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मानक हिन्दी का स्वरूप

भोलानाथ तिवारी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :210
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2615
आईएसबीएन :81-7315-164-4

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इसमें हिन्दी भाषा के मानक स्वरूप पर अपेक्षित विस्तार से प्रकाश डाला गया है.....

Manak Hindi Ka Swaroop

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी एक समर्थ भाषा है। उसका साहित्य भी सम्पन्न है, अब तो वह और भी सम्पन्न होता जा रहा है, किन्तु अभी तक हिन्दी भाषा का मानक स्वरूप स्थिर नहीं हो पाया है। यही कारण है कि उच्चारण, वर्तनी, लेखन, रूपरचना, वाक्यगठन, और अर्थ आदि सभी क्षेत्रों में पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, भाषणों एवं बातचीत में अनामक प्रयोग प्रायः मिलते हैं। इसी समस्या पर व्यापक रूप से विचार करने के उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी गई है।

प्रारम्भ में मानक भाषा और उसके प्रकारों को लिया गया है, ताकि मानक हिन्दी को ठीक परिप्रेक्ष्य में समझा जा सके। किसी भाषा की मानकता-अमानकता काफी कुछ उसकी बोलियों से जुड़ी होती हैं, अतः हिन्दी के क्षेत्र और उसकी बोलियों को लेना पड़ा है। फिर हिन्दी के मानकीकरण का इतिहास देते हुए हिन्दी में नागरी लिपि और अंकों, हिन्दी के संख्यावाचक शब्दों, हिन्दी उच्चारण, हिन्दी संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया तथा क्रिया विशेषण के रूपों, हिन्दी वाक्य रचना, हिन्दी में प्रयुक्त शब्दों और उनके अर्थ, हिन्दी की प्रयुक्तियों तथा शैलियों आदि पर मानकता की दृष्टि से विचार किया गया है। अंत में परिशिष्ट मानक-अमानक प्रयोगों के कुछ उदाहरण हैं।

इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तक में हिन्दी भाषा के मानक स्वरूप पर अवेक्षित विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यह पुस्तक हिन्दी भाषा और भाषा-विज्ञान में रुचि रखने वाले लेखकों, संपादकों, पाठकों और विद्यार्थियों आदि सभी वर्ग के लोगों के लिए पठनीय एवं संग्रहणीय है।


दो शब्द



समय-समय पर ‘मानक भाषा’, ‘मानक हिंदी’ और ‘मानक हिंदी का स्वरूप’— जैसे विषयों पर सोचने, लिखने तथा देश-विदेश में बोलने का अवसर मिलता रहा है। प्रस्तुत पुस्तक उन्हीं सबका समेकित रूप है। वस्तुतः मानक रूप प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील किसी भी भाषा के मानक के रूप पर अंतिम रूप से कुछ कहना कठिन होता है। पिछले वर्ष मेरी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी—हिंदी उच्चारण कोश उसे तैयार करते समय भी यह बात बार-बार मुझे परेशन करती रही। यों इस कठिनाई के बावजूद इस तरह के प्रयास करते रहने से ही ऐसी समस्याओं का समाधान संभव होता है, इसलिए प्रयास होते रहने चाहिए। हाँ यह अवश्य है कि इन प्रयासों में प्रायः ऐसे अनेक स्थान मिल जाते हैं जिन्हें लेकर मतभेद की गुंजाइश होती है। मेरा प्रयास प्रायः यह रहा है कि ऐसे उच्चारण और प्रयोग आदि ही मानक माने जाएँ जो परम्परा-समर्थित तो हों ही, सुशिक्षित मातृभाषियों को भी मान्य हो।

विश्वास है यह पुस्तक मानक हिंदी और उसके स्वरूप को समझने-समझाने में सहायक सिद्ध होगी।
पुस्तक की छपाई के समय पूरी जिम्मेदारी भाई एम. एस. राणा पर छोड़ कर मुझे अमेरिका जाना पड़ा। उन्होंने इसकी पांडुलिपि भी आद्यंत देखी और प्रूफ़-संशोधन का दायित्व बख़ूबी निभाया। इस सहयोग के लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। वस्तुतः श्री राणा का हिंदीभाषा पर अच्छा अधिकार है जिसका मैंने लाभ उठाया है।

भोलानाथ तिवारी


एक
मानक भाषा और उसके प्रकार
मानक


‘मानक’

शब्द अपने वर्तमान अर्थ में संस्कृत में नहीं आया है। हाँ, उसमें शब्द लगभग इस अर्थ में अवश्य है। ‘मान’ का संस्कृत में अर्थ ‘माप’, ‘मापदण्ड’, ‘मानदण्ड’ या पैमाना आदि है। ‘मान’ में स्वार्थे प्रत्यय ‘क’ के योग से अंग्रेजी ‘स्टैंडर्ड’ के प्रतिशब्द के रुप में ‘मानक’ शब्द बनाया गया है, किन्तु यह निर्माण हिंदी में 1945 के आसपास हुआ।
 
इस अर्थ में संज्ञा तथा विशेषण दोनों ही रूपों में पहले डॉ. रघुवीर ने ‘प्रमाप’ शब्द बनाया था किंतु वह चला नहीं। हिंदी के पुराने कोशों जैसे ‘हिंदी शब्द सागर’ (पहला संस्करण) या ‘वृहतहिंदी कोश’ (प्रारंभिक कई संस्करणों) में इसीलिए ‘मानक’ शब्द इस अर्थ में नहीं आया है। रामचंद्र वर्मा के 1949 में प्रकाशित ‘प्रामाणिक हिंदी कोश’ में सबसे पहले यह शब्द इस अर्थ में आया है जहाँ इसकी व्याखाया दी गयी हैः वह निश्चित या स्थिर किया हुआ सर्वमान्य मान या माप जिसके अनुसार किसी की योग्यता, श्रेष्ठता, गुण आदि का अनुमान या कल्पना की जाए (स्टैंडर्ड)। हिन्दी में मानक शब्द विशेषण तथा संज्ञा दोनों ही रूपों में आता है। ‘मानक भाषा’ में यह विशेषण है तो ‘मानक भवन’ (एक सरकारी कार्यालय) जो वस्तुओं के मानकीकरण से संबद्ध कार्य करता है) में संज्ञा।


मानक भाषा



हिंदी में ‘मानक भाषा’ के अर्थ में पहले ‘साधु भाषा’, ‘टकसाली भाषा’, ‘शुद्ध भाषा’, ‘आदर्श भाषा’ तथा ‘परिनिष्ठित भाषा’ आदि का प्रयोग होता था। अँग्रेज़ी शब्द ‘स्टैंडर्ड’ के प्रतिशब्द के रूप में मान’ शब्द के स्थिरीकरण के बाद ‘स्टैंडर्ड लैंग्विज’ के अनुवाद के रूप में ‘मानक भाषा’ शब्द चल पड़ा।
अँग्रेज़ी ‘स्टैंडर्ड’ शब्द की व्युत्पत्ति विवादास्पद है। कुछ लोग इसे ‘स्टैंड’ (खड़ा होना) सो जोड़ते हैं तो कुछ लोग एक्सटैंड ‘बढ़ाना’ से। मेरे विचार में यह ‘स्टैंड’ से संबद्ध है। वह जो कड़ा होकर, स्पष्टतः औरों से अलग प्रतिमान का काम करे। ‘मानक भाषा’ भी अमानक भाषा-रूपों से अलग एक प्रतिमान का काम करती है। उसी के आधार पर किसी के द्वारा प्रयुक्त भाषा की मानकता अमानकता का निर्णय किया जाता है।

‘मानक भाषा’ को लोगों ने तरह-तरह से स्पष्ट करने का यत्न किया है। रॉबिन्स (1966) के अनुसार सामाजिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण लोगों की बोली को मानक भाषा का नाम दिया जाता है। स्टिवर्ट (1968) ने प्रकृति, आंतरिक व्यवस्था तथा सामाजिक प्रयोग आदि के आधार पर भाषा के विभिन्न प्रकारों में अंतर दिखाने के लिए चार आधार माने हैं।

(1)    ऐतिहासिकता (History)—

‘ऐतिहासिकता’ का अर्थ है, भाशा की प्राचीन परम्परा और काल की दृष्टि से उसका विकास। अधिकांश भाषाएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फिर दूसरी से तीसरी तक और ऐसे ही आगे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं। यही उनकी ऐतिहासिकता है। यह उल्लेख है कि एस्पिरैंतो, इदो, लौंग्लन जैसी कृतिम भाषाओं में इस ऐतिहासिकता का अभाव होता है।

(2)    मानकीकरण (Standardization)—

अर्थात भाषा को एक मानक रूप देना। ऐसा रूप जिसमें प्राप्त सभी विकल्पों में एक को मानक मान लिया गया हो तथा जिस भाषा रूप को उस भाषा के सारे बोलने वाले मानक स्वीकार करते हों। यह बात ध्यान देने की है कि सारे विश्व की अधिकांश समुन्नत भाषाओं का मानक रूप होता है, जबकि अवभाषा (वर्नाक्यूलर), बोली क्रियोल आदि का मानक रूप नहीं होता। मानकीकरण के कारण ही कोई भाषा अपने पूरे क्षेत्र में शब्दावली तथा व्याकरण की दृष्टि से समरुप होती है, इसीलिए वह सभी लोगों के लिए बोधगम्य भी होती है। साथ ही वह सभी लोगों द्वारा मान्य होती है अतः अन्य भाषा रूपों की तुलना में वह अधिक प्रतिष्ठित भी होती है।



(3)     जीवंतता ( Vitality)—

अर्थात भाषा का प्रयोक्ता कोई समाज हो जिसमें बोलचाल तथा लेखन आदि में उस भाषा का प्रयोग होता हो। जीवंत भाषा में निरंतर विकास होता रहता है। विश्व में बोली जाने वाली सभी भाषाओं और बोलियों में जीवंतता मिलती है। हाँ, संस्कृत, लैटिन, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश जैसी पुरानी या क्लासिकी भाषाएँ आज सामान्य प्रयोग में नहीं हैं, इसीलिए उनमें जीवंतता नहीं मानी जा सकती।

(4)    स्वायत्तता (Autonomy)—

स्वायत्तता से आश्य है अपने अस्तित्व के लिए किसी भाषा का किसी अन्य भाषा पर निर्भर न होना। सामान्यतः भाषाएँ स्वायत्तता होती हैं, किंतु बोलियाँ स्वायत्त नहीं होतीं; वे अपने अस्तित्व के लिए भाषा पर निर्भर करती हैं। इसीलिए हमें प्रत्येक बोली के लिए यह कहना पड़ता है कि वह बोली अमुक भाषा की है किंतु भाषा के संबंध में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।

इन आधारों को लेकर हम विचार करें तो क्लासिकी भाषा में ऐतिहासिकता होती है, मानकता होती है, किंतु जीवंतता नहीं होती, बोली में मानकता तथा स्वायत्तता नहीं होती, अवभाषा (वर्नाक्यूलर) में मानकता नहीं होती क्रतिम भाषा में केवल मानकता होती है, पिजिन में मात्र ऐतिहासिकता होती है, क्रियोल में अन्य सभी होती है, किंतु मानकता नहीं होती। मानक भाषा में ये चारो ही विशेषताएँ होती हैं। वस्तुतः स्टिवर्ट की ये बातें यह तो बतलाती हैं कि मानक भाषा में उपर्युक्त चार विशेषताएँ होती हैं, ‘किंतु मानक भाषा में मानकता भी होती है’ का तब तक कोई अर्थ नहीं, जब तक कि हम यह न बताएँ कि मानकता क्या है।

मेरे अपने विचार में मानकता में निम्नांकित बातें आती हैं—
 

(1)    मानकता का आधार कोई व्याकरणिक या भाषावैज्ञानिक तथ्य अथवा नियम नहीं होते। इसका आधार मूलतः सामाजिक स्वीकृति है। समाज विशेष के लोग भाषा के जिस रूप को अपनी मानक भाषा मान लें, उनके लिए वही मानक हो जाती है।

(2)    इस तरह भाषा की मानकता का प्रश्न तत्त्वतः भाषाविज्ञान का न होकर समाज-भाषाविज्ञान का है। भाषाविज्ञान भाषा की संरचना का अध्ययन करता है, और संरचना मानक भाषा की भी होती है और अमानक भाषा की भी। उसका इससे कोई संबंध नहीं कि समाज किसे शुद्ध मानता है और किसे नहीं। इस तरह मानक भाषा की संकल्पना को संरचनात्मक न कहकर सामाजिक कहना उपयुक्त होगा।

(3)    जब हम समाज विशेष से किसी भाषा-रूप के मानक माने जाने की बात करते हैं, तो समाज से आशय होता है सुशिक्षित और शिष्ट लोगों का वह समाज जो पूरे भाषा-भाषी क्षेत्र में प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है। वस्तुतः उस भाषा-रूप की प्रतिष्ठा उसके उन महत्त्वपूर्ण प्रयोक्ताओं पर ही आधारित होती है। दूसरे शब्दों में उस भाषा के बोलनेवालों में यही वर्ग एक प्रकार से मानक वर्ग होता है।

(4)    समाज द्वारा मान्य होने के कारण भाषा के अन्य प्रकारों की तुलना में मानक भाषा की प्रतिष्ठा होती है। इस तरह मानक भाषा सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक है।

(5)    सामान्यत- मानक भाषा मूलतः किसी देश की राजधानी या अन्य दृष्टियों से किसी महत्त्वपूर्ण केन्द्र की बोली होती है, जिसे राजनीतिक अथवा धार्मिक अथवा सामाजिक कारणों से प्रतिष्ठा और स्वीकृति प्राप्त हो जाती है।
(6)    बोली का प्रयोग अपने क्षेत्र तक सीमित रहता है, किंतु मानक भाषा का क्षेत्र अपने मूल क्षेत्र के भी बाहर अन्य बोली-क्षेत्रों में होता है।

(7)    यदि किसी भाषा का मानक रूप है तो साहित्य में, शिक्षा के माध्यम के रूप में, अंतःक्षेत्रीय प्रयोग में तथा सभी औपरचारिक परिस्थितियों में उस मानक रूप का ही प्रयोग होता है, अमानक रूप या बोली आदि का नहीं।
(8)    किसी भाषा के बोलने वाले अन्य भाषा-भाषियों के साथ प्रायः उस भाषा के मानक रूप का ही प्रयोग करते हैं, किसी बोली का अथवा अमानक रूप का नहीं।

संक्षेप में—
‘मानक भाषा’ किसी भाषा के उस रूप को कहते हैं  जो उस भाषा के पूरे क्षेत्र में शुद्ध माना जाता है तथा जिसे उस प्रदेश का शिक्षित और शिष्ट समाज अपनी भाषा का आदर्श रूप मानता है और प्रायः सभी औपचारिक परिस्थितियों में, लेखन में, प्रशासन और शिक्षा, के माध्यम के रुप में यथासाध्य उसी का प्रयोग करने का प्रयत्न करता है।

भाषाओं को मानक रूप देने की भावना जिन अनेक कारणों से विश्व में जगी, उनमें सामाजिक आवाश्यकता, प्रेस का प्रचार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास से एकरूपता के प्रति रूझान तथा स्व की अस्मिता आदि मुख्य हैं। यहाँ इनमें  एक-दो को थोड़े विस्तार से देख लेना अन्यथा न होगा। उदाहरण के लिए मानक भाषा की सामाजिक आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। किसी भी क्षेत्र को लें, सभी बोलियों में प्रशासन साहित्य-रचना, शिक्षा देना या आपस में बातचीत कठिन भी है, अव्यावहारिक भी। हिन्दी की ही बात लें तो उसकी बीस-पच्चीस बोलियों में ऐसा करना बहुत संभव नहीं है। आज तो कुमायूंनी भाषी नामक हिंदी के जरिए मैथिली भाषी से बातचीत करता है किंतु यदि मानक हिंदी न होती तो दोनों एक दूसरे की बात समझ न पाते। सभी बोलियों में अन्य बोलियों के साहित्य का अनुवाद भी साधनों की कमी से बहुत संभंव नहीं है, ऐसी स्थिति में शैलेश मटियानी (कुमायूँनी भाषा) के साहित्य का आनंद मैथिली भाषी नहीं ले सकता था, न नागार्जुन (मैथिली भाषी) के साहित्य का आनंद कुमायूँनी, गढ़वाली या हरियानी भाषी। इस तरह सभी बोलियों के ऊपर एक मानक भाषा को इसलिए आरोपित करना, अच्छा या बुरा जो भी हो, उसकी सामाजिक अनिवार्यता है और इसलिए विभिन्न क्षेत्रों में कुछ मानक भाषाएँ स्वयं विकसित हुई हैं, कुछ की गई हैं और उन्होंने उन क्षेत्रों को काफी़ दूर-दूर तक समझे जानेवाले माध्यम के रूप में अनंत सुविधाएं प्रदान की हैं। ऐसे ही प्रेस के अविष्कार तथा प्रचार ने भी मानकता को अनिवार्य बनाया है।
 




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