीं करना पड़ेगा। यह काम पेजर कर दिया करेगा।

      बड़े-बड़े शहरों में ये पेरज मुफ्त मिल रहे हैं। इतने कीमती पेजर और मुफ्त। ये कंपनी वाले पागल तो नहीं हो गए हैं ? जी हाँ, ये पागल हो गए हैं। दस-पाँच साल में सारे हिंदुस्तान को पागल बनाने के लिए आज ये पागल हो गए हैं। हालात ये हैं कि आप ए.एन.जेड़. ग्रिंडलेज बैंक का क्रेडिट कार्ड खरीदने जाइए, इसके साथ आपको चार हजार रूपए का पेजर मुफ्त मिलेगा। आप पंद्रह हजार की वर्लपूल वाशिंग मशीन लीजिए, साथ में पेजर ले जाइए। एस्सार सेल फोन, बजाज स्कूटर, वीडियोकान वाशिंग मशीन, नई दिल्ली के उपहार सिनेमा के दस टिकट, फूडलैड का परचून सामान, बेनतो के सिले-सिलाए कपड़े, श्री राम होंडा का जनरेटर सेट, गोदरेज की मशीन, फिलिप्स का म्यूजिक सिस्टम, इंटर कार्ड का डिस्काउंट कार्ड जैसी कोई भी चीज खरीद लीजिए, साथ में आपको तीन-चार हजार का पेजर मिल जाएगा। यही नहीं, आप एन.आई.आई.टी. के कंप्यूटर कोर्स करने जाइए, पेजर मुफ्त पाइए।

       पिछले दिनों जूतों के साथ भी पेजर बाँटा गया। अब बताइए कि यह पेजर का पागलपन है कि नहीं ? जी नहीं। बाँह पकड़ने के लिए अँगुली पकड़ने की जरूरत होती है। मुफ्त में बाँट कर पेजर कंपनीवाले अँगुली पकड़ रहे हैं। उन्हें ऐसे मालदार ग्राहक चाहिए, जिनकी हसरत पेजर रखने की हो। जिनको पेजर की आदत डाली जा सकती हो। जो कलांतर में उसको उपयोगी समझ सकते हों। बाजार में पेजर जब आया था तो उपभोकता ने उसका उदासीनता से स्वागत किया। उदासीनता की इस समस्या से वे कैसे लड़ते ? एक तो यह समझना चाहिए कि कंपनीवाले सिर्फ पेजर बेचना नहीं चाहते। पेजर बेचकर वे कितना कमाएँगे ? ज्यादा नहीं। असली आमदनी तो एक हजार नौ सौ रूपए वार्षिक की सर्विस चार्ज से होगी और जीवन भर होती रहेगी। इसलिए इन कंपनियों के लिए महत्त्वपूर्ण यह है कि ज्यादा-से-ज्यादा लोग पेजर धर्म स्वीकार करें। इसीलिए मुफ्त में पेजर देकर ये धर्मांतरण ही कर रहे हैं।

मिस वर्ल्ड—हाई कोर्ट की निगाहें


अच्छा फैसला है। बंगलौर हाई कोर्ट ने किया है। अब खुद ही मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता को मॉनिटर करेगा। हाई कोर्ट देखेगा कि उसमें कहीं अश्लीलता, नग्नता या भद्दापन तो नहीं है। फैसले में और भी बहुत सारी बाते हैं, लेकिन मैं सिर्फ इस मुद्दे पर चर्चा करूँगा। सच पूछिए तो मैं इस मामले में खुद कन्फ्यूजियाया हुआ हूँ। कभी मुझको जो चीज सुंदर लगती है, वही चीज कभी अश्लील लगती है। मसलन जो दृश्य मुझे दस बजे अश्लील और भद्दे नजर आते हैं, रात को टेलीविजन पर सुंदर और आकर्षक हो जाते हैं। मैं तो इस पूरी बहस को बेईमानी मानता हूँ। मैट्रो, दूरदर्शन में जो कुछ दिखाया जाता है, सरकार जिसे स्वयं परोसती है, वह अगर अश्लील नहीं तो दुनिया में कोई भी दूसरी चीज अश्लील नहीं हो सकती। तर्क वही व्यापारवाला है। अश्लील हरकतें दिखाओगे तो दर्शक ज्यादा मिलेंगे। दर्शक ज्यादा मिलेंगे तो विज्ञापन ज्यादा मिलेंगे। विज्ञापन ज्यादा मिलेंगे तो मालामाल हो जाएँगे।

      जो हाल डी. डी.-२ या मैट्रो का है वही चैनल ‘वी’ का है । वही ‘एल’ का है । वही ‘होम टी.वी.’ का है। सब एक-दूसरे से ज्यादा अश्लील होने की होड़ करते हैं। कोई माई का लाल जनहित याचिका ले कर मैट्रो के खिलाफ अदालत में नहीं गया। अगर गया होता तो हमारी अदालतें, जो आज सबकुछ करने को तैयार हैं—चाहे वह प्रदूषण हो, कचरा हो या बूचड़खाना तत्परतापूर्वक प्रशासन का काम संभाल रही हैं। ऐसे में मुझे यह जानकर तनिक आश्चर्य नहीं हुआ कि मिस वर्ल्ड की प्रतियोगिता में अश्लील, नंगई वगैरह के बारे में स्वयं उच्च न्यायालय देखरेख करेगा। कुछ लोग कहते है कि सौंदर्य की अश्लीलता और श्लीलता के बीच बाल भर का फर्क है। मैं तो यह भी नहीं मानता। जो दृश्य बारह, साल के लड़के के लिए अश्लील हैं, पचास साल के व्यक्ति के लिए संभव हैं, अश्लील न हो। कहने का तात्पर्य कि अश्लीलता आयुनिरक्षेप नहीं है।

         मेरे एक मित्र कहा करते हैं कि इस दुनिया में जितने देश हैं वे तब तक एक सरीखे नहीं लग सकते जब तक कपड़े पहनते हैं। पश्चिम में तो नग्नतावादियों के शिविर लगते हैं। उनके क्लब लगते है। ऐसे क्लबों में जब कोई चकित हो कर दूसरे से पूछता है कि आप इस हालत में कैसे हैं, तो वह सहज भाव से जवाब देता है कि मैं तो पैदा ही नंगा हुआ था। अमिताभ बच्चन मिस वर्ल्ड के चुनाव को भारत लाए। वे दुनिया को यह दिखाना चाहते हैं कि भारत वैसा पिछड़ा देश नहीं है जैसा आप समझते हैं। हम भी मिस वर्ल्ड का आयोजन पूरे तकनीकी ताम-झाम से कर सकते है। वे कहते है कि एक सौ सैतीस देशों में ढाई करोड़ लोग मिस वर्ल्ड की प्रतियोगिता को अपने-अपने टेलीविजन पर देख सकेंगे। यह भी दावा करते है कि इसके साथ ही हम भारतीय संस्कृति की ऐसी झाँकिया पेश करेंगे कि भारत के बारे में दुनिया के लोगों की धारणा बदलने लगेगी।

    लेकिन अदालत के फैसले से मुझे डर लगने लगा है कि हाई कोर्ट के प्रतिनिधि एक हाथ में भारतीय दंड़ संहिता की नग्नता, अश्लीलता संबंधी धाराओं को लेकर बैठें और दूसरे हाथ में इंची टेप लेकर बैठे तो विश्व सुंदरियाँ नग्नता के मुकदमें में फस सकती हैं। क्योंकि ये सुंदरियाँ एकाध ड्रेस इस तरह का पहनती हैं, जिसमें उनकी तीन फिट की टाँग सवा तीन फीट तक नंगी दिख जाती है। स्वीमिंग सूट वो कुछ ऐसा पहनती है कि किसी मच्छर तक के लिए उसमें प्रवेश करना आत्महत्या का प्रयास करना होगा। मिस वर्ल्ड की प्रतियोगिता को मॉनिटर करने वाले उच्च न्यायालय के दल के एक-एक सदस्य का विश्वामित्र से बड़ा साधक होना जरूरी है। मैं यह चेतावनी इसलिए देना चाहता हूँ विश्वामित्र जैसे साधक मेनका को देखकर आपा खो बैठे थे। उच्च न्यायालय यह ध्यान रखे कि उनके मॉनिटर करने वाले दल में विश्वामित्र वाली कमजोरी किसी में न हो। हाईकोर्ट ने बड़ा ही नाजुक बीड़ा उठाया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि बाद में कोई यह आरोप न लगा सके कि हाई कोर्ट ने सुंदरियों के साथ पक्षपात किया। आखिर तो वहाँ सत्तासी देशों की मेनकाएँ होंगी।

शुक्र के प्लॉट बेच दीजिए


मकान, फ्लैट, फार्महाऊस, फैक्टरी, दुकान, शोरूम आदि की खरीद-बिक्री और किराए पर चढ़ाने वाले दलालों, जिन्हें प्रोपर्टी डीलर कहते हैं, कि इन दिनों चाँदी-ही-चाँदी है। वे खरीददारों व किराएदारों से भी कमीशन लेते हैं और मालिकों से भी बड़े-बड़े शहरों और विकासमान नगरों में आज यह लाखों लोगों का धंधा बन गया है। जैसे-जैसे जमीन और किराए में बढोत्तरी हो रही है वैसे-वैसे इनकी ज्यादा चाँदी हो रही है। इनका धंधा अब पृथ्वी के शहरों तक ही सीमित नहीं है। कैलीफोर्निया के एक प्रोपर्टी डीलर ने चंद्रमा के सात सौ प्लाट बेच दिए हैं। एक-एक हेक्टेयर के ये प्लाट आज इस मँहगाई के जमाने में भी साढ़े पाँच सौ रूपए प्रति प्लाट के हिसाब से बिक गए। पृथ्वी के बड़े शहरों में साढ़े पाँच सौ रूपए में एक वर्ग इंच जमीन भी नहीं आती। कहीं कीमत दस हजार रूपए प्रति वर्ग मीटर हैं तो कहीं दस लाख रूपए प्रति वर्ग मीटर। हांगकांग जैसे कुछ शहर तो ऐसे हैं कि जहां एक प्लाट खरीदने में छोटे-मोटे बैंक का दिवाला पिट जाए।
    
 कैलिफोर्निया के प्रोपर्टी डीलर ने जब चांद पर प्लाट बेचना चालू कर दिया तो उस पर जर्मनी के मार्टिन जुएरजेन ने सरकारी अधिकारियों से इसके खिलाफ आपत्ति दर्ज करवाई है। दावा किया कि चांद तो उनकी संपत्ति है।

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