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जड़ी बूटियों का संसार

दीनानाथ तिवारी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2617
आईएसबीएन :81-7315-345-0

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इसमें पचास प्रमुख जड़ी-बूटियों के संबंध में उपयोगी, प्रामाणिक, विश्वसनीय व लाभकारी जानकारी दी गई है...

jari-bootiyon ka sansar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

प्राचीन काल से ही मनुष्य वनस्पतियों का प्रयोग औषधि के रूप में विभिन्न रोगों से शमन के लिए करता रहा है। इस आधार पर चिकित्सा को सर्वसुलभ, प्रतिक्रियाहीन तथा सस्ता बनाया जा सकता है। जड़ी-बूटियों उपचार मनुष्य के बढ़ते हुए रोगों की रोकथाम में असाधारण रूप से सहायक हो सकता है। इनमें मारक गुण कम और शोधक अधिक होते हैं। ये जड़ी-बूटियां रोगों को दबाती नहीं, वरन् उखाड़ती और भगाती हैं। जीवनी-शक्ति संवर्धक जड़ी-बूटियाँ अब पंसारियों की दुकानों में सड़ी-गली, घुन लगी स्थिति में पड़ी होती हैं, अत: इसके प्रयोग से स्वास्थ्य लाभ संभव नहीं है। सही जड़ी-बूटियाँ उपयुक्त क्षेत्र से, उपयुक्त मौसम में एकत्र की जाएँ, उन्हें सही ढंग से रखा और प्रयुक्त किया जाए तो आज भी इनका चमत्कारी प्रभाव देखा जा सकता है।

समग्र स्वास्थ्य हेतु जड़ी-बूटियों की अपरिहार्य आवश्यकता विश्व भर में अनुभव की जा रही है। भारत की वैदिक विविधता (विशेषकर वनस्पतियों) ने संपूर्ण विश्व को आकर्षित किया है। जड़ी-बूटी उपचार शारीरिक व मानसिक व्याधियों के निवारण में निर्विवाद रूप से अमृतोपम है। अभी नब्बे प्रतिशत जड़ी-बूटियाँ वनों से निकाली जाती हैं, जिसमें बहुत सी नष्ट हो जाती हैं। जन-साधाराण को वनौषधि विज्ञान की महत्ता को समझाया जाना चाहिए साथ ही जड़ी-बूटियों की पौधशालाएँ लगाकर आरोपण, विकास तथा प्रबंधन कार्य आवश्यक है। यह प्रक्रिया आर्थिक दृष्टिकोण से भी उपयोगी है।
आयुर्वेद, यूनानी सिद्ध होम्योपैथी, आमची (तिब्बतीय चिकित्सा) तथा ऐलोपैथी में जड़ी-बूटियों का उपयोग होता है। कृत्रिम औषधियों के दुष्प्रभाव से पीड़ित समस्त विश्व वनौषधियों की ओर अग्रसर है। विश्व में इस समय जड़ी-बूटी का व्यापार दो लाख चौंसठ हजार करोड़ रुपए का ही तथा इसके निर्यात से चीन प्रतिवर्ष बाईस हाजर पाँच सौ करोड़ रुपए अर्जित करना है। हम भी जड़ी-बूटियों का समुचित विकास करके देशवासियों को दवा उपलब्ध कराने के साथ साथ प्रतिवर्ष निर्यात द्वारा बीस हजार करोड़ रुपए अर्जित कर सकते हैं।

जड़ी-बूटियों से निर्मित दवाएँ जहाँ हानि रहित हैं वहीं आर्थिक दृष्टि से निर्यात में ये अत्यंत लाभकारी हो सकती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि जड़ी-बूटियों की उपचार पद्धति को पुनर्जीवित किया जाए, इनके उपयोग का विज्ञान सम्मत तरीका ढूँढ़ा जाए तथा गुण एवं प्रयोगों का मानकीकरण किया जाए। हमें विषैले प्रमाणों से रहित औषधियों से रोगों को समूल नष्ट करने की क्षमता प्रदर्शित करनी है।
आहार एवं औषधि प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होनेवाली जड़ी-बूटियाँ अपने आपमें पूर्ण हैं, इनमें प्रत्येक की संरचना अनेक यौगिकों, क्षारों, रसायनों एवं खनिजों के सम्मिश्रण से हुई हैं, इसलिए इनमें प्रत्येक जड़ी-बूटी परिपूर्ण है। आज ‘एकौषधि पद्धति’ पर विशेष बल दिया जा रहा है। एक रोग में एक समय पर एक ही जड़ी-बूटी देने का निर्धारण तर्कसंगत हो सकता है। इनमें कठिन रोगों की सरल चिकित्सा संभव है। प्रत्येक जड़ी-बूटी स्वयं में समग्र है।

‘उत्थान’-सतत विकास एवं गरीबी उन्मूलन केंद्र ‘हरियाली जीवन, वनौषधि प्राण’ का नारा देकर जड़ी-बूटियों के विकास एवं उनके सतत उपयोग को बढ़ावा दे रहा है, ताकि शारीरिक व मानसिक व्याधियों के निवारण के साथ जैविक विविधता एवं पर्यावरण को संरक्षित तथा सुरक्षित रखा जा सके। ‘उत्थान’ ने प्रयाग में वनौषधियों की बड़ी रोपणी विकसित की है। वहाँ लोगों को प्रशिक्षित किया जाता है तथा बीज एवं पौधे दिए जाते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक से एक ओर जहाँ जन-साधारण को जड़ी-बूटियों के बारे में जानकारी प्राप्त होगी वहीं दूसरी ओर उनके आरोपण, विकास एवं व्यापार प्रक्रिया अग्रसर होगी। जीवनी-शक्ति बढ़ाने वाली इस विद्या से परिचित होना सभी के लिए अभीष्ट है।
यह मानवता की सबसे बड़ी सेवा होगी तथा निर्धारित समय सीमा के भीतर ‘सबको स्वास्थ्य’ उपलब्ध कराया जा सकेगा। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय हेतु किया गया यह प्रयास सबके लिए मंगलकारी, होगा।

डॉ. दीनानाथ तिवारी

अपामार्ग


अपां दोषानं मार्जयति, संशोधयति इति अपामार्ग :।

[-जो दोषों का संशोधन, करे, उसे अपामार्ग कहते हैं।]

प्रजाति                 -           अपामार्ग (चिरचिरा)।
वैज्ञानिक नाम       -           आकीरांतेस आस्पेरा लिन.।*
अंग्रेजी नाम           -             प्रिक्ली चैफ फ्लावर।
हिंदी नाम             -            चिरचिरा, लटजीरा।
क्षेत्रीय नाम           -           बँगला-आपांग, मराठी-आघाड़ा, गुजराती-अँघेड़ी, कन्नड़ उत्तरणी, तेलुगु-अपामार्गमु, तमिल-वायुरवि, मलयालम, वलियकटलाट।
परिवार               -            अमरांतासी।

प्राप्ति स्थान-यह पौधा भारत के प्रायः सभी प्रांतों में जंगली अवस्था में शहरों तथा गाँवों में मिलता है। वर्षा के साथ ही यह अंकुरित होता है; ऋतु के अंत तक बढ़ता है तथा शीत ऋतु में पुष्प-फलों से शोभित होता है; ग्रीष्म ऋतु हरी गुलाबी कलियों से युक्ति तथा बीज चावल सदृश होते हैं, जिन्हें तांडूल कहते हैं।

पहचान-यह एक छोटे कद का 1 से 3 फीट ऊँचा क्षुप है। शाखाएं पतली, अशक्त कांडवाली और इसकी पर्व (गाँठ) मोटी तथा कुछ फूली हुई होती
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*इस पुस्तक में वैज्ञानिक नामो के देवनागरी में लैटिन उच्चारण ‘मानव उपयोगी वनस्पतियों और प्राणियों के वंश तथा जाति नामों का कोश’-(सी.एस.आई.आर.) के आधार पर दिए गए हैं।
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हैं। पत्ते गोल, अंडाकार एवं नुकीले और लगभग 3 से 4 इंच लंबे होते हैं। पत्ते एवं शाखाएँ सूक्ष्म, सफेद रोमों से आच्छादित होते हैं। पुष्पदंड लगभग 1.5 फीट लंबा होता है, जिसपर लाल-गुलाबी पीलापन लिये फूल गुँथे रहते हैं। इसी पुष्पदंड पर काँटेदार, छोटे छोटे फूल उलटे लगते हैं। इन काँटेदार फूलों से जब कोई प्राणी स्पर्श करता हुआ गुजरता है तो ये उसके साथ या उसके कपड़ों के साथ चिपक जाते हैं। शरद ऋतु के अंत में पंचांग का संग्रह करके छाया में सुखाकर बंद पात्रों में रखते हैं। बीज तथा मूल को पौधे के सूखने पर संग्रहीत करते हैं। इन्हें एक वर्ष तक प्रयुक्त किया जा सकता है।


चिकित्सा में उपयोगी अंग

अपामार्ग मूलतः मानस रोगों के लिए मुख मार्ग से प्रयुक्त होता है, पर बाह्य प्रयोग के रूप में भी इसका चूर्ण मात्र सूँघने से आधासीसी का दर्द, बेहोशी और मिरगी में आराम मिलता है। नेत्र रोगों में इसका अंजन लगाते हैं और कर्णशूल में अपामार्ग क्षार सिद्ध तेल।

चर्म रोग में इसके मूल को पीसकर प्रयुक्त करते हैं। इसके पत्रों का स्वरस दाँतों के दर्द में लाभ पहुँचाता है तथा पुरानी-से-पुरानी केविटी को भरने में मदद करता है। व्रणों, विशेषकर दूषित व्रणों में इसका स्वरस मलहम के रूप में लगाते हैं।
इसका बाह्य प्रयोग विशेष रूप से जहरीले जानवरों के काटे स्थान पर किया जाता है। कुत्ते के काटे स्थान पर तथा सर्प दंश, वृश्चिक दंश एवं अन्य जहरीले कीड़ों के काटे स्थान पर ताजा स्वरस तुरंत लगा देने से जहर उतर जाता है। यह घरेलू-ग्रामीण उपचार के रूप में प्रयुक्त एक सिद्ध प्रयोग है। काटे स्थान पर बाद में पत्तों को पीसकर उनकी लुगदी बाँध देते हैं, इससे व्रण दूषित नहीं हो पाता तथा विष के संस्थानिक प्रभाव भी नहीं होते। बर्र आदि के काटने पर भी अपामार्ग को कूट-पीसकर बनाई लुगदी का लेप करते हैं तो सूजन नहीं आती। शोथ, वेदनायुक्त विकारों में इसका लेप करते हैं अथवा पुल्टिस बनाकर सेंकते हैं। इससे वेदना मिटती है और धीरे-धीरे सूजन उतर जाती है।


अपामार्ग औषधि-  
पाचक, दीपक रोचक तथा भोजन में रुचि उत्पन्न करने वाला होता है।

प्रयोग

क.    पचांग का क्वाथ भोजन के पूर्व सेवन से पाचन रस में वृद्धि होकर शूल कम होता है। भोजन के दो से तीन घंटे पश्चात् पंचांग का गरम-गरम क्वाथ पीने से अम्लता कम होती है तथा श्लेष्मा विनयन होता है, यकृत पर अच्छा प्रभाव होकर पित्तस्राव उचित मात्रा में होता है, जिस कारण पित्ताशमरी तथा अर्श में लाभ होता है।

ख.    सर्प विष, बिच्छू के काटने, पागल कुत्ते के काटने और चूहे के काटने में इसकी मूल जल में पीसकर पिलाते हैं तथा पंचांग, मूल या बीजों को पानी में पीसकर इसका लेप करने से लाभ होता है।
ग.    आँख की फूली में अपामार्ग के मूल को मधु के साथ मिलाकर इसका अंजन आँख में करने से लाभ होता है।
घ.    दंतशूल में पत्र स्वरस मसूड़ों पर मलने से लाभ होता है। इसके अतिरिक्त अपामार्ग की शाखा (टहनी) से दातून करने से लाभ होता है।
ङ.    संधिशोथ में इसके पत्तों को पीसकर एवं गरम करके संधिशोथ ग्रस्त भाग पर बाँधने से लाभ होता है।
च.    अपामार्ग के पंचांग-क्वाथ से स्नान करने पर कंडू रोग दूर होता है।

अर्जुन


ककुभः शीतलो हृद्यः क्षतक्षय विषास्त्रजित्।
मेदोमेहव्रणान् हन्ति तुवरः कफपित्तहृत।।
भावप्रकाश

[यह हृद्य, संधानीय, वृणरोपक, स्तंभक तथा बल्य होता है। इसका योग प्रयोग हृदय रोग, अस्थि भग्न, शोथ रोग, सामान्य दौर्बल्य व रक्तपित्त में किया जाता है।]

प्रजाति                - अर्जुन।
वैज्ञानिक नाम      - तेर्मिनालिआ अर्जुन (रौक्स.) वाइट एवं आर्नेट।
अंग्रेजी नाम         - अर्जुन।
हिंदी नाम           –  अर्जुन।
क्षेत्रीय नाम         –  अर्जुन।
ट्रेड नाम             - अर्जुन
परिवार              - कोम्ब्रेतासी।

विवरण

यह एक विशाल सदाबाहर वृक्ष होता है जिसका छत्र फैलाव लिये होता है तथा नीचे की ओर लटकी हुई शाखाएँ बहुत मोटी होती हैं। गुलाबी-भूरे चिकने, पतले फ्लैक्स में निकल रही छाल तथा खुरदरा अंडाकार, 10 से 15 सें.मी. लंबाई का कठोर, पाँच सात कोणीय पंखोंवाला फल पाया जाता है। यह वृक्ष प्रायः नदी-नाले, सूखे पनीले मार्गों तथा तालाब के किनारों पर पाया जाता है।

छाल का विवरण

इसकी छाल पेड़ से उतार लेने पर फिर उग आती है। छाल का प्रयोग होता है, अतः उगने के लिए कम से कम दो वर्षा ऋतुएँ चाहिए। वृक्ष से छाल तीन साल के चक्र में मिलती है। छाल बाहर से सफेद, अंदर से चिकनी मोटी तथा हलके गुलाबी रंग की होती है। लगभग 4 मि.मी. मोटी यह छाल वर्षा में एक बार स्वयमेव निकलकर नीचे गिर पड़ती है। स्वाद कसैला, तीखा होता है तथा गोदने पर वृक्ष से एक प्रकार का दूध निकलता है।

संग्रहण अवधि

 फलः फरवरी से मार्च तथा छालः जनवरी से अप्रैल।

संग्रहण विधि

 अर्जुन की छाल दो वर्षाकाल अवधि में परिपक्व हो जाती है, अतः संपूर्ण उत्पादन क्षेत्र को तीन भागों में बाँट लिया जाता है। प्रथम भाग में तेज हथियार से ऊपरी तौर पर मोटी, सूखी छाल खुरचकर अलग कर ली जाती है। मुख्य तने के अतिरिक्त नीचेवाली वृक्ष शाखाओं से भी छाल खुरचकर अलग कर ली जाती है। दो वर्ष की अवधि के लिए वृक्ष को आराम दिया जाता है। पुनः तीसरे वर्ष की अवधि के लिए वृक्ष के तने से पृथक की गई छाल को एकत्र करके दो से चार दिन हलकी धूप में फैलाकर सुखाया जाता है। पूरी तरह सूखी छाल को खाली बोरों में भरकर भंडारण कर लिया जाता है।
अवैज्ञानिक ढंग से छाल निकालने से वृक्षों की क्षति होने के कारण मध्य प्रदेश में इसकी छाल निकालने पर प्रतिबंध लगाया गया है। इसी प्रकार वृक्ष के पत्ते व कोंपलों का भी स्थानीय तौर पर औषधि उपयोग में-कान के दर्द तथा मुख रोगों के उपचार हेतु-संग्रहण किया जाता है। अर्जुन के फलों का पकने पर (भूरे होने पर) संग्रहण किया जाता है और छाया में सुखाकर छिद्रयुक्त बोरों में संग्रहीत किया जाता है।

भंडारण

सूखी छाल एवं फलों को स्वच्छ बोरों में भरकर 10 से 12 प्रतिशत आर्द्रता व 20 डिग्री सेल्लियस अधितम तापमान पर भंडारित किया जाता है। भंडारण के लिए छिद्रयुक्त खाली बोरों का प्रयोग किया जाता है। छाल को सुखाकर भंडारण का उपयोगानुसार पाउडर बनाया जाता है और भंडारगृह में रखा जा सकता है। किंतु लंबी समय तक इस प्रकार प्राप्त छाल-पाउडर भंडारित करने से इसमें बोरों घटकों के गुणधर्म में परिवर्तन होना आरंभ हो जाता है। फलों को छिद्रयुक्त बोरों में नमी रहित स्थल पर भंडारित किया जाता है।

रासायनिक संघटन-अर्जुन की छाल में पाए जानेवाले मुख्य घटक हैं-बीटा साइटोस्टेरोल, अर्जुनिक अम्ल तथा फ्रीडेलिन। अर्जुनिक अम्ल ग्लूकोज के साथ एक ग्लूकोसाइड बनाता है, जिसे अर्जुनेटिक कहा जाता है। इसके अलावा अर्जुन की छाल में पाए जानेवाले अन्य घटक इस प्रकार हैं-

क.    टैनिन्स-छाल का 20 से 25 प्रतिशत भाग टैनिन्स से ही बनता है। पायरोगेलाल वे केटेकॉल-दो ही प्रकार के टैनिन होते हैं।

ख.    लवण-अर्जुन की राख में कैल्शियम कार्बोनेट लगभग 34 प्रतिशत होता है। अन्य क्षारों में सोडियम, मैग्नीशियम व अल्युमीनियम प्रमुख हैं। कैल्शियम-सोडियम पक्ष की प्रचुरता के कारण ही यह हृदय की मांसपेशियों में सूक्ष्म स्तर पर कार्य कर पाता है।

ग.    विभिन्न पदार्थ-शंकर, रंजक पदार्थ, विभिन्न अज्ञात कार्बनिक अम्ल व उनके ईस्टर्स होते हैं।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोगों के निष्कर्ष-अभी तक अर्जुन से प्राप्त विभिन्न घटकों के प्रायोगिक जीवों पर जो प्रभाव देखे गए हैं उसमें वर्णित कर्मों की पुष्टि ही होती है विभिन्न प्रयोगों द्वारा पाया गया है कि अर्जुन से हृदय की पेशियों को बल मिलता है, स्पंदन ठीक व सबल होता है तथा उसकी गति भी कम हो जाती है। स्ट्रोक वॉल्यूम तथा कार्डियक आउटपुट बढ़ती है। हृदय सशक्त व उत्तेजित होता है। इसमें रक्त स्तंभक व प्रतिरक्त स्तंभक दोनों ही गुण हैं। अधिक रक्तस्राव होने की स्थिति में या कोशिकाओं की रुक्षता के कारण टूटने का खतरा होने पर स्तंभक की भूमिका निभाता है; लेकिन हृदय की रक्तवाही नलिकाओं (कोरोनरी धमनियों) में थक्का नहीं बनने देता तथा बड़ी धमनी से प्रति मिनट भेजे जानेवाले रक्त के आयतन में वृद्धि करता है। इस प्रभाव के कारण यह शरीरव्यापी तथा वायु कोषों में जमे पानी को मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देता है। खनिज-लवणों के सूक्ष्म रूप में उपस्थित होने के कारण यह एक तीव्र हृत्पेशी उत्तेजक भी है।
प्रयोग-हृदय में शिथिलता आने पर या शोथ होने पर (क्रॉनिक कंजेस्टिव फैल्योर) अर्जुन का छाल व गुड़ को दूध में मिलाकर औटाकर पिलाते हैं। हृदयघात, हृदय सूल में अर्जुन की छाल से सिद्ध दूध अथवा 3 से 6 ग्राम छाल घी या गुड़ के शरबत के साथ देते हैं।

अर्जुन घृत बनाने के लिए 500 ग्राम अर्जुन की छाल जौकुट करके 4 कि.ग्रा. जल में पकाई जाती है। 0.25 जल शेष रहने पर अर्जुन कल्क 50 ग्राम व गाय का घी 250 ग्राम मिलाकर पाक करते हैं। जब जल उड़ जाता है, मात्र घी शेष रह जाता है तो यह सिद्ध घृत बन जाता है। 6 से 11 ग्राम मात्रा दी जाती है। यह समस्त प्रकार के हृदय रोगों में उपयोगी है। यह रक्त पित्त भी रोकता है तथा वासा पत्र के स्वरस के साथ मिलाकर देने पर तपेदिक (टी.बी.) के रोगी की खाँसी तुरंत दूर करता है।

अन्य उपयोग

कफ पित्त शामक है। स्थानीय लेप के रूप में बाह्य रक्तस्राव तथा व्रणों में पत्र स्वरस या त्वक् चूर्ण का प्रयोग करते हैं। खूनी बवासीर में खून का बहना रोकता है। वृक्षदाह व जीर्ण खाँसी में लाभ पहुँचाता है। पेशाब की जलन, श्वेत प्रदर तथा चर्म रोगों में चूर्ण रूप में लिये जाने पर लाभकारी है। सामान्य दुर्बलता के निवारण तथा विशेषोपचार में भी यह सामंजस्य की स्थिति लाने के लिए प्रयुक्त होता है। हड्डी टूटने पर इसकी छाल का स्वरस दूध के साथ देते हैं। इससे रोगी को आराम मिलता है, सूजन व दर्द कम होते हैं तथा शीघ्र ही सामान्य स्थिति आने में मदद मिलती है।

प्रजनन

अर्जुन का प्रजनन-प्रसार बीज, रूट-शूट कटिंग, ट्रांसप्लांट पौधों रूट लेयर्स तथा पॉलीबैग्स पौधों द्वारा किया जाता है। प्राकृतिक तौर पर पानी के स्रोतों के माध्यम से वनों में अर्जुन की पैदावर काफी अच्छे रूप में पाई जाती है। कृत्रिम रूप से अप्रैल से मई में एकत्र किए गए बीज, नर्सरी में रेज्ड बेड्स में बो दिए जाते हैं। बीस-तीस दिन बाद अंकुरण हो जाता है। लगभग पिचहत्तर दिन की आयु के पौधों को निकालकर रूट-शूट कटिंग बनाकर पॉलीबैग में अच्छी किस्म की मिट्टी भरकर लगा दिया जाता है। हलकी मिट्टी नर्सरी के पौधों के लिए लाभकारी है। लगभग चार से छह माह की पौध रोपण में 1.5×1.5 फीट का गड्ढा खोदकर गोबर खाद में मिट्टी या हलकी रेत मिलाकर 3×2 मी. के अंतराल पर लगा दिए जाते है। नियमित गुड़ाई व निराई पौधे की बढ़वार के लिए आवश्यक है।

उपयोगिता

छाल टेनिंग मैटेरियल के रूप में प्रयोग में लाई जाती है। प्रतिवृक्ष 9 से 45 कि.ग्रा. छाल प्राप्त होती है। छाल का औषधीय उपयोग हृदय रोग व धमनियों में रक्त प्रवाह के रोगों के लिए किया जाता है। छाल पाउडर रूप में हड्डी टूटने पर दूध के साथ इस्तेमाल की जाती है। अर्जुन के पत्तों पर टसर-रेशम कीड़े भी पाले जाते हैं। फल का उपयोग औषधि में टॉनिक के रूप में किया जाता है।

मुख्य क्रेता/बाजार-कटनी, झाँसी, कानपुर, इंदौर, ग्वालियर, दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, अहमदाबाद, अलीगढ़, कनखल, आदि इसके प्रमुख बाजार हैं।

मुख्य सावधानियाँ

वृक्ष को बिना हानि पहुँचाए ही छाल प्राप्त की जानी चाहिए। नमी रहित स्वच्छ स्थल पर ही छाल के बोरों का भंडारण किया जाना चाहिए।





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