लोगों की राय

नारी विमर्श >> प्रतीक्षिता

प्रतीक्षिता

सुषमा अग्रवाल

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2623
आईएसबीएन :81-85827-91-5

Like this Hindi book 17 पाठकों को प्रिय

148 पाठक हैं

एक माँ की आशाओं, आकांक्षाओं, कल्पनाओं तथा स्वप्नों की गाथा......

Prateekshita

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी संतान को सुखी देख माँ को कितना और कैसे सुख होता है, यह वर्णनातीत है। परन्तु जिस सन्तान की प्राप्ति उसके जन्म से लेकर सदैव ही हृदय रूपी सागर में ममता का जल हिलोरें ले रहा हो, उसी संतान के माँ से दूर-बहुत दूर जाने पर ममता अश्रुओं के रूप में बह उठती है। निस्स्वार्थ ममता अपनी संतान से केवल एक आशा के अतिरिक्त कि वह अपनी संतान रूपी पुष्प के खिलने के पश्चात् उसकी सुगंध अपने पास अनुभव कर सके, कोई और अपेक्षा नहीं रखती।

माँ उसके स्नेह, करुणा, दया और ममता को आधार बनाकर ‘प्रतीक्षिता’ में उस ममतामयी माँ को चित्रित किया गया है, जिसने अपने पुत्र को शिक्षा देने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन होम दिया। तब भी अंततः उसे अकेलापन ही मिला। उसका हृदय पुत्र के आने की बाट जोहता-जोहता शिथिल पड़ गया। पुत्र-विरह ने उसके जीवन में ऐसा सूनापन घोल दिया की उसमें जीने की कोई चाह ही शेष न बची।

प्रतीक्षिता बनी माँ अपने बेटे की प्रतीक्षा कर रही।....एक लम्बा समय गुजरा...क्या बेटा आया ? हाँ, आया। परन्तु किन और कैसी परिस्थतियों में-जब माँ...
एक माँ की आशाओं, आकांक्षाओं, कल्पनाओं तथा स्वप्नों की गाथा है यह उपन्यास। पुत्र के जीवन को, उसके भविष्य को सुखी, समृद्ध और सुरक्षित बनाने हेतु एक माँ के अथक प्रयास-ये सब निश्चय ही उपन्यास में नए प्रयोग की भाँति दृष्टिगत होते हैं।
अत्यंत हृदयस्पर्शी तथा माँ की ममता को ऊँचाइयों पर ले जानेवाला उपन्यास, जो भावातिरेक की पराकाष्ठा है, किंतु कटु यथार्थ है।


भूमिका


मातृत्व की भावना नारी-हृदय को विशालता की उस ऊँचाई पर पहुंचा देती है, जहाँ स्वार्थ का कोई अस्तित्व ही नहीं होता है। अपनी कोख में शिशु के उन्नपना से लेकर उसका परिपूर्ण पालन-पोषण करने तक वह न जाने कितने कष्टों को सहन करती है, परंतु उन कष्टों की अग्नि में स्वर्ण की भाँति तपकर उसकी ममता उत्तरोत्तर निखरती व दमकती जाती है।
शिक्षा आधुनिक युग की अनिवार्य आवश्यकता है। इसीलिए शिशु के दिन-प्रतिदिन के नए क्रिया-कलापों को देखकर मंत्रमुग्ध होने के साथ-साथ बालक को पढ़ाने लिखाने के सुंदर सपने हर माँ सँजाने लगती है। माताएँ अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति जागरूक हैं। हमें इस बात का गर्व है कि आज हमारे भारतीय समाज में नारी शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

कुछ माताएँ तो धन-वैभव से परिपूर्ण न होने पर भी स्वयं अभाव का जीवन व्यतीत कर अपने बच्चों को उच्च शिक्षा देने का प्रयास करती हैं। वहाँ उनकी ममता अपने बच्चों को समाज में सम्मानजनक दरजा प्राप्त कर सफलता के शिखर पर पहुँचते देखना चाहती है, जहाँ पहुँचने की कल्पना शायद कभी उसने अपने जीवन में की हो, परंतु परिस्थितिवश वह उस शिखर पर नहीं पहुँच पाई हो। जो माताएँ स्वयं सफलता के शिखर पर पहुँच चुकी हों, वे भी अपने बच्चों को अपने से ऊँचे उठते देखना चाहती हैं। यह माँ की निःस्वार्थ ममता ही तो है। उस विशाल हृदय में पनपी ऐसी ममता अपने बच्चे से कुछ आशाएँ भी बाँध लेती है। अपनी संतान को सुखी देख उसके हृदय की बगिया में बहार आ जाती है। परंतु जिस संतान के प्रति उसके जन्म से लेकर सदैव ही हृदय रूपी सागर में ममता का जल हिलोरें ले रहा हो, उसी संतान के माँ से दूर-बहुत दूर जाने पर माँ के हृदय को क्षीण करके ममता अश्रुओं के रूप में नेत्रों से बह उठती है। निःस्वार्थ ममता अपनी संतान से केवल एक आशा के अतिरिक्त कि वह अपनी संतान रूपी पुष्प के खिलने के पश्चात् उसकी महक अपने पास अनुभव कर सके, कोई और आशा नहीं रखती।

प्रतिभा पलायन एक ऐसी समस्या है, जिसके कारण हमारे देश का पूर्ण विकास संभव नहीं हो पा रहा है। सभी शिक्षित डॉक्टर इंजीनियर व वैज्ञानिक अपने देश में शिक्षा प्राप्त करके अधिक धनोपार्जन की लालसा से विदेशों में पलायन कर जाते हैं। हमारी केंद्रीय सरकार उनकी शिक्षा पर जो विपुल धन राशि व्यय करती है, उससे विदेशी ही लाभान्वित होते हैं। बड़े-बड़े डॉक्टर इंजीनियर व वैज्ञानिक अपनी तीक्ष्ण बुद्धि व कुशल प्रतिभा के आधार पर अनेक नई खोजें व महान् कार्य करके विदेशों में प्रसिद्धि प्राप्त कर रहे हैं, यदि यही प्रतिभाएँ अपने देश के लिए कुछ करतीं तो विज्ञान तकनीक आदि के क्षेत्रों में भारत का नाम सर्वप्रथम गिना जाता।

प्रतिभाशाली डॉक्टरों, इंजीनियरों व वैज्ञानिकों के विदेशों में पलायन कर जाने पर किस प्रकार भारत के प्रति स्नेह उत्पन्न कर उन्हें स्वदेश में लौटने के लिए प्रेरित किया जाता है, इस विषय पर बहुत से लेखकों ने लिखा, परंतु मैंने इससे कुछ अलग हटकर उस ममतामयी माँ के चित्र को चित्रित करने का प्रयास किया है, जिसने अपने पुत्र को शिक्षा देने के लिए अपना संपूर्ण जीवन न्योछावर कर दिया, मगर अंततः उसे अकेलापन ही मिला। जिसका हृदय पुत्रविरह की व्यग्रता के कारण शिथिल हो गया था; जिसके जीवन में पुत्र-विरह ने ऐसा जहर घोल दिया था कि अब उसे जीने की कोई चाह ही शेष न बची थी। परंतु क्या निराशा एक ऐसा जहर नहीं है जो जीवन को खोखला कर नष्ट कर डालता है ? ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस बहुमूल्य निधि, जो मानव जीवन के रूप में हमें प्राप्त हुई है, को नष्ट कर डालना उचित नहीं है। निराशा के  अंधकारमय कुएँ में स्वयं को धकेलना आत्महत्या से कम नहीं है।

आधुनिक युग में जब शिक्षा का प्रसार दिनों दिन बढ़ता जा रहा है, ऐसी अनेक माताएँ होंगी, जो पुत्र-विरह में निराशा के अंधकार में डूब चुकी होंगी। इस उपन्यास की नायिका के माध्यम से मैंने उन शिक्षित नारियों को संदेश देने का प्रयास किया है जिनके सम्मुख इस प्रकार की परिस्थितियाँ आ चुकी हों या आनेवाली हों और जिन्हें ईश्वर द्वारा प्रदान की गई अलौकिक बुद्धि का भंडार या अन्य प्रतिभाएँ प्राप्त हों। वे किस प्रकार अनेक अमूल्य जीवन को निराशा के अंधकार में डूबने से बचा सकती हैं, इसी विचार को आप सबके सम्मुख रखने का मेरा यह छोटा सा प्रयास प्रस्तुत है।
सुषमा अग्रवाल

प्रतीक्षिता
एक


मातृत्व की भावना से ओतप्रोत लक्ष्मी अपनी गोद में लिये अपने एकवर्षीय पुत्र गौरव को देख-देखकर गीत गुनगुनाने लगी-


मेरा राजा बेटा बड़ा बनेगा,
पढ़ेगा-लिखेगा, डॉक्टर बनेगा।

माता-पिता की सेवा करेगा,
दीन-दुखियों के दुःख को हरेगा।

नहीं करेगा पैसे से सौदा,
गरीबों के दुःख को दूर करेगा।

दीन-दुखियों की सेवा करके,
भारत का मस्तक ऊँचा करेगा।

पैसा ही नहीं सबकुछ दुनिया में,
तन मन धन से सेवा करेगा।

मेरा राजा बेटा बड़ा बनेगा,
पढ़ेगा लिखेगा डॉक्टर बनेगा।

मेरा राजा बेटा बड़ा बनेगा।।

अभी लक्ष्मी अपनी मधुर ध्वनि में गीत गुनगुना ही रही थी कि पीछे के दरवाजे से उसके पति मनोहर ने कमरे में प्रवेश किया और कहा, ‘‘लक्ष्मी, आज तुम बहुत प्रसन्न नजर आ रही हो !’’
‘‘क्यों नहीं !’’ लक्ष्मी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘मेरा गौरव बड़ा होकर डॉक्टर बनेगा और अपने देश का गौरव बढ़ाएगा।’’
‘‘हाँ लक्ष्मी, हमने यही सपना देखा है कि हमारा गौरव बड़ा होकर बहुत बड़ा डॉक्टर बने; मगर सपना तो सपना ही होता है। किसी-किसी का सपना साकार भी हो जाता है और किसी का सपना केवल धूमिल छाया मात्र होकर रह जाता है।’’ यह कहकर गहरी साँस लेकर कुछ सोचने लगे।

मनोहर को विचारमग्न देखकर लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘क्या आपको ऐसा लगता है कि मेरा बेटा डॉक्टर नहीं बनेगा ?’’
‘‘नहीं-नहीं लक्ष्मी, ऐसी बात नहीं है। हमारा बेटा डॉक्टर जरूर बनेगा।’’
‘‘तब फिर आप इतने चिंतित क्यों हैं ?’’
‘‘चिंतित नहीं, लक्ष्मी। मुझे अपने पिताजी की याद आ गई। उन्होंने भी मेरे लिए एक सपना देखा था। वे मुझे इंजीनियर बनाना चाहते थे।’’

‘‘अच्छा ! फिर आप इंजीनियर क्यों नहीं बने ?’’
‘‘बस, यों समझो कि मेरे भाग्य में इंजीनियर बनना था ही नहीं।’’
‘‘यह भाग्य क्या होता है ? यदि इनसान चाहे तो सबकुछ संभव है।’’
‘‘किसी हद तक तुम ठीक कहती हो, लक्ष्मी परंतु बस, मैं ही थोड़ी लापरवाही कर गया। पहली बार में जब मेरा चयन नहीं हुआ तो मैंने सीधे बी.कॉम. एम.कॉम. करने का निर्णय ले लिया। शायद एक वर्ष और तैयारी करके मैंने परीक्षा दी होती तो आज बैंक में क्लर्क होने की अपेक्षा एक बड़ा इंजीनियर होता।’’  
‘‘हाँ, ये तो है।’’

‘‘परंतु तुम्हारे भाग्य में तो एक क्लर्क की पत्नी होना ही लिखा था।’’
‘‘छोड़िए उन बातों को। गौरव के बारे में बातें कीजिए।’’
एक लंबी आह भरते हुए मनोहर बोले, ‘‘क्या करूँ, अपने अतीत की याद बरबस आ गई। मैं तो अपने पिताजी का सपना साकार न कर सका, मगर देखो, गौरव हमारा सपना साकार कर पाता है या नहीं !’’
‘‘देख लीजिएगा आप, हमारा गौरव डॉक्टर ही बनेगा।’’
उन दोनों का वार्त्तालाप चल ही रहा था कि लक्ष्मी ने देखा, नन्हा गौरव उसकी गोद में सो गया। उसने उसे पलंग पर लिटा दिया।
निद्रामग्न के मासूम चेहरे को देख लक्ष्मी के हृदय में प्यार उमड़ पडा। उसने उसके गालों को धीरे से पुचकारा और पास बैठे अपने पति की ओर देखने लगी।
मनोहर लक्ष्मी के हृदय में उमड़े प्यार को भलीभाँति समझ रहे थे।

मनोहर को मुसकराता देख लक्ष्मी बोल पड़ी, ‘‘बच्चे कितने मासूम होते हैं ! बिलकुल निश्छल ! इनके अंदर कोई छल-कपट नहीं होता। ज्यों-ज्यों इनकी उम्र बढ़ने लगती है, त्यों-त्यों चिंताएँ इनसान को चारों ओर से घेरने लगती हैं।’’
गौरव को वहीं छोड़ लक्ष्मी भोजन परोसने के लिए उठ गई। दोनों बैठकर भोजन करने लगे। खाने की मेज पर बैठे-बैठे मनोहर लक्ष्मी की ओर एकटक निहारने लगे।
पति को अपनी ओर निहारते देख लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘आप इस तरह मेरी ओर क्या देख रहे हैं ?’’
मनोहर के नेत्रों में गर्व की भावना उभर आई। वह मुसकराते हुए बोले, ‘‘लक्ष्मी, तुम कितनी भाग्याशालिनी हो ! भगवान ने तुम्हें कितना प्यारा बेटा दिया है !’’

‘‘हाँ वह तो है।’’ लक्ष्मी ने अपनी आँखें घुमाते हुए, कहा, ‘‘मगर आप भी तो कम भाग्यशाली नही हैं।’’
‘‘हाँ, मैं तो तुमसे भी अधिक भाग्यशाली हूँ। मुझे तुम जैसी सुंदर, सुशील व पढ़ी-लिखी पत्नी मिली और साथ ही इतना प्यारा बेटा भी।’’ मनोहर ने कुछ इठलाते हुए कहा।
लक्ष्मी ने शरमाते हुए अपनी गरदन को झटका दिया और बोली, ‘‘छोड़िए जी, आप तो यों ही मजाक करते रहते हैं।’’
‘‘मजाक ! तुम मेरी बात को मजाक समझती हो ! सच, मैं तो अपने को सबसे भाग्यशाली समझता हूँ।’’ मनोहर ने बड़े गर्व से कहा।
भारतीय परंपराओं के अनुसार पुत्र-रत्न वंश को चलानेवाला एक माध्यम है। इसी मान्यता के अनुसार परिवार में कम-से-कम एक पुत्र की प्राप्ति आवश्यक मानी गई है। लक्ष्मी व मनोहर दोनों ही अपने सुंदर व स्वस्थ प्रथम पुत्र-रत्न को प्राप्त कर स्वयं को सर्वाधिक गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे।
अँगुली पकड़कर गौरव को चलना सिखाना, यदि गिर जाए तो उठाकर सीने से लगा लेना, खिलौनों के साथ उसे खेलता देख मन ही मन हर्षित होना, यदि भूख के कारण उसका रुदन प्रारंभ हो जाए तो उसे सीने से लगाकर वात्सल्य से परिपूर्ण दुग्धपान कराना, तुतली आवाज में उसके मुख से ‘अम्मा-अम्मा’ शब्द को सुनकर स्वयं को भूलोक की सर्वाधिक भाग्यशालिनी माँ अनुभव करना और स्वयं को सदैव उसके साथ विभिन्न क्रियाकलापों में व्यस्त रखना इसी में तीन वर्ष व्यतीत हो गए।

शिक्षित माता-पिता के लिए बालक को शिक्षा देना तो सर्वप्रथम कर्तव्य है। यही कारण था कि गौरव जब तीन वर्ष का हुआ तो पास के ही एक इंग्लिश स्कूल में उसे भरती करा दिया गया।
आज लक्ष्मी के हृदय में विशेष उत्साह था। उसका बेटा शिक्षा प्राप्त करने आज पहली बार स्कूल जा रहा था।
लक्ष्मी मनोहर से बोली, ‘‘आज हम दोनों गौरव को स्कूल छोड़ने चलेंगे। वह पहली बार स्कूल जा रहा है, कहीं स्कूल में रोना शुरू न कर दे।’’
‘‘नहीं लक्ष्मी, आज तो मैं नहीं जा सकता। आज मुझे बैंक समय से पहले बैंक मैनेजर शर्माजी के यहाँ आवश्यक कार्य से जाना है।’’ मनोहर ने स्पष्ट शब्दों में कहा।
‘‘ठीक है, मैं स्वयं ही गौरव को लेकर चली जाऊँगी।’’ लक्ष्मी ने बड़ी विश्वास से कहा।
‘‘वैसे गौरव को लाने ले जाने के लिए एक रिक्शा तय कर दी है; परंतु आज तो मैं ही छोड़कर आऊँगी। लौटते समय रिक्शा से आ जाएगा। मैंने रिक्शे वाले से बात कर ली है।’’

स्कूल पहुँचने पर लक्ष्मी ने देखा कि बहुत से माता-पिता अपने अपने बच्चों को पहुँचाने स्कूल में आ रहे थे। नन्हें बालक, जो आज पहली बार स्कूल आए थे, बड़े उदास से दिखाई दे रहे थे। सब एक दूसरे से अपरिचित, एक दूसरे को निहार रहे थे।
लक्ष्मी भी इन्हीं विचारों में खोई हुई थी कि कोई परिचित बच्चा दिखाई दे तो वह उस बच्चे के साथ अपने गौरव को बैठा दे। तभी स्कूल के फाटक पर एक महिला अपने बेटे के साथ कार से उतरी। अरे, यह तो उसके पड़ोस में रहनेवाली एक धनी परिवार की युवती शोभा थी। उसे देख लक्ष्मी के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ी।
शोभा ने अंदर आकर लक्ष्मी से हैलो’ कहा और पूछा, ‘‘लक्ष्मी, तुम यहाँ कैसे ?’
‘मैं अपने बेटे गौरव को छोड़ने आई थी। आज वह पहली बार स्कूल आया है।’’ लक्ष्मी ने सहज स्वर में कहा।
बातों में तेज दिखने वाली शोभा झटपट बोल पड़ी, ‘‘मैं भी अपने बेटे अभिनव को लेकर आई हूँ। आज यह भी पहली बार ही स्कूल आया है। इसलिए इसे छोड़ने चली आई हूँ।’’

लक्ष्मी ने चैन की साँस ली और बोली, ‘‘चलो, ठीक है। गौरव और अभिनव को एक साथ बिठा देंगे। दोनों की दोस्ती हो जाएगी तो फिर एक साथ खेल लिया करेंगे।’’
शोभा भी इस बात से प्रसन्न थी कि अभिनव को भी मित्र मिल गया है। इस छोटी उम्र में ये नादान बच्चे अपरिचितों को देखकर रोने लगते हैं। स्कूल में सभी बच्चे और अध्यापक उनके लिए अपरिचित ही तो थे।
लक्ष्मी ने गौरव और अभिनव को कक्षा में एक साथ बैठा दिया। कक्षा में बैठे अन्य बच्चों के भी मासूम चेहरे देखने योग्य थे। सभी खोए-खोए और उदास थे।

लक्ष्मी और शोभा उन दोनों को कक्षा में बैठाकर बाहर चली आईं। शोभा ने कार का दरवाजा खोला और बोली, ‘‘आओ लक्ष्मी कार में बैठ जाओ। तुम्हें भी तो घर ही चलना है न ! छोड़ देंगे।’’
शोभा के आग्रह पर लक्ष्मी कार में बैठ गई।
शोभा ने चालक से कहकर पहले लक्ष्मी के घर के सामने कार रुकवाई। लक्ष्मी कार से उतरी और शोभा से अपने घर चलने का आग्रह करने लगी। परंतु शोभा उस समय जल्दी में थी, इसलिए रुकने में असमर्थता प्रकट करते हुए अपने घर की ओर चल दी।
लक्ष्मी ने अपने घर का दरवाजा खोला और चैन की साँस लेते हुए सोफे पर बैठ गई, फिर मेज पर रखी पत्रिका उठाकर पढ़ने लगी। पत्रिका के पन्ने उलटते पलटते उसकी नजर एक शीर्षक पर पड़ी। माता पिता बच्चों का पालन पोषण किस प्रकार करें।’ शीर्षक को पढ़कर उसके मन में चाह हुई कि इस लेख को अवश्य पढ़ना चाहिए।
लेख को पढ़ने के पश्चात उसे लगा कि बच्चों के लिए माता-पिता का प्यार अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस प्यार के अभाव में बच्चों का पूर्णरूपेण मानसिक विकास संभव नहीं।

उसने यह बात महसूस की कि जो माता-पिता अपने बच्चों को बाहर हॉस्टल में भेज देते हैं, क्या वे अपने नन्हे मासूम बच्चों को पूरा प्यार दे पाते हैं ? आठ से दस-ग्यारह वर्ष की उम्र ऐसी होती है, जिसमें बच्चों का पूर्ण मानसिक विकास होता है और जो कुछ वे देखते हैं, उसका अमिट प्रभाव उन पर पड़ता है, परंतु जो माता-पिता अपने नन्हें बच्चों को बचपन में ही हॉस्टल में रख देते हैं, वे क्या बच्चों को अपने घर के संस्कारों से परिचित करा पाते हैं ? क्या प्यार के अभाव में वे पूर्ण रूप से विकसित हो पाते हैं ?

ऐसा कहा जाता है कि यदि जानवर को भी पालो तो उससे भी प्यार हो जाता है; परंतु यदि पालो, तब न ! यदि हम अपने बच्चों को छोटी उम्र में ही बाहर भेज देंगे, तो भला उनसे प्यार कैसे हो पाएगा ! भले ही माता-पिता को अपने बच्चे से प्यार हो; परंतु उस बच्चे के हृदय में माता-पिता के प्रति लगाव होना असंभव है।
इन सब बातों की कल्पना मात्र से ही लक्ष्मी का हृदय व्याकुल हो गया गौरव उसकी बगिया का एकमात्र पुष्प है, उसका एकमात्र सहारा है। वह अपने प्यार से गौरव की झोली भर देना चाहती थी, इसलिए उसने  निश्चय किया कि जहाँ तक संभव हो सकेगा, वह उसे अपने पास रखकर ही शिक्षा दिलाएगी।
तभी लक्ष्मी को ध्यान आया कि अभी उसका बहुत सा काम पड़ा है, इसलिए वह झटपट सोफे से उठ अपने काम में लग गई।
आज लक्ष्मी अत्यधिक प्रसन्न थी। वह गुनगुनाए जा रही थी। उस मधुर गुनगुनाहट से उसकी प्रसन्नता झलक रही थी। लगभग दो घंटे में उसने घर का सारा काम निपटा लिया था। काम समाप्त कर वह ड्राइंगरूम में आकर बैठ गई। इस समय उसकी नजरें दरवाजे की ओर लगी थीं अब उसे अपने प्यारे बेटे गौरव की प्रतीक्षा थी।
लक्ष्मी को चिंता थी कि पता नहीं, गौरव ने स्कूल में कुछ खाया होगा या नहीं ! यदि गौरव घर में होता तो उसने एक बार दूध तो पी ही लिया होता; स्कूल में कहीं वह भूखा न हो। इस कल्पना मात्र से उसका हृदय विचलित हो उठा।
उससे बैठा न गया। वह सोफे से उठी और दरवाजा खोलकर बाहर खड़ी हो गई। एक बार उसकी नजर घड़ी की ओर उठती तो दूसरी बार सड़क की ओर। उसे वहाँ खड़े-खड़े बीस मिनट हो गए थे, परंतु गौरव अभी तक नहीं आया था। ज्यों-ज्यों समय बीतता जा रहा था, त्यों-त्यों हृदय की धड़कन और तीव्र होती जा रही थी। उसे इस बात की चिंता थी कि कहीं ऐसा न हो कि रिक्शावाला ही स्कूल न पहुँचा हो।
तभी उसे दूर से बच्चों का रिक्शा आता दिखा। उसने चैन की साँस ली। जैसे ही गौरव रिक्शा से नीचे उतरा, लक्ष्मी ने उसे अपने सीने से लगा लिया।

अंदर जाकर लक्ष्मी ने पूछा, ‘‘बेटे तुम्हारे लिए लंच बॉक्स में जो बिस्कुट रखे थे, वे तुमने खाए या नहीं ?’’
गौरव ने अपने बालपन की मधुर भाषा में कहा, ‘‘नहीं मम्मी, हमारी मिस ने हमें टॉफी दी, हमने वही टॉफी खाई थी। बिस्कुट खाने का हमारा मन ही नहीं किया।’’ इतना कहकर गौरव अपनी माँ को देखने लगा।
गौरव के मुँह से यह बात सुनकर लक्ष्मी की ममता मुसकरा उठी। उसके गाल पुचकारकर वह खाना लेने अंदर चली गई।


:दो:



गौरव को स्कूल जाते हुए तीन महीने हो गए थे। अब उसकी कक्षा में पढ़ाई भी तेजी से चल रही थी। प्रतिदिन पर्याप्त गृह-कार्य दिया जाता था।
जैसे ही गौरव स्कूल से आता, खाना खिलाकर लक्ष्मी उसे पढ़ने के लिए बैठा देती। दो घंटे पढ़ाने के बाद वह उसे खेलने के लिए छोड़ देती।
आज रविवार होने के कारण बैंक की छुट्टी थी, इसलिए मनोहर भी घर पर ही थे। उनका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था। सिरदर्द व बदन में पीड़ा होने के कारण वे बिस्तर पर ही आराम कर रहे थे।

नन्हा गौरव अपने पापा के पास बैठकर खिलौनों से खेल रहा था। खेलते खेलते उसकी कार का पहिया निकल गया। यह देख वह उदास हो गया। उसने अपने पापा की ओर देखा। उनकी आँखें बंद थीं। एक पल उसे लगा कि सोते हुए पापा को नहीं उठाना चाहिए, परंतु वह बालक जो ठहरा, उससे रहा न गया। उसने पापा का हाथ पकड़कर हिला डाला। वह उन्हें उठाकर अपना खिलौना ठीक कराना चाहता था, परंतु तभी उसने महसूस किया कि उनका बदन बहुत गरम था।
गौरव अपना खिलौना उसी अवस्था में छोड़ अपनी मम्मी के पास रसोई में गया और बोला, ‘‘मम्मी मम्मी, पापा का हाथ बहुत गरम है।’’

यह सुनकर लक्ष्मी चौंक पड़ी ओर बोली, ‘बहुत गरम है ! अरे , बुखार है क्या ?’’ वह अपना काम अधूरा छोड़कर मनोहर के पास आ गई। उसने मनोहर के माथे पर हाथ रखा, मनोहर की आँखें खुल गईं। उनके नेत्र ज्वर के कारण लाल हो रहे थे। उनकी यह हालत देखकर लक्ष्मी बोली, ‘‘अरे आपको तो बुखार हो रहा है। आपने मुझे बताया क्यों नहीं ?’’
‘‘मुझे लगा कि सिर में वैसे ही दर्द हो रहा होगा।’’
‘‘अच्छा,  मैं अभी दवाई लेकर आती हूँ।’’
जाते समय उसने गौरव से कहा, ‘बेटे, मैं डॉक्टर साहब से दवा लेने जा रही हूं, तुम अपने पापा के पास ही बैठे रहना।’’



 

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book