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भारत की विज्ञान यात्रा

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :206
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2619
आईएसबीएन :81-7315-534-8

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प्रस्तुत पुस्तक भारत की विज्ञान यात्रा के मील के पत्थरों से हमारा परिचय कराती है...

Bharat Ki Vigyan Yatra a hindi book by Jayant Vishnu Narlikar - भारत की विज्ञान यात्रा - जयंत विष्णु नारलीकर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत में भारतीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी से संबद्ध दो अलग-अलग विचारधाराएँ रही हैं। एक ओर यह समझ है कि भारत ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी की राह पर देर से कदम रखा और अभी उसे काफी रास्ता तय करना है तथा दूसरी ओर यह मान्यता है कि हमारा अतीत ज्ञान से परिपूर्ण था और हम संसार का नेतृत्व करते थे।

प्रस्तुत पुस्तक भारत की विज्ञान यात्रा के मील के पत्थरों से हमारा परिचय कराती है और विज्ञान में भारत के उल्लेखनीय योगदान से हमारा गौरव बढ़ाती है। इसमें विज्ञान के अलावा सामाजिक सोच से सम्बन्धित मुद्दे भी वर्णित हैं। उच्च शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा विज्ञान एवं धर्म के बीच होने वाला संघर्ष या विवाद और जनता पर विज्ञान के अलग-अलग प्रभावों का भी वर्णन किया गया है। अंतिम अध्याय में चर्चा की गई है कि सांस्कृतिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक उद्योग ने कहीं धार्मिक व दार्शनिक तलाश के क्षेत्र को तो प्रभावित नहीं किया है ?

बहुत से अनुभवी व प्रख्यात विद्वानों द्वारा इन विषयों पर लिखा गया है, पर हिन्दी में इस नवीन विषय पर लिखी पुस्तकें प्रायः नगण्य ही हैं। वरिष्ठ वैज्ञानिक और स्थापित लेखक डॉ. जयंत विष्णु नारलीकर ने इस अभाव की पूर्ति करते हुए यह पुस्तक प्रस्तुत की है, जो अपने विषय की ठोस व सार्थक मीमांसा करते हुए पाठकों को ढेरों नई-नई जानकारियाँ देगी।

भूमिका


जब मैं बाईस वर्ष का नवयुवक था तब मैंने विज्ञान के शोध छात्र के रूप में अपना पंजीकरण कराया और मेरा लक्ष्य खगोलविज्ञान में शोध करने तथा उसे अपना कैरियर बनाने का हो गया।
यह मेरा सौभाग्य ही था कि मेरा शोध निर्देशक फ्रेड हॉयल थे, जो बीसवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध खगोलविद् थे और उन्होंने विज्ञान व विज्ञान व समाज के बीच आदान-प्रदान तथा विज्ञान के इतिहास व उत्पत्ति के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। हॉयल के उदाहरण ने मुझे दिखा दिया कि अनुसंधान में संतोष प्रगति करना तथा व्यापक मुद्दों पर रुचि का विस्तार करना एक साथ संभव है। वास्तव में यह रुचि शोध के लिए एक परिपक्व आधारभूमि तैयार करती है।

यही कारण है कि इंग्लैंड में रहते हुए, और बाद में भारत आने पर, मैंने लेखक और व्याख्यान देने में अपनी रुचि बनाए रखी। मैंने पाया कि इस उपमहाद्वीप में विज्ञान की उत्पत्ति की राह पश्चिम की राह से अलग थी। लोगों से विचार-विमर्श करने पर पता चला कि बिलकुल अलग-अलग दो विचारधाराएँ हैं। एक ओर यह समझ है कि भारत ने विज्ञान व प्रौद्योगिकी की राह पर देर से कदम रखा और अभी रास्ता तय करना है तथा दूसरी ओर यह मान्यता है कि हमारा अतीत ज्ञान से परिपूर्ण था और हम संसार का नेतृत्व करते थे। कई बार हम यह बात अत्यधिक उत्साह से कहते हैं।
इस पुस्तक ने मुझे इन दो परस्पर अलग विचारों में रुचि लेने के लिए बाध्य किया। इसके अध्यायों ने काफी हद तक ऐतिहासिक क्रम का पालन किया है, हालाँकि कई जगह क्रम बदला भी है। पहले वैदिक विरासत, जिसमें सैद्धांतिक और परा सैद्धांतिक युग का वर्णन है और फिर उसके बाद उपनिवेश काल है। इसके बाद स्वातंत्र्योत्तर काल का विवरण है तथा उसके बाद भविष्य आधारित विचार हैं। यह पुस्तक विभिन्न युगों की घटनाओं का वर्णन एक खगोलशास्त्री के दृष्टिकोण से करती है।

इस राह में विज्ञान के अलावा सामाजिक सोच से संबंधित मुद्दे भी वर्णित हैं। उच्च शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा विज्ञान एवं धर्म के बीच होनेवाले संघर्ष या विवाद और जनता पर विज्ञान के अलग-अलग प्रभावों का भी वर्णन किया गया है। अंतिम अध्याय में प्रश्न किया गया है कि सांस्कृतिक, शैक्षिक वैज्ञानिक उद्योग ने कहीं धार्मिक दार्शनिक तलाश के क्षेत्र को तो प्रभावित नहीं किया है ?
चूँकि खगोलविज्ञान के साथ मेरा लंबा साथ रहा है, अतः विज्ञान की प्रगति की समीक्षा करते समय मैंने खगोलविज्ञान पर ज्यादा ध्यान दिया है। निश्चय ही, ऐतिहासिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो खगोलविज्ञान ने वैज्ञानिक प्रगति में अहम भूमिका निभाई है। न्यूटन के काल के पश्चात् प्रयोगशाला में प्रगति की रफ्तार ने खगोलविज्ञान में होनेवाली प्रगति की रफ्तार को पीछे छोड़ दिया।

निश्चय ही मैं यह मानता हूँ कि मैं अन्य विषयों का विशेषज्ञ नहीं हूँ, पर मैंने इन सब पर साहसपूर्वक लिखा है और कई बार पाठकों के साथ अपने अज्ञान को भी बाँटा है। बहुत से अनुभवी व प्रख्यात विद्वानों ने इन विषयों पर लिखा है; पर भारत में ऐसे लेखक कम ही हुए हैं। यह पुस्तक ऐसे में एक समाधान प्रस्तुत करती है।
मैं श्री राजेश कोचर का आभारी हूँ, जिन्होंने अपनी पुस्तक ‘एस्ट्रोनॉमी इन इंडिया : पास्ट प्रेजेंट एंड फ्यूचर’ से अनेक ऐतिहासिक संदर्भों को प्रयोग करने की अनुमति दी। मैं सुश्री सरोजा भाटे का भी आभारी हूँ, जिन्होंने हमारी संयुक्त परियोजना रिपोर्ट से वह अंश अद्धृत करने की अनुमति दी, जिसमें सन् 1054 में कर्कट अधिनवतारा (क्रैब सुपननोवा) विस्फोट को देखने संबंधी भारतीय दस्तावेजों का वर्णन है।


जयंत वी. नारलीकर


अनुवादकीय


मैंने युवावस्था में श्री जयंत वी. नारलीकर का साहित्य काफी मात्रा में पढ़ा था। अतः जब उनकी पुस्तक ‘Scientific Edge’ के अनुवाद की बात आई, तो मैंने सहज ही हाँ कर दी। इसका मुझे काफी लाभ हुआ। अनुवाद के दौरान मैंने न सिर्फ अनेक दुर्लभ तथ्यों के बारे में जाना, वरन उनपर चिंतन भी किया। ध्रुव तारे की वास्तविकता, शुल्ब सूत्रों आदि के बारे में तथा वैदिक गणित व ज्योतिष के उद्गम की वास्तविकता से भी मैं अवगत हुआ। प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालयों के बारे में जानकर मुझे गर्व हुआ और वैज्ञानिक पत्रकारिता, विज्ञान कथाओं जैसे नए विषय मुझे लिखने को मिले, जो भविष्य में मेरे लिए उपयोगी हो सकते हैं।

यह पुस्तक मात्र तथ्यों का संग्रह नहीं, वरन् एक उत्कृष्ट मस्तिष्क द्वारा किए गए चिंतन का चित्रण भी है। इसमें अतीत, वर्तमान व भविष्य सभी की कल्पना की गई है। इसमें अंधविश्वासों पर तीव्र प्रहार किया गया है तथा भविष्य में शिक्षण संस्थानों एवं धर्म की भूमिका पर भी प्रकाश डाला गया है। वैज्ञानिक उपलब्धियों का गुणगान ही नहीं किया गया है, वरन् उनकी सीमाओं का अंकन और उनसे आगे बढ़ने का प्रयास भी किया गया है। अनुवाद के दौरान लेखक के भावों को समझने के लिए मेरी लेखनी को कई बार रुकना पड़ा। कई बार दूसरों से चर्चा भी करनी पड़ी। कुल मिलाकर कार्य पूरा करने पर अपार संतुष्टि मिली।

हिंदी में प्रकाशित यह पुस्तक युवाओं का मार्गदर्शन करेगी और भारतीय विज्ञान एवं वैज्ञानिकों से संबद्ध अनेक जानकारियाँ देने के साथ ही उनके मन में नई-नई कल्पनाएँ जगाएगी। इससे भारतीय विज्ञान को एक नई दिशा मिलेगी तथा भारतीयों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होगा, जिसकी आज महती आवश्यकता है।


विनोद कुमार मिश्र


खंड 1
ऐतिहासिक संदर्भ में भारतीय विज्ञान



इस पुस्तक के प्रारंभ में प्राचीनकाल में विज्ञान के क्षेत्र में भारत के बहुमूल्य योगदान पर प्रकाश डाला गया है। पहले उनका उल्खेख किया गया है जिन पर गर्व किया जा सकता है। उसके बाद उनका वर्णन है, जिन्हें बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत तो किया गया है, पर वे साधारण किस्म के तथा गोल-मोल हैं। इसमें भारत के प्राचीन विद्यापीठों, तक्षशिला, नालंदा, वाराणसी आदि का भी वर्णन है, जहाँ विधिवत् उच्च शिक्षा उसी प्रकार दी जाती थी जैसे आज आवासीय विश्वविद्यालयों में दी जाती है।

चौथे अध्याय में वर्णित है कि युग गति क्यों रुक गई ? भारत चार शताब्दियों पूर्व प्रारंभ हुई पश्चिमी विज्ञान व प्रौद्योगिकी संबंधी क्रांति में क्यों शामिल नहीं हो पाया ? अनेक कारणों में मौखिक शिक्षा पद्धति, लिखित पांडुलिपियों का अभाव आदि का वर्णन है। इन्हीं दुर्लभ पांडुलिपियों के उपलब्ध न होने के कारण तारों के विस्फोट अर्थात् अधिनवतारा (सुपरनोवा) की जानकारी भी नहीं मिल सकी।

छठे अध्याय में वर्णन है कि यूरोपीय साम्राज्यवादियों के सहयोग से भारत में वैज्ञानिक पुनरुद्धार धीमी गति से आरंभ हुआ। अंतिम अध्याय में सामाजिक सुधार के जरिए भारतीय समाज में वैज्ञानिक विचारों को स्वीकार करने की परंपरा का वर्णन है। यहाँ राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों का कृतित्व भी दरशाया गया है।

1
भारतीय विज्ञान के गौरवशाली तथ्य



जब भी भारतीय विज्ञान के बारे में चर्चा होती है तो एक विषय, जो खासकर साधारण जनों द्वारा उठाया जाता है, वह है हमारे पूर्वजों द्वारा बीते सुखद दिनों में की गई प्रगति, जो अब अतीत की बात हो गई है। जब इसपर विशद चर्चा होती है तो दावे की पुष्टि के लिए प्राचीन ग्रंथों जैसे रामायण, महाभारत या असंख्य पुराणों में से किसी में वर्णित घटनाओं, जैसे कृष्ण विवरों, निर्देशित प्रक्षेपास्त्रों (गाइडेड मिसाइल) व विश्व संहारक अस्त्र दूरस्थ स्थानों पर घटित होनेवाली घटनाओं के अवलोकन, लेसर सदृश किरणों से विनाशकाल का विस्तारण तथा मनुष्यों को काल के गाल से खींच लानेवाली दवाएँ, जिनमें मौजूद कल्पनाशीलता के आगे आधुनिक विज्ञान कथाएँ तक पानी भरने लगे, के उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं। अगर उस काल से सौ विवरण प्राप्त होते हैं तो चर्चा करने वाले यह कहते हैं कि तब उच्च प्रौद्योगिकी किसी न किसी रूप में समाज में रची बसी रही होगी, और उच्च प्रौद्योगिकी बिना उच्च कोटि के विज्ञान के संभव नहीं रही होगी। अतः हमारे पूर्वज वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नत रहे होंगे।


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